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विचार रत्नसार.
रता, दृढता छे; एम ए बे नयो आत्मद्रव्यने समावामां समकाळे गौणता मुख्यताए गुणकारी छे; माटे एमांथी एकपण नयने उत्थापे के एकांते निषेधे तो जीव एकांतवादी मिथ्यात्वी जाणवो, एम श्री जिनेश्वर भगवंतनी वाणी छे, ते यथार्थ सदहवी.
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४५ प्र० - निश्रय अने व्यवहारनुं सम्यक् स्वरूप स्पष्ट समजावो ? उ०- श्री जिनवाणी प्रतीते ग्राहिने पट् द्रव्यना यथार्थ -
पणे गुणपर्याय धारे, अनुभव प्रत्यक्षे स्वरूपने वेदे, तथा गुणपर्यायसुं बिलेखन करे, तथा पुद्गलादिक कर्म पर्यायां तदाकार न परिणमे, पांच इंद्रियना भोग विषयो इष्टानिष्टरूप न वेदे, पोताना स्वरूपने भेद रत्नत्रयीरूपे आराधे, तेने व्यवहार सम्यक्त्वी कहिये ; तथा पोताना गुण गुणी पर्याय अभेदरूपे रत्नत्रयरूपे, निर्विकल्प समाधि परिणमे तेहने निश्चयसम्यक्त्वी कहीए; त्यां व्यवहार सम्यक्त्व ते निश्चय सम्यक्त्वनुं कारण छे; अने निश्चय सम्यक्त्व ते केवळ ज्ञानं कारण छे.
४६ प्र० - पूर्वोक्त उभय सम्यक्त्वीने व्यवहार प्रवृत्तिए शुं लाभ थाय ?
उ०- नवतच्व, एद्रव्यादिकतुं आस्तिक श्रदान, देव गुरु धर्मं यथार्थ श्रद्वान, तदा विशेष प्रकाशे करी तच्चातवनुं नय मार्ग विशेष रीते अवलंबन थतां
श्रीकांत
परंपराए
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