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श्रीपञ्चप्रतिक्रमणसत्र
तथा नवस्मरण
प्रबोधटीकानुसारी शब्दार्थ, अर्थसङ्कलना तथा सूत्र-परिचयसहित
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माहित्य
रामंडल
प्रकाशक:
जैन साहित्य-विकास-मण्डल
इरला,वीलेपारले, बम्बई-५६ [ A.S. 1
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www.janelay.org
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श्रीपञ्चप्रतिक्रमणसत्र
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तथा
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नवस्मरण
प्रबोधटीकानुसारी शब्दार्थ, अर्थसङ्कलना तथा सूत्र-परिचयसहित
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प्रकाशक :
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जैन साहित्य-विकास-मण्डल
इरला, वीलेपारले, बम्बई ५६ [ A.S. ]
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प्रकाशक: सूबोधचन्द्र नानालाल शाह
मन्त्री जैन साहित्य-विकास-मण्डल ११२, स्वामी विवेकानन्द रोड, इरला, वीलेपारले :: बम्बई ५६ [ A. S. ]
द्वितीयावृत्ति २००० मूल्य पाँच रुपये
मुद्रक : बाबूलाल जैन फागुल्ल, महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी-१
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प्रकाशकीय-निवेदन
आजसे १३ साल पहले जैन साहित्य विकास मण्डलने प्रतिक्रमणसूत्र बोध टीका भा० १-२-३ का संक्षिप्त रूपान्तर हिन्दी एवं गुजराती इन नों भाषाओंमें समाजके समक्ष प्रस्तुत किया।
इन प्रकाशनोंकी हजारो प्रतियाँ देखते देखते ही बिक गई। और उनकी मांग सतत चालू रही।
फलस्वरूप हिन्दी पंचप्रतिक्रमणसूत्रकी दूसरी आवृत्ति आज वाचकोंके समक्ष रखी गयी है। इसमें प्रत्येक सूत्रका मूलनाम उसके शीर्षस्थानपर बड़े अक्षरोंमें दिया गया है, और प्रचलित नाम नीचे कोष्ठकमें दिखलाया गया है। इसके पश्चात् मूलपाठ दिया गया है, जिसमें पद्योंके छन्दका नामनिर्देश भी है। 'संसार-दावानल-थुई', 'वर्धमान-स्तुति', 'प्राभातिकस्तुति', 'पासनाह-जिण-थुई', आदि सूत्र देखनेसे जिसका स्पष्टरूप सामने
। तदनन्तर दो विभागोंमें शब्दार्थ है, जिसमें प्रथम शब्दका भूल अर्थ दिया गया है और जहाँ उसका लाक्षणिक अथवा तात्पर्यार्थ दिखलानेको आवश्यकता प्रतीत हुई, वहाँ दूसरा अर्थ भी दिया गया है । जैसे कि
मत्थएण-मस्तकसे, मस्तक झुकाकर । अयरामरं ठाणं-अजरामर स्थानको, मोक्षको ।
यदि शब्द सामासिक हो, तो ऐसा अर्थ दिखलाने के पश्चात् पृथक्-पृथक् शब्दोंके अर्थ भी बतलाये हैं। जैसे
नवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो-नवविध ब्रह्मचर्यको गुप्तिको धारण करनेवाला।
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नवविह-नवविध, नव प्रकारकी। बंभचेर-गुत्ति-ब्रह्मचर्यकी गुप्ति, ब्रह्मचर्य पालन सम्बन्धी नियम । धरो-धारण करनेवाला।
इसके बाद शुद्ध हिन्दीमें अर्थसङ्कलना दी गयी है और अन्तमें सूत्रपरिचय दिया गया है। जिसमें प्रस्तुत-सूत्र कब किस हेतुसे बोला जाता है इसका निर्देश किया गया है और साथ ही तत्सम्बन्धी जो सम्प्रदाय अथवा किंवदन्ती प्रचलित है, उसका वहाँ वैसे ही स्वरूपमें निदर्शन करा दिया है। इसके अतिरिक्त कुछ स्थलोंपर सूत्र-परिचयके बाद सरलभाषामें संक्षिप्त प्रश्नोत्तरी दी गयी है, जो सूत्रका विषय स्पष्ट करने में अत्यन्त उपयोगी है।
प्रस्तुत पुस्तकमें पाठकोंकी अनुकूलताके लिए गुजराती अतिचारके उपरान्त हिन्दी अतिचार तथा नवस्मरण भी दिये गये हैं जो प्रथमावृत्तिमें नहीं थे। तथा सामायिक लेनेको तथा पूर्ण करनेकी विधि, चैत्यवन्दनकी विधि, दैवसिक-रात्रिक-पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकप्रतिक्रमण विधि, पोषध-विधि, छींक आये तो करनेको विधि तथा पच्चक्खाण पारनेकी विधि दी गयी हैं। और उनके हेतु भी विस्तारपूर्वक दिये हैं, जिससे पाठक उन-उन विधियोंका रहस्य समझ सके और उसके अनुशीलनका आनन्द भी प्राप्त कर सके ।
साथ ही उक्त पुस्तकमें मङ्गलभावना, प्रभुके सम्मुख बोलनेके दोहे, शत्रुजयको प्रणिपात करते समय बोलनेके दोहे, नवाङ्गपूजाके दोहे, अष्टप्रकारी पूजाके दोहे, ४ प्रभुस्तुति, १६ चैत्यवन्दन, २५ स्तवन, १५ स्तुतियाँ, ५ सज्झाय, ६ छन्द तथा पद, २ आरती, २ मङ्गलदीपक, छूटे बोल तथा श्रावकके प्रतिदिन धारने योग्य चौदह नियम एवं सत्रह प्रमार्जना दी गयी है।
यह हिन्दी अनुवाद पाठकोंके करकमलोंमें समर्पित करते हुए हम आशा करते हैं कि सूत्रों का शुद्ध पाठ कण्ठस्थ किया जाय तथा उनका वास्तविक अर्थ समझा जाय; इस दृष्टिसे सुज्ञ श्रावक-श्राविका-समुदाय इसी पुस्तकका उपयोग करनेकी भावना रखेंगे तथा इसका उचित सत्कार करेंगे।
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प्रथम संस्करणमें जो अशुद्धियाँ छपनेमें रह गयीं थीं उनका संशोधन एवं अन्य आवश्यक त्रुटियोंका शोधन भी इस संस्करणमें किया गया है । इतना होने पर भी प्रमादादि दोषसे कोई त्रुटि रह गयी हो तो विद्वज्जन क्षमा करते हुए हमें सूचित करें। जिससे अगली आवृत्तिमें संशोधन किया जा सके।
दिनांक
वि० सं० २०२५ मार्गशीर्ष शुक्ल-१ गुरुवार २१-११-६८
निवेदकसुबोधचन्द्र नानालाल शाह
___ मंत्री जैन साहित्य विकास मण्डल
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विषयानुक्रम
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१ नमुक्कारो [ नमस्कार-मन्त्र ] २ पंचिंदिय-सुत्तं [ गुरु-स्थापना सूत्र ] ३ थोभवंदण-सुत्तं [ खमासमण-सूत्र ] ४ सुगुरु-सुखशाता-पृच्छा [ गुरु-निमन्त्रण-सूत्र ] ५ इरियावहिया-सुत्तं [ इरियावहियं-सूत्र ] ६ उत्तरीकरण-सुत्तं [ 'तस्स उत्तरी' सूत्र ] ७ काउसग्ग-सुत्तं [ 'अन्नत्थ' सूत्र ] ८ चउवीसत्थय-सुत्तं [ 'लोगस्स'-सूत्र ] ९ सामाइय-सुत्तं [ 'करेमि भंते' सूत्र ] १० सामाइय-पारण सुत्तं [ सामायिक पारनेका सूत्र ] ११ जगचिंतामणि-सुत्तं [ 'जगचिंतामणि' चैत्यवन्दन ] १२ तित्थवंदण-सुत्तं [ 'जं किंचि' सूत्र ] १३ सक्कत्थय-सुत्तं [ 'नमो त्थु णं' सूत्र ] १४ सव्व-चेइयवंदण-सुत्तं [ 'जावंति चेइयाई' सूत्र ] १५ सव्वसाहु-वंदण-सुत्तं [ 'जावंत के वि साहू' सूत्र ] १६ पञ्चपरमेष्ठि-नमस्कार-सूत्रम् [ 'नमोऽर्हत्' सूत्र ] १७ उवसग्गहर-थोत्तं [ उपसर्गहर-स्तोत्र ] १८ पणिहाण-सुत्तं [ 'जय वीयराय' सूत्र ] १६ चेइयथय–सुत्तं [ 'अरिहंत-चेइयाणं' सूत्र ] २० 'कल्लाण-कंद' थुई [ पञ्चजिन-स्तुति ] २१ संसारदावानल-थुई [ श्रीमहावीर -स्तुति ] २२ सुयधम्म-थुई [ 'पुक्खरवर'-सूत्र ]
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२३ सिद्ध-थुई [ 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र ] २४ वेयावच्चगर-सुत्तं [ 'वेयावच्चगराणं' सूत्र ] २५ भगवदादिवन्दनसूत्रम् [ 'भगवान हं' सूत्र ] २६ पडिक्कमण-ठवणा-सुत्तं [ 'सव्वस्स वि' सूत्र ] २७ अइयारालोअण-सुत्तं [ अतिचार-आलोचना-सूत्र ] २८ अइयार-वियारण-गाहा [ अतिचार विचारनेके लिए गाथाएँ ] १०२ २६ सुगुरु-वंदण-सुत्तं [ सुगुरु-वन्दन-सूत्र ] ३० जीवहिंसा-आलोयणा [ 'सात लाख' सूत्र ]
११६ ३१ अट्ठारस पाव- ठाणाणि [ अठारह पापस्थानक ] ३२ सावग-पडिक्कमण-सुत्तं [ 'वंदित्तु' सूत्र ] ३३ गुरुखामणा-सुत्तं [ 'अब्भुट्टिओ' सूत्र ] ३४ आयरियाइ-खामणा-सुत्तं [ 'आयरिय-उवज्झाए' सूत्र ] १७३ ३५ सुअदेवया-थुई [ श्रुतदेवताकी स्तुति ] ३६ खित्तदेवया-थुई [ क्षेत्रदेवता-स्तुति ] ३७ श्रुतदेवता-स्तुतिः [ 'कमल-दल' स्तुति ]
१७७ ३८ वर्धमान-स्तुतिः [ 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' सूत्र] . ३६ प्राभातिक-स्तुतिः [ 'विशाल लोचन-दलं' सूत्र ] ४० साहुवंदण-सुत्तं [ 'अढाइज्जेसु' सूत्र ]
१८४ ४१ सप्तति-शत-जिनवन्दनम् [ 'वरकनक' स्तुति ] ४२ शान्ति-स्तवः [ 'लघु-शान्ति' ] ४३ पासनाह-जिण-थुई [ 'चउक्कसाय'-सूत्र ]
२०८ ४४ भरहेसर-सज्झाओ [ 'भरहेसर-बाहुबली'-सज्झाय ] २१० ४५ सड्ढ-निच्च-किच्च-सज्झाओ [ 'मन्नह जिणाणं'-सज्झाय ] २४२ ४६ सकल तीर्थ-वंदना [ 'सकल-तीर्थ-वन्दना' ]
२४६ ४७ पोसह-सुत्तं [ 'पोसह लेनेका' सूत्र ] ४८ पोसह-पारण-सुत्तं [ 'पोसह पारनेका'-सूत्र ]
२५४ ४६ संथारा-पोरिसी [ संस्तारक-पौरुषी ]
२५७
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२६६
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५० पच्चक्खाणके सूत्र
२७३ ५१ श्रीवर्धमानजिन-स्तुतिः [ 'स्नातस्या'-स्तुति ]
२६१ ५२ भुवनदेवता-स्तुतिः [ भुवनदेवताकी स्तुति ] ५३ क्षेत्रदेवता-स्तुतिः [ क्षेत्रदेवताकी स्तुति ]
२६८ ५४ चतुर्विंशति-जिन-नमस्कारः [ 'सकलार्हत्'-स्तोत्र ] ५५ अजिय-संति-थओ [ अजित-शान्ति-स्तव ] ५६ बृहच्छान्तिः [ बड़ी शान्ति ]
३७१ नवस्मरणानि ५७ संतिनाह सम्मदिट्ठिय रक्खा [संतिकरं-स्तवन'] [तृतीयं स्मरणम्] तिजयपहुत्त स्तोत्रम् [ चतुर्थः स्मरणम् ]
४०९ नमिऊण स्तोत्रम् [ पञ्चमं स्मरणम् ] अजितशान्ति स्तोत्रम् [ षष्ठं स्मरणम् ] भक्तामर स्तोत्रम् [ सप्तमं स्मरणम् ]
कल्याणमन्दिर स्तोत्रम् [ अष्टमं स्मरणम् ] ५८ पाक्षिकादि अतिचार [ गुजराती सार्थ ]
हिन्दी पाक्षिक अतिचार
४०२
४०४
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४१५
४२२
४६८
४७७
उपयोगी विषयोंका संग्रह [१] मुहपत्तीके पचास बोल [२] प्रतिक्रमण सम्बन्धी उपयोगी सूचनाएँ [३] देवसिक प्रतिक्रमणकी विधि
४८० [४] रात्रिक प्रतिक्रमणकी विधि
४८८ [५] पाक्षिक प्रतिक्रमणकी विधि
४६३ [६] चातुर्मासिक-प्रतिक्रमणकी विधि
४६७ १. प्रथम, द्वितीय, तथा नवम स्मरणके लिए देखिये क्रमशः पृष्ठ १, ६१, ३ तथा ३७१।
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४६७.
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[७] सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी विधि [८] छींक आये तो करनेकी विधि [६] पच्चक्खाण पारनेकी विधि [१०] पोषध विधि [११] सामायिक लेनेकी विधिके हेतु [१२] सामायिक पारनेकी विधिके हेतु [१३] चैत्यवन्दनकी विधिके हेतु [१४] दैवसिक प्रतिक्रमणकी विधिके हेतु [१५] रात्रिक प्रतिक्रमणकी विधिके हेतु [१६] पाक्षिक चातुर्मासिक और सांवत्सरिक
प्रतिक्रमणकी विधिके हेतु [१७] मङ्गल-भावना [१८] प्रभुके सम्मुख बोलनेके दोहे [१६] शत्रुञ्जयको प्रणिपात करते समय बोलनेके दोहे [२०] नवाङ्गपूजाके दोहे [२१] अष्टप्रकारी पूजाके दोहे [२२] प्रभुस्तुति
(१) छे प्रतिमा मनोहारिणी, (२) आव्यो शरणे तुमारा, (३) त्हाराथी न समर्थ अन्य दीननो,
(४) सकल-कर्मवारी, [२३] चैत्यवन्दन
(१) पद्मप्रभु ने वासुपूज्य, (२) बारगुण अरिहंतदेव, (३) शान्ति जिनेश्वर सोलमा, (४) ऋषभ-लंछन ऋषभदेव,
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(५) विमल-केवलज्ञान, (६) श्रीशत्रुञ्जय सिद्धक्षेत्र, (७) आदिदेव अलवसरू, (८) श्रीसीमन्धर ! जगधणी, (९) श्रीसीमन्धर वीतराग (१०) सीमन्धर परमातमा, (११) सकल-मङ्गल-परम-कमला, (१२) विध धर्म जेणे उपदिश्यो, (१३) त्रिगडे बेठा वीर जिन, (१४) महा सुदि आठम दिने, (१५) शासननायक वीरजी !
(१६) पर्व पर्युषण गुण नीलो, [२४] स्तवन
(१) प्रथम जिनेश्वर प्रणमीए, (२) माता मरुदेवीना नन्द ! (३) ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम ! (४) पंथडो निहालं रे ! (५) प्रीतलड़ी बंधाणी रे ! (६) सम्भवदेव ते धुर सेवो, (७) अभिनन्दन जिन ! दरिसण, (८) दुःख दोहग दूरे टल्यां रे ! (९) धार तरवारनी सोहिली, (१०) शान्तिजिन एक मुझ विनति, (११) शान्ति जिनेश्वर साचो साहिब (१२) मनडुकिमहि न बाजे हो, (१३) अन्तरजामी सुण अलवेसर
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(१४) सिद्धारथना रे ! नन्दन, (१५) सुणो चन्दाजी ! सीमन्धर, (१६) पुक्खलवइ - विजये जयो रे !
