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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
यतन थकी पोता थकी जी, दाप्यो फलनो पाक; तिम ही जांणै कर्मनौ जी, तजि जाणी किंपाक. ७ भ० कांचन सोझे अगनथी जी, तिम चेतन तप आगि; धीर अध्यातम तप तपै जी, जाय जन्म दुष भागि.८ भ० षट विध बाहिज तप कयौ जी, उपवासादि प्रधान; प्रायश्चित्त विनयादिए जी, अंतरंग षटमान. ९ भ० पामी पदवी ज्ञाननी जी, करेय तपस्या साध; तिम तिम तिणथी वेगला जी, नासै कर्म अगाध. १० भ० ध्यान अगनि कर बालीय जी, पूरव करम समूह; तद प्राणी उज्जल हुवै जी, जाणे सोवन व्यूह. ११ भ० तां लगि तप प्राणी करै जी, ध्यान धरै तां सीम; कर्म पपावी ते लहै जी, ज्ञान परम सुष नीम. १२ भ०
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जेण थकी तनु सुचि हुवे, धरै ज्योति तिहां तेही धरमकल्पतरु ते नमो, दया भावनो गेह. चिह्न धरमरा दस भला, दाध्या श्रीजिनराय; जासु अंस सेव्यां थकां, शिव पामे मुनिराय. मिथ्याती न कही सकै, तेहनो सुद्ध स्वभाव; हिंसा पोषक जेहनो, सहू ग्रंथनो राव. चिंतामणि निधि कल्पतरु, कामधेनुइं इत्यादिः सेवक सगला तासु जिण, लाध्यो धर्म अनादि. नर अहि असुर नराधिपति, पदवी आपे एहः पूजनीक त्रय भुवन जे, ते लिषमीनो गेह,
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