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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. MAHARArn.ronhnoranAanana .nnnnnnnArininnrn तजी ढाल-रमणि आठे अति भलि एहनी. जिनप्रतिमा जिनसरीषी वंदनीक. जे पड्या विसनै धर्मरइ, इण चराचर जगमांहि; ते सुष अमृत पूरीयो, पोषे जगत उछाह. १ भवियण भावझू धर्म धरो धरि हेत आंकणी. घन वायु सूरज चंद्रमा, क्षोणी समुद्र सुरेन्द्रः .. ए जगत उपगारी कह्या, रक्षक धर्म नरेंद्र. २ भ० ए सहू जनने पालिवा, दाषीया अधिके तेज; उपगारी निश्चय कयौ, जिनवर धरमसुं हेज. ३ भ० जगमांहि भुक्ति अरु मुक्तिनो, कारण कयौ इक धर्म; पाय नमै धर्मीतणा, देवादिक गति धर्म. ४ भ. गुरु मुक्ति स्वामी बंधु धर्म, सरणौ अनाथां नाथ; ए नरक पडता जीवने, काढे घाली बाथ. ५ भ० पडतां थकां प्राणी भणी, नरकांधकूप मझारः ए धर्म अवलंबन अछे, शुद्ध स्वरूप उदार. ६ भ० ए धर्म अतिशय बहु भयौँ, कल्याणमाला गेह; सर्वज्ञ वैभव द्ये सही, ए नर विघन अछेह. ७ भ० साथै रहै ए एह हित, छै एह रक्षावंत; ऊधरे जन्म कर्दमथकी, थापै पंथ महंत. भ० जिनधर्म सरिषो को नहि, भवमांहि सुषनो ठामः . आनंदपंकजरूप ए, पूजनीक हितधाम. ९ भ० अहि अनल विष व्याघ्रादियी, गजराज राक्षस चोरः ए धर्म टाले सहु भणी, राजादिक भय घोर. १० भ० ए धर्मशक्ति न कही सकै, सुरपति अहिपति कोइ। मुहडे थकी धर्म सहु कहे, तत्त्व न जाणे न लोइ.११ भ० १५ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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