________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७३६
कम्मग्रन्थस्य टबार्थः
आउखे युगलिया तेहने बीजी गति जावो नथी ते माटे निरंतर ए ४ प्रकृति बांधे. ॥ ५८ ॥ समयादसंखकालं, तिरिदुगनीएसुआउअंतमुहू। उरलि असंखपरट्टा, सायट्ठि पूवकोडूणा ॥५९॥
अर्थ-समया-जघन्ये १ समय उत्कृष्ट असंख्यातोकाल, तिरिदुग २, नीचगोत्र, ए ३ तीन प्रकृति निरंतर बंधाय, जे कारणे सातमी नरकनो नारकी ३३ सागर सीम ए प्रकृति निरंतर बांधे, जे मिथ्यात्वी होय तेहने बीजी गति, ऊंचगोत्रनो बंध नथी, आउखो जघन्ये तथा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त सीम निरंतर बांधे, जघन्य मुहूर्त्तथी उत्कृष्ट मुहूर्त मोटो जाणवो,
औदारिक शरीर, असंख्याता पुद्गलपरावर्त सुधी निरंतर बांधे, सूक्ष्म, बादर, निगोद, प्रत्येक, एकेन्द्रि मळीने गवेखी जोज्यो. जांसीम (ज्यां सुधी) वेदनीयनो बंध तांसीम अंतर्मुहूर्तथी अविककाल ए बे मांहेली प्रकृति बंधाय नहों परावर्तन छे ते माटे, सातावेदनी देशेऊणी पूर्वकोडि सीम निरंतर बांधे ए सयोगी केवळी गुणठाणानी अपेक्षाए छे. ॥ ५९॥ जलहिसयं पणसीयं, परघुस्सासे पणिदितसचउगे। बत्तीसं सुहविहगइ, पुम सुभगतिगुच्च चउरंसे ॥६॥
अर्थ-पूर्व रीते १८५ एकसोपंच्यासी सागर, पल्य ४ नरभव अधिक कालमान सीम, पराघात, उश्वासनाम, पंचेन्द्रि जाति, सच्यार ४, (बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक ) एम ए ७ प्रकृति निरंतर बंधाये. तथा आगळ कहेशे ते प्रकृति एकसोबत्रीस कालमान निरंतर बांधे. १३२ सागरोपम पूर्वोक्त रीते
१४६
For Private And Personal Use Only