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विचार · रत्नसार.
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गुण, ४ अधोगति, संक्लेशरूप अशातादि दुःख आपे ते पापनो गुण, ५ शुभाशुभ कर्मर्नु आवq ते आस्रवनो गुण, ६ शुझोपयोगे शुभाशुभ कर्म आश्रवनो निरोध ते संवरनो गुण, ७. नर्वा कर्म पूर्व कर्मनी साथे मळीने बंधाय ते बंधनो गुण, ८ शुभाशुभकर्म, आत्मप्रदेशथी साडन थाय, देशथकी ते निर्जरे ते निर्जरानो गुण, ९ आत्मप्रदेशथी सर्वाशे
कर्म पुद्गलोनो क्षय ते मोक्षनो गुण जाणवो. ६९ प्र०-केवा श्रावकने स्वसमय परसमयना जाण कहिये ? उ०-जीवाजीवादिक नवतत्त्वने यथार्थ जाणे एटले
जीव निर्जरा, संवर अने मोक्षने उपादेयरूपे जाणी आदरे, अने अजीव पुण्य, पाप, आस्रव, अने बंधने हेयरूपे जाणी तेनो त्याग करे तथा नव तत्त्पने चार प्रमाणे, साते नये, चार निक्षेप, द्रव्यभाव भेदे, स्याद्वादशैलिए षड् द्रव्यादि तेना गुण पर्यायना यथार्थ स्वरूप भासन पूर्वक जेणे भले
प्रकारे जाण्या छे तेने ज्ञानी श्रावक कहिये. ७० प्र०-कर्ताए कर्म अने क्रियाए बंध ते शी रीते ? २०-जेवो कर्ता होय तेवु कर्म निपजे, तथा ज्यां जेवा
हेतु त्यां तेवी क्रिया थाय; अने ते शुभाशुभ क्रियाए शुभाशुभ कर्म बंध नीपजे; का छे के:
दहो. कर्ता परिणामी द्रव्य, कर्मरूप परिणाम; क्रिया परजायकी फरे, वस्त एक त्रय नाम.
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HAHTET
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