(१७) विमलाचल नितु वन्दीए, (१८) सरस वचन रस वरसती, (१६) सुत सिद्धारथ भूपनो रे ! (२०) श्री राजगृही शुभठाम,
११
(२१) श्री ऋषभनुं जन्म - कल्याण रे ! (२२) मारे दीवाली थई आज,
[२५] स्तुतियाँ -
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(१) आदि - जिनवर राया, ( २ ) वन्दो जिन शान्ति ! (३) संखेश्वर पासजी पूजीए, (४) जय जय ! भवि हितकर,
( ५ ) श्रीसीमन्धर जिनवर, (६) महाविदेह क्षेत्रमां सीमन्धर,
(७) जिनशासन - वांछित - पूरण,
(८) पुण्डरीक गिरि महिमा, ( 2 ) श्रीशत्रुञ्जय तीरथ सार, (१०) दिन सकल मनोहर, (११) श्रावण सुदि दिन पंचमीए,
(१२) मङ्गल आठ करो जस आगल,
(१३) एकादशी अति रूअडी, (१४) वरस दिवसमा अषाढ- चोमासु, (१५) पुण्यनुं पोषण पापनुं शोषण,
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[२६] सज्झाय
(१) कडवां फल छे क्रोधनां, (२) रे जीव ! मान न कीजिए, (३) समकितनुं मूल जाणीएजी, (४) तुमे लक्षण जो जो लोभनां रे !
(५) मद आठ महामुनि वारिये, [२७] छन्द तथा पद
(१) नित जपिये नवकार, (२) समरो मन्त्र भलो नवकार, (३) वीर जिणेसर केरो शिष्य, (४) आदिनाथ आदे जिनवर वन्दी, (५) पूरव पुण्य-उदय करी चेतन !
(६) आशा औरनकी क्या कीजे, [२८] आरतियाँ
(१) जय ! जय ! आरती आदि जिणंदा ! - (२) अपसरा करती आरती जिन आगे, [२६] मङ्गल-दीपक
(१) दीवो रे ! दीवो मंगलिक दीवो,
(२) चारो मंगल चार आज, [३०] छूटे बोल[३१] श्रावकके प्रतिदिन धारने योग्य १४ नियम. [३२] सत्रह प्रमार्जना
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जैन साहित्य विकास मण्डल के
प्रकाशनों की सूची [१] प्रतिक्रमणसूत्र प्रबोधटोका ( भाग १ लो )
आवृत्ति बीजी-मूल्य रु० ५.०० * [२] प्रतिक्रमणसूत्र प्रबोध टीका ( भाग २ जो )
मूल्य रु० ५.०० [३] प्रतिक्रमणसूत्र प्रबोध टीका ( भाग ३ जो)
मुल्य रु० ५.०० * [४] प्रतिक्रमणनी पवित्रता आवृत्ति २ जी
मूल्य ०.६२ * [५ ] पंचप्रतिक्रमणसूत्र ( प्रबोधटोकानुसारी )
गुजराती आवृत्ति मूल्य २.०० [६] पंचप्रतिक्रमणसूत्र तथा नवस्मरण ( प्रबोधटीकानुसारी)
हिन्दी आवृत्ति मूल्य रु० ५.०० [७] सचित्र सार्थ सामायिक चैत्यवन्दन
आवृत्ति २जी मूल्य रु० १.२५ [८] योगप्रदीप गुजराती भाषान्तर सहित
मूल्य रु० १.५० * [९] ध्यानविचार सचित्र
अमूल्य [१०] तत्त्वानुशासन गुजराती भाषान्तर सहित
मूल्य १.०० [११] नमस्कार स्वाध्याय [सचित्र] (प्राकृतविभाग)
मूल्य रु० २०.००
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[१२] ऋषिमंडलस्तवयन्त्रालेखन
मूल्य रु० ३.०० [१३] ऋषिमंडल यन्त्र ( त्रिरंगी आर्ट पेपर पर)।
मूल्य रु० १.०० [१४] नमस्कार स्वाध्याय ( सचित्र) [ संस्कृत विभाग ]
मूल्य रु० १५.०० [१५] A COMPARATIVE STUDY OF THE
JAINA THEORIES OF REALITY AND KNOWLEDGE BY Y. J. PADMARAJIAH
Rs. 15.00 [१६] सर्वसिद्धान्त प्रवेशक
मूल्य १.०० [१७] जिनस्नात्रविधि तथा अर्हदभिषेक विधि
गुजराती भाषान्तर सहित मूल्य २.०० * [१८] लोगस्ससूत्र स्वाध्याय
मूल्य ७.०० [१९] योगसार गुजराती अनुवाद सहित मूल्य २.०० [२०] PRAMANA-NAYA-TATTUALOKALANKAR WITH ENGLISH TRANSLATION
Rs. 20.00
* चिन्हवाले ग्रन्थ अभी अप्राप्य हैं।
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प्रकाश्य ग्रन्थों
[१] सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय भाग -- १
[ २ ] सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय भाग - २ [ ३ ] योगशास्त्र अष्टम प्रकाशनुं सविस्तर विवरण
[ 4 ] NYAYAVATAR AND NAYAKARNIKA WITH ENGLISH TRANSLATION
[ ५ ] शत्रुंजय धातु प्रतिमा लेख संग्रह
[ ६ ] योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति सहित [ ७ ] साम्यशतक तथा समताशतक [ ८ ] समाधितन्त्र
[९] 'उवसग्गहरं' स्तोत्र स्वाध्याय
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॥ॐ अहं नमः॥ १ नमुक्कारो [ नमस्कार-मन्त्र]
नमो अरिहंताणं। नमो सिद्धाणं । नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्व-साहणं ।
(सिलोगो) एसो पंच-नमुक्कारो, सव्व-पाव-प्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं ॥१॥ शब्दार्थनमो-नमस्कार हो।
सव्व-पाव-प्पणासणो-सब पापोंअरिहंताणं-अरिहन्त भगवान्को । का विनाश करनेवाला । सव्वसिद्धाणं-सिद्ध भगवान्को। सब । पाव-अशुभ-कर्म (पाप) आयरियाणं-आचार्य महाराजको। प्पणासण-विनाश करनेवाला। उवज्झायाणं-उपाध्याय महाराजको। मंगलाणं-मङ्गलोंका, मङ्गलोंमें । लोए-लोकमें, ढाई द्वीपमें रहनेवाले। च-और, सव्व-साहूणं-सब साधुओंको। | सव्वेसि-सभी। एसो-यह ।
पढम-प्रथम, उत्कृष्ट । पंच-नमुक्कारो-पञ्च-नमस्कार, हवइ-है।
पाँचोंको किया हुआ नमस्कार। | मंगलं-मङ्गल ।
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अर्थ-सङ्कलना
अरिहन्त भगवन्तको नमस्कार हो। सिद्ध भगवन्तको नमस्कार हो । आचार्य महाराजको नमस्कार हो । उपाध्याय महाराजको नमस्कार हो।
ढाई द्वीपमें रहनेवाले सब साधुओंको नमस्कार हो । यह पञ्च-नमस्कार सर्व अशुभ-कर्मोंका विनाश करनेवाला तथा सर्व मङ्गलोंमें उत्कृष्ट मङ्गल है ।। १॥
सूत्र-परिचय
इस सूत्रके द्वारा अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन पञ्च-परमेष्ठीको नमस्कार किया जाता है, अत एव यह ‘पञ्च-परमेष्ठिनमस्कार' अथवा 'नमस्कार-मन्त्र के नामसे पहचाना जाता है। शास्त्रोंमें इस सूत्रका ‘पञ्च-मङ्गल' एवं 'पञ्च-मङ्गल-महा-श्रुतस्कन्ध' नामसे भी परिचय कराया है।
नमनकी क्रियाको नमस्कार कहते हैं। यह क्रिया द्रव्यसे भी होती है और भावसे भी होती है, अतः नमस्कारके द्रव्य नमस्कार और भाव-नमस्कार ऐसे दो प्रकार होते हैं। मस्तक नमाना, हाथ जोड़ना, घुटने झुकाना आदि द्रव्य-नमस्कार कहलाता है और मनको विषय तथा कषायसे मुक्तकर उसमें नम्रताके भाव लाना, यह भाव-नमस्कार कहलाता है । द्रव्य-नमस्कार तथा भाव-नमस्कारसे नमस्कारकी क्रिया पूर्ण हुई मानी जाती है।
नमस्कार-मन्त्रका स्मरण करनेसे सर्व अशुभ-कर्मोंका नाश होता है तथा सर्वश्रेष्ठ मङ्गल हुआ ऐसा माना जाता है, इसलिये शास्त्रका
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अभ्यास करना हो, शास्त्रका उपदेश देना हो, धार्मिक-क्रिया करनी हो, धार्मिक-उत्सव करना हो अथवा कोई भी शुभ-कार्य करना हो, तो प्रारम्भमें इसका स्मरण करना चाहिए। इतना ही नहीं सोते, जागते, भोजन करते, प्रवासके लिये प्रस्थान करते एवं मरण निकट आनेपर भी इसका शरण लेना चाहिये ।
इस सूत्रमें ६८ अक्षर हैं, ८ सम्पदाएँ हैं तथा ९ पद हैं, जिनकी गणना इस प्रकार है:
अक्षर
सम्पदा
पहली
नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्व-साहूणं एसो पंच-नमुक्कारो ... सव्व-पाव-प्पणासणो मंगलाणं च सवेसि
११ १ v v vour
दूसरी तीसरी चौथी पाँचवीं छठी
पहला दूसरा तीसरा चौथा पाँचवाँ छठा सातवाँ आठवाँ नौवाँ
सातवीं
आठवीं
पढम हवड मंगलं
पश्च-परमेष्ठी प्रश्न-परमेष्ठी किसे कहते हैं ? उत्तर-जो 'परमे' अर्थात् परमपदमें-ऊँचे स्थानमें 'ष्ठिन् ' अर्थात
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रहे हुए हों, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं । अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु गृहस्थोंकी अपेक्षा उच्च स्थानमें रहे हुए हैं, अत एव इन्हें परमेष्ठी कहते हैं ।
प्रश्न- - पञ्च परमेष्ठी में देव कितने और गुरु कितने ?
उत्तर – पञ्च- परमेष्ठी में अरिहन्त और सिद्ध ये दोनों देव हैं तथा आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ये तीन गुरु हैं ।
प्रश्न - अरिहन्तका अर्थ क्या है ?
उत्तर - राजा-महाराजा तथा देवादिकोंके
प्रश्न - अरिहन्तका दूसरा अर्थ क्या है ?
उत्तर - अरि अर्थात् शत्रु और हन्त अर्थात् हनन करनेवाला । जिस परम - पुरुषने कर्मरूपी शत्रुका हनन किया है, वह अरिहन्त ।
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पूज्य
प्रश्न - अरिहन्त भगवान् कैसे पहचाने जाते हैं ?
उत्तर-- अरिहन्त भगवान् बारह गुणोंसे पहचाने जाते हैं । प्रश्न- - वे किस प्रकार ?
वीतराग महापुरुष ।
उत्तर - (१) जहाँ अरिहन्त भगवान्का समवसरण होता है, वहाँ देवगण उनके शरीर से बारह गुना ऊँचा अशोकवृक्ष रचते हैं, (२) पुष्पोंकी वृष्टि करते हैं, (३) दिव्य-ध्वनिसे उनकी देशना - में स्वर भरते हैं, (४) चंवर डुलाते हैं, (५) बैठनेके लिये रत्न - जटित स्वर्णका सिंहासन बनाते हैं, (६) मस्तकके पीछे तेजका संवरण करनेवाला भामण्डल रचते हैं ( नहीं तो अतितेजके कारण भगवान्का मुख दर्शन नहीं हो सके ) (७) दुन्दुभि बजाते हैं और (८) मस्तकके ऊपर तीन मनोहर छत्र रचते हैं । इन आठ गुणोंको अष्ट-प्रतिहार्य कहते हैं, क्यों कि ये प्रतिहारी ( राजसेवक ) के समान
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साथ रहते हैं, (९) वे अपायापगम नामक अतिशयसे युक्त होते हैं, अर्थात् वे जहाँ जहाँ विचरण करते हैं, वहाँसे अतिवृष्टि, अनावृष्टि (दुष्काल), रोग, महामारी आदि अपायों ( अनिष्टों )का नाश हो जाता है, (१०) वे ज्ञानातिशयवाले होते हैं, अतः समस्त विश्वका सम्पूर्णस्वरूप जानते हैं, (११) वे पूजातिशयवाले होते हैं, अतः बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े राजा तथा इन्द्रादिक भी उनकी पूजा करते हैं और (१२) वे वचनातिशयवाले होते हैं, अतः उनके कथनका अभिप्राय देव, मनुष्य और पशु (तिर्यञ्च ) भी समझ
जाते हैं। प्रश्न-सिद्धका अर्थ क्या है । उत्तर-जिसने सर्वथा कर्मनाश द्वारा अपना शुद्ध-स्वरूप प्रकट किया है,
ऐसी आत्मा। प्रश्न-सिद्ध भगवान् कैसे पहचाने जाते हैं ? उत्तर-सिद्ध भगवान् आठ गुणोंसे पहचाने जाते हैं:-(१) अनन्तज्ञान
(२) अनन्तदर्शन, (३) अनन्त-अव्याबाध सुख, (४) अनन्तचारित्र, (५) अक्षय-स्थिति, (६) अरूपित्व, (७) अगुरुलघु (जिसमें उच्चता
अथवा निम्नताका व्यवहार नहीं हो सके) तथा (८) अनन्तवीर्य । प्रश्न-आचार्य किसे कहते हैं ? उत्तर-जो साधु गच्छके अधिपति हों, आचारका भले प्रकारसे पालन
करते हों तथा दूसरोंको आचारपालनका उपदेश करते हों, उनको आचार्य कहते हैं। वे पाँच इन्द्रियके विषयोंको जीतनेवाले होते हैं, ब्रह्मचर्यकी नव गुप्तियोंका पालनकरनेवाले होते हैं, चार प्रकारके कषायोंसे रहित होते हैं, पञ्चमहाव्रतका पालन करनेवाले होते हैं तथा पाँच समिति एवं तीन गुप्तियोंके पालन करनेवाले होते हैं। इस प्रकार छत्तीस गुणोंसे युक्त आचार्य पहचाने जाते हैं ।
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प्रश्न-उपाध्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-जो साधु ज्ञान और क्रियाका अभ्यास कराएँ उन्हें उपाध्याय कहते
हैं । उनकी पहचान नीचेके पच्चीस गुणोंसे होती है :-ग्यारह अङ्गशास्त्र" तथा बारह उपाङ्गशास्त्र'२ पढ़ाना, एवं चरित्र' तथा
क्रियामें कुशल होकर अन्य साधुओंको उसमें कुशल बनाना । प्रश्न-साधु किसे कहते हैं ? उत्तर-जो निर्वाण अथवा मोक्षमार्गकी साधना करते हों उन्हें साधु कहते
हैं। उनकी पहचान सत्ताईस गुणोंसे होती है:-वे पाँच महाव्रतोंका पालन करते हैं, रात्रि-भोजनका त्याग करते हैं, छ:-कायके जीवोंकी रक्षा करते हैं, पाँच इन्द्रियोंपर संयम रखते हैं, तीन गुप्तियोंका पालन करते हैं ३, लोभ रखते नहीं', क्षमा धारण करते हैं', मनको निर्मल रखते हैं', वस्त्रादिकी शुद्ध प्रतिलेखना ( पडिलेहणा ) करते हैं', प्रेक्षा-उपेक्षादि संयमका पालन करते हैं', तथा परीषहों' एवं
उपसर्गोको सहन करते हैं। प्रश्न-इस प्रकार पञ्च-परमेष्ठीमें कितने गुण हुए ? उत्तर-एक सौ आठ-१२ + ८+ ३६ + २५ + २७ = १०८ ।
x इन गुणोंकी गणना अन्य रीतिसे भी होती है ।
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२ पंचिंदिय-सुत्तं [ गुरु-स्थापना-सूत्र ]
[ गाहा ] पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो। चउविह-कसाय-मुक्को, इअ अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो ॥१॥ पंच-महव्वय-जुत्तो, पंचविहायार-पालण-समत्थो । पंच-समिओ ति-गुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ ॥२॥ शब्दार्थपंचिदिय-संवरणो-पाँच इन्द्रियों- | चउविह-कसाय-मुक्को-क्रोधादि को वशमें रखनेवाला।
चार प्रकारकी कषायोंसे मुक्त । पंचिंदिय-पाँच इन्द्रियाँ। संवरणो- चउविह चार प्रकारके । कसायवशमें रखनेवाला।
आत्माको संसारमें परिभ्रमण तह-तथा ।
करानेवाली मलिन भावना ।
उनसेनवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो
मुक्को -मुक्त। नवविध ब्रह्मचर्यकी गुप्तिको
इअ-इस प्रकार। धारण करनेवाला। अट्ठारसगुणेहि-अठारह गुणोंसे । नवविह-नवविध, नव प्रकारकी। संजुत्तो-युक्त, सहित । बंभचेर - गुत्ति - ब्रह्मचर्यको | पंच-महव्वय-जुत्तो-पाँच महाव्रतोंगुप्ति, ब्रह्मचर्य-पालन सम्बन्धी से युक्त। नियम। धरो-धारण करने- पंच-पाँच । महन्वय-महावत, वाला।
साधुओंके व्रत । जुत्त-युक्त ।
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पंचविहायार-पालण-समत्थो- । पंच-समिओ-पाँच समितियोंसे
पाँच तरहके आचारोंको पालन युक्त। करनेमें समर्थ ।
ति-गुत्तो-तीन गुप्तियोंसे युक्त । पंचविह-पाँच तरहके । आयार
छत्तीसगुणो-छत्तीसगुणोंवाले। आचार, मर्यादा-पूर्वक वर्तन करनेकी क्रिया। पालण- गुरू-गुरु । समत्थ-पालन करने में समर्थ ।। मज्झ-मेरे ।
अर्थ-सङ्कलना
पाँच इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले, नवविध-ब्रह्मचर्यकी गुप्तिको धारण करनेवाले, क्रोधादि चार प्रकारको कषायोंसे मुक्त, इस प्रकार अठारह गुणोंसे युक्त तथा पाँच महाव्रतोंसे युक्त, पाँच प्रकारके आचारोंके पालन करनेमें समर्थ, पांच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त,
इस प्रकार छत्तीस गुणोंसे युक्त मेरे गुरु हैं । सूत्र-परिचय
समस्त धार्मिक क्रियाएँ गुरुकी आज्ञा ग्रहणकर उनके समक्ष करनी चाहिये, परन्तु जब ऐसा सम्भव ( योग ) न हो और धार्मिक क्रिया करनी हो, तब ज्ञान, दर्शन और चारित्रके उपकरणोंमें गुरुकी स्थापना करके काम चलाया जाता है। ऐसी स्थापना करते समय इस सूत्रका उपयोग होता है।
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गुरु प्रश्न-गुरु किसे कहते हैं ? उत्तर-जो अज्ञानको दूर करे उसे गुरु कहते हैं । प्रश्न-गुरुके कितने प्रकार हैं ? उत्तर-गुरुके दो प्रकार हैं, सद्गुरु और कुगुरु । प्रश्न-सद्गुरु किसे कहते हैं ? उत्तर-जो स्वयं तिरे और अन्योंको तिराए उसे सद्गुरु कहते हैं । प्रश्न-कृगुरु किसे कहते हैं ? उत्तर-जो स्वयं डूबे और दूसरोंको भी डुबोए उसे कुगुरु कहते हैं । प्रश्न-सद्गुरुके लक्षण क्या है ? उत्तर-सद्गुरु स्पर्शनेन्द्रिय ( चर्म ), रसनेन्द्रिय ( जिह्वा ), घ्राणेन्द्रिय
( नासिका ), चक्षुरिन्द्रिय ( नेत्र ) और श्रोत्रेन्द्रिय (कर्ण) इन पाँच
इन्द्रियोंके विषयोंको वशमें रखनेवाले होते हैं । प्रश्न-और अन्य लक्षण क्या हैं ? उत्तर-सद्गुरु नौ नियम-पूर्वक ब्रह्मचर्य का शुद्ध पालन करे। जैसे कि:
(१) स्त्री, पशु और नपुंसकसे रहित स्थानमें रहे । (२) स्त्रीसम्बन्धी बातें न करे। (३) स्त्री जिस आसनपर बैठी हो उस आसनपर दो घटिका (घड़ी),
तक न बैठे। (४) स्त्रियोंके अङ्गोपाङ्गोंको आसक्ति-पूर्वक न देखे । (५) दीवारको आडमें स्त्री-पुरुषका जोड़ा रहता हो ऐसे स्थानपर
न रहे।
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(६) पूर्वकालमें स्त्रीके साथ जो क्रीडा की हो, उसका स्मरण न करे। (७) मादक आहार-पानी उपयोगमें न ले । (८) प्रमाणसे अधिक आहार न करे। पुरुषके आहारका प्रमाण ३२ __ कवल (ग्रास ) है।
(९) शरीरका शृंगार नहीं करे। प्रश्न-और अन्य लक्षण क्या हैं ? उत्तर-सद्गुरु चार प्रकारके कषायोंका सेवन न करे । जैसे कि:- ..
