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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः मीसा न रागदोसो जिणधम्मे अंतमुहु जहा अन्ने। नालियरदीवमणुणो मिच्छं जिणधम्मविवरीयं ॥१६॥
- अर्थ-मिश्रदृष्टिने राग नही द्वेष नही जिगधम्मे-जिन वीतरागना धर्मउपरें रागद्वेष नही ते मिश्रदृष्टि, अंतर्मुहूर्त एहनी स्थिति ज होय अन्ने जहा-जेम अन्न उपरे नालियेर द्वीपवासी मनुष्यने अन्न कदी आंखे नहीं दीठो तिणे तेहने अन्न उपरे राग नयी देष पण नथी इम मिश्रमोहनीवंतने जिनधर्म उपर रागदेष नयी. मिथ्यात्व जे ते जिनधर्मथी विपरीत जे अज्ञानमुद्रित थको जीव कुश्रधान जीवादि पदार्थ\ अरोचकबुद्धि ते मिथ्यात्व. ॥१६॥ सोलस कसाय नव नोकसायं दुविहं चरित्तमोहणियं। अणे अप्पचक्खाणों पञ्चक्खाणा ये संजलाँ॥१७॥ __ अर्थ-हवे चारित्रमोहनीना २५ भेद कहे छे-तिहां चारित्रमोहनीना दोय भेद छे. एक कषायमोहनी १ अने बीजी नोकषायमोहनी २ ते कषायमोहनीना १६. नोकषायमोहनीना ९ मेद छे. अ दोनु मोहनीना २५ पचवीस मेद छे. चारित्र गुणने रोके तिणे चारित्रमोहनी कहीजे. तिहां कषाय सोल १६ मेद छे अण अनंता-बंधीना ४ भेद-अनंतानुबंधी क्रोध १ अनंतानुबंधी मान २ अनंतानुबंधी माया ३ अनंतानुबंधी लोभ ४। अप्रत्याख्यान देशविरतिने रोके. तेहना ४ भेद-अप्रत्याख्यानी क्रोध १ अप्रत्याख्यानी मान २ अप्रत्याख्यानी माया ३ अप्रत्याख्यानी लोभ ४ । प्रत्याख्यान सर्वविरतिने रोके प्रत्याख्यान क्रोध १ प्रत्याख्यान मान २ प्रत्याख्यान माया ३ प्रत्याख्यान
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