________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विचार रत्नसार.
७९९
harhannn.snrnrn.hhhhNNAWALAA
M
A
NAN
जाय छे, संसार परिभ्रमण घणो थाय छे; वळी बीजी रीते विचारीए तो आहारसंज्ञाए शरीरपुष्टि तेणे करी हिंसक प्रवृत्ति, तेणे करी दुःख प्राप्ति, तेथी आर्तध्याननी वृद्धि तेथी दुर्गतिमां अनंतोकाळ जीव भमे छे, माटे उत्तम जीवोने आहार अने निद्रा अल्पज होय छे, एमज भयसंज्ञाए कल्पनाजाळ वधे छे, तेथी रागद्वेषादि मलिनपरिणति वधे छे, तेथी अष्टकर्मनो निविडंबंध थाय छे, चतुर्गतिभ्रमण वारंवार थाय छे; तेमज मैथुनसंज्ञाए विषय सेवे, तेथी पोताना रत्नत्रयी गुणने आवरे, तेथी जीव संसारमा सर्वत्र हीणअकल, मूढ़, दरिद्री थयो थको घणी अशाता सर्वत्र पामे; एवी रीते परिग्रह संज्ञाए कषायबंध घणो थाय, तेथी संसार दी थाय, एम आ संसारना मूळ हेतुरूप जीवने आ महा बाधककारी अनादिकाळनी लागेली भववासना डाकणोरूप चार संज्ञाओ छे, तेने जेम बने तेम उत्तम जीवे ज्ञान ने वैराग्य शक्तिये, परमात्माना शरणे जइने वश करवानो प्रयत्न करवोए चारमाथी पहेली बे आहार अने भय संज्ञा साधुने छठ्ठा सातमा गुणठाणाथी निवर्तेछे. मैथुमसंज्ञा नवमे गुणठाणे निवर्ते छ; अने परिग्रह, लोभ, ममतादि दसमे गुणठाणे निवर्ते छे; माटे गुणठाणानी विशुद्ध परिणति पामवा माटे ए चार संज्ञानी मंदता थवी जोइए; तेनी तीव्रताए जीव निगोद सुधी जाय छे अने मंदताए उर्ध्वगतिए चढे छे; केम जे जीवने
HEREHHHHI
For Private And Personal Use Only