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विचार रत्नसार
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चार प्रकारने यथाशक्ति सविनय सेवम करी कोइ परस्पर दुढ़वाय नहि, एम जे उत्तम प्राणी यथार्थ स्याद्वाद रीते जाणीने पाळे ते सुलभबोधी थइ वहेलो सिद्धि बरे; एवीज रीते जे माणी क्रियाविधि आदरे, ध्यानपूर्वक उपयोग शुद्ध राखे, ते प्राणीना सर्व मनोवांछित पूर्ण थवा साथे शीघ्र परमात्मस्वरूपने पामे.
२२ प्र० -त्रण प्रकारना कर्मनुं स्वरूप समजावो ?
उ०- द्रव्य कर्म ते ज्ञानावरणयादि आठ कर्मोनी पुदगलदलिक वर्गणा, २ नोकर्म ते औदारिकादि पांच शरीर. ३ भावकर्म ते आत्मानी अनादि काळनी प्रदेशे लागेली रागद्वेषनी अशुद्ध परिणति; ते मध्ये द्रव्यकर्म तथा नोकर्म पुद्गगलाश्रित छे, भावकर्म आत्माश्रित छे; पहेलां बे कर्म विनाशी छे केमजे अनादि अनंत अभव्याश्रि अने भव्याश्रि अनादि तथा सादि सांत भांगे आत्मप्रवृत्तिरूप होवाथी छे, तथा हर्षोल्लास ते भावकर्म आश्रित छे. अहिं
थकी आवात विशेष स्पष्ट थशे तेथी कहीए छीएः- के जेम एक चोखा नामना धान्यनी कोठी छे, तेमां धान्य जे छे ते द्रव्य कर्म, अने कोठी ते नोकर्म, अने चोखाने लागेलो जे मिणो ते समान भावकर्म चीकासरुप आत्मानी अशुद्ध परिपति जाणवी.
२३ प्र०- अरिहंतादि नव पदनो भावार्थ तथा ते प्रत्येकनुं
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