(१) क्रोध न करे। (२) मान न रखे। (३) माया ( कपट ) का सेवन न करे ।
(४) लोभ-लोलुप न बने। प्रश्न-और अन्य लक्षण क्या हैं ? उत्तर-सद्गुरु पाँच महाव्रतोंका यथार्थरीतिसे पालन करे । जैसे कि:
(१) मन, वचन,कायसे किसी प्राणीको हिंसा न करे । (२) मन, वचन, कायसे असत्य न बोले । (३) मन, वचन, कायसे अदत्त न लेवे । (४) मन, वचन, कायसे मैथुन-सेवन न करे ।
(५) मन, वचन, कायसे परिग्रह न रखे। प्रश्न-और अन्य लक्षण क्या हैं ? उत्तर-सद्गुरु पाँच प्रकारके आचारोंका पालन करे । जैसे किः
(१) ज्ञानाचारका पालन करे । (२) दर्शनाचारका पालन करे।
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(३) चारित्राचारका पालन करे । (४) तपाचारका पालन करे।
(५) वीर्याचारका पालन करे। प्रश्न-और अन्य लक्षण क्या हैं ? उत्तर-सद्गुरु पाँच समिति और तीन गुप्तिका पालन करे । जैसे कि :
(१) चलनेमें सावधानी रखे। (२) बोलनेमें सावधानी रखे। (३) आहार-पानी लेनेमें सावधानी रखे । (४) वस्त्र, पात्र लेने-रखनेमें सावधानी रखे । (५) मल, मूत्र आदि परठवने ( परिष्ठापन ) में सावधानी रखे। (१) मनको पूर्णतया वशमें रखे । (२) वचनको पूर्णतया वशमें रखे । (३) कायको पूर्णतया वशमें रखे ।
इस प्रकारके ३६ गुणोंसे गुरु परखे जाते हैं तथा उनके चरणोंकी सेवा करनेसे जन्म सफल होता है।
३ थोभवंदरण-सुत्तं
[खमासमण-सूत्र ]
इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं. जावणिज्जाए निसीहिआए, मत्थएण वंदामि ॥
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शब्दार्थइच्छामि-मैं चाहता हूँ। निसीहिआए-पाप-प्रवृत्तिका परिखमासमणो! हे क्षमा आदि गुण- | त्याग करके अथवा अविनय__ वाले साधु महाराज !
आशातनाकी क्षमा माँगकर। वंदिउं-वन्दन करनेको । मत्थएण-मस्तकसे, मस्तक झुकाजावणिज्जाए-शक्ति सहित अथवा कर।
सुखसाता पूछकर। | वंदामि-मैं वन्दन करता हूँ। अर्थ सङ्कलना
हे क्षमाशील साधु महाराज ! आपकी मैं सुखसाता पूछकर तथा अविनय-(आशातना ) के लिए क्षमा माँगकर वन्दन करना चाहता हूँ।
मस्तक आदि पाँचों अङ्ग झुकाकर मैं वन्दन करता हूँ। सूत्र-परिचय
गुरुवन्दनके तीन प्रकार हैं :-(१) फिट्टावन्दन, (२) थोभवन्दन और (३) द्वादशावर्त्तवन्दन । मार्गमें चलते हुए केवल मस्तक झुकाकर जो वन्दन किया जाता है, वह फिट्टावन्दन कहाता है; रुककर शरीरके पाँच अङ्ग नमाकर जो वन्दन किया जाता है, वह थोभ ( स्तोभ ) वन्दन कहाता है; और प्रातः तथा सायं बारह आवर्त्त-पूर्वक जो वन्दन किया जाता है, वह द्वादशावर्त्तवन्दन कहाता है। ___ यह सूत्र थोभ ( स्तोभ ) वन्दन करते समय बोला जाता है और 'खमासमणो' शब्द पहले आनेसे 'खमासमण-सूत्र' के नामसे प्रसिद्ध है।
क्षमाश्रमण प्रश्न-खमासमणो शब्दका अर्थ क्या है ? उत्तर-हे क्षमासमण ! अथवा हे क्षमाश्रमण !
.
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प्रश्न-क्षमासमण किसे कहते हैं ? उत्तर-~जो समण क्षमा आदि दस प्रकारके यतिधर्मोंका पालन करता हो
वह क्षमासमण कहाता है। प्रश्न-समण किसे कहते हैं ? उत्तर-जो साधु सभी जीवोंके साथ समभावसे वर्तन करे, वह समण
कहाता है। प्रश्न-श्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर-जो साधु पाँच इन्द्रियोंको वशमें रखनेके लिये श्रम करे, वह श्रमण
कहाता है । अथवा जो साधु आत्मशुद्धिके लिये श्रम अर्थात् तपश्चर्या
करे, वह श्रमण कहाता है । प्रश्न-यतिधर्मके दस प्रकार कौनसे हैं ? उत्तर-(१) क्षमा रखना, (२) मृदुता रखना, (३) सरलता रखना,
(४) पवित्रता रखना, (५) सत्य बोलना, (६) संयमका पालन करना, (७) तप करना, (८) त्यागवृत्ति रखना, (९) अपने पास रुपये-पैसे
आदि नहीं रखना और (१०) ब्रह्मचर्यका पालन करना। प्रश्न-पञ्चाङ्ग-प्रणिपात किसे कहते हैं ? । उत्तर-दो हाथ, दोनों घुटने और मस्तक इन पाँचों अङ्गोंको संकुचित
करके जो प्रणाम किया जाय उसे पञ्चाङ्ग-प्रणिपात कहते हैं । थोभवन्दन करते समय ऐसा हो प्रणिपात किया जाता है।
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४ सुगुरु-सुखसाता-पच्छा
[गुरु-निमन्त्रण-सूत्र ]
इच्छाकार ! सुह-राइ ? (सुह-देवसि ? ) सुख-तप ? शरीर-निराबाध ? सुख-संजम-यात्रा निर्वहते हो जी ? स्वामिन् ! साता है जी ?
[ यहाँ गुरु उत्तर देवें कि-'देव-गुरु-पसाय' यह सुनकर शिष्य कहे :-]
भात पानी का लाभ देना जी ॥ शब्दार्थइच्छाकार !-हे गुरो! आपको | शरीर-निराबाध ?-शरीर पीडा
इच्छा हो तो मैं पूछू । । रहित है ? सह-राइ ?-गतरात्रि सुख-पूर्वक | सुख-संयम-यात्रा निर्वहते हो __ व्यतीत हुई ?
जी?-आप चारित्रका पालन ( सुह-देवसि ?-गतदिवस सुख- सुख-पूर्वक कर सकते हो ?, पूर्वक व्यतीत हुआ ? )
आपकी संयम-यात्राका निर्वाह सुख-तप ?-तपश्चर्या सुख-पूर्वक |
सुख-पूर्वक होता है ? होती है ?
| स्वामिन् !o-शेष अर्थ स्पष्ट है । अर्थ-सङ्कलना
[शिष्य गुरुको सुख-साता पूछता है, वह इस प्रकार:-] हे गुरो ! आपकी इच्छा हो तो पूछ् ? गत रात्रि आपकी इच्छा
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के अनुकूल सुख-पूर्वक व्यतीत हुई ? ( अथवा गत दिवस आपकी इच्छाके अनुकूल व्यतीत हुआ ? ) आपकी तपश्चर्या सुख-पूर्वक होती है ? आपका शरीर पीडारहित है ? तथा हे गुरो! आपकी संयम-यात्राका निर्वाह सुख-पूर्वक होता है ? हे स्वामिन् ! आपके सर्व प्रकारकी साता है ?
[गुरु कहते हैं-'देव और गुरुकी कृपासे सब वैसा ही है; अर्थात् सुख–साता है । शिष्य इस समय अपनी हार्दिक अभिलाषा व्यक्त करता है :-] ___'मेरे यहाँसे आहार-पानी ग्रहणकर मुझको धर्मलाभ देनेकी कृपा करें। __ [गुरु इस आमन्त्रणको स्वीकार अथवा अस्वीकार न करके कहते हैं कि-]
'वर्तमान योग'-जैसी उस समयकी अनुकूलता। सूत्र-परिचय
गुरुकी सुख-साता पूछनेके लिये इस सूत्रका उपयोग होता है । उसमें प्रथम यह पूछा जाता है कि हे गुरो ! रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत हुई ? अर्थात् आपने जो रात्रि बिताई, उसमें किसी प्रकारको अशान्ति तो नहीं हुई ? यदि वन्दन दिनके बारह बजेके पश्चात् किया हो तो रात्रिके स्थानपर दिवस बोला जाता है, जिसका अर्थ यह है कि आपने जो दिवस बिताया उसमें किसी प्रकारकी अशान्ति तो नहीं हुई ? दूसरा प्रश्न यह पूछा जाता है कि आप जो तपश्चर्या कर रहे हैं, उसमें किसी प्रकारका विघ्न तो नहीं आता ? तीसरा प्रश्न यह पूछा जाता है कि आपका शरीर पीड़ा-रहित तो है ? अर्थात् छोटी-बड़ी कोई व्याधि पीड़ा तो उत्पन्न नहीं करती ?
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और चौथा प्रश्न यह पूछा जाता है कि आप चारित्रका पालन सुख-पूर्वक कर सकते हैं ? इन प्रश्नोंको पूछनेका कारण यह है कि गुरुको तप-संयम आदिकी आराधना करने में किसी भी प्रकारकी कठिनता होती हो तो उपयोगी होना । तदनन्तर गुरुको आहार-पानीके लिये निमन्त्रण देते हैं, किन्तु गुरु अपना साधु-धर्म विचारकर 'वर्तमान योग' अर्थात् 'जैसा उस समयका संयोग' ऐसा उत्तर देते हैं ।
५ इरियावहिया-सुत्तं [इरियावहियं-सूत्र]
पीठिका इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं ।
इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए । गमणागमणे।
पाण-कमणे, बीय-कमणे, हरिय-कमणे, ओसाउत्तिंग-पणग-दगमट्टी-मकडा-संताणा-संकमणे ।
जे मे जीवा विराहिया। एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया।
अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छा मि दुकडं ।
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शब्दार्थइच्छाकारेण-स्वेच्छासे। पाण-क्कमणे-प्राणियोंको दबानेसे। संदिसह-आज्ञा दीजिये। बीय-क्कमणे-बीजको दबानेसे । भगवन् !-हे भगवन् !
