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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
वाचक आगम परमागमना, ज्ञानधर्म गुणज्ञाता रे, आतम अनुभवरस मानससर, राजहंस विष्याता रे. उप० १६ शुफादेय अमोल अरूपी, देवचंद्र नित ध्यावो रे अक्षय निज परमातमनो शिव, आनंद सिंधु रस पावो रे. उप०१७
इति श्रीज्ञानानवे योगप्रदीपाधिकारे पं० देवचंद्रविरचिते ढालभाषाबंधे पंचसमितित्रिगुप्तिमोहजयवर्णनो नाम तृतीयः पंडः॥३॥
दूहा. दान शील तप भावसुं, मीलियां जिम सुषदाय; तिम आतम गुण साधवा, चोथो पंड कहाय. ? वसु सहज अणजाणता, जन छे अज्ञ अनेक आनंदी भवभय विना, दोय तीनके एक. उपशम मुनिने मन रह्यो, ध्यान विना थिर नाहि; ध्यान थिरे शम थिर अछे, भेद नही इणमाहि. ३ शम थिर थाये ध्यानथी, कर्म कोटि कटि जाय; धरे ध्यान समवंत मुनि, तजि विभाव पर्याय. ४ भंवदव दाह शम्या विना, ध्यान पीरनिधि जेम; ध्यान सिद्ध साधक प्रवर, दुरति काष्ट दव तेम. ५ अशुफ ध्यान दुष ध्यान तजि, मुक्ति बीज भजि ध्यान; के मूरख माने इसो, नरक दायने ध्यान. काम क्रोध पीडित करे, रिपु हणवाने ध्यान; चाहे कूडां शास्त्र कहि, निज पूजा अभिमान. उभयमार्गच्युत पापमति, ये अशुचि उपदेशः ध्यानी शिवधारक करे, शुद्ध ग्रंथ आदेश.
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