________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विचार रत्नसार.
उ०-१ सम एटले उपशम कहेतां पारमार्थिक अकषायि
पणुं एटले अपराधिशत्रुनुं पण चित्तमां अंतरंग परिणामे कदी माटुं चिंतवे नहि, २ संवेग ते एकांत शुद्धपरमात्मस्वरूपसुखनीज अभिलाषा, ३ निर्वेद ते संसार थकी उदासीनता तीव्रउद्विग्नता, ४ अनुकंपा, ते प्राणीमात्रने आत्मवत् लेखी कोइ उपर पण मारातारापणानो भिन्नभाव न गणे, लुखा व्यवहारे वतै, अंतरंगथी सदा न्यारो लखे छतां सर्वउपर आप समान दया भाव दृष्टि, ५ आस्तिकता ते शुञ्ज जिनवचन उपर एकांत
दृढ चित्त प्रतिबंधरूप श्रद्धा, गाढ सत्य मान्यता. १७६ प्र०-आत्मा बंधक छे, अबंधक छे, भोक्ता छे, अभोक्ता
छे, कर्ता छे, अकर्ता छे ते शुं ? उ०-निश्चयनये अबंधक, व्यवहारनये बंधक, एमज
भोक्ता कर्तादि व्यवहारे आत्मा जाणवो, अने निश्चये एटले मूळस्वरूपे अपरिणामिकपणे एटले स्वरूपपरिणामे अभोक्ता, अकर्ता, स्वरूपभोक्ता
स्वरूप कर्ताज कहिये. १७७ प्र-त्रणआत्मानुं मूळस्वरूप कहो. .. उ०-१ बहिरात्मा ते देहादिकने आत्मबुद्धिए अहंभावे
एकांते बाह्यदृष्टिए पोतारूप समजे, जेवू देखे तेवुज माने, पण अंतरंगदृष्टिए कई विचारे नहि के समजे नहि ते एकांतमिथ्यादृष्टि पहेलेगुणठाणे जाणवा, २ अंतरात्मा ते आत्मा अने देहादिक
For Private And Personal Use Only