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विचार रत्नसार.
तन्मय ध्यान करतां थकां शुं? शुं ? गुण निपजे ते मिन्न भिन्न कहो ?
३०-अरिहंतादि पंचपरमेष्ठिमहाराजनुं स्मरण करतां उद
यकर्मनु निवारण थाय; अरिहंतादिनुं द्रव्यथी शरण करे तो द्रव्यथी उदय आवतां सर्व पाप निष्फळ थाय, विपाक वेदना पण अल्प थाय, इत्यादि घणो गुण निपजे, सर्व द्रव्यपापनो नाश थाय, एम आत्मा आत्मानुं स्मरण करे, ध्यानगत् वज्रपिंजरवत् पोताने स्वरूपे परिणमे, त्यारे सर्व कर्मनो नाश करे, एम आत्मस्मरण तथा निमित्तस्मरण, स्वरूप जाणवू; हवे अरिहंतने संभारतां, समरतां, परिणमतां आत्माने जे गुण निपजे ते कहिए छीए, १, अरि एटले रागद्वेषरूप भावशत्रु तेनो नाश थाय, अने वीतराग स्वरूप प्राप्त थाय, २ तेम सिद्धपदनुं तन्मय ध्यान धरतां आत्मा निष्पन्न अरुपि परमात्मभावने पामे, ३ तेम आचार्यपदनुं ध्यान धरतां शुद्ध पंचा चार प्रवर्तन शुलभ उदय आवे, भवांतरे आचार्य गणधरादिपद पामे, ४ उपाध्यायपदनुं ध्यान धरतां शास्त्रार्थ सूत्रार्थ सुलभ थाय, अध्यापक शक्ति भवांतरे प्रगटे, साधुपदन ध्यान धरतां मुक्तिमार्गनी साधना सुगम थाय, सुलभबोधिपणुं प्रगटे, वळी चारित्र सुकर थाय, गजसुकुमालनी पेठे शीघ्र मुक्तिपद पामे; ६, दर्शनपद आराधतां सम्यक्त्व निर्मळ करे, वस्तु प्रतीति दृढ थाय, परमात्मस्वरूपनो
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