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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
हवे जीवस्थामके उपयोग कहे छे. संज्ञीपंचेन्द्रीपर्याप्तामें बारे उपयोग छ १२. पांच ज्ञान, त्रिण अज्ञान, च्यार ४ दर्शन. ए बार उपयोग कया. ॥८॥ पज्जचउरिदिअसन्निसु, दुदंसदुअनाणदससु चक्षु
विणा। सन्नि अपज्जे मणनाण-चक्खुकेवलदुगविहणा ॥९॥ ___ अर्थ-चौरेन्द्री पर्याप्तामें, असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्तामें दोय दर्शन, चक्षुदर्शन १, अचक्षुदर्शन २. दोय २ अज्ञान-मतिअज्ञान १, श्रुत अज्ञान २. ए ४ च्यार उपयोग छे. सूक्ष्म पर्याप्तो १, सूक्ष्म अपर्याप्तो२, बादर पर्याप्तो ३, बादर अपर्याप्तो ४, बेन्द्री अपर्याप्तो ५, बैन्द्री पर्याप्तो ६, तेन्द्री अपर्याप्तो ७, तेन्द्री पर्याप्तो ८, चौरेन्द्री अपर्याप्तो ९, संज्ञी अपर्याप्तो १०. ए दस जीवस्थानकभेदमें चक्षुदर्शनविना ३ ण ते मतिअज्ञान १, श्रुतअज्ञान २, अचक्षुदर्शन ए तीन उपयोग छे. संज्ञी पंचेन्द्री अपर्याप्तीने-मनःपर्यवज्ञान १, चक्षुदर्शन १, केवलज्ञान ३, केवलदर्शनं ४, ए च्यार ४ उपयोग नहीं; बाकी त्रण ज्ञान ३, त्रण अज्ञान ३, दोय दर्शन २. ए आठ उपयोग छे. ॥९॥ सन्निदुगिछलेसअप-जबायरे पढमचउतिसेसेसु । सत्तट्ठबंधुदोरण-संतुदया अट्ठ तेरससु ॥ १० ॥
अर्थ-हवे जीवस्थानके लेश्या कहे छे-संज्ञीपंचेन्द्री अपर्याप्तो ए दोयमे ६, छ लेश्या छे, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रीने पहेली च्यार ४ लेश्या छे-कृष्ण १, नील २, कापोत ३, तेजो ५, ए च्यार के. शेष ११, जीवस्थानके तीन लेश्या छे--
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