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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
यानुगत परिणामि एवा जे स्वभाव ते विशेष स्वभाव कहिये. तेना अनेक भेद छे. ते श्रीहरिभन्दसूरिकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय ग्रंथमां कह्या छे ते कहे छे..
१ सर्व द्रव्यने पोताना गुण समय समयमा कार्य करवे प्रवः ते मिन्नमिन्न परिणामे परिणमे ते सर्व पोताना गुण तेने कारणिक छे ते परिणामिकपणो कहिये, २ तत्र कर्तृत्वं जीवस्य नान्येषां तिहां आत्मा कर्ता छे एटले कर्त्तापणो जीव द्रव्यने विषे छे. " अप्पा कत्ता विकत्ता य” इति उत्तराध्ययनवचनात्, ३ ज्ञायकता जाणपणानी शक्ति जीवने विषे छे. ज्ञानलक्षण जीवछे. ते माटे गिन्हई कायिएणं इति आवश्यकनियुक्तिवचनात्,४ ग्राहकशक्ति पण जीवने छे. गृह्णावीति क्रियानो कर्त्ता जीव छे, ५ भोक्ताशक्ति पण जीवमांछे. “जो कुणइ सो मुंजइ यः कर्ता स एव भोक्ता” इति वचनात्. १ रक्षणता, २ व्यापकता, ३ आधाराधेयता, ४ जन्यजनकता तत्वार्थवृत्ति मध्ये छे तथा अगुरुलघुता, विभुता, करणता, कार्यता, कास्कता, ए शक्तिनी व्याख्या श्रीविशेषावश्यकें छे, भाबुकता तथा अभावुकता शक्ति ते श्री हरिभद्रसूस्कृित भावुक नामे प्रकरण मध्ये कहि छे..
एम केटीक शक्ति जैनना तर्कग्रंथो जे अनेकांतजयपताका सम्मति समुखमां छे तथा ऊर्च प्रचयशक्ति अने तिर्यक् प्रघयशक्ति ओघशक्ति, समुचितशक्ति, ए सर्व संमतिग्रंथने विषे छे. तथा जे द्विगुणी-आत्मा माने ते सर्व धर्म शक्तिरूप ज माने छेतेणे दानादिकलब्धि अव्याबाध सुख प्रमुख शक्ति मानी छे. इहां व्याख्यांतरे जे गुणकरण छे तेने कर्तादिकपणो ते सामर्थ्य छे, जाणवो देखवो ते कार्य छ, केटलीक शक्ति जीवमां ज छे, अने केटलीक पंचास्तिकाय मध्ये छे. तथा
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