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विचार रत्नसार.
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वस्तु व्यवहारसम्यक्त्व जे पूर्वे कां छे, ते रूपने
मेळवी आपे.
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४७ प्र० - धर्म, कर्म, पुण्य अने पाप केवी रीते तेना भिन्न भिन्न फळ शा शा छे ? ते उ०- जीव शुकोपयोगे वर्ततां एटले पोताना द्रव्यगुण पर्यायी तन्मयपणे परिणमे त्यां ते धर्म करे, अने रागद्वेषमय अशुद्धोपयोगे वर्ततां कर्म बांधे, एम शुक्रोपयोगे धर्म अने अशुद्धोपयोगे कर्म निपजे छे, तथा शुद्धोपयोगे शुभयोगे पुन्य बांधे, अर्थात् मन वचन कायाना योग प्रशस्तभावे तथाविध गुणानुरागे पूजा, सामायक, प्रतिक्रमण, पोसह, सिद्धांत श्रवण, अभ्यास, मनन, दानादि शुभ योगे प्रवर्ततां जीव पुण्यानुबंधी पुण्यनो रस ढाळे तेमज वळी अशुभ मन वचन कायानां योगे विषयादि प्रवृत्तिए, अप्रशस्तभावे, तदाकार अभिरूपे परिणमतां जीव निविड पापबंध करे, हवे तेनां फळ कहिये छीए: - पुन्यथी शुभ गति, शुभ सामग्री, शाता, अनुकुलतादि शुभ संयोग जीव पामे, तथा शुद्धोपयोगी धर्मवडे कर्मनी निर्जरा करी मुक्तिपद पामे; तथा अशुद्धोपयोगे वर्ततां पाप बांधे, तेयी जीव संसारमां घणो काळ रहे, घणा भव करे, अशुभोपयोगे कठीन पापबंध करीने जीव ज्यां त्यां घणी अशाता पामे; सारांश जे पापे अशाता, पुण्ये शाता, कर्मे संसार अने धर्मे मोक्ष थाय छे.
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थाय छे, अने बराबर कहो.