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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
अर्थ-हवे गुणठाणे स्थिति कहे छे. सास्वादन गुणठाणाथी मांडी अपूर्वकरण पर्यंत अथर-सागरोपम अंतो-कोडाकोडी एक कांइक ऊणी स्थिति बांधे, एटले ए ७ गुणटाणे १ कोडाकोडी देशे उणी स्थिति बांधे, पिण नहिगो-अधिकी न बांधे, समकीतीथी देश विरति नवपल्य ओछी बांधे, तेथी सर्वविरति केटला सागर ओछी बांधे, तेथी अपूर्वकरण संख्याता सागरना सेंकडा ओछी बांधे, तथा मिथ्यात्व गुणठाणे अंतः कोडाकोडीथी ओछी न बांधे, अनादि मिथ्यात्वी जघन्य अंतः कोडाकोडी, उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी बांधे ए मिथ्यात्वी भव्य तथा अभव्य संज्ञी आश्रयि कह्यो छे. ॥ ४८ ॥ जइ लहुबंधोबायर, पज्जअसंखगुण सुहुम पजहिगो। एसिं अपजाण लहू, सुहमेअर अपज्जपज्जगुरु ॥४९॥ ___अर्थ-हवे ३६ बोलना स्थितिनो अल्पबहुत्व कहे छे. सर्वथी यती लहु-जघन्य स्थिति बंधके सूक्ष्मसंपराय चरमसमयी सर्वथी थोडी १ बांधे १ अंतर्मुहूर्त बांधे छे. तेहथी बादर पर्याप्तो जघन्य स्थितिबंधक असंख्यातगुणी बांधे, ए सागरना भागनो बंधक छे ते असंख्यातो काल छे ते माटे. तेहथी सूक्ष्म एकेन्द्री पर्याप्तो जघन्यबंधक काइक अधिकी बांधे, एहने थोडो काल वधे छे, एहज बे अपर्याप्ता लहुजघन्यबंधकना बे बोल कहेवा. तेहथी बादर पर्याप्तो जघन्यबंधक स्थिति अधिकी बांधे ४, तेहथी सूक्ष्मअपर्याप्तो जघन्यबंधक अधिकी बांधे ५, तेहथी सूक्ष्म अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे ६, तेहथी बादर अपर्याप्तो उत्कृष्ट स्थितिबंधक अधिकी बांधे ७, तेहथी सूक्ष्म अपर्याप्तो उत्कृष्टबंधक अधिकी बांधे ८,
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