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'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
चंद्रमा सहु भणी सुष करे जी, सूर्य पीडा करे सर्व;
ए गुण दोष सभावना जी, तेथ करवो किसो गर्व. एह आतम महामोहसुं जी, कलंकित होइ जिण शुरू; तेह मंदिर निज हित भणो जी, तेह पर ज्योति प्रतिबुद्ध. ९३० भुवन जम सर्प डंकित गणी जी, कुमति तजि ध्यान ग्रह लद्धः जन्म मरणादि दुष जाणिने जी, सम गिणइ तेहि ज सिद्ध. १० उ० इंद्रीय रक्ष स्मर सिंहथी जी, जन्म दुःष जाणिजे जाण; घूमीया मोह निद्रा की जी, जागे ए कोइ सुभ नाण. ११ उ० कुमति कषाय विष मंझिया जी, जीव सह संत कोइ शांतिः मुक्ति लक्ष्मी मुख देषवा जी, उत्सुक तजि पर भ्रांति. १२ ३० दुष पीडित जग गिणीजी, संत पामै भव तीर; कर्मकलंक अनादिना जी, तुरत धोवै मतिधीर. कर्मकलंक बाधा विना जी, सानंद शुद्ध स्वभाव; संत जिन मोक्ष इम वर्णवे जी, जिहां नही जनम दुषराव १४३० जीवित सर्वनो सार ए जी, नरभव दुरलभ जाण;
१३ ३०
छोडि परमा शुभमति धरीजी, आदरौ आतम नाण. १५३० सठ जन काल अहिलो गमै जी, बुद्ध फल लेइ दुरस्स दुष ज्वाला भर्यौ गहन है जी, एह सुष अंत विरस्स. १६ उ० काम धन जीवित चल अछै जी, वीजली जेम ए फंद; उत्तम जे तजै ते लहे जी, राजविमल सदानंद.
दृहा सोरठा.
संगी थकी विषाद, देहि छीजै रोगयी; आप मरण प्रमाद, आपद दिन प्रति हवे.
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