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कर्मग्रन्थस्य टबाथः
पणसठि सहसपणसय, छत्तीसाइगमुहुत्त खुडुभवा। आवलियाणं दोसय, छप्पन्ना एग खुड्डभवे॥४१॥ ___ अर्थ-एक मुहूर्त ते बे घडी प्रमाणमे पेंसठहजार पांचसे छत्रीस भव थाये, सूक्ष्मनिगोदीयाथी मांडी समुर्छिछम मनुष्य पर्यंत ए प्रमाण जाणवो, तथा क्षुल्लक भव मध्ये आवली, २५६ जाये एटले मुहूर्तमे एक कोडि सडसठ लाख सित्तोत्तर हजार दोयसेने सोळ आवली जाणवी. ॥४१॥
अविरयसम्मोतित्थं, आहारदुगामराउ अपमत्तो। मिच्छदिहि बंधइ,जिटुंठिइसेस पयडीणं ॥४२॥ ____ अर्थ हवे उत्कृष्टी स्थितिबंधना स्वामी कहे छे. तीर्थकर नामनी उत्कृष्टी स्थिति अविरति समकीतीबंधक, समकितथी मांडी अपूर्वकरणना छठा भाग पर्यंत छे, ते सर्व जीवथी अधिक कषायी अविरति समकीती छे, ते अधिक कषायी तेथी स्थिति ते उत्कृष्टी बांधे आहारकदुग-२ आहारक शरीर तथा उपांग ए बे अमर-देवतानो आउखो उत्कृष्ट स्थिति अप्रमत्त गुणठाणे बांधे, तिहां आहारक अप्रमत्त अति संक्लेशना अध्यवसाये बंधक उत्कृष्ट स्थिति बंधे देवायु अप्रमत्त विशुद्धाध्यवसाये उत्कृष्ट स्थिति बांधे, शेषप्रकृति वर्णादिक वीस भिन्नगवेखेतो, १३२, तथा वर्णादि ४, गवेखीयेतो ११६, नी उत्कृष्टी स्थिति संज्ञीपंचेन्द्री पर्याप्सो मिथ्यादृष्टि बांधे ॥ ४२ ॥ विगलसुहुमाउतिगं, तिरिमणुया सुरविउवि निरयदुर्ग एगिंदिथावरायव. आईसाणा सुरुकोसं ॥ १३ ॥
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