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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
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पुद्गल छे एटले ए काल द्रव्य ते कालपणे भिन्न पिंडपणे ठेरयो नही उपचारेंज ठेरचो एम मानवो.
इहां कोइ कहे जे एक एक द्रव्यने विषे अनेक अनेक पर्याय छे ते कोइ पर्यायने द्रव्यपणो न कह्यो अने एक वर्त्तना पर्यायने विषे द्रव्यनो आरोप शा माटे करयो ? तेने उत्तर ए वर्त्तना परिणति ते सर्व पर्यायने सहकारी छे अने सर्व द्रव्यने छे तेथी मुख्य पर्याय छे माटे एने द्रव्यनो आरोप छे ते पण अनादि चाल छे.
एते पञ्चास्तिकायाः सामान्यविशेषधर्ममया एव तत्र सामान्यतः स्वभावलक्षणं द्रव्यव्याप्यगुणपर्यायव्यापकत्वेन परिणामिलक्षणं स्वभावः तत्र एकं नित्यं निरवयवं अक्रियं सर्वगतं च सामान्यं । नित्यानित्य निरवयव सावयवः सक्रियता हेतुः देशगतः सर्वगतं च विशेषपदार्थगुणप्रवृत्तिकारणं विशेषः । न सामान्यं विशेषरहितं न विशेषः सामान्यरहितः ॥
अर्थ || हवे ए पंचास्तिकाय ते सामान्य विशेष धर्मंमयी छे ते सामान्यनुं लक्षण विशेषावश्यकें कहां छे. तिहां प्रथमयी स्वभावनुं लक्षण कहे छे. जे द्रव्यने विषे व्यापतो होय तथा गुण पर्यायमां पण व्यापकपणे सदा परिणमतो थको पामियें तेने सामान्य स्वभाव कहियें ते सामान्य स्वभाव जे होय ते एक होय तथा नित्य अविनाशी होय तथा निरवयव के० जेहने अविभाग रूप अवयव न होय अने सर्व गत के० सर्वमां व्यापकपणे होय ते सामान्य स्वभाव कहियें. जीवादि द्रव्यने विषे एकपणो ते पिंडपणे छे ते सर्व द्रव्यने
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