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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
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नरक भयानक दुष, भोग सुपन सम ठग अछै; सेवै ज्ञानी सुख, पर स्वभाव निस्पृह को. नवि पामै कल्याण, आतम तच न ओलषे; जनम विनश्वर जाण, करमबिडंबन नवि लषे. ३ पोटो बुद्धि विनोद, करि मूरष आपो ठगै चंचल ए आमोद, कार्याकार्य न जाणही. ४ सर्व जीव सम भालि, निर्ममता मनमै धरे; टाली मननो साल भाव शुद्ध मनमें धरै. ५ भविजन चित्त विचार, भाव शुद्धि कारण भावना; मुनिजन मन आधार, कयौ संवेग सुहामणो. ६ भाषी श्रीभगवंत, भावना बारह भावसुं;
भावी टाली प्रांति, मुक्ति गेह सोपान सम. ७ दाल-आश्रव कारण ए जग जाणी यै ॥ एहनी.
भाव अनित्यपणो चित्य भाविइं, ध्यावो आतम ध्यान; इंद्रिय अर्थ विनश्वर जाणीय, सुष दुष असमान. १ भा० भवमें भमतां रे सगपण जे कीया, नीरस आपद थान; देह जोवन ते रोग जरा भयौं, धन जीवित चल मान २ भा० परभाते जे वस्तु निजर पडै, ते मध्याने रे जाय; संसारे सुष दुःख बे बोलतां, दुष अनंत गिणाय.३ भा० भोग भुजंग प्राणहरण कह्या, सेवंतां संसार; वस्तु विनश्वर सवि तूं जाणिनै, छोडि कदाग्रहद्वार. ४ भा० षिणकपणो इम आरिज ऊचरइ, घडीयाल दृष्टांत; घटिका जावे नावे ते फिरी, करि आतम हित षांत. ५ भा० देह अपूरव साश्वत जो हूवै, तो करियै अवकर्मः
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