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कर्मग्रन्धस्य टवार्थः सक मार्गणा ए १७, मिथ्यात्वमार्गणा १८ अढार मार्गणामे सर्व १४ जीवस्थानक छे. ॥१९॥ पज्जसन्नी केवलदुर्ग, संजममणनाणदेसमणमीसे। पणचरमपजवयणे, तिय छ वपज्जियर चक्खुम्मि २०॥
अर्थ-वळी केवलज्ञान १, केवलदर्शन १, सामायिक १, छेदोपस्थापनीय १, परिहारविशुद्धि १, सूक्ष्मसंपराय १, यथाख्यात १, मनःपर्यवज्ञान १, देशविरति १, मनोयोग १, मिश्रदृष्टि १. ए अगीयार ११ मार्गणामे पर्याप्तो संज्ञी जीवस्थानक ए एकज होय. वचनयोगे छेल्ला पांच पर्याप्ता जीवस्थान लाभे. बेंद्री १, तेंद्री २, चौरेन्द्री ३, संज्ञी ४, असंज्ञी पंचेन्द्री ५. ए पांचने भाषा छे, भाषापर्याप्ति कीधां पछी. चक्षुदर्शनमे त्रण अथवा छ जीवस्थान छे. चौरेन्द्री १, असंज्ञी पंचेन्द्री १, संज्ञी पंचेन्द्री १. ए तीन पर्याप्ता छ; अथवा एज ३ त्रण अपर्याप्ता अने पर्याप्ता ६ पिण जीवस्थान लामे ते पछी चक्षुदर्शनमें १. ॥ २० ॥ थीनरपणिदि चरमा, चउ अणाहारे दुसन्नि छ अपज्जा। ति सुहुमअपज्जविणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं॥२१॥
अर्थ-स्त्री वेदमे १, पुरुष वेदमे १, पंचेन्द्रीमे १, छेहेला ४ च्यार जीवस्थानक छे. असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्ता १, अपप्तिा १, संज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्ता १, अपर्याप्ता १. ए ४ च्यार जीवस्थानक छे. स्त्रीवेद १, पुरुषवेदमें १. संज्ञी पंचेन्द्रीमे न थाय. असंज्ञीमे नपुंसकवेदछे. परं इहां मान्या छे ते आचार्य
जाणे,
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