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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
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अर्थ — अने सिद्धमे ज्ञान क्षायिक थाय छे, जीवपणो पारिणामिक छे, ए सिने द्विकसंयोगी एक भांगो छे. ए मूळ पांच भांगा थया अने उत्तर १४ चौद थया. अने कोइ मनुष्य उपशमश्रेणे छे पण क्षायिक समकीती छे तेहने उपशमश्रेणिमे एक भांगो थयो एतले मूळभेद छ ६ थया. उत्तरभेद १५ पन्नर सन्निपातिक भावे थया. अने बीजा पण वीस भांगा सनिपातिक उपजे परं असंभावी भेद छे, जे कारणे किणही जीवमे लाभ नहीं तेणे असंभावी छे. ॥ ७१ ॥ मोहे वसमो मीसो, घाइ अट्ठ कम्मसु अ सेसा | धम्माइ पारिणामिअ, भावे खंधा उदइएवि ॥७२॥
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अर्थ-उपशम भावतो मोहनीमेज थाय बीजा कर्ममे नही. क्षयोपशमभाव च्यार ४, घातिककर्म में छे बीजा केमां नही, अने औदयिक १, पारिणामिक १, क्षायिक १, ए त्रण भाव आठ कर्ममे छे. इतले मोहनीकर्ममे पांच भाव छे. ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अंतराय ए तीन कर्ममे च्यार भाव छे. उपशम भाव न होय. वेदनी, नाम, गोत्र, आउखो, ए ४ च्यारे कर्ममे तीन भाव छे. उपशम, क्षयोपशम नयी बाकी ३ तीन भाव छे. धर्मास्तिकायादिक ६ छ द्रव्यमे एक पारिणामिक भाव छे. खंध, पुद्गलीक, शरीरमें १ एक औदयिक भाव ने १ पारिणामिक भाव पण छे. ॥ ७२ ॥
सम्माइ चउसुतिगचउ, भावा चउपणुवसामगुवसंते। चउ खीणा पुढे तिन्नि, सगुणठाणगे गजिए ॥७३॥
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