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विचार रत्नसार.
माटे श्री जैन दर्शन, उपयोगे तथा अक्रियभावे छे. जैन दर्शन श्रद्धान शुद्धोपयोगे छे, अने शुद्धोपयोग आत्मभावे छे, अक्रियभावे छे, अने बीजा योगे क्रिया धर्म छे, एम स्याद्वाद शैली पूर्णतारूप सर्वोत्कृष्ट सर्वोत्तम रीते महा कल्याणदायक श्री जिनशासन जयवंतुं वर्ते छे, तेने हे चेतन !!! तुं अत्यंत
आदरपूर्वक स्विकार ! ७१ प्र०-संवरतत्त्वतुं स्वरूप द्रव्यथी अने भावथी कहो ? उ०-योग प्रत्ययिक कर्मने मुनि तप संजमादिके करी
निर्जरावे छे, अने बीजां आवतां कर्मनो रोष करे छे; तथा अशुशोपयोग प्रत्ययिक कर्मने रत्नत्रयीरूप आत्मिकधर्मने विषे प्रणमावी शुशोपयोगे करी आत्मसत्ताने शुद्ध करी कर्म मळयी मुक्त थाय छे. एम योगसंवर आराधक मुनि, उदय आवतां कर्मने निष्फळ करे, रोके ते द्रव्यसंवर अने उपयोग संवरे करी मुनि आत्मसत्ता शोधे एटले प्रदेशथी कर्म क्षय करे ते भावसंवर, अर्थात् योग संवर ते द्रव्य
अने उपयोग संवर ते भाव. ७२ म०-छद्मस्थ सम्यकदृष्टि, प्रत्यक्ष स्वरूप केम देखे ? उ०-परोक्ष प्रत्यक्ष अनुभवगोचर अनुमान प्रमाण प्रतीते
प्रत्यक्ष वस्तु स्वरूप देखे एटले माने, ते आवी रीतेः-पोताना परिणाम जे शुभाशुभ कर्म जनित छे ते रागद्वेषद्वारे, सम्यक् बुद्धिमार्गे ते परिणामने पोते यथार्थ लखे; ते प्रत्यक्ष देखवू कहिये ते परिणाम आत्मद्रव्यथी शाथी उठे छे ? तो के
बुद्धिमार्गे ।
यथार्थ ल
ते
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