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विचार रत्नसार.
शेठ, मेतार्यजी आदि महात्माओना चारित्र सांभळे थके परम वैराग्य शांत रस प्रगटे, तेथी नोकर्मनो
रोग टळे. ८६ प्र०-दर्शनादि अनंत चतुष्क प्राप्तिना कारण तथा स्थान
कहो. उ०-१ धर्म रूचिथी सांभळवो, तथा ज्ञानाभ्यासमां उद्यम
रूचि होय तेटलाथी सम्यग्दर्शन गुण प्रगटे; २ तत्त्वातत्त्वगवेषक बुद्धि होय तेथी सम्यग् ज्ञानगुण प्रगटे, ३ पांच इंद्रिय विषय विकार, क्रोधादि कषाय, पांच प्रमाद इत्यादिनी जे त्याग बुद्धि होय तेथी चारित्रगुण निपजे, ४ वस्तुगते, स्वरूपानुभव लग्नता, तल्लीनता होय तेथी वीर्यगुण प्रगटे हवे ते चारेनां स्थान कहे छेः-दर्शनगुणवें स्थान चक्षु, ज्ञानगुणर्नु स्थान हृदय, चारित्रगुणनुं स्थान चरण, अने उत्साह
इच्छादिरूप वीर्यगुणतुं स्थान बाहु छे. .८७ प्र०-अहिंसानुं स्वरूप तथा तेना विविधभेदो दृष्टांत सहित
समजावो. उ० मूल जूनी हस्तलिखित प्रतिमां हिंसाना भेदो संबंधी प्रश्न छे. स्वरूप हिंसा, अनुबंध हिंसा, द्रव्य हिंसा, भाव हिंसा, बाह्य हिंसा, परिणाम हिंसा, योग हिंसा, इत्यादि हिंसाना घणा भेद छे. साधुजी नदी उतरे छे पण मोक्षवर्ति (मुख्यताए) हिंसाना परिणाम नयी तेथी ते स्वरूप हिंसा जाणवी. तथा सभ्यगदृष्टिने देव पूजा, गुरुवंदना, साधुने आहारदान इत्यादि कार्ये
हिंसा अल्पबंधरूप छेते माटे ते स्वरूप हिंसा कहेवी, 100
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