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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
देह अशुचि रोगे भरी रे, पतनसरूप शरीर; एहनो फल एहज ग्रहो रे, धारो धर्म सधीरो रे. ३ भा० ए दुष वधुथी ऊपजै रे, देह अशुचिनो गेह; जे भव भमतो तूं सहै रे, ते दुष कारण देहो रे. ४ भा० केसर अगरने मृगमद रे, हर चंदन कर्पूर,
मइल ग्रहै वपुसंगयी रे, देह अशुचि भरपूरो रे. ५ भा० अस्थि चरम पंजर अछे रे, कुथित मृतकसम वास; जो षायम रोगादिना रे, प्रीति धेरै नहि तासो रे. ६ भा० दूहा. मन वच काया जोग गुरु, कह्या ज आश्रवरूपः ए तत्वज्ञानी परहरो, जाणी अवजल कूप. ढाल - तेहीज.
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जिम छिद्रे जल नौ ग्रहै रे, तिम योगे करि कर्म; संयम प्रशमादिक करी रे, घरे शुभाशुभ भर्मो रे. ८ भा० कर्म बीज रागादि छे रे, जन्मादिकनो जाण; विण व्यापारयुत ज्ञानसूं रे, सत्यवचन शुभ वाणो रे. ९ भा० नंदनीक दुष पंथ छै रे, पापाश्रवनौ धाम;
कुड कठोर वचन तणो रे, मत को आषौ नामो रे. १० भा० काउसगा तनुगुप्तथी रे, बंधायै शुभ कर्म,
आरंभ जंतु वातादिकै रे, पाप तणो भर हम्मों रे. ११ भा० क्रोध काम विषयादिकै रे, मिथ्या पंच प्रमादः
अशुभकर्म चेतन ग्रहै रे, ते तजि आश्रववादो रे. १२ भा०
दूहा. आश्रव सर्व निरोधनो, संवर आख्यो एह; द्रव्य भाव दोइ भेदथी, भवियण भावो तेह.
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