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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
बहिरातम इक भेद सुणी, अंतर आतम बीय; ध्यान ध्येय एक तत्व धर, परमातम प्रभुतीय. आतमबुद्धि तन उपरा, पररागी गुणहीन; सो बहिरातम जाणज्यो, मोहनीदलय नील. देहराग प्रेमराग तजि, निज आतम पहिचाण; परमातम सम भावीवो, अंतर आतम जाण. निर्विकल्प निर्लेप शिव, केवलज्ञान सुभान; शुद्ध बुद्ध आदेय शुचि, परमातम सुषषाणि. देह राग परभाव तजी, मूकि बहिर्मुख भाव;
निर्विकल्प मुनिभावयुत, सुद्धातम गुण व्याव. ढाल-म्हारे मीभलीयां नयणाणो पाणी लागणो पाणी रूजी एहनी.
चेतन पुदगल भिन्न करो निज भावथी, ज्ञानीजी तो मुरष माने एक विवेक अभावथी; ज्ञानी इंद्रिय देहसूं नेह तजो पररूपसुं, ज्ञानी सुर नर तिरियग योनि सहू दूषकूप ए. ज्ञानी० १ अज्ञानी नवि जाणे आतम अमूरती, ज्ञानी० परमातमसम जाणे जन तन सूरती
ज्ञानी० आतमबुद्धे शून्य अचेतन दर्वने. ज्ञानी० २ अज्ञानी धन पुत्र कलवने आपणा, ज्ञानी भिन्न अचेतन द्रव्यभणी निज जाणतो, तमु लाभादिक कारण निजने ठाणतो. ज्ञानी० ३ देहभणी निज बुद्धि अज्ञान अनादिनो, ज्ञानी देह जीव गिण एक हठी ते वादिनो; ज्ञानी० देहमित्र निज बुद्धि ठगे सहू लोक ए. ज्ञानी० ४
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ज्ञानी०
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