हरिय-क्कमणे-हरी वनस्पतिको इरियावहियं पडिक्कमामि
दबानेसे। मैं ईर्यापथिको-क्रियाका प्रति- ओसा-उत्तिग-पणग-जल क्रमण करता हूँ।
मट्टी-मक्कड़ा-संताणाईर्यापथ सम्बन्धी जो क्रिया वह संकमणे-ओस, चींटियोंके ईपिथिकी। ईर्यापथ-जाने- बिल, पाँच वर्ण की काई (नील
आनेका मार्ग । प्रतिक्रमण- फूल), पानी वाली मिट्टी और वापस लौटनेकी (परावर्तनकी मकड़ीका जाला आदिको क्रिया।
दबानेसे। इच्छं-चाहता हूँ, आपकी यह आज्ञा ओसा--ओसकी बूंदें। उत्तिंग__ स्वीकृत करता हूँ।
चीटियोंका बिल । पणगइच्छामि-चाहता हूँ, अन्तःकरण- पाँच वर्ण की काई (फूलन)।
की भावनापूर्वक प्रारम्भ दगमट्टी-कीचड़ । मक्कडाकरता हूँ।
संताणा-मकड़ीका जाला । पडिक्कमिउं-प्रतिक्रमण करनेको। जे जीवा-जो प्राणी, जो जीव । इरिचावहियाए विराहणाए- मे विराहिया-मुझसे दुःखित हुए ईपिथिकी-क्रियाके प्रसङ्गमें हों। लगे हुए अतिचारसे, मार्गमें | एगिदिया-एक इन्द्रियवाले जीव । चलते समय हुई जीवविरा- | बेइंदिया-दो इन्द्रियवाले जीव । धनाका । विराहणा-विकृत हुई तेइंदिया-तीन इन्द्रियवाले जीव ।
आराधना, दोष । | चरिंदिया-चार इन्द्रियवाले जीव। गमणागमणे-कार्य-प्रयोजनमें जाते | पंचिदिया-पाँच इन्द्रियवाले जीव ।
और वहाँसे वापस लौटते, | अभिहया-पाँवसे मरे हों, ठोकरसे जाते-आते ।
मरे हों। प्र-२
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वत्तिया-धूलसे ढके हों। ठाणाओ ठाणं-एक स्थानसे दूसरे लेसिया-भूमिके साथ कुचले गये हों। स्थानपर। संघाइया-परस्पर शरीर द्वारा | संकामिया फिराये हों। ___टकराये हों।
जीवियाओ ववरोविया-प्राणसे संघट्टिया स्पर्श हुआ हो।
रहित किये हों। परियाविया-कष्ट पहुँचाया हो। । तस्स-उन सर्व-अतिचारोंका। किलामिया-खेद पहुँचाया हो। मिच्छा-मिथ्या । उद्दविया-डराये (भयभीत किये) मि-मेरा। गये हों।
दुक्कडं-दुष्कृत।
अर्थ-सङ्कलना
हे भगवन् ! स्वेच्छासे ईर्यापथिकी-प्रतिक्रमण करनेकी मुझे आज्ञा दीजिये । [ गुरु इसके प्रत्युत्तर में-' पडिक्कमेह' - 'प्रतिक्रमण करो' ऐसा कहे तब ] शिष्य कहे कि-मैं चाहता हूँ-आपकी यह आज्ञा स्वीकृत करता हूँ। अब मैं मार्गमें चलते समय हुई जीवविराधनाका प्रतिक्रमण अन्तःकरणकी भावनापूर्वक प्रारम्भ करता हूँ।
जाते-आते मुझसे प्राणी, बीज, हरी वनस्पति, ओसको बूंदें, चीटियोंके बिल, पाँच वर्णकी काई, कच्चा पानी, कीचड़, तथा मकड़ीका जाला-आदि दबानेसे;
जाते-आते मुझसे जो कोई एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अथवा पाँच इन्द्रियवाले जीव विराधित (दुःखित) हुए हों; __ जाते आते मुझसे कोई जीव ठोकरसे मरे हों, धूलसे ढके हों, भूमिके साथ कुचले गये हों, परस्पर शरीरद्वारा टकरा गये हों,
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स्पर्श हुआ हो, कष्ट पहुँचाया हो, खेद पहुँचाया हो, भयभीत किये गये हों, एक स्थान से दूसरे स्थानपर फिराये हों अथवा प्राणसे रहित किये हों, और उससे जो विराधना हुई हो तत्सम्बन्धी मेरे सब दुष्कृत मिथ्या हो ।
सूत्र - परिचय -
इस सूत्र का उपयोग सामायिक, प्रतिक्रमण, चैत्यवन्दन तथा देववन्दन आदिमें होता है ।
चलनेकी क्रिया नीचे देखकर पूर्ण सावधानी से करनी चाहिये और उसमें कोई जीव कुचल न जाय इसका पूरा ध्यान रखना चाहिये । ऐसा करनेपर भी यदि भूल-चूकसे अथवा उपयोगकी न्यूनतासे जाते-आते कोई भी जीव दब गया हो और उसे किसी भी प्रकारका दुःख पहुँचाया हो, तो इस सूत्र से उसका प्रतिक्रमण किया जाता है । छोटी-से-छोटी जीवविराधना को भी दुष्कृत समझना और तदर्थ अप्रसन्न होना, यह इस सूत्रका प्रधान - स्वर है । 'मिच्छामि दुक्कडं' ये तीनों पद प्रतिक्रमणके बीज माने जाते हैं ।
svaranी डिक्कमणके १८२४१२० भेद हैं । वे इस प्रकार हैं :— जीवके ५६३ भेद हैं उनकी विराधना दस प्रकारसे होती है । उसको राग-द्वेष, तीन करण, x तीन योग, + तीन काल, ÷ और अरिहन्त आदि छ: की* साक्षीसे गुणन करनेपर क्रमशः ५६३ X १० × २ × ३ × ३ × ३ x ६ = १८२४१२० भेद होते हैं ।
X करना, कराना और अनुमोदन करना |
+ मन, वचन और काय ।
: भूत, वर्तमान और भविष्य ।
★ अरिहन्त, सिद्ध, साधु, देव, गुरु और आत्मा ।
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६ उत्तरीकरण-सुत्तं
[ 'तस्स उत्तरी'-सूत्र ]
तस्स
उत्तरी-करणेणं, पायच्छित्त-करणेणं, विसोही-करणेणं, विसल्ली-करणेणं,
पावाणं कम्माण निग्घायणट्टाए
ठामि काउस्सग्गं ॥ शब्दार्थतस्स-उसका।
विसोही-करणेणं-विशेष चित्तजिस जीव-विराधनाका प्रतिक्र- शुद्धि करने के लिये। मण किया उसका अनसन्धान ! विसल्ली-करणेणं-चित्तको शल्य करके यह सूत्र कहते हैं ।
(कण्टक) रहित करनेके लिये। उत्तरी-करणेणं-विशेष---आलोच- ।
। पावाणं-कम्माणं-पापकर्मोंका ।
निग्घायणट्टाए-सर्वथा नाश करना और निन्दा करने के लिये। । नके लिये। पायच्छित्त--करणेणं--प्रायश्चित्त ठामि काउस्सग्गं-मैं कायोत्सर्ग करनेके लिये।
करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
जीव-विराधनाका मैंने जो प्रतिक्रमण किया उसका अनुसन्धान करके यह सूत्र कहता हूँ। विशेष-आलोचना और निन्दा करने के लिये, प्रायश्चित्त करने के लिये, विशेष चत्तशुद्धि करनेके लिये, चित्तको
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२१
शल्य रहित करनेके लिये, पापकर्मोंका सर्वथा नाश करनेके लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। सूत्र-परिचय. प्रतिक्रमणसे सामान्य-शुद्धि होती है और कायोत्सर्गसे विशेष-शुद्धि होती है, अत एव 'मिच्छा मि दुक्कडं' रूप प्रतिक्रमण करनेके पश्चात् कायोत्सर्ग किया जाता है। इस कायोत्सर्गमें चार क्रियाएँ की जाती हैं । पहली क्रिया किये हुए अतिचारकी विशेष-आलोचना और निन्दा करनेके लिये होती है। दूसरी क्रिया तदर्थ शास्त्रोंद्वारा कथित प्रायश्चित्त ग्रहण करनेके लिये होती है। ईरियावहिय अतिचारके लिये २५ उच्छ्वासका कायोत्सर्ग करनेसे प्रायश्चित्त होता है । तीसरी क्रिया चित्तकी विशेष-शुद्धि करनेके लिये होती है और चौथी क्रिया मानसके अन्तर्गत गहरे छिपे हुए शल्योंको दूर करनेके लिये होती है ।
शल्यके तीन भेद हैं :--मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य । इनमें सत्य वस्तुको मिथ्या समझना और मिथ्या वस्तुको सत्य समझना ये मिथ्यात्व कहलाता है। कपट करना, दम्भ करना ये माया कहलाती है और धर्म करने में फल-प्राप्ति स्वरूप सांसारिक सुख-भोगकी इच्छा करना, ये निदान कहलाता है।
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७ काउस्सग्ग-सुत्तं
[ 'अन्नत्थ' -सूत्र ] मूल
अन्नत्थ
ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइएणं उड्डुएणं वाय-निसग्गेणं,
भमलीए पित्त-मुच्छाए,
सुहुमेहिं अंग-संचालेहिं सुहुमेहिं खेल-संचालेहिं सुहुमेहिं दिट्ठि-संचालेहिं,
एवमाइएहिं आगारेहिं, अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो ।
जाव अरिहंताण भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि । शब्दार्थअन्नत्थ-अधो लिखित अपवाद- | उड्डुएणं-डकार आनेसे । पूर्वक।
वाय-निसग्गेणं-अधोवायु छूटनेसे, ऊससिएणं-श्वास लेनेसे । ___अपान वायु सरनेसे । नीससिएणं-श्वास छोड़नेसे ।
भमलीए-चक्कर आनेसे ।
पित्त-मुच्छाए-पित्त-विकारके खासिएणं-खाँसी आनेसे ।
कारण आनेसे । छोएणं-छींक आनेसे ।
सुमेहि अंग-संचालेहि-सूक्ष्म जंभाइएणं-जम्हाई आनेसे ।
अङ्ग-सञ्चार होनेसे ।
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सुहुमेहिं खेल-संचालहि- अरिहंताणं भगवंताणं नमु
सूक्ष्म रीतिसे शरीरमें कफ क्कारेणं-अरिहंत भगवान्को ___ तथा वायुका सञ्चार होनेसे । । नमस्कार करके, अर्थात् 'नमो सुहुमेहि दिट्ठि-संचालहिं
अरिहंताणं' पदसे । - सूक्ष्म दृष्टि-सञ्चार होनेसे । न पारेमि-पूर्ण न करूँ। एवमाइएहिं आगारेहि-इत्यादि
ताव-तबतक।
कार्य-शरीरको, कायको । ( अपवादके ) प्रकारोंसे ।
ठाणेणं-स्थान द्वारा। अभग्गो-भग्न न हो ऐसा।
मोणेणं-वाणी-व्यापार सर्वथा बन्द अविराहिओ-खण्डित न हो ऐसा।
करके। हुज्ज-हो।
झाणेणं-ध्यान द्वारा। मे-मेरा।
अप्पाणं-अपनी। काउस्सग्गो-कायोत्सर्ग। वोसिरामि-सर्वथा त्याग करता जाव-जहाँतक, जबतक । अर्थ-सङ्कलना
श्वास लेनेसे, श्वास छोड़नेसे, खाँसो आनेसे, छींक आनेसे, जम्हाई आनेसे, डकार आनेसे, अपानवायु सरनेसे, चक्कर आनेसे, पित्त-विकारके कारण मूर्छा आनेसे, सूक्ष्म अङ्ग-सञ्चार होनेसे, सूक्ष्म रीतिसे शरीरमें कर्फ तथा वायुका सञ्चार होनेसे, सूक्ष्म दृष्टिसञ्चार (नेत्र-स्फुरण आदि ) होनेसे, अग्नि-स्पर्श, शरीर-छेदन अथवा सम्मुख होता हुआ पञ्चेन्द्रिय वध, चौर अथवा राजाके कारण और सर्प-दंश इन कारणोंके उपस्थित होनेपर जो काय-व्यापार हो, उससे मेरा कायोत्सर्ग भग्न न हो अथवा विराधित न हो, ऐसे ज्ञानके साथ खड़ा रहकर वाणी-व्यापार सर्वथा बन्द करता हूँ तथा चित्तको
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२४
ध्यानमें जोड़ता हूँ और जबतक 'नमो अरिहंताणं' यह पद बोलकर कायोत्सर्ग पूर्ण न करूँ, तबतक अपनी कायका सर्वथा त्याग करता हूँ। सूत्र-परिचय
प्रस्तुत सूत्रमें कायोत्सर्गके आगारोंकी गणना की है तथा कायोत्सर्गका समय, स्वरूप और प्रतिज्ञा प्रदर्शित की है। उसमें ' अन्नत्थ ऊससिएणं' से 'हुज्ज मे काउस्सग्गो' तकके भागमें कायोत्सर्गके आगार हैं, 'जाव अरिहंताणं 'से 'न पारेमि ताव ' पर्यन्तके भागमें कायोत्सर्गका समय है, ' कायं 'से ' झाणेणं' पर्यन्तके भागमें कायोत्सर्गका स्वरूप है और 'अप्पाणं वोसिरामि' इन शब्दोंमें कायोत्सर्गकी प्रतिज्ञा ।
कायोत्सर्ग प्रश्न-कायोत्सर्गका अर्थ क्या है ? उत्तर-कायका उत्सर्ग । प्रश्न-काय अर्थात् ? उत्तर-देह अथवा शरीर । परन्तु यहाँ इसका अर्थ प्रवृत्तिवाला शरीर
ऐसा समझना चाहिये। प्रश्न-उत्सर्ग अर्थात् ? उत्तर—त्याग । प्रश्न-इस प्रकार कायोत्सर्गका अर्थ क्या हुआ ? उत्तर-प्रवृत्तिवाले शरीरका त्याग करना, अर्थात् शरीरद्वारा प्रवृत्ति
करना छोड़ देना। प्रश्न-क्या कायोत्सर्ग में शरीरद्वारा किसी प्रकारकी प्रवृत्ति नहीं की
जाती है ? उत्तर-कायोत्सर्गमें शरीरद्वारा उतनी ही प्रवृत्ति की जाती है जो ध्यानमें
स्थिर रहनेके लिये उपयोगी हो ।
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२५
प्रश्न-उदाहरण के लिये ? उत्तर-एक आसनपर स्थिर रहना और वाणीके प्रवाहको रोक लेना, यह
ऐसी प्र है। प्रश्न-इसके अतिरिक्त अन्य कोई प्रवृत्ति हो सकती है ? उत्तर-नहीं। इसके अतिरिक्त इच्छा-पूर्वक कोई प्रवृत्ति नहीं हो सकती,
किन्तु शरीरकी कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं कि, जो इच्छाके बिना भी होती रहती हैं, अर्थात् ऐसी प्रवृत्तियोंका कायोत्सर्गमें अपवाद रखा
जाता है। ऐसे अपवादको शास्त्रीय-भाषामें आगार कहते हैं । प्रश्न-कायोत्सर्ग में कितने आगार रखे जाते हैं ? उत्तर-सोलह । उनमें बारहके नाम तो स्पष्ट दिये हैं और चारके नाम ।
_ 'एवमाइएहि' पदसे समझने चाहिये । प्रश्न--सोलह आगारोंके नाम गिनाइये । उत्तर-(१) श्वास लेना, (२) श्वास छोड़ना, (३) खाँसी आना, (४)
छींक आना, (५) जम्हाई आना, (६) डकार आना, (७) अपानवायु सरना, (८) चक्कर आना, (९) पित्तका उभरना, (१०) सूक्ष्म रीतिसे अङ्ग हिलना, (११) सूक्ष्म रीतिसे कफ बलगमका आना (हिलना), (१२) सूक्ष्म रीतिसे दृष्टिका हिलना तथा, (१३) अग्निका फैल जाना, (१४) कोई हिंसक प्राणी समक्ष आजाये अथवा पञ्चेन्द्रिय प्राणीका छेदन-भेदन करने लगे, (१५) कोई चोर अथवा राजा वहाँ आकर कुकर्म करने लगे और (१६) सर्पदंश हो अथवा सर्पदंश होनेकी सम्भावना उत्पन्न हो, तो वह स्थान छोड़ देना। तात्पर्य यह कि
इतनी वस्तुओंसे कायोत्सर्गकी प्रतिज्ञाका भङ्ग होना नहीं गिना जाता। प्रश्न-कायोत्सर्गमें क्या किया जाता है ? उत्तर-धर्मध्यान ।
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८ चउवीसत्थय-सुत्तं
[ 'लोगस्स’-सूत्र ]
