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ध्यानदीपिका चतुष्पदी.
विद्या गरुवाई गमे रे, निज रक्षा नवि थायः सज्जन पण निंदा रहे रे, तस्कर संग पसाय. घात करें तृणनी परे रे, चोर भणी सह लोक पंडित पिण मूरष दुवे रे, मुनि पिण पामे शोक. ६ च० घोर नरक दुःष धैस सही रे, चोरी केरी बुद्धिः एहनी संगति ते तजे रे, जे चाहे निज शुद्धि गिरवर नपरन परबत में पड्या रे, परधन लीजे साहि तृण सम पिण परवस्तुनी रे, मत मन घरजे चाहि. ८० शिव सुपनी जे चाह छे रे, राषण चाहे धर्मः मुख चाहे परभवेरे, तो तजि एह कुकर्म. ९ च०
विरति मूल यम साष छे रे, संयम दल सम फूल: पंडितजन पंषी अछे रे, फल ते ज्ञान अमूल. धर्म वृक्ष एहवो दहे रे, चोरी मत मन आणिः परउपगारी आदरो रे. देवचंदनी वाणि.
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१० २०
११ च०
दूहा. ब्रह्मचर्य पाल्यां कां, ब्रह्म लहे योगींद्रः सप्रपंच ते वरण, धरज्यो ए व्रत चंद्र. ब्रह्मचर्यं जगे सत्य छे, मोटो महिमावंतः संयम जीवन एह छे, धर्मवंत गुणवंत. दीन हीन आचार विण, रापी सके नवि तेहः अंत विरस दुःषदाय छे, दसविध मैथुन एह. तनु शोभा रस सेवना, तीजो नारिस रंगः अशुभ संग चिंता विषय, वली देषे स्त्रीअंग. खाने आदरमान दे, याद करे ततः नवमी चिंच आगमन, दस
कसो पात.
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