________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार
सबगं च सामन्नं * एतत् महासामान्यं गवि गोत्वाः दिकमवांतरसामान्यमिति संग्रहः ॥
अर्थ ॥ हवे संग्रहनय कहे छे सामान्ये मूल सर्व द्रव्य व्यापक नित्यत्वादिक सत्तापणे रह्या जे धर्म तेनो जे संग्रह करे ते संग्रह कहिये तेना बे भेद छे १ सामान्य संग्रह, २ विशेष संग्रह दली सामान्य संग्रहना बे भेद छे १ मूल सामान्य संग्रह, २ उत्तर सामान्य संग्रह वली मूल सामान्य संग्रहना अस्तित्वादिक छ भेद छे ते पूर्वे कह्या छे तथा उत्तर सामान्यना बे भेद छे, १ जातिसामान्य, २ समुदायसामान्य तिहां गायना समुदायमां गोत्वरूप जाति छे तथा घटसमुदायमां घटत्वपणो अने वनस्पतिने विषे वनस्पतिपणो ते जातिसामान्य कह्यो अने आंबाना समूह, विष अंबवन कहे तथा मनुष्यना समूहमां मनुष्य ग्रहण थाय ते समुदाय सामान्य ए उत्तर सामान्य ते चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शनने ग्राहीक छे अने मूल सामान्य ते अवधिदर्शन तथा केवल दर्शनथी ग्रहवाय छे अथवा १ सामान्यसंग्रह, २ विशेषसंग्रह तिहां छ द्रव्यना समुदायने द्रव्य कयु ए सामान्य संग्रह इहां सर्वनो ग्रहण थयो छे अने जीवने जीवद्रव्य कही अजीव द्रव्यथी जूदो भेद पाड्यो ए विशेष संग्रह ए विशेष संग्रहनो विस्तार घणो छे तथा विशेषावश्यकथी संग्रहनयना चार भेद ते लखियें छैयें मूल पाठमां कहेली गाथानो अर्थ छे. ___संग्रहणं के० एकठो एकवचन मध्ये एक अध्यवसाय उपयो
* एकं सामान्य सर्वत्र तस्यैव भावात् तथा नित्यं सामान्यं अविनाशात् तथा निरवयवं अदेशत्वात्, अक्रियं देशान्तरगमनाभावात् सर्वगतं च सामान्यं अक्रियत्वादिति ॥ 20
For Private And Personal Use Only