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विचार रत्नसार.
८५९.
वीर्योल्लास थकी अपूर्वकरणे रागद्वेषनी ग्रंथि भेदी मिथ्यात्वमोहनीयनी सातप्रकृतिने उपशमावतो अंतरकरणमा थइ अनिर्वृत्तिकरणे आवी सम्यग्दृष्टि थाय, त्यारे जीवने मार्गप्राप्त कहीए, वस्तु सत्ता धर्म अंशे प्रगट कर्यो त्यां तेनी केवी दृष्टि वर्ते तो कां छे के:
काव्य.
अंशे होय इहां अविनाशी, पुद्गल जाल तमाशी, चिदानंदघन स्वरूप विलासी, केम होय जगनो आसी; ए गुण वीरतणो न वीसारुं संभारुं दिन रातरे, पशु टाली सुररूप करे जे, समकितने अवदातरे. १९८ प्र० - साधुने जे त्रणयोग छे ते रत्नत्रयगुणे प्रणम्या छे ते केवी रीते ?
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उ०- मनोयोग ते सम्यग्दर्शनगुणे दृढासक्तिकरूपे परिणमे छे, तथा वचनयोग ते जिनवाणीमांहे ज्ञानगुणे प्रणम्यो छे, तथा काययोग ते चारित्रगुणे " जयंचरे जयंचिठ्ठे जयंमासे जयंसये " इत्यादिकरूप प्रगट्यो छे तेथी यावज्जीवसुधि सावद्ययोगयी निवर्त्तीने मुनि संयमयोगे परिणमे छे. इतिभाव
१९९ प्र० - संसारमां जीव भव्यअभव्यादि त्रणप्रकारना छे ते कया ? तेनुं स्वरूप दृष्टांतसहित स्पष्ट समजावो.
उ०- १ भव्य, २ अभव्य, ३ भव्याभव्य अथवा जातिभव्य; त्यां भव्य त्रणप्रकारे छे:- निकटभवी, मध्यमभवी, अने दुर्भवी; निकटभवी सोहागण स्त्री समान, ते जेम सोहागणी स्त्री पतिसमागमे छ मासमां गर्भ
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