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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
निज धीरजथी मुनि भणी, भय नवि थाये कोय; निर्विषयी संवेग धर, निज निज ध्यानी सोय.
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ढाल -- सीता अतिसोहे. एहनी.
थिर मन विधन निवारो, शुद्धातम ज्ञान संभारो हो० मुनिवर ध्यान धरो १
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मुनिवर० २ मुनिवर०
मुनिवर० ३
मुनि०
मुनि० मुनि० ५
मुनि ०
थान आसन ए थोक, मन वश विण सवला फोक मुनिवर० थिर निरमल मन वीर, संवेगी ध्यायक वीर हो. बहु जन थानक शस्य, जो एकम थाये वश्य हो; सममुख पूरव उत्तर, ध्यानी छे सइग अंतरत्रिगुण सहित गतमच्छर, पहिला सिध्या बहु मुनिवर; मुख्य गौण मुनि भाष्या, अप्रमत्त प्रमत्त दोय दाप्या. मुनि० ४ अप्रमत्तथि काया, ने ध्याता ध्यान सुहाया हो; अप्रमत्त लघुज्ञानी, मुनि थाये धर्मनो ध्यानी हो. तूर्यथी सपतम तांई, धर्मध्यानतणा गुण थाई हो, ध्याता ध्यान त्रिभेद, लेश्याथी फलउमेद हो. मुनि आसन जयकारी, सुसमाधि अषंड विहारी हो; मुनि० आसन चली चल अंग, तिग वाघे षेदनो संग हो. मुनि० ७ वात धूप अतिपाले, आसनधर मन नवि चाले हो; लहि अभिमत थिर थाने, पर्यकासन धरे ध्याने हो. पर्यक मध्य उत्तान, विकसन करकमल समान हो; नासाग्रदृष्टि थिर शांत, निश्चल तारानी कांति हो. भ्रू चालि विकार विहीन, थिर अधर पलव मनमीन हो; मुनि० सुप्तमत्स्य सर जेम, थिर घदनकमल गतप्रेम हो.
मुनि० ६
मुनि० १०
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मुनि०
मुनि० ८
मुनि०
मुनि० ९