__ [ सिलोगो] लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली ॥१॥
[गाहा ] उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल-सिजंस-वासुपुजं च । विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंथु अरं च मल्लि, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ एवं मए अभिथुआ, विहुय-रय-मला पहीण-जर-मरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ ५॥ कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्ग-बोहि-लाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु ॥ ६ ॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ ७॥
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२७
शब्दार्थलोगस्स-लोकका, चौदह राज- | सुपासं-श्रीसुपार्श्वनाथ नामके सातवें लोकोंमें ।
तीर्थङ्करको। उज्जोअगरे-प्रकाश करनेवालोंकी। जिणं-जिनको । धम्म-तित्थयरे-धर्मरूपी तीर्थ-च-और । का प्रवर्तन करनेवालोंकी।
वालाका। चंदप्पहं-श्रीचन्द्रप्रभ नामके आजिणे-जिनोंकी, राग-द्वेष विजेता
ठवें तीर्थङ्करको। ओंकी।
वंदे-वंदन करता हूँ। अरिहंते-अहंतोंकी,त्रिलोकपूज्योंकी।
सुविहि-श्रीसुविधिनाथ नामके नौवें कित्तिइस्सं-मैं स्तुति करता हूँ।
तीर्थङ्करको। चउवीसं पि-चौबीसों।
| च-अथवा। केवली-केवलज्ञान प्राप्त करने__ वालोंकी, केवली भगवानोंकी।
पुप्फदंतं-पुष्पदन्तको (श्रीसुविधिउसभं-श्रीऋषभदेव नामके प्रथम
नाथका यह दूसरा नाम है)। तीर्थङ्करको ।
सीअल-सिज्जंस-वासुपुज्जंअजिअं-श्रीअजितनाथ नामके दूसरे श्रीशीतलनाथ नामके दसवें तीर्थङ्करको।
तीर्थङ्करको, श्रीश्रेयांसनाथ च-और।
नामके ग्यारहवें तीर्थङ्करको वंदे-वन्दन करता हूँ।
तथा श्रीवासुपूज्य नामके संभवं-श्रीसम्भवनाथ नामके तीसरे बारहवें तीर्थङ्करको। __ तीर्थङ्करको ।
च-और । अभिणंदणं-श्रीअभिनन्दन नामके | विमलं-श्रीविमलनाथ नामके तेरहवें ___ चौथे तीर्थङ्करको।
तीर्थङ्करको। च-और।
'अणंतं-श्रीअनन्तनाथ नामके चौदसुमइं-श्रीसुमतिनाथ नामके पाँचवें हवें तीर्थङ्करको। ___ तीर्थङ्करको।
च-और। च-और।
जिणं-जिनको। पउमप्पह-श्रीपद्मप्रभ नामके छठे | धम्म-श्रीधर्मनाथ नामके पन्द्रहवें तीर्थङ्करको।
तीर्थङ्करको ।
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संति-श्रीशान्तिनाथ नामके सोल- मए-मेरे द्वारा। हवें तीर्थङ्करको।
अभिथुआ-नामपूर्वक स्तुति किये च-और।
गये। वंदामि-वन्दन करता हूँ।
विहुय-रय-मला-रज और कुथु-श्रीकुन्थुनाथ नामके सत्तरहवें
मलरूपी कमको दूर करनेवाले। तीर्थङ्करको।
विहुय-दूर किये हुए। रयअरं-श्रीअरनाथ नामके अठारहवें
बँधनेवाले कर्म । मल-पहले तीर्थङ्करको ।
बँधे हुए कर्म । च-और। मल्लि-श्रीमल्लिनाथ नामके उन्नी
पहीण-जर-मरणा-जरा और सवें तीर्थङ्करको।
मरणसे मुक्त। वंदे-वन्दन करता हूँ।
जरा-बुढ़ापा, वृद्धावस्था ।
मरण-मृत्यु । मुणिसुव्वयं-श्रीमुनिसुव्रतस्वामी
नामके बीसवें तीर्थङ्करको। चउवीसं पि-चौबीसों। नमिजिणं-श्रीनमिनाथ नामके जिणवरा-जिनवर ।
इक्कीसवें तीर्थङ्करको। तित्थयरा-तीर्थङ्कर। च-और।
मे-मुझपर वंदामि-वन्दन करता हूँ। पसीयंतु-प्रसन्न हों। रिट्टनेमि-श्रीअरिष्टनेमि अथवा | कित्तिय-बंदिय-महिया--कीर्तन,
नेमिनाथ नामके बाईसवें वन्दन और पूजन किये हुए, तीर्थङ्करको।
मन, वचन और कायसे स्तुति पासं-श्रीपार्श्वनाथ नामके तेईसवें
किये हुए। तीर्थङ्करको।
कित्तिय-वाचक स्तुति किये हुए। तह-तथा।
वंदिय-कायिक स्तुति किये बद्धमाणं-श्रीवर्द्धमानस्वामी अथवा
महावीरस्वामी नामके चौबीसवें महिय-मानसिक स्तुति किये तीर्थङ्करको।
हुए। च-और।
जे ए-जो ये। एवं-इस प्रकार ।
। लोगस्स-लोकके सम्बन्धमें ।
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उत्तमा- उत्तम ।
सिद्धा-सिद्ध | आरुग्ग-बोहि-लाभ- कर्मक्षय तथा जिन - धर्मकी प्राप्तिको । आरुग्ग-रोग न हों ऐसी स्थिति अर्थात् कर्मक्षय | बोहिलाभ-जिन - धर्मकी प्राप्ति । समाहिवर - भावसमाधि |
उत्तमं श्रेष्ठ, उत्तम । दितु-दें, प्रदान करें । चंदेसु-चन्द्रोंसे ।
निम्मलयरा- अधिक निर्मल,
स्वच्छ ।
अर्थ-सङ्कलना
२९
आइच्चे सु-सूर्यो॑से । अहियं-अधिक
पयासयरा - प्रकाश करनेवाले |
सागर - वर-गंभीरा श्रेष्ठ सागर अर्थात् स्वयंम्भूरमण समुद्रसे अधिक गम्भीर |
( उजाला )
सिद्धा-सिद्धावस्था प्राप्त किये हुए, सिद्ध भगवान् ।
सिद्धि-सिद्धि ।
मम मुझे | दिसंतु-प्रदान करें।
चौदह राजलोकों में स्थित सम्पूर्ण वस्तुओंके स्वरूपको यथार्थरूपमें प्रकाशित करनेवाले, धर्मरूपी तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले, रागद्वेष के विजेता तथा त्रिलोकपूज्य ऐसे चौबीसों केवली भगवानोंकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ १ ॥
श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ, श्रीसम्भवनाथ श्रीअभिनन्दन - स्वामी, श्रीसुमतिनाथ, श्रीपद्मप्रभ, श्रीसुपार्श्वनाथ और श्रीचन्द्रप्रभजिनको मैं वन्दन करता हूँ ॥ २ ॥
श्री सुविधिनाथ अथवा पुष्पदन्त, श्रीशीतलनाथ, श्रीश्रेयांसनाथ, श्रीवासुपूज्य, श्रीविमलनाथ, श्रीअनन्तनाथ, श्रीधर्मनाथ तथा श्रीशान्तिनाथजिनको मैं वन्दन करता हूँ || ३ |
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श्रीकुन्थुनाथ, श्रीअरनाथ, श्रीमल्लिनाथ, श्रीमुनिसुव्रतस्वामी, श्रीनमिनाथ, श्रीअरिष्टनेमि, श्रीपार्श्वनाथ तथा श्रीवर्द्धमानजिन ( श्रीमहावीरस्वामी )को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ४ ॥
इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, कर्मरूपी मलसे रहित और ( जन्म ), जरा एवं मरणसे मुक्त, चौबीसों जिनवर तीर्थङ्कर मुझपर प्रसन्न हों ॥ ५ ॥ ___ जो लोकोत्तम हैं, सिद्ध हैं और मन-वचन-कायसे स्तुति किये हुए हैं, वे मेरे कर्मका क्षय करें, मुझे जिन-धर्मकी प्राप्ति कराएँ तथा उत्तम भाव-समाधि प्रदान करें ॥६॥
चन्द्रोंसे अधिक निर्मल, सूर्योसे अधिक प्रकाश करनेवाले, स्वयम्भूरमण समुद्रसे अधिक गम्भीर ऐसे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करें ।। ७॥
सूत्र-परिचय
उक्त सूत्रमें चौबीस तीर्थङ्करोंकी स्तुति की गयी है, इसलिये यह सूत्र 'चउवीसत्थय-सुत्त' अथवा 'चतुर्विंशति-जिन-स्तव' के नामसे प्रसिद्ध है।
सूत्रकी पहली गाथामें बताया है कि मैं चौबीसों केवली भगवानोंकी स्तुति करता हूँ, वे लोकके प्रकाशक है अर्थात् विश्वके समस्त पदार्थोंका वास्तविक स्वरूप जाननेवाले हैं, धर्मरूपी तीर्थकी स्थापना करनेवाले हैं, जिन हैं और अर्हत् हैं।
सूत्रकी दूसरी, तीसरी और चौथी गाथामें चौबीस तीर्थङ्करोंके नाम लेकर वन्दना की गयी है और पाँचवों, छठी तथा सातवीं गाथामें उनसे प्रार्थना की गयी है।
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३१
इस प्रार्थनामें प्रथम उनका प्रसाद ( कृपा ) मांगा है, तदनन्तर आरोग्य अर्थात् कर्मक्षय, बोधिलाभ अर्थात् जैनधर्म की प्राप्ति और उत्तम भाव-समाधि माँगी है तथा अन्तमें सिद्धिकी इच्छा प्रकट की है ।
अरिहन्त भगवान्का स्तवन करनेसे सम्यक्त्वकी शुद्धि होती है एवं श्रद्धा, संवेग आदि गुणोंका सत्त्वर विकास होता है । ____ कायोत्सर्गमें इस सूत्रके प्रत्येक शब्दका अर्थ विचारनेसे भावका उल्लास होता है, चित्तकी शुद्धि होती है तथा ध्यान-सम्बन्धी योग्यता प्राप्त होती है !
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२४ तीर्थङ्करोंके
पिता
माता
जन्म-स्थान
जितशत्रु
" "
मरुदेवी । अयोध्या विजया सेना श्रावस्ती सिद्धार्था अयोध्या सुमङ्गला सुसीमा कौशाम्बी
पृथ्वी
काशी
क्रमाङ्क
तीर्थङ्कर का नाम श्रीऋषभदेव नाभि श्रीअजितनाथ श्रीसम्भवनाथ जितारि श्रीअभिनन्दन संबर श्रीसुमतिनाथ
मेघरथ श्रीपद्मप्रभ
श्रीधर श्रीसुपार्श्वनाथ सुप्रतिष्ठ श्रीचन्द्र प्रभ महासेन श्रीसुविधिनाथ सुग्रीव श्रीशोतलनाथ दृढ रथ श्रीश्रेयांसनाथ विष्णुराज श्रीवासुपूज्य
वसुपूज्य श्रीविमलनाथ कृतवर्मा श्रीअनन्तनाथ
सिंहसेन श्रीधर्मनाथ
भानु श्रीशान्तिनाथ विश्वसेन श्रीकुन्थुनाथ
सूर श्रीअरनाथ
सुदर्शन श्रीमल्लिनाथ कुम्भ श्रीमुनिसुव्रत
सुमित्र श्रीनमिनाथ विजय श्रीनेमिनाथ समुद्रविजय
श्रीपार्श्वनाथ अश्वसेन २४ । श्रीवर्धमानस्वामी | सिद्धार्थ
" 20 "2MM-102202 AM
लक्ष्मणा चन्द्रपुरी रामा काकन्दी नन्दा भद्दिलपुर विष्णु
सिंहपुर जया चम्पा श्यामा काम्पिल्यपुर सुयशा अयोध्या सुव्रता
रत्नपुर अचिरा । हस्तिनापुर श्री
प्रभावती मिथिला पद्मा राजगृह वप्रा मिथिला হিদা
शौरिपुर वामा काशी | त्रिशला । क्षत्रियकुण्ड
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मातापितादिका कोष्ठक
लाञ्छन
शरीर-प्रमाण
वर्ण
आयु
५०० धनुष
८४ लाख पूर्व
४५०
वृषभ हस्ती अश्व वानर क्रौञ्च
४००
पद्म
रक्त
स्वर्ण
श्वेत
स्वर्ण
स्वस्तिक चन्द्र मकर श्रीवत्स गेंडा महिष वराह बाज
onal
वन
मृग
[अज] बकरा नन्द्यावत कुम्भ कच्छप नीलकमल शंख
श्याम स्वर्ण श्याम नील स्वर्ण
९ हस्त
सिंह
७२
,
-
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९ सामाइय-सुत्तं
[ 'करेमि भंते'-सूत्र ] मूल
करेमि भंते ! सामाइयं, सावज्जं जोगं पच्चक्खामि ।। जाव नियमं पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि, न कारवेमि ।
, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं ... वोसिरामि॥ शब्दार्थकरेमि-करता हूँ।
वायाए-वाणीसे। भंते ! हे भगवन् ! हे पूज्य ! काएणं-शरीरसे। सामाइयं-सामायिक।
न करेमि-न करूँ। सावज्जं जोगं-पापवाली प्रवृ- न कारवेमि-न कराऊँ। त्तिको।
तस्स-उस पापवाली प्रवृत्तिका । पच्चक्खामि-प्रतिज्ञा-पूर्वक छोड़ भंते ! हे भगवन् ! देता हूँ।
पडिक्कमामि-प्रतिक्रमण करता जाव-जबतक ।
__ हूँ,-से निवृत्त होता हूँ। नियम-नियमका।
निंदामि-निन्दा करता हूँ, बुरी पज्जुवासामि-सेवन करूं । ___ मानता हूँ। दुविहं-करने और करानेरूपी | गरिहामि-गुरुको साक्षीमें निन्दा ___ दो प्रकारसे।
___ करता हूँ। तिविहेणं-मन, वचन और काय, | अप्पाणं-पापवाली मलिन आ__इन तीन प्रकारोंसे ।
त्माको। मणणं-मनसे ।
| वोसिरामि-छोड़ देता हूँ
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अर्थ-संकलना__ हे पूज्य | मैं सामायिक करता हूँ। अतः पापवाली प्रवृत्तिको प्रतिज्ञापूर्वक छोड़ देता हूँ । जबतक मैं इस नियमका सेवन करू, तबतक, मन, वचन और कायसे पापवाली प्रवृत्ति न करूंगा और न कराऊँगा । और हे पूज्य ! अभी तक उस प्रकारको जो पापवाली प्रवृत्ति की हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ, उस पापवाली प्रवृत्तिको मैं बुरी मानता हूँ और उसके सम्बन्धमें आपके समक्ष प्रतिज्ञा करता हूँ। अब मैं पापमय-प्रवृत्ति करनेवालो मलिन आत्माको छोड़ देता हूँ। सूत्र-परिचयइस सूत्रसे सामायिक करनेकी प्रतिज्ञा ली जाती है।
सामायिक (१)
प्रश्न-सामायिक क्या है ? उत्तर-एक धार्मिक क्रिया । प्रश्न-सामायिक शब्दका अर्थ क्या है ? उत्तर-समायकी क्रिया । प्रश्न-समाय किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसमें सम अर्थात् राग-द्वेषरहित स्थितिका आय अर्थात् लाभ ___हो, उसको समाय कहते हैं । प्रश्न-सामायिककी क्रिया कौन कर सकता है ? उत्तर-कोई भी स्त्री-पुरुष कर सकता है । प्रश्न-उसके लिए क्या करना पड़ता है ?
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३६
उत्तर - शुद्ध वस्त्र पहनकर कटासन, मुहपत्ती, चरवला, नवकारवाली एवं कोई भी धार्मिक पुस्तक लेकर गुरुके समक्ष जाना पड़ता है और वहाँ विधिपूर्वक सामायिककी प्रतिज्ञा ग्रहण करनी पड़ती है ।
प्रश्न – सामायिककी प्रतिज्ञा किस प्रकार ली जाती है ?
उत्तर - उसमें प्रथम गुरुको उद्देश करके कहना पड़ता है कि ' करेमि भंते ! सामाइयं' अर्थात् 'हे पूज्य ! मैं सामायिक करता हूँ,' तदनन्तर कहना पड़ता है कि ' सावज्जं जोगं पच्चक्खामि ' अर्थात् मैं पापमयी प्रवृत्तिका प्रतिज्ञापूर्वक परित्याग करता हूँ ' ।
6
प्रश्न - पापमयी - प्रवृत्ति कितने समय के लिये छोड़ी जाती है ?
