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विचार रत्नसार.
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९६ प्र०-द्रव्येंद्रिय तथा भावेंद्रियनो भेद समजावो तथा ते
शाथी भरेल छे ? ते कहो. उ०-द्रव्येंद्रिय ते आकार विशेष जाणवी ते मळ, मूत्र,
रुधिर, मांसादि अशुभ पुद्गलथी भरी छे; भावेंद्रिय ते इंदियद्वाराए उपलब्ध विकारी ज्ञान ते रागद्वेषादि
विकारोथी भयुं छे. ९७ प्र०-आहारादि चार संज्ञान स्वरूप सविस्तर कहो. उ०-१ आहारसंज्ञाथकी जीव अनादिकाळनो पुद्गल खान
पानादि वासनाथी निरंतर भरेलो अतृप्त वर्ते छे, २ भयसंज्ञाए चारे गतिमां सदा कंपतो रहे छे, ३ भैथुनसंज्ञाए इंद्रिय विषयभिलाषिपणे भमतो फरे छे, ४ परिग्रहसंज्ञाए धन, स्त्री, पुत्रादिनी निरंतर ममताए मेळवू मेळवू करी रह्यो छे, तेणे करीनेज सदा कषायतापे तपेलो, संसारमा ढोकळांनी पेठे सीजाय छे, छतां सुख मानी रह्यो छे, ए चार संज्ञामध्येथी पहेली आहारसंज्ञा ते वेदनीय कर्मजनित छे, शेष त्रण मोहनीयजनित छे, वळी आहारसंज्ञाए शरीरपरत्वे हिंसादि अनेक पापकर्म हेतु प्रवर्ते छे, हिंसाथी कर्मो घणां थाय छे, एथी पापबंध वधे छे, अने तेथीज अशाता वेदनीय प्रबळ पामे छे; तथा भयसंज्ञाए कल्पना कर्मयोगे व्यक्ताव्यक्तकर्म बंधाय छे; तथा मैथुनसंज्ञाए विषयना अने परिग्रहसंज्ञाए कषाय वृद्धिना घणा तीव्र कर्म बंधाय छे; एम चारने जोरे जीव अधोगतिए
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