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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सर्व देहमे संचरे, थिर धारे सहु देह, वधे सुधि कुंभक धरयां, अक्षय सुख दे एह. पावे निश्चल मनथकी, अहे उत्तम ध्यान; बाह्य रीत तजि दृष्टी धरि, निश्चल नासाथान. 'धुरि अकार हं अंतपद, रेफ बिंदु शिवरूप; ज्ञानज्योति गुण आगलो, निकर्मा सुख भूप. अन्य सरवयी पांचिने, मन राषे एक टामः साध्य सिद्धि एकत्व कर, साधे शिव सुख काम. १० परम मंत्र परमातमा, साध्यां सिद्ध लहंतः अंतर बाहिर भेदयी, ते दापीजै मंत.
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ढाल - आदर जीव क्षमा गुण आदर. एहनी ॥
व्यावो व्यान पदस्थ विचारी, अंतरंग बहुरूपी जी; अंतरंग शिव सुखनो साधक, बाह्य पुण्य सुख भूप जी. व्यावो० १ कामताप दुःख व्याप गमावे, ह्रीं अक्षर एहजी; ज्ञानरूप निरमल अविनासी, ओं ए गुण गेहजी घ्यावो० २
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उक्तं च-- अरिहंता असरीस, आयरिया उवज्झाया; तहा मुणिणो, पढमरकरनिप्पन्नो; ओंकारो परमिट्ठी. १
हृदय कमल धरयो कर्म नसावे, श्वेत वरण स्वर युक्त जी; रक्त वर्णयी जगमे क्षोमेः प्रीते रीपुथी मुक्ति जी. ध्यावो० ३ श्याम रंग व्यायां जग मोहे, बाह्यरूप ओंकार जी; जाणे को मुनि इणरो महिमा, बीजो न रहे पार जी. व्यावो० ४ पण परमेट्टी ज्ञानादि त्रय, दिशे विदिशे अड पत्र जी विचे ओंकार रूप शुद्धतम, दुविधे न साधे त्रस जी. ध्यावो० ५
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