-
- इसका स्पष्टीकरण करनेके लिये ' जाव नियमं पज्जुवासामि' ऐसा पाठ बोला जाता है । जिसका अर्थ यह है कि जहाँतक मैं इस नियम का सेवन करूँ, वहाँतक पापवाली प्रवृत्ति नहीं करूँगा । एक सामायिकका नियम दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनिट तकका होता है, अतः पापवाली प्रवृत्ति ४८ मिनिटतक छोड़ दी जाती है ।
उत्तर
-
प्रश्न -- सामायिक में पापवाली प्रवृत्ति कितने प्रकारसे छोड़ी जाती है ? उत्तर - सामायिक में पापवाली प्रवृत्ति छः - कोटियोंसे अर्थात् छः प्रकारसे छोड़ी जाती है ।
( १ ) पापवाली प्रवृत्ति मैं मनसे करूँ नहीं ।
( २ ) पापवाली प्रवृत्ति मैं मनसे कराऊँ नहीं । (३) पापवाली प्रवृत्ति मैं वचनसे करूँ नहीं । ( ४ ) पापवाली प्रवृत्ति मैं वचनसे कराऊँ नहीं । (५) पापवाली प्रवृत्ति मैं कायासे करूँ नहीं । (६) पापवाली प्रवृत्ति मैं कायासे कराऊँ नहीं ।
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प्रश्न-पापवाली प्रवृत्ति कुल कितनी कोटियोंसे छोड़ी जा सकती है ? उत्तर-नौ कोटियोंसे । प्रश्न-उनमें कौन तीन कोटियाँ उक्त प्रतिज्ञाओंमें नहीं आती ? उत्तर-(१) कोई पापवाली प्रवृत्ति करता हो तो उसका मनसे अनुमोदन
न करूँ। (२) कोई पापवाली प्रवृत्ति करता हो तो उसका वचनसे अनु
मोदन न करूं। (३) कोई पापवाली प्रवृत्ति करता हो तो उसका कायासे अनु
मोदन न करूं। जो गृहस्थदशामें हैं, वे इन तीन कोटियोंसे-प्रतिज्ञा नहीं
कर सकते। प्रश्न-इसके पश्चात् क्या किया जाता है ? उत्तर-इसके पश्चात् ' तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं
वोसिरामि ' यह पाठ बोलकर अभीतक जो पापवाली प्रवृत्तियाँ की __ हों, उनका प्रतिक्रमण किया जाता है । पुनः पापवाली प्रवृत्ति करनेका
मन न हो इसके लिये ऐसा प्रतिक्रमण आवश्यक है । प्रश्न-साधु किस तरह सामायिक करता है ? उत्तर-साधु दीक्षा लेते समय जीवनभर सामायिक करनेकी प्रतिज्ञा लेता
है, अतः वह हर समय सामायिकमें हो होता है।
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१० सामाइय-पारण-सुत्तं
[ सामायिक पारनेका सूत्र ]
[गाहा ] सामाइयवय-जुलो, जाव मणे होइ नियम-संजुत्तो। छिन्नइ असुहं कम्मं, सामाइय जरिया वारा ॥१॥ सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥२॥ मैंने सामायिकव्रत विधिसे लिया, विधिसे पूर्ण किया, विधिमें कोई अविधि हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं ।
दस मनके, दस वचनके, बारह कायाके कुल बचीस दोषोंमेंसे कोई दोष लगा हो तो मिच्छामि दुक्कडं ॥ হান্নাसामाइयवय-जुत्तो-सामायिक असहं-अशुभ । व्रतसे युक्त।
कम्म-कर्मका। जाव-जहाँतक ।
सामाइय-सामायिक । मणे-मनमें ।
जत्तिया वारा-जितनी बार । होइ-होता है, करता है। सामाइयम्मि-सामायिक । नियम-संजुत्तो-नियमसे युक्त, । उ-तो। नियम रखकर।
कए-करनेपर। छिन्नइ-काटता है, नाश करता | समणो-साधु ।
इव-जैसा।
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सावओ - श्रावक । हs - होता है ।
- जिस कारण से ।
जम्हा - 1
एएण कारणेणं - इस कारणसे,
इसलिये |
अर्थ-सङ्कलना
३९
बहुसो - अनेक बार | सामाइयं - सामायिक |
कुज्जा - करना चाहिये । विधि - निश्चित पद्धति | शेष स्पष्ट है ।
सामायिक - व्रतधारी जहाँतक और जितनी बार मनमें नियम रखकर सामायिक करता है, वहाँतक और उतनी बार वह अशुभकर्मका नाश करता है ॥ १ ॥
सामायिक करनेपर तो श्रावक साधु जैसा होता है; इसलिये उसे सामायिक अनेक बार करना चाहिये ॥ २ ॥
शेषका अर्थ स्पष्ट है |
सूत्र-परिचय
इस सूत्रद्वारा सामायिक पूर्ण की जाती है और शेषका अर्थ स्पष्ट है । आगे भी सामायिक करनेकी भावना हो, इसलिये इसमें सामायिकके लाभ प्रदर्शित किये गये हैं । साथ ही सामायिक ३२ दोषोंसे रहित होकर करनी चाहिये, यह बात भी इसमें बतलाई है ।
सामायिक ( २ )
प्रश्न - सामायिकसे क्या लाभ होता है ?
उत्तर - सामायिकसे अशुभ कर्मका नाश होता है ।
प्रश्न - दूसरा लाभ क्या होता है ?
उत्तर -- सामायिक से दूसरा लाभ यह होता है कि साधुके समान पवित्र जीवन बिताया जा सकता है, अर्थात् चारित्रमें सुधार होता है ।
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प्रश्न - श्रावकको एक अहोरात्रमें कितनी बार सामायिक करनी चाहिए ? उत्तर - अनेक बार । यदि परिस्थिति अनुकूल न हो, तो कम-से-कम एक बार सामायिक करनी चाहिए ।
प्रश्न- प्रतिदिन सामायिक करनेसे जीवनपर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर - प्रतिदिन सामायिक करनेसे जीवन शान्त और पवित्र बनता है । प्रश्न –— सामायिक में कितने दोषोंका परित्याग करना चाहिये ?
उत्तर—बत्तीस ।
प्रश्न- उनमें मनके कितने ? वचनके कितने ? और कायके कितने ? उत्तर - मनके दस, वचनके दस और कायके बारह |
1
प्रश्न – मनके दस दोषों को दूर करनेके लिये क्या करना चाहिये ?
-
उत्तर - (१) आत्महित के अतिरिक्त अन्य विचार न करे ।
(२) लोक प्रशंसा करे, साधुवाद दे, ऐसी अभिलाषा न रखे । (३) सामायिकद्वारा धनलाभकी इच्छा न रखे ।
(४) दूसरोंसे अच्छी सामायिक करता हूँ, इसलिये मैं उच्च हूँ ऐसा अभिमान न रखे ।
(५) भयका सेवन न करे |
(६) सामायिकके फलका बन्धन न करे |
(७) सामायिकके फलमें संशय न रखे ।
(८) रोष रखकर सामायिक न करे । ( ९ ) अविनयसे सामायिक न करे । (१०) अबहुमान से सामायिक न करे ।
प्रश्न- - वचनके दस दोषों को दूर करनेके लिये क्या करना चाहिये ? उत्तर- (१) कटु, अप्रिय अथवा असत्य वचन न बोले ।
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(२) बिना विचारे न बोले ।
(३) शास्त्र के विरुद्ध न बोले ।
(४) सूत्रसिद्धान्तके पाठ छोटे करके न बोले । (५) किसीके साथ कलहकारी वचन न बोले ।
(६) विकथा न करे । स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा एवं राजकथा ये चारों विकथा कहलाती हैं ।
(७) किसीकी हँसी करनेवाला वचन न कहे ।
(८) सामायिकका सूत्रपाठ अशुद्ध न बोले । ( ९ ) अपेक्षारहित न बोले ।
(१०) गुनगुनाते हुए न बोले ।
प्रश्न – कायाके बारह दोषों को दूर करनेके लिये क्या करना चाहिये ?
उत्तर -- (१) पाँवपर पाँव चढ़ाकर न बैठे ।
(२) डगमगाते आसनपर न बैठे अथवा जहाँसे उठना पड़े ऐसे आसनपर न बैठे ।
(३) चारों तरफ दृष्टि फिराकर देखता न रहे ।
(४) घरके कार्य अथवा व्यापार-व्यवहारसे सम्बन्धित बातका संज्ञासे इशारा न करे ।
(५) दीवार अथवा खम्भे का सहारा न ले । (६) हाथ-पैरों को समेटता - फैलाता न रहे । (७) आलस्य से शरीरको न मरोड़े । (८) हाथ-पैरकी अँगुलियोंको न चटकाए । (९) शरीर के ऊपर से मैल न उतारे । (१०) आलसी की तरह बैठा न रहे । (११) ऊँघे नहीं । (१२) वस्त्रोंको न सिकोड़े ।
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११ जगचिंतामरिण-सुत्तं [ 'जगचिन्तामणि' चैत्यवन्दन]
[ रोलाछन्द ] जगचिंतामणि ! जगहनाह ! जग-गुरू ! जग-रक्षण ! जग-बंधव ! जग-सत्थवाह ! जग-भाव-विअक्खण !। अट्टावय-संठविय-रूव ! कम्मदृ-विणासण ! चउवीस वि जिणवर ! जयतु अप्पडिहय-सासण ! ॥१॥
[ वस्तुछन्द ] कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं पढमसंघयणि, उक्कोसय सत्तरिसय, जिणवराण विहरंत लगभइ: नवकोडिहिं केवलीण कोडिसहस्स नव साहु गम्मइ । संपइ जिणवर वीस मुणि, विहुं (हिं) कोडिहिं वरनाणि, समणह कोडि-सहस्स दुइ, थुणिज्जइ निच्च विहाणि ॥२॥ जयउ सामिय ! जयउ सामिय ! रिसह ! सत्तु जि, उज्जिति पहु-नेमिजिण ! जयउ वीर ! सच्चउर-मंडण!; भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय ! महुरि पास ! दुह-दुरिअ-खंडण!। अवर विदेहि तित्थयरा, चिहुं दिसि विदिसि जि के वि, तीआणागय-संपइ य, वंदउं जिण सव्वे वि ।।३।।
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[ गाहा ] सत्ताणवइ-सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अट्ठकोडीओ। बत्ती स-सय-बासी याई, तिअलोए चेइए वंदे ॥४॥ पन्नरस-कोडि-सयाई, कोडी बायाल लक्ख अडवन्ना । छत्तीस सहस असीई, सासय-बिंबाइं पणमामि ॥५॥ शब्दार्थजर्गाचतामणि !-जगत्में चिन्ता- जिणवर! हे जिनवरों ! ऋषभादि मणि--रत्न समान !
तीर्थङ्करों ! जगन नाह!-जगत्के स्वामी ! | जयंतु-आपकी जय हो। जग-गुरू !-समस्त जगत्के गुरु ! | अप्पडिहय-सासण!-अखजग-रक्खण !-जगत्का रक्षण ण्डित शासनवाले !, अबाधित करनेवाले !
उपदेश देनेवाले ! जग-बंधव !-जगत्के बन्धु ! कम्मभूमिहिं-कर्मभूमियोंमें । जग-सत्थवाह!-जगत्को इष्ट
पढमसंघयणि-प्रथम संहननस्थलपर (मोक्षमें) पहुँचानेवाले !
वाले, वज्र-ऋषभ-नाराचजगत्के उत्तम सार्थवाह !
संघननवाले। जग-भाव-विअक्खण !-जग
संघयण-हड्डियोंकी विशिष्ट तके सर्वभावोंको जानने में तथा
रचना। प्रकाशित करनेमें निपुण ।
उक्कोसय-अधिक-से-अधिक । अट्ठावय-संठविय-रूव !
सत्तरिसय-एकसौ सत्तर। अष्टापद पर्वतपर जिनकी प्रति- । माएँ स्थापित की हुई हैं ऐसे !
जिणवराण-जिनेश्वरोंकी, जिनोंकम्मट्ट-विणासण !-आठों
की ( संख्या )। ... कर्मोका नाश करनेवाले ! विहरत-विचरण करते हुए। चउवीस वि-चौबीसों। लगभइ-प्राप्त होती है। ..
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नवकोडिहि-नौ करोड़ । केवलीण - केवलियोंकी, सामान्य
केवलियोंकी ( संख्या ) | कोडि सहस्स - हजार
( दस अरब ) | नव-नौ ।
साहु - साधु साधुओं की (संख्या) । गम्मइ - जाने जाते हैं, होती है । संपइ - वर्तमानकालमें । जिणवर - जिनेश्वर, तीर्थङ्कर ।
करोड़
जयउ - जय हो ।
सामिय ! हे स्वामिन् !
रिसह ! श्री ऋषभदेव !
वीस-बीस |
मुणि-मुनि । Fag (f) -दो | कोडिहि करोड़ | वरनाणि - केवलज्ञानी । समणह - श्रमणोंकी ( संख्या ) | कोडि - सहस्स दुइ-दो हजार
करोड़ ( बीस अरब ) । थुणिज्जइ - स्तवन किया जाता है । निच्च - नित्य | विहाणि - प्रातः काल में ।
४४
सत्तु जि - शत्रुञ्जय गिरिपर । उज्जति - गिरनार पर्वतपर | पह नेमिजिण ! हे !
नेमिजिन
जयउ - आपकी जय हो ।
वीर ! - हे महावीर स्वामिन् ! हे वीर !
सच्चउर - मंडण !
प्रभो
! - सत्यपुर
( साँचोर) के शृङ्गाररूप । भरुअच्छाह मुणिसुव्वय !
भृगुकच्छ ( भरुच ) में विराजित मुनिसुव्रतस्वामिन् !
महुरि पास ! X - मथुरामें विराजित हे पार्श्वनाथ ! दुह - दुरिअ - खंडण ! - दुःख
और पापका नाश करनेवाले ! अवर - अन्य ( तीर्थङ्कर ) विदेहि-विदेह में - महाविदेह क्षेत्रमें । तित्थयरा - तीर्थङ्कर । चिg - चारों ।
दिसि विदिसि - दिशाओं और विदिशाओंमें |
जि-जो ।
के वि-कोई भी ।
X प्राचीन प्रतियोंमें यही पाठ मिलता है । विशेषके लिये देखो - प्र. टी. भा. १. ( द्वितीय आवृत्ति ) पृ. ३०० ।
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तीआणागय-संपइय-अतीत, । बासीयाइं-बयासी ( ८२ )।
अनागत और साम्प्रतिक, भूत, तिअलोए-तीनों लोक ( स्वर्ग, भविष्य और वर्तमानकालमें | मर्त्य, पाताल ) में। प्रादुर्भूत ।
चेइए-जिन प्रासादोंको। वंदउं-मैं वन्दना करता हूँ।
वंदे-मैं वन्दन करता हूँ। जिण-जिनोंको।
पन्नरस-कोडि-सयाई-पन्द्रहसौ सव्वे वि-सभीको।
करो (१५००००००० )।
कोडी बायाल-बयालीस करोड़ । सत्ताणवइ-सहस्सा-सत्ताणवे
( ४२०००००००) हजार ( ९७००० )।
लक्ख अडवना-अट्ठावन लाख लक्खा छप्पन्न-छप्पन लाख
(५८००००० )। ( ५६०००००)।
छत्तीस-सहस-छत्तीस हजार अट्ठकोडीओ-आठ करोड़
(३६०००)। (८००००००० )। असीइं-अस्सी ( ८० )। बत्तीस-सय-बत्तीस सौ सासय-बिंबाई-शाश्वत बिम्बोंको। ( ३२०० )।
पणमामि-मैं प्रणाम करता हूँ। अर्थ-संकलना
जगत्में चिन्तामणि-रत्नके समान ! जगत्के स्वामी ! जगत्के गुरु ! जगत्का रक्षण करनेवाले ! जगत्के निष्कारण बन्धु ! जगत्के उत्तम सार्थवाह ! जगत्के सर्व भावोंको जानने में तथा प्रकाशित करने में निपुण ! अष्टापद पर्वतपर ( भरत चक्रवर्तीद्वारा) जिनकी प्रतिमाएं स्थापित की गयी हैं ऐसे ! आठों कर्मोका नाश करनेवाले ! तथा अबाधित ( धारा--प्रवाहसे ) उपदेश देनेवाले! ऋषभादि चौबीसों तीर्थङ्करों ! आपकी जय हो ॥१॥
कर्मभूमियोंमें--पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच महाविदेहमें
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विचरण करते हुए वज्र - ऋषभनाराच संघननवाले जिनोंकी संख्या अधिक-से-अधिक एकसौ सत्तरकी होती है, सामान्य केवलियोंकी संख्या अधिक-से-अधिक नौ करोड़की होती है और साधुओं की संख्या अधिक-से-अधिक नौ हजार करोड़ अर्थात् नब्बे अरबकी होती है । वर्तमान काल में तीर्थङ्कर बीस हैं, केवलज्ञानी मुनि दो करोड़ हैं और श्रमणोंकी संख्या दो हजार करोड़ अर्थात् बीस अरब हैं जिनका कि नित्य प्रातः काल में स्तवन किया जाता है ||२||
हे स्वामिन्! आपकी जय हो ! जय हो ! शत्रुञ्जयपर स्थित है ऋषभदेव ! उज्जयन्त ( गिरनार ) पर विराजमान हे प्रभो नेमिजिन ! साँचोरके शृङ्गाररूप हे वीर ! भरुच में विराजित हे मुनिसुव्रत ! मथुरा में विराजमान, दुःख और पापका नाश करनेवाले हे पार्श्वनाथ ! आपकी जय हो; तथा महाविदेह और ऐरावत आदि क्षेत्रोंमें एवं चार दिशाओं और विदिशाओं में जो कोई तीर्थंङ्कर भूतकाल में हो गये हों; वर्तमानकालमें विचरण करते हों और भविष्य में इसके पश्चात् होनेवाले हों, उन सभीको मैं वन्दन करता हूँ ||३||
तीन लोक में स्थित आठ करोड़ सत्तावन लाख, दोसौ बयासी( ८,५७,००,२८२ ) शाश्वत चैत्योंको मैं वन्दन करता हूँ ||४||
तीन लोकमें विराजमान पन्द्रह अरब, बयालीस करोड़, अट्ठावन लाख, छत्तीस हजार अस्सी - ( १५, ४२, ५८, ३६०८० ) शाश्वतबिम्बोंको मैं प्रणाम करता हूँ ||५||
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सूत्र-परिचय
इस सूत्रका उपयोग भिन्न-भिन्न समयपर किये जानेवाले चैत्यवन्दनके प्रसङ्गपर होता है । इसकी पहली गाथामें चौबीस जिनवरोंकी स्तुति की गयी है, दूसरी गाथामें तीर्थङ्कर किस भूमिमें पैदा होते हैं. उनका संघनन ( शरीररचना ) कैसा होता है, उनकी उत्कृष्ट और जघन्य संख्या कितनी होती है तथा उस समय केवलज्ञानी और साधु कितने होते हैं, इसका वर्णन किया है । तीसरी गाथामें पाँच सुप्रसिद्ध तीर्थों के मूल-नायकोंका वन्दन किया गया है। उसमें पहला नाम श्रीशत्रुञ्जयगिरिका है जहाँ श्रीआदिनाथ भगवान् विराजते हैं। दूसरा नाम श्रीउज्जयन्तगिरि अर्थात् गिरनारका है जहाँ श्रीनेमिनाथप्रभु विराजमान हैं । तीसरा नाम सत्यपुर अर्थात् साँचोरका है, जहाँपर श्रीमहावीर-जिनेश्वर विराजित हैं । चौथा नाम भृगुकच्छ अर्थात् भरुचका है जहाँ श्रीमुनिसुव्रतस्वामी विराजमान हैं और पाँचवाँ नाम मथुराका है कि जहाँपर एक समय श्रीपार्श्वनाथप्रभुकी भव्य चमत्कारिक मूर्ति विराजमान थी। चौथी गाथामें शाश्वत चैत्योंकी संख्या गिनकर उनकी वन्दना की गयी है तथा पाँचवीं गाथामें शाश्वत बिम्बोंकी संख्या गिनकर उनकी वन्दना की है। .
