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विचार रत्नसार.
प्रथमनी मिथ्यात्वमोहनीयनी त्रण प्रकृति छे, ते निर्मळ सभ्यक्त्व गुणनी घातक छे, अने बीजी चारिमोहनीय कर्मनी पचीस प्रकृतियो छे, ते मध्ये क्रोध मान ए बे चार चोकडीनी लेतां आठ थान, अने नव नोकषायमांयी अरति, शोक, भय अने दुगंछा ए चार गणतां सर्वे मळी ए बार प्रकृति द्वेषना घरनी वा अथवा रागद्वेष जनित छे, अने शेष माया लोभादि आठ कषाय अने हास्य, रति, अने त्रण वेद ए पांच मळीने तेर प्रकृतिओ रागना
घरनी छे. ३८ प्र०-शरीरगति, परिणामगति, श्रमागति, जे रीते परिणमे
छे ते रीते कहो ? उ०-१ शरीरनीगति औदयिकभावे वेदनीय मध्ये छे, २
परिणामगति, विषय कषायनी प्रवृत्ति मध्ये इष्टानिष्टरूपे छे, श्रद्धानी गति, तव अतत्त्व विवेचन
कर्णरुपे छे. ३९ प्र०-जीवना द्रव्य, गुण, अने पर्याय शाथी समरे एट
सुधरे ? उ०-दर्शन, ज्ञान, अने चारित्र गुणे करी अनुक्रमे समरे. ४० प्र०-ते शी रीते छे, ते विस्तारथी स्पष्ट समजावो ? उ०-आमा द्रव्य असंख्यात प्रदेशी छे, तेनो जिन
वचन प्रतीते तथा अनुमाने करी अनुभव करे ते दर्शन; तथा परोक्ष अने प्रत्यक्षे जे प्रतीतात्मक
धर्म भासन थयो, जे आत्मद्रव्य दर्शन द्वाराए 97
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