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विचार रत्नसार.
उ०-केवळी भगवंतने काइ शुभ संकल्परूप व्यवहार नथी,
तेमने एक शुक्ल लेश्यानो उदय छे, ते योगद्वारे परिणमे छे, अने योगनुं परिणमन ते औदयिक भावे जइ परिणमे, केम जे पुद्गलने पुद्गलनो विश्राम छे, तेथी ते लेश्याए योग प्रत्यइक एक साता प्रकृतिनो एक समयनो बंध छे, ते बीजे समये संक्रमे, अने बीजे समये खेखे अर्थात् उत्तम पुद्गल ग्रहे, बीजे
समये तेने वेदे अने वीजे समये खेखे एटले खपावे. २२३ प्र०-सम्यग्दृष्टिने अने मिथ्यादृष्टिने शुभाचार अने शुभ
उपयोग केवी रीते होय छे ? उ०-मिथ्यादृष्टिजीवने शुभाचार होय पण शुभोपयोग
न होय, अने सम्यग्दृष्टि जीवने शुद्धोपयोग होय तेहने शुभोपयोग आचरणरूपे होय पण आदर न होय अने मिथ्यादृष्टि जीवने शुभाचाररूप होय पण अशुझोपयोगना घरनो अशुभोपयोग होय पण अशुभोपयोग उपचारे कहिए इति भाव, हवे चोथे गुणठाणे सम्यग्दर्शन पामे अनंतानुबंधिया रागद्वेष
तथा गिथ्यात्वमोहनोक्षय तथा क्षयोपशम थाय. २२४ प्र०-भामंडल करवानी शी जरूर छे ? उ०-आणंद श्रावकनी संधि खरतरगच्छे मुनिश्रीसारनी
कीधी गाथा त्रणसेने एकासीमी छे ते मध्ये अष्टप्रतिहार्य अधिकारे देवता भामंडल किम करे छे ? तत्र गाथा-तेज अरिहंत अतिघणो ए, खमी न शके नरनारी । ते तेज लइ सुख करे ए, पुंठे भामंडलसार ॥१॥ परमउदारिक शरीरना तेज
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