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कम्मग्रन्थ
७१४ कर्मग्रन्थस्य टवार्थः साय सुच्चावरणा, विघं सुहुमो विउवि छ असन्नि। सन्नीवि आंउ बायर, पज्जेगिंदी उ सेसाणं ॥४५॥
अर्थ—सालावेदनीय १, जसनाम २, उचैर्गोत्र १, ज्ञानावरणी पांच ५, दर्शनावरणी ४, अंतराय पांच ५, ए १७ प्रकृतिनी जवन्य स्थिति सूक्ष्मसंपराय दसमे गुणठाणे बांधे. देवड़िक २, नरकद्विक २, वैक्रियद्विक २, ए ६ छ प्रकृतिनी जधन्य स्थिति असंज्ञिपंचेन्द्री पर्याप्तो बांधे, जे कारणे एहनो प्रथमबंध एहिज छ, आउखा ४, नी जघन्य स्थितिनो बंधक संज्ञीपण छे असंज्ञीपिण छे. एहनो बंध परिणामनी तीवमंदताये छे, शेष १०१, अथवा ८५, प्रकृतियोनी जघन्य स्थितिना बंधक बादरपर्याप्ता एकेन्द्री जाणवा. स्थितिबंधमें सूक्ष्मसंपरायी साधुथी बीजे बोले स्थितिबंधक एकेन्द्री पर्याप्तो छे. ॥४५॥ उकोसजहण्णीयर, भंगासाई अणाइ धुवअधुवा। चउहा सग अजहन्नो, सेसतिगे आउ चउसुदुहा॥४६॥
अर्थ-हवे स्थितिबंधना भांगा कहे छे-तिहां उत्कृष्ट १, जघन्य १, इतर अनुत्कृष्ट अजघन्य १, ए ४, च्यार भांगा छे. तिहां जे प्रकृतिनी जे उत्कृष्टि स्थिति छे ते बांधे ते उत्कृष्टबंध कहेवाय, उत्कृष्टबंध एक जीवने लागट रहे तो अंतर्मुहूर्त रहे ते माटे ए सादि अध्रुव छे, तथा जे प्रकृतिनी जघन्य स्थिति जे बांधे ते जघन्य बंधक कहीये. ते एकएक समयमांज बांधे, एहने पिण सादि अध्रुव भेदज लागे, तथा उत्कृष्टी नही ते अनुत्कृष्ट, ते इहां
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