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कर्मग्रन्थस्य टवार्थः दूसरसूसरसायासाएगयरं च तीसवुच्छेओ। बारस अजोगि सुभगाइजजसन्नयरवेयणीअं ॥२२॥
अर्थ-दुःस्वर १, सुस्वर १, सातावेदनी अथवा असाता ए दोयनु माहिली एक वेदनी एवं बीस प्रकृति खपावे; तिवारे चउदमें अजोगीगुणठाणे बार प्रकृतिनो उदय रहे छे. ते बार प्रकृतिनां नाम कहे छे-सुभग १, आदेय १, जस १, अने साता असाता मांहेली एक वेदनी जे रही होय ते साता अथवा असाता. ॥ २२॥ तसतिगपणिदिमणुआउगइजिणुचंतिचरमसमयंता।
उदओ सम्मत्तो। उदउव्वुदीरणया, परमपत्ताइ सगगुणेसु ॥ २३ ॥ __ अर्थ-वसत्रिक ते त्रस १, बादर २, पर्याप्त ३. पंचेंद्री जाति १, मनुष्यनो आउखो १, मनुष्य गति १, जिन-तीर्थ करनाम १, उच्चैर्गोत्र १. बारे प्रकृति चउदसमे १४ में गुणठाणे तेहने छेहले समये खपावे तिवारे सर्व कर्म रहित होय तेयी मोक्ष पामे. एटले करी १४ गुणठाणे उदय अधिकार पूरो कह्यो. हवे उदीरणा ते उदयनी जेम जाणवी. उदीरणा १२२ नी छे. मिथ्यात्वे एकसो सतरेनी उदीरणा छे, सास्वादने एकसो अगीयारनी छे, मिश्रे एकसो १०० नी छे, अविरते १०४ एकसो च्यारनी छे, देसविरते सत्यासी छे, प्रमत्त गुणठाणे ८१ एक्यासी छे. इम छठा गुणठाणा ताइ जाणवी. सातमे अप्रमत्त गुणठाणेथी फेर छे, ते आगली गाथाए करी कहे छे. ॥२३॥
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