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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
शापलापी पुनर्नयाभासः, स व्याससमासाभ्यां द्विपकारः व्यासतोऽनेकविकल्पः समासतो द्विभेदः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः तत्र द्रव्यार्थिकञ्चतुर्धा १ नैगम, २ सङ्ग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्रभेदात्, पर्यायार्थिकस्त्रिधा १ शब्द, २ समभिरूढ, ३ एवंभूतभेदात्
अर्थ | जे नय छे ते पदार्थना ज्ञानने विषे ज्ञानना अंश छे. तिहां नयनुं लक्षण कहे छे. अनंत धर्मात्मक जे वस्तु एटले जीवादिक एक पदार्थमां अनंता धर्म छे तेनो जे एक धर्म गवेष्यो तो पण अन्य के० बीजा अनंता धर्म तेमां रह्या छे तेनो उच्छेद नही अने ग्रहण पण नही एक धर्मनी मुख्यता करवी ते नय कहियें. ते नयना व्यास के० विस्तास्थी अनेक भेद छे अने समास के० संक्षेपथी बे भेद छे १ द्रव्यार्थिक, २ पर्यायार्थिक, ते रत्नाकरावतारिकाग्रंथथी लखिये छैये" द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं तदेवार्थः सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्यार्थिकः "
जे वर्त्तमान पर्यायने द्रवे छे अने आगामिककालें द्रवसे तथा अतीतकालें द्रवतो हतो ते द्रव्य कहियें तेज छे अर्थ प्रयोजन विषयपणे जेने ते द्रव्यार्थिक कहिये. एटले पर्याय ते जन्य अने द्रव्य ते जनक को तथा द्रव्य ते ध्रुव अने पर्याय ते उत्पाद विनाशरूप छे उक्तं च.
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“ पर्येति उत्पादविनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः स एवार्थः सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः " जे उपजवा विणशवानो परि के० नवा नवापणे एति के० पामे तेज अर्थ प्रयोजन
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