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विचार रत्नसार.
गंध, स्पर्शादि ग्रहण शक्ति उपजे तेनी उपयोग उपलब्धि ते भावेन्द्रिय कहेवाय छे, अने आकृति ते द्रव्य इंद्रिय जाणवी. एम पन्नवणामां का छेमनुष्य थको सिजे तेने आठ इन्द्रिय जाणवी. नारकी थकी मनुष्य थइ सिजे तेने १६, सोळ इन्द्रिय जाणवी. तियेचथकी तथा पृथिवीथकी मनुष्य थइ सिजे तेने १७, सत्तर इन्द्रिय तथा देवताथकी पृथिवी मनुष्य थइ सिजे तेने १७ सत्तर इन्द्रिय जाणवी. तथा पृथिवी, पाणी वनस्पति माहेथी मनुष्य थइ सिजे तो ९ नव इन्द्रिय तथा इम सर्व विचार पन्नवणा मध्ये कह्यो छे. पण एनो अर्थ आम्नाय
गीतार्थगुरुथी जाणवो. २३७ प्र०-आत्मबोधरूप सम्यक्त्व प्राप्तिमां पांच लब्धिनी आ
वश्यकता छे, ते पांच लब्धिनुं स्वरूप कहो. 3०-१ काळ लब्धि, ते आयुवर्जित शेष सात कर्मनी
उत्कृष्ट स्थितिने घटाडी एककोडाकोडी सागर प्रमाण करे, एवा यथाप्रवृत्तिकरणपूर्वक चर्मावर्ते जीव आन्यो त्यारे काळलब्धि पाकी कहीए; पहेली लब्धि पाम्या पछी छेली एकठी एकसमे प्रगटे. २ इंद्रिय लब्धि ते संज्ञि पंचेंद्रियपणुं; ३ उपदेश लब्धि ते सद्गुर्वादिकना योगे उपदेश पामी बूझे ४ उपशम लब्धि ते निर्मळ परिणामनी धाराए चढतो विषय कषायनी उपशांति भावमां अपूर्वकरणे करी ग्रंथिभेद करे; ५ प्रयोग लब्धि, पछी अंतःकरण पूर्वक अनिवृत्तिकरणना परिणामे रह्यो थको स्वपर भेदज्ञानरूप
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