यह चैत्यवन्दन छन्दोबद्ध होनेसे सुन्दर-पद्धतिसे गाया जाता है। इसकी भाषा अपभ्रंश है।
१२ तित्थवंदरण-सुत्त
[ 'जं किंचि'-सूत्र ]
[ गाहा ] जं किंचि नाम तित्थं, सग्गे पायालि माणुसे लोए । जाई जिणबिंबाई, ताइं सव्वाइं वंदामि ॥१॥
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४८ शब्दार्थजं-जो।
माणुसे लोए-तिर्यग्लोकमें, किंचि-कोई।
मनुष्यलोकमें। नाम-यह पद वाक्यका अलङ्कार जाई-जितने।
जिबिंबाइं-जिनबिम्ब । तित्थं-तीर्थ ।
ताई-उन । सग्गे-देवलोकमें, स्वर्ग में । सव्वाई-सबको। पायालि-पातालमें !
वंदामि-मैं वन्दन करता हूँ ! अर्थ-सङ्कलना
स्वर्ग, पाताल और मनुष्यलोकमें जो कोई तीर्थ हों और जितने जिनबिम्ब हों, उन सबको मैं वन्दन करता हूँ। सूत्र-परिचय
यह सूत्र तीनों लोकमें स्थित सर्वतीर्थ और सर्व जिनबिम्बोंकी वन्दना करनेके लिये उपयोगी है ।
१३ सक्कत्थय-सत्त
[ 'नमोत्थु णं'-सूत्र ] मूल--
नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं ॥१॥ आइगराणं तित्थयराणं सयं-संबुद्धाणं ॥२॥
पुरिसुचमाणं पुरिस-सीहाणं पुरिस-वरपुंडरीआणं पुरिस-वरगंधहत्थीर्ण ॥३॥
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लोगुत्तमाणं लोग-नाहाणं लोग-हिआणं लोग-पईवाणं लोग-पज्जोअगराणं ॥४॥
अभय-दयाणं चक्खु-दयाणं मग्ग-दयाणं सरणदयाणं बोहि-दयाणं ॥५॥
. धम्म-दयाणं धम्म-देसयाणं धम्म-नायगाणं धम्मसारहीण धम्म-वर-चाउरंत-चकवट्टीणं ॥६॥
अप्पडिहय-वर-नाण-दसण-धराणं वियट्टछउमाणं ॥७॥
जिणाणं जावयाणं तिन्नाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताण मोअगाणं ॥८॥
सव्वनणं सव्व-दरिसीणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्ति सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं. नमो जिणाणं जिअ-भयाणं ॥९॥
[गाहा ] जे अ अईआ सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए काले ।
संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि ॥१०॥ शब्दार्थनमोत्थु-नमस्कार हो। आइगराणं-आदिकरोंको, श्रुतणं-वाक्यालङ्कारके रूपमें प्रयुक्त धर्मकी आदि करनेवालोंको। शब्द।
तित्थयराणं-तीर्थङ्करोंको, चतुअरिहंताणं-अरिहन्तोंको।
विध श्रमणसङ्घरूपी तीर्थकी भगवंताणं-भगवानोंको ।
स्थापना करनेवालोंको। प्र-४
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सयं-संबुद्धाणं-स्वयं सम्बुद्धोंको, मग्ग-दयाणं-मार्ग दिखानेवा
स्वयं बोध प्राप्त किये हुओंको। लोंको । पुरिसुत्तमाणं-पुरुषोत्तमोंको, पुरु- सरण-दयाणं-शरण देनेवालोंको । ___षोंमें ज्ञानादि गुणोंसे उत्तमोंको। बोहि-दयाणं-बोधिका लाभ देनेपुरिस-सीहाणं-पुरुषोंमें सिंह- वालोंको । ' समान निर्भयोंको।
जिन-प्रणीत धर्मकी प्राप्तिको पुरिस-वरपुडरीआणं - पुरुषोंमें 'बोधि' कहते हैं। ___ उत्तम श्वेतकमलके समान लेप धम्म-दयाणं-धर्म समझानेवा
रहितोंको ( निर्लेपोंको )। लोंको ।। पुरिस-वरगंधहत्थीणं - पुरुषोंमें | धम्म-देसयाणं-धर्मकी देशना सात प्रकारकी ईतियाँ दूर करनेमें | देनेवालोंको।
गन्धहस्ती-सदृशोंको। धम्म-नायगाणं-धर्म के सच्चे लोगुत्तमाणं-जो लोकमें उत्तम
नायकोंको। हैं उनको।
धम्म-सारहीणं-धर्मके सारथिलोग-नाहाणं-लोकनाथोंको। योंको, धर्मरूपी रथको चलाने में लोग-हिआणं-लोकका हित कर- निष्णात सारथियोंको। नेवालोंको।
धम्म- वर -चाउरंत-चक्कवलोग-पईवाणं-लोकके दीपोंको।
होणं-धर्मरूपी चतुरन्तचक्र
धारण करनेवालोंको, चार लोग-पज्जोअगराणं-लोकमें प्रकाश
गतिका नाश करनेवाले तथा करनेवालोंको।
धर्मचक्रके प्रवर्तक चक्रवर्तिअभय-दयाणं-अभय प्रदान कर
योंको। नेवालोंको।
वर-श्रेष्ठ। चाउरंत-चक्कवट्टीचक्खु-दयाणं-नेत्र प्रदान करने
चार गतिका नाश करनेवालोंको, श्रद्धारूपी नेत्रोंका दान वाले, धर्मचक्रके प्रवर्तक करनेवालोंको।
चक्रवर्ती।
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अप्पडिहय-वर-नाण - दसण- । शिव-उपद्रवोंसे रहित । अयलधराणं-जो नष्ट नहीं हो ऐसे
स्थिर । अरुय-व्याधि और श्रेष्ठ केवलज्ञान तथा केवलदर्श
वेदनासे रहित । अणंतनको धारण करनेवाले हैं उनको।। अप्पडिहय-नष्ट नहीं हो ऐसा । अन्त-रहित । अक्खय
नाण-ज्ञान । सण-दर्शन । क्षयरहित । अव्वाबाह-कर्मवियट्ट-छउमाणं-जिनकी छद्म
जन्य पीडाओंसे रहित । स्थता चली गयी है उनको, छद्मस्थतासे रहितोंको।
अपुणरावित्ति-जहाँ जानेके जिणाणं जावयाणं-जीतनेवा
बाद वापस आना नहीं
रहता ऐसा । लोंको तथा जितानेवालोंको,
सिद्धिगइ-नामधेयं-सिद्ध . गति जो स्वयं जिन बने हुए हैं । तथा दूसरोंको भी जिन बनाने
नामवाले। वाले हैं उनको ।
ठाणं-स्थानको। तिन्नाणं तारयाणं-जो संसार- संपत्ताणं-प्राप्त किये हुओंको।
समुद्रसे पार होगये हैं, तथा | नमो-नमस्कार हो । दूसरोंको भी पार पहुँचानेवाले जिणाणं-जिनोंको। हैं उनको।
जिअ-भयाणं-भय जीतनेवालोंको। बुद्धाणं बोहयाणं-जो स्वयं बुद्ध | जे-जो।
हैं तथा दूसरोंको भी बोध देने- अ-और । · वाले हैं उनको ।
अईआ सिद्धा-भूतकालमें सिद्ध मुत्ताणं-मोअगाणं-जो मुक्त हैं
और दूसरोंको मुक्ति दिलानेवाले भविस्संति-होंगे। हैं, उनको। सम्वन्नणं सव्वदरिसीणं-सर्व
(अ)णागए काले-भविष्यकालमें । ज्ञोंको, सर्वदर्शियोंको।
संपइ-वर्तमानकालमें।
अ-तथा। सिवमयलमरुयमणंतमक्खयम
वट्टमाणा-वर्तमान । व्वाबाहमपुणरावित्ति-शिव,
सव्वे-सबको। अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुन
तिविहेण-मन, वचन और कायसे । रावृत्ति ।
| वंदामि-मैं वन्दन करता हूँ।
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५२
अर्थ-सङ्कलना
नमस्कार हो अरिहन्त भगवानोंको ॥१॥
जो श्रुतधर्मकी आदि करनेवाले हैं, चतुर्विध श्रमणसङ्घरूपी तीर्थकी स्थापना करनेवाले हैं और स्वयं बोध प्राप्त किए हुए हैं ॥२॥ ___ जो पुरुषोंमें ज्ञानादि गुणोंसे उत्तम हैं, सिंह-समान निर्भय हैं, उत्तम श्वेत-कमलके समान निर्लेप हैं, तथा सात प्रकारकी ईतियाँ दूर करने में गन्धहस्ती-सदृश प्रभावशाली हैं ॥३॥
जो लोकमें उत्तम हैं, लोकमें नाथ हैं, लोकके हितकारी हैं, लोकके प्रदीप हैं, और लोकमें प्रकाश करनेवाले हैं ॥४॥ ___ जो अभय देनेवाले हैं, श्रद्धारूपी नेत्रोंका दान करनेवाले हैं, मार्ग दिखानेवाले हैं, शरण देनेवाले हैं और बोधिका लाभ देनेवाले हैं ॥५॥ ___ जो धर्मको समझानेवाले हैं, धर्मकी देशना देनेवाले हैं, धर्मके सच्चे स्वामी हैं, धर्मरूपी रथको चलानेमें निष्णात सारथी हैं तथा चार गतिका नाश करनेवाले धर्मचक्र प्रवर्तक चक्रवर्ती हैं ।।६।।
जो नष्ट नहीं हो ऐसे केवलज्ञान एवं केवलदर्शनको धारण करनेवाले हैं तथा छद्मस्थतासे रहित हैं ।।७।। .
जो स्वयं जिन बने हुए हैं और दूसरोंको भी जिन बनानेवाले हैं; जो संसार-समुद्रसे पार होगये हैं और दूसरोंको भी पार पहुँचानेवाले हैं; जो स्वयं बुद्ध हैं तथा दूसरोंको भी बोध देनेवाले हैं; जो मुक्त हैं तथा दूसरोंको मुक्ति दिलानेवाले हैं ।।८।।
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५३ जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं तथा शिव, स्थिर, व्याधि और वेदनासे रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति अर्थात् जहाँ जानेके बाद संसारमें वापस आना नहीं रहता, ऐसे सिद्धगति नामक स्थानको प्राप्त किये हुए हैं, उन जिनोंको-भय जीतनेवालोंको नमस्कार हो ॥९॥
जो भूतकालमें सिद्ध होगये हैं, जो भविष्यकालमें सिद्ध होनेवाले हैं तथा जो वर्तमानकालमें अरिहन्तरूपमें विद्यमान हैं, उन सबको मन, वचन और कायसे मैं वन्दन करता हूँ॥१०॥ सूत्र-परिचय
जब जिनदेव अर्थात् तीर्थङ्कर भगवान् देवलोकसे च्युत होकर माताके गर्भमें आते हैं, तब शक्र ( इन्द्र ) महाराज इस सूत्रके द्वारा उनका स्तवन करते हैं, इसीसे यह सूत्र — शक्रस्तव' कहाता है। इस सूत्रका दूसरा नाम 'प्रणिपात-दण्डक' है।
जिनदेव (अरिहन्त)का स्वरूप प्रश्न-जिन कितने प्रकारके हैं ? उत्तर-चार प्रकारके :-नामजिन, स्थापनाजिन, द्रव्यजिन और भावजिन । प्रश्न-नामजिन किसे कहते हैं ? उत्तर-ऋषभ, अजित आदि जिनके नाम हों, उनको नामजिन कहते हैं । प्रश्न-स्थापनाजिन किसे कहते हैं ? उत्तर—सुवर्ण, रत्न, पाषाण आदिकी जिनप्रतिमाओंको स्थापनाजिन कहते हैं। प्रश्न-द्रव्यजिन किसे कहते हैं ? उत्तर-भविष्यमें होनेवाले श्रेणिक आदिके जीवोंको द्रव्यजिन कहते हैं।
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५४
प्रश्न-भावजिन किसे कहते हैं ? उत्तर-जो केवलज्ञान प्राप्त करके, अर्हत् बनकर समवसरणमें विराजित हों,
उनको भावजिन कहते हैं । प्रश्न-शक्रस्तवमें कौनसे जिनोंकी वन्दना की गयी है ? उत्तर-भावजिनोंकी । इसकी अन्तिम गाथामें द्रव्यजिनोंकी भी वन्दना
स्तुति की गयी है। प्रश्न-ये भावजिन कैसे हैं ? उत्तर-अरिहन्त ( अर्हत् ) हैं, भगवान् हैं। प्रश्न-अरिहन्त ( अर्हत् ) किसे कहते हैं ? उत्तर-जो महापुरुष मनुष्यों, राजाओं तथा देवोंसे पूजे जाने योग्य हों
उनको अर्हत् कहते हैं । प्रश्न-भगवान् किसे कहते हैं ? उत्तर-जो भगवाले हों उनको भगवान् कहते हैं। भग-अर्थात् ऐश्वर्य,
रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) की सम्पूर्णता। प्रश्न-अरिहन्त भगवानोंकी वन्दना-स्तुति करनेका कारण क्या है ? उत्तर- कारण यह है कि वे आदिकर हैं, तीर्थङ्कर हैं तथा स्वयंसम्बुद्ध हैं । प्रश्न-आदिकर किसे कहते हैं ? उत्तर- जो आदि करें उन्हें आदिकर कहते हैं। अरिहन्त भगवान् केवल
ज्ञानकी प्राप्तिके पश्चात्-'उपपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा- ( उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और फिर भी स्थिर रहता है। जगत्के स्वभावका यह वर्णन है ) इस त्रिपदीद्वारा नवीन . द्वादशाङ्गी अथवा नवीन शास्त्रोंकी आदि करते हैं, इसलिए उन्हें आदिकर कहते हैं।
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प्रश्न-तीर्थकर किसे कहते हैं ? । उत्तर-जो तीर्थकी स्थापना करें उन्हें तीर्थङ्कर कहते हैं । तीर्थ दो प्रकार
के हैं :-द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ । इनमें द्रव्यतीर्थसे नदियाँ आदि पार की जा सकती हैं और भावतीर्थसे संसार-सागर पार हो सकते हैं । अरिहन्त ऐसे ही भावतीर्थकी स्थापना करते हैं, इसलिये उन्हें तीर्थङ्कर कहते हैं । भावतीर्थ अर्थात् साधु, साध्वी,श्रावक और
श्राविकाका बना हुआ चतुर्विधसङ्घ, प्रवचन अथवा प्रथम गणधर । प्रश्न-स्वयंसम्बुद्ध किसे कहते हैं ? उत्तर-जो गुरूपदेशके बिना अपने आप ही सम्पूर्ण बोध प्राप्त किये हुए
हों, उन्हें स्वयंसम्बुद्ध कहते हैं। प्रश्न-अरिहन्त भगवानोंकी वन्दना-स्तुति करनेका विशेष कारण क्या है ? उत्तर--अरिहन्त भगवानोंकी वन्दना-स्तुति करनेका विशेष कारण यह है
कि वे पुरुषोत्तम हैं, पुरुष--सिंह हैं, पुरुष-वरपुण्डरीक हैं तथा
पुरुष-वरगन्धहस्ती हैं। प्रश्न-पुरुषोत्तम किसे कहते हैं ? उत्तर-जो पुरुषोंमें उत्तम हों। अरिहन्त ज्ञानादि-गुणोंसे सब पुरुषोंमें
उत्तम होते हैं। प्रश्न-पुरुष-सिंह किसे कहते हैं ? उत्तर-जो पुरुषोंमें सिंहके समान निर्भय हो। अरिहन्त भगवान् सिंहके
समान निर्भय होकर सत्य धर्मकी गर्जना करते हैं । प्रश्न-पुरुष-वरपुण्डरीक किसे कहते हैं ? उत्तर-जो पुरुषोंमें श्रेष्ठ-कमलके समान निर्लेप हो । अरिहन्त भगवान्
संसारमें उत्पन्न होनेपर भी संसारके भोगोंमें आसक्त न हो कमल
पत्रके समान निलिप्त रहकर पवित्र-जीवन व्यतीत करते हैं । प्रश्न-पुरुष-वरगन्धहस्ती किसे कहते हैं ?
