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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः अड उवसमि चउ वेअगि, खइए इक्कारमिच्छतिगिदेसे सुहुमि सहाणं तेरस,आहारगि निअनिअगुणोहो॥२०॥ _____ अर्थ-उपशमसमकितमे चोथेयी मांडी इग्यार ११ मा तांइ आठ ८ गुणठाणा छे, क्षयोपशम समकितमे चोथेथी मांडी सातमालगे च्यार गुणठाणा छे, क्षायकसमकितमें चोथेथी मांडी चौदमा ताइ इग्यार ११ गुणठाणा छे. मिथ्यात्वमार्णणामे एक मिथ्यात्व गुणठाणो छे. सास्वादन मार्गणामे सास्वादन गुणठाणो छे. मिश्रमार्गणाए मिश्रगुणठाणो छे. देसविरति मार्गणाए देसविरति गुणठाणो छे. सूक्ष्मसंपरायमार्गणाए सूक्ष्मसंपराय गुणठाणो छे. त्यां बंधप्रकृति गुणठाणा प्रमाणे जाणवी. आहारकमार्गणाए अयोगीकेवळी टाळी तेरे गुणठाणा छे. प्रकृति ओघ सर्व गुणठाणानी, जेम बीजे कर्मग्रंथमे कह्यो, तिम जाणवो. ॥ २० ॥ परमुवसमि वहता, आऊ न बंधंति तेण अजयगुणे। देवमणुआउहीणो, देसाइसु पुणसुराउविणा ॥२१॥
अर्थ हवे उपशमसमकीतमे जे फेर छे ते कहे छेजे जीव उपशम समकितमे वरते छे, ते जीव आउखो कोई न बांधे तिणे ओघे पंचहुत्तर ७५ नो जाणवो. जे अविरत गुणठाणे सत्तहत्तर ७७ हती, पिण देवतानो मनुष्यनो आउखो ए दोय प्रकृति टाळी; तिवारें पंचहत्तर ७५ रही अने देसविरति गुणठाणे देवतानो आउखो काढ्यो; तिवारे छासठि रही. प्रमत्ते बासठि, अप्रमत्ते अठावन्न. एवं सर्वत्र जाणवो. ॥ २१ ॥
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