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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
ज्ञानी
इंद्रिय विषय दमो रमो निज ज्ञानस्युं, ज्ञानी० तजि बहिरातमराग लगो निज ध्यानस्युः ज्ञानी० जे तुज दीसे एह सहू पर हेय छे, ज्ञानी० ज्ञान सरूप अनुपसु आतमध्येय छे.. ज्ञानी० ५ ज्ञानी ज्ञेय ज एह अछे निज आतमा, तेह अज्ञानी अंध कीयो परतीतमाः
ज्ञानी निज रागी परत्यागी ज्ञानी निज मलो; ज्ञानी० रज्जु नागभ्रम जेम देहममता दलो. ज्ञानी० ६ नागतणो भ्रम भागे सांकलि तिण कही, ज्ञानी० देहयुझाने त्यागथी चेतना लह लही; ज्ञानी० एक दोय बहु वचन रचनमे प्रभु नहीं; ज्ञानी० ज्ञानगम्य पर ज्योति त्रिगुणमें ए सहि. ज्ञानी० ७ जिणसुरे जगसुप्त जगे जागे सहू ज्ञानी. निज संवेदन गम्य ए आतम गुण ग्रहू; ज्ञानी० रागद्वेषनो नाश हवे जिण ओलषे, नवी को मुज रिपु मीत न कोई मने लषे. ज्ञानी० ८ पूरवकृत भव रीत सुपन सम तेहने,
ज्ञानी. शत्रु मित्र सम रीत गृहे ते निज मने; ज्ञानी० शुद्ध सीपर ज्योति सनातन जाणहूं, ज्ञानी० अक्षय आतम देषो आतम नाणहूं.
ज्ञानी० ९ तजि बहिरातम राग भजो निज आतमा, ज्ञानी० निरमल जाणो नित्य जिसो परमातमा; ज्ञानी० पर संयोगे बंध मोक्षपर त्यागथी; ज्ञानी बंधमोक्षगुणी वालो मन रागथी.
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