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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
संज्ञी पर्यापति ह्वो ए, पंचेंद्री तिर्यचः नव नव गति प्राणी लहे ए, पाप पुण्यने संच. दु० २ नरभव कुल जात्यादिकें ए, पामे उत्तम योग दु० काकताली न्याये लह्यो ए, आउ बुद्धि अ सोग. ३ दु० विषय तजे सम आदरे ए, पूरव पुण्य प्रमाणः दु० निश्चय तत्त्वजो नवि ग्रहे ए, तो सुष सम सहु जाण. ४दु० अति दुरलभ जिन धर्म लही ए, म करि प्रमादनी तात; दु० रतन अय मारग लही ए, मूष ग्रहि मिथ्यात. ५ दु० पाप भ्रष्ट परने करे ए, मत पाषंड देषालि; दु० तजि विवेक माणिक समौ ए, आदरे अपनी चाली. ६ दु० अवर सासण मिथ्या अछे ए, अणजाण्या रमणीक; दु० ज्ञान विना इंद्रीदमे ए, विण लाधे धर्म ठीक. ७ दु० विरत न भवउदधिमें ए, नरने सोहिलो नांहि; दु० रयणउदधि पड्यौ आवणौ ए, दोहिलो जेम कहाय.८ दु० सुगम सकल वस्तु नगतनी ए, अहि-सुर-नर-पति राज; दु० कुल बल स्त्री सुष सोहिला ए, दुरलभ बोधि समाज. ९ दु० ज्ञानी भावना क्रीडतो ए, पामै अविचल राजा दु० मोह रागादिक क्षय गया ए, ज्ञान भाव सुणि गाज. १० दु० एहवी द्वादश भावना ए, निश्चय शिव दातारः जे शिव संगम लालची ए, ते करे भावना प्यार. ११ दु० प्रसन्न हृदय जोगीतणो ए, भावना करै उदारः सुभचंद्राचारिज कह्यो ए, भावनानो अधिकार. १२ दु० देवचंद्र कहै रंगस्यूं ए, शास्त्रतणे सहि नाण, दु.
साहाय्य कुंभकरण तणै ए, खंड चढ्यौ परमाण. १३ दु. इति श्रीज्ञानावे योगप्रदीपाधिकारे पंडितदेवचंद्रविरचिते ढालभाषाबंध-द्वादशभावनापरूपक-प्रथमपंडः संपूर्णः ॥ १ ॥
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