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विचार रत्नसार.
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४१ प्र० - योगप्रत्ययिक सत्तागत, मिथ्यात्वप्रत्ययिक अने अविरतिप्रत्ययिक बंधकृतकर्मों शी रीते टळे ?
उ०- अशुभ योगे बांधेलां कर्म तप संजमादि शुभ क्रिया व्यापारखडे, सत्तागत कर्मों शुद्धोपयोगे, स्वद्रव्य पर्याय परिणाम वडे, स्वभावाचरण शुद्ध ध्यानालंबनवडे निर्जरे: सम्यक दर्शनवडे मिथ्यात्व प्रत्यइयां टळे, अने अविरति प्रत्यइयां, विरति परिणामे टळे, ते विषे कहां छे जेः
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दुहा.
आगमे अध्यातमतणा, कह्या वणा प्रबंध; द्रव्यगुणयोगे परिणमे, तो सोनुं अने सुगंध.
४३ प्र० - कषाय, प्रमाद, इंद्रियविषयराग, अने योग प्रत्यइयां बांधेलां कर्म टाळवाना उपाय कया ? उ०- कषाय प्रत्यइयां, उपशमादि समताभावे टळे; प्रमादे बांधेलां अप्रमाद दशावडे टळे; विषय राग प्रत्यइयां तपस्यावडे टळे; अने योग प्रत्यइयां अयोगी दशाए शैलेशीकरणे प्रवर्ततां टळे.
४४ प्र० - निश्चयनय अने व्यवहारनय जीवने शुं गुणकारी छे ? उ०- सम्यकदृष्टि जीव श्री जिणप्रणीत स्याद्वादना जाण, जैनशैलिना उपयोगी बोधवान भव्यप्राणीओने निश्चयनय दृढता, आस्तिकना करणहेतु छे; अने व्यवहारनय ते जीवना पर्याय शुभाशुभ कर्म रूपे जे गर्या छे, तेने संभवाना हेतुरूप छे; व्यवहारनय के उद्यम है, अने निश्चयनय केडे चित्तनी स्थि
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