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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. --- समस्त विशेषपणाने ना कहेतो थको जे ग्रहण करे ते अद्वैतवादि वेदांत तथा सांख्यदर्शन ए परसंग्रहाभास छे केमके जे भेद धर्म छता देखाय छे तथा द्रव्यांतरपणो तेने न माने माटे परसंग्रहाभास कहिये अने जैन तो विशेष सहित सामान्यने ग्रहे छे माटे संग्रहनय कहिये. ___ " द्रव्यत्वादिनयांतरसामान्यानि मत्त्वा तद्भेदेषु गजनिमीलिकामवलंबमानः अपरसंग्रहः” द्रव्य जे जीव अजीवादिक जे अवांतर सामान्यने मानतो अने जीवने विषे प्रति जीवनो विशेष भेद भव्य अभव्य सम्यक्त्वी मिथ्यात्वी नरनारकादि जे भेद तेने गजनिमीलिका के० मास्ताइये न गवेषवो ते अपरसंग्रह कहिये अने द्रव्यने सामान्यपणे माने पण स्वद्रव्यनी परिणामिकतादिक धर्मने न माने ते अपरसंग्रहाभास कहिये ए संग्रहनयनुं स्वरूप कडं. सङ्ग्रहेण च गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः, यथा यत् सत् तत् द्रव्यं पर्यायश्चेत्यादिः यः पुनरपरमार्थिकं द्रव्यपर्यायाविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः चार्वाकद निमिति व्यवहारदुर्नयः। . अर्थ ॥ हवे. व्यवहारनय कहे छे संग्रहन ग्रह्या जेवस्तुना सत्त्वादिक धर्म तेनेज गुणभेदें वेहेंचे मिन्नमिन्न गवेषे तथा पदार्थनी गुणप्रवृत्ति तेनेज मुख्यपणे गवेषे ते व्यवहारनय कहिये जेम द्रव्य छे तेना जीव पुद्गलादिक पर्यायना क्रमभावी तथा सहभावी ए रीतें बे भेद छे तेमां वली जीव बे प्रकारे १ सिदना, २ संसारी तेमज. पुद्गलना बे भेद पर 22. ९७ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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