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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
चेतनयी तनु परि गिण्यां, न पलाये मुनि नाण; जग काकर सम ते गिणे, शुद्ध ज्ञान सहिनाण. तन पर दायां शिव नही, जां नवी भेद प्रतीत; सुपने पिण तनुराग तजि, धरी आत्मगुण प्रीत.
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ढाल -- राग धन्याश्री.
भविक जन आतम ध्यान धरो, तजी संकल्प शुभाशुभ बंधक, निज परमारथ वरो. भविक० १ प्रथम बाह्य संयम छे साधक, निश्चय आत्म घरो; जन्म लिंग तन एह अनादि आतमसं ऊपरो. भविक० २
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अंध पंगु निम जोग अथिर छे, त्युं तन मे जीउरो, ज्ञानि आतमज्ञानसे दीन प्रति, तन थै भिन्न खरो. भविक० ३ मदमातो निज पर नवि बूझे, त्युंजी उपज करो; आपापर जाण्या तिन पटणी, निफल गिण सगरो. भविक० ४ वाटि दीपसंगति है दीपक, त्युं शिव यह जीउरो; परमातम रूप ध्यान आराध्यां चेतन उजरो. भविक ५ वचन अगोचर यह परमातम, थिर प्रतीत अपरो; बिना यतन अनुपमपददायक, आतम गुण समरो. भविक० ६ सुपन भ्रांति जाग्यां ज्युं भांजे, त्युं पर भ्रांति हरो; चिदानंद अविनाश अरूपी, निर्विकल्प आचरो भविक० ७ शास्त्राण पिण देहनो रागी, हे बंधक नबुरो, पराधीन सुख स्वाद तजो यह, ज्ञानस्वाद पकरो. भविक० ८ सुष मूल चिद तत्व भणो मुनि, निज शरणो अनुसरो, चढि स्वभाव जिहां जवि भ्रमको, नीरधिलंधि उतसे. भविक० ९
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