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कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः
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माटीची कणीनी रेखा समान छे, जे चीकणीमाटीनी रेखा मेह प्रमुख वूठे मीटे तिम घणे उपाये अप्रत्याख्यान क्रोध उतरे. अनंतानुबंधी क्रोध पर्वतरेखा समान छे. जिम पर्वतनी रेखा पडी पछी फरी मळे नहीं; तिम अनंतानुबंधी क्रोध जावजीव त्यांड मिटे नहीं ते अनंतानुबंधि ४. संजलनो मान नेतरनी छडी समान. जे तरत नमे, प्रत्याख्यान मान काष्ट लाकडी समान छे जे किणही कारणे नमे, अप्रत्याख्यानी मान अट्टी हाड समान छे-घणे जतन कीयां नमे तिम ते मानी पिण घणां जतन कीयां नमे. अनंतानुबंधी मान सेल पथ्थरना थांभा समान छे, जे किमही नमे नहीं; तिम अनंतानुबंधी मानवंत किमहि मान छोडे नही. ॥ १९ ॥
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मायावलेहिगोमुत्तिमिढसिंगघणवंसिमूलसमा । लोहो हलिद्दखंजणकद्दम किमिरागसारिच्छो ॥२०॥ अर्थ -- संजलनीमाया वलेही वांसनी छोल समान जे तरत वांक छोडे. प्रत्याख्यानी माया गोमूत्रिका समान जे किणही कारणे कपट छांडे, अप्रत्याख्यानी माया मिंढारा सिंग समान छे, किणही कारणे करी वांक छोडे, अनंतानुबंधी माया वंसमूल वांसनी जड समान छे, अति गूढ वक्र छे, बळ्यां पण ain छोड़े नहीं. एहवी माया अनंतानुबंधीनी संजलणो लोभ हलदरना रंग समान छे, जे लालचें थाय ते, तरत लालच छोडे, प्रत्याख्यानी लोभ खंजण - गाडीनी वांगण रंग समान छे जे जेने कीयां ते रंग उतरे. अप्रत्याख्यानीयो लोभ नगर कर्दमना
* समाणो ' इति पाठांतरम्..
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