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विचार रत्नसार.
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शुभ क्रिया होय पण शुभोपयोग नहि; केमजे शुभोपयोग तो शुद्धना घरनो छे, ते तो सम्यग्दृष्टिने अणइच्छकरूपे निर्वछकभावे होय छे, अने मिथ्यात्वीने शुभोपयोग शुभ क्रियारूप, शुभाचाररूप होय पण नियाणारूप एटले पौद्गलिक सुख वांछारूप होय,
ते माटे अशुभ जाणवो. (प्रत्यन्तरमा प्र. ६९) ७८ प्र०-सम्यग्दर्शननु स्वरूप अनुमाने तथा लक्षणे सिद्ध
करो. उ०-श्री वीतराग देवना वचननी दृढ प्रतीति एटले श्री
जिने भाख्युं तेज सत्य. ते कदापि काळे अन्यथा न होय, भले मारी बुद्धिमां नथी आवतुं तोपण वीतराग देवने मिथ्या कथन करवानुं कंइ पण प्रयोजन दिसतुं नथी, जेवू पोते केवळज्ञाने दीर्छ छे, तेवुज योग्य प्राणियोने केवळ हित बुद्धिए परमकरुणाभावे प्रकाश्युं छे, माटे सुइनी अणी जेटला प्रदेशमां अनंता जीवो पण तेज वचन प्रतीतिरूप आगम अने अनुमान प्रमाणे सम्यक्त्वी माने छे, तेवीज रीते आत्मा पण साक्षात् दीठो माने छे, वळी जीव चेतना लक्षणवंत छे, चेतना ते सुख दुःखतुं भान, अने सुख दुःखनो अनुभव वेदनीय कर्म द्वारे प्रत्यक्ष छे, तेथी ते लक्षणे सुख दुःखनो जाणनार आत्मा छे, एम प्रतीति करे छे. एम अंश प्रत्यक्षे सर्व प्रत्यक्ष थयो; जेम एक मोटा टोपमा एक खांडी भात रंधायेल तैयार थयो छे, ते काचो
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