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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
Awrvinhemmannam
____ अर्थ-तिहां दर्शनमोहनीना त्रण भेद छे, त्रिणे गुण समकीतने रोके छे; यद्यपि समकितमोहनीना उदयथी क्षयोपशमसमकीत छे तोपण मिथ्यात्वनां शुद्ध दल वेदे छे (वेटिं छे) ते सम्यक्त्वमोहनी १ मिश्रमोहनी २ तेमज वळी मिथ्यात्व मोहनी त्रीजी कही. इहां ग्रंथिभेद करतां प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण थाय. सात कर्मनी स्थिति एक कोडाकोडी बाकी रहे सारे. बीजो पूर्वकरण एक अंतर्मुहूर्त प्रमाण करे. बीजो अनिवृत्तिकरण करीने सम्यक्त्व फरसे इहां मिथ्यात्वने चरम समये त्रीण पुंज करे एक शुद्ध पुंज बीजो अविशुद्ध पुंज बीजो अशुश्याम पुंज ए स्थितिना त्रण पुंज करे शुद्ध पुंजनो दल वेदे ते सम्यक्त्व मोहनी १ अर्द्धविशुद्ध पुंज वेदे ते मिश्रमोहनी. २ अशुद्धश्याम दलने वेदे ते मिथ्यात्वमोहनी. ॥१४॥ जियअजियपुनपावासवेसंवरबंधमुक्खनिजरणां। जेणं सदहइ तयं सम्म खइगाइबहुभेयं ॥१५॥ ___अर्थ-जीवतत्स्व चेतनालक्षण स्वरूपमय १. अजीवतत्व चेतना रहित शुष्क काष्टादि २. पुन्न-पुण्य शुभ कर्म ३. पावपाप अशुभ कर्म ४ आश्व कर्मआवरणनो हेतु ५. संवर नवां कर्म आवतां रोजे ६. बंध-जीव प्रदेश कर्म एकतारूप. ७. सकल कर्म क्षय पापे ते मोक्षतत्त्व कहीये ८. पूर्वकृतकर्मनी निजेरा ते निर्जरा उत्व कहीये ९. ए नवतत्व सूधा जाणे-निश्चये करी जाणे व्यवहारे करी प्रवते ते निश्चय सम्यक्त्व कहीजे ते समकीतना घणा भेद छे क्षायक १ क्षयोपशम २ उपसम ३. वेदकादि भेदें करी. ॥ १५ ॥
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