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उत्तर-जो पुरुषोंमें उत्तम गन्धहस्तीके सदृश प्रभावशाली हो । जैसे गन्ध
हस्तीका आगमन होते ही उस प्रदेशसे छोटे हाथी भग जाते हैं, वैसे ही अरिहन्त भगवानोंका विहार होते ही उस प्रदेशसे अतिवृष्टि,
दुष्काल, महामारी आदि सात प्रकारकी ईतियाँ भग जाती हैं । प्रश्न- अरिहन्त भगवान् लोकके लिए किस तरह उपयोगी होते हैं ? उत्तर-अरिहन्त भगवान् लोकोत्तम होते हैं, अतः अनेक रीतिसे उपयोगी
होते हैं। प्रश्न-उनके कुछ उदाहरण देंगे ? उत्तर-अवश्य । अरिहन्त भगवान् लोकके नाथ बनते हैं अर्थात् रक्षण करने
योग्य सर्व-प्राणियोंका योग-क्षेम करते हैं ( योग अर्थात् अप्राप्यवस्तु प्राप्त करा देना और क्षेम अर्थात् प्राप्तवस्तुका संरक्षण करना । )
और वे लोकहितकारी बनते हैं, अर्थात् सम्यक्प्ररूपणा द्वारा व्यवहारराशिमें आगत सर्वजीवोंका हित करते हैं । तथा वे लोकप्रदीप होते हैं, अर्थात् सर्व संज्ञी प्राणियोंके हृदयसे मोहका गाढ़ अन्धकार दूर करके उन्हें सम्यक्त्व प्रदान करते हैं और वे लोकप्रद्योतकर भी होते हैं, अर्थात् चौदह पूर्वधरोंके भी सूक्ष्म सन्देहोंको दूर करके, उन्हें विशेष बोध देकर ज्ञानका प्रकाश करते हैं। इस
प्रकार अरिहन्त भगवान् लोकके लिये अनेक प्रकारसे उपयोगी होते हैं। प्रश्न-अरिहन्त भगवानोंकी उपयोगिता कितने हेतुओंसे सिद्ध होती है ? उत्तर- पांच हेतुओंसे । प्रश्न- वह किस प्रकार ? उत्तर-अरिहन्त भगवान् अभयदान देते हैं; अर्थात् प्राणियोंको सात
प्रकारके भयोंसे मुक्त करते हैं । चक्षुदान देते हैं; अर्थात् आध्यात्मिक-जीवके लिये आवश्यक श्रद्धा उत्पन्न करते हैं । मार्गका दर्शन कराते हैं; अर्थात् कर्मका विशिष्ट क्षयोपशम हो ऐसा मार्ग बताते हैं । शरण प्रदान करते हैं ; अर्थात् तत्त्वचिन्तनरूप सच्चा
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शरण प्रदान करते हैं। और बोधि प्राप्त कराते हैं। ऐसे पाँच
हेतुओंसे अरिहन्त भगवान्की उपयोगिता सिद्ध होती है। प्रश्न-अरिहन्त भगवानोंकी विशिष्ट उपयोगिता कितने हेतुओंसे सिद्ध होती है ? उत्तर-पाँच हेतुओंसे। प्रश्न-वह किस प्रकार ? उत्तर-अरिहन्त भगवान् धर्मका दान करते हैं; अर्थात् सर्वविरति और
देशविरतिरूप चारित्र-धर्म प्रदान करते हैं। धर्मकी देशना देते हैं; अर्थात् प्रौढ प्रभाववाली चमत्कारिक वाणीद्वारा धर्मका रहस्य समझाते हैं । धर्मके नायक बनते हैं; अर्थात् चारित्र-धर्मको प्राप्त होते हैं, उसका निरतिचार पालन करते हैं और उसका अन्योंको दान देते हैं। धर्मके सारथी बनते हैं, अर्थात् धर्मसङ्घका कुशलतापूर्वक सञ्चालन करते हैं; और धर्मके चतुरन्त चक्रवर्ती बनते हैं। अर्थात् चार गतिको नष्ट करनेवाले धर्मचक्रका प्रवर्तन करते हैं । इस प्रकार इन पांच हेतुओंसे अरिहन्त भगवानोंकी विशिष्ट उप
योगिता सिद्ध होती है। प्रश्न-अरिहन्त भगवानोंका स्वरूप कैसा है ? उत्तर-अरिहन्त भगवान् कभी नष्ट न हो, ऐसे केवलज्ञान और केवल
दर्शनवाले होते हैं तथा छद्मस्थतासे रहित होते हैं। जिनके
ज्ञानादिगुणोंके आगे घातिकर्मका आवरण हो, वे छमस्थ कहलाते हैं । प्रश्न-अरिहन्त भगवान् मुमुक्षुओंका विकास किस सीमातक करते हैं ? उत्तर-अरिहन्त भगवान् रागादि दोषोंको जीतकर जिन बने हुए हैं,
अतः मुमुक्षुओंको भी रागादिदोषसे जिता देते हैं; वे संसार-समुद्र तिरकर तोर्ण बने हुए हैं, अतः मुमुक्षुओंको भी संसार-सागरसे तिरा देते हैं; वे अज्ञानका नाशकर बुद्ध बने हुए हैं, अतः मुमुक्षुओंको भी बोध प्राप्त कराते हैं; तथा घातिकर्मका नाशकर मुक्त बने हुए हैं, अतः मुमुक्षुओंको भी घातिकर्मसे मुक्त बनाते हैं ।
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प्रश्न-अरिहन्त भगवान् चरमदेह ( अन्तिम शरीर ) छोड़नेके बाद कौनसा
स्थान प्राप्त करते हैं ? उत्तर-अरिहन्त भगवान् चरमदेह छोड़नेके बाद जहाँ किसी प्रकारका
उपद्रव नहीं, जहाँ किसी प्रकारकी अस्थिरता नहीं, जहाँ किसी तरहका रोग नहीं, जहाँ अन्त आनेकी कोई शक्यता नहीं, जहाँ थोड़ा-सा भी क्षय नहीं, जहाँ किसी भी प्रकारको पीड़ा नहीं और जहाँ जानेके पश्चात् संसारमें पुनः वापस आना नहीं पड़ता,
ऐसा सिद्धिगति नामका स्थान प्राप्त करते हैं। प्रश्न-द्रव्यजिनोंकी किस रीतिसे वन्दना-स्तुति की हुई है ? उत्तर-अतीत कालमें जो जिन हो गये हों, भविष्यकालमें जो जिन होने
वाले हों और वर्तमानकालमें जो विद्यमान हों, उन सबकी मन,
वचन और कायसे वन्दना-स्तुति की हुई है। प्रश्न-इस तरह भावजिन तथा द्रव्यजिनोंकी वन्दना-स्तुति करनेका फल
क्या है ? उत्तर-दर्शन-गुणकी शुद्धि और उससे उत्तरोत्तर आत्माका विकास ।
१४ सव्व-चेइयवंदरण-सुत्त
[ 'जावंति चेइयाई'-सूत्र ]
[ गाहा ] जावंति चेइयाई, उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ । सव्वाई ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥१॥
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शब्दार्थजावंति-जितने।
अ-भी। चेइयाइं-चैत्य, जिनबिम्ब ।
सव्वाइं ताई-उन सबको । उड्ढे-ऊर्ध्वलोकमें।
वंदे-मैं वन्दन करता हूँ। अ-और।
इह-यहाँ । अहे-अधोलोकमें। अ-तथा ।
संतो-रहते हुए। तिरिअलोए-तिर्यग्लोकमें, मनु
तत्थ-वहाँ । ष्यलोकमें।
। संताइं-रहे हुओंको। अर्थ-सङ्कलना
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मनुष्यलोकमें जितने भी चैत्यजिनबिम्ब हों, उन सबको यहाँ रहते हुए और वहाँ रहते हुओंको मैं वन्दन करता हूँ। सूत्र-परिचय___ यह सूत्र तीनों लोकोंमें स्थित जिनचैत्योंको वन्दन करनेके लिये उपयोगी है और आशयकी शुद्धि करनेवाला होनेसे इसने प्रणिधानत्रिकमें स्थान प्राप्त किया है।
१५ सव्वसाहु-वंदरण-सुत्तं
['जावंत केवि साहू-सूत्र ]
[ गाहा] जावंत केवि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसि तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥१॥
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शब्दार्थ
जावंत केवि -- जो कोई भी ।
साहू - साधु | भरहेरवय-महाविदेहे
भरत,
ऐरावत और महाविदेह क्षेत्रमें !
६०
अ- और ।
सव्वेसि सि - उन सबको ।
पणओ - नमन करता हूँ । तिविहेण करना, कराना और अनुमोदन करना इन
तीन
प्रकारोंसे ।
तिदंड - विरयाणं- जो तीन दण्डसे विराम पाये हुए हैं,
उनको ।
अर्थ- सङ्कलना
भरत - ऐरावत और महाविदेह क्षेत्रमें स्थित जो कोई भी साधु मन, वचन और कायसे पाप-प्रवृत्ति करते नहीं, कराते नहीं, साथ ही करते हुएका अनुमोदन नहीं करते, उनको में नमन करता हूँ । सूत्र-परिचय
मूल
तिदंड - मनसे पाप करना वह
मनोदण्ड, वचनसे पाप
करना वह वचनदण्ड और
कायसे पाप
करना वह
कायदण्ड ।
इस सूत्र का उपयोग सर्व साधुओंको वन्दन करनेके लिये होता है और आशयकी शुद्धि करनेवाला होनेसे इसने प्रणिधानत्रिक में स्थान प्राप्त किया है ।
१६ पञ्चपरमेष्ठि- नमस्कार - सूत्रम् [' नमोऽर्हत् ' -सूत्र ]
नमोऽर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्याय - सर्वसाधुभ्यः || १ ||
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५१
शब्दार्थनमो-नमस्कार हो ।
आचार्य, उपाध्याय तथा सर्वअर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्याय- साधुओंको। सर्वसाधुभ्यः-अरिहन्त, सिद्ध, । अर्थ-सङ्कलना
अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व-साधुओंको नमस्कार हो। सूत्र-परिचय
-
-
इस सूत्रसे पञ्चपरमेष्ठीको नमस्कार किया जाता है ।
१७ उवसग्गहर-थोत्तं __ [उपसर्गहर-स्तोत्र]
मूल
[ गाहा ] उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म--घण--मुकं । विसहर-विस-निन्नासं, मंगल-कल्लाण--आवासं ॥१॥ विसहर-फुलिंग-मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गह-रोग-मारी-दुट्ठजरा जंति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नर--तिरिएसु विजीवा, पावंति न दुक्ख--दोगचं ॥३॥
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६२
तुह सम्म लद्धे, चिंतामणि- कप्पपायव-व्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ||४॥ इअ संधुओ महायस ! भत्ति-भर- निव्भरेण हिअएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं भवे भवे पास - जिणचंद ! ||५||
शब्दार्थ
उवसग्गहरं - उपद्रवोंको दूर करने - | कंठे
वाले |
पासं - समीप, भक्तजनोंके समीप । पासं-तेईसवें तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ
भगवान्को ।
हुए 1
वंदामि - मैं वन्दन करता हूँ । कम्म - घण - मुक्कं - कर्म - समूहसे मुक्त बने कम्म - आत्माकी शक्तियोंका आवरण करनेवाली एक प्रकार के पुद्गलकी वर्गणा । घण - समूह | मुक्क - छूटे हुए, रहित । विसहर - विस- निन्न। सं - सर्पके करनेवाले,
नाश
विषका मिथ्यात्व आदि दोषोंको दूर करनेवाले |
मंगल-कल्लाण - आवासं - मङ्गल
और कल्याणके गृहरूप | विसहर - फुलिंग - मंतं- 'विसहरफुलिंग' नामक मन्त्रको ।
धारण
धारेइ - कण्ठमें करता है, स्मरण करता है ।
जो-जो ।
|सया - नित्य ।
मणुओ - मनुष्य |
तस्स - उसके ।
गह-रोग-मारी - दुट्टुजरा — ग्रहचार, महारोग, मारण-प्रयोग अथवा महामारी आदि उत्पात तथा विषमज्वर | गह-ग्रहचार, ग्रहोंका अनुचित प्रभाव । रोग - सोलह महारोग | मारी - अभिचार या मारण-प्रयोगसे सहसा फूट निकलनेवाले रोग अथवा
महामारी | दुट्टजरा - दुष्ट
विषमज्वर,
ज्वर, कफज्वर, सन्निपात आदि ।
जंति हो जाते हैं । उवसामं - शान्त |
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चिठ्ठउ - रहे ।
दूरे-दूर | तो - (यह ) मन्त्र । तुज्झ आपको किया हुआ । पणामो- प्रणाम ।
वि-ही ।
बहुफलो - बहुत फल देनेवाला । होइ - होता है ।
वि-भी ।
जीवा - जीव पावंति - न नहीं ।
|
- प्राप्त करते हैं ।
इअ - इस प्रकार ।
संयुओ - स्तुति की है । महायस ! - हे महायशस्विन् !
नर- तिरिए - मनुष्य ( गति ) भक्ति - भर - निब्भरेण - भक्ति से
और तिर्यञ्चगतिमें ।
६३
दुक्ख - दोगच्चं - दुःख दुर्दशाको ।
- प्राप्त करते हैं ।
पावंति - अविग्घेणं - सरलता से ।
जीवा - जीव ।
अयरामरं
तथा
स्थानको मुक्तिपदको ।
,
ठाणं- अजरामर
हिअएण - हृदयसे ।
ता-अत एव ।
देव ! - हे देव !
दिज्ज-प्रदान करो ।
तुह- - आपका ।
सम्मत्ते लद्धे-सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति बोहिं बोधि, सम्यक्त्व ।
भवे भवे - प्रत्येक भवमें ।
भरपूर ।
भक्ति-भक्ति । भर-समूह |
निब्भर-भरा हुआ ।
होनेपर | चिंतामणि कष्पपायव- भहिएचिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्षसे भी अधिक ।
अर्थ-सङ्कलना
जो सम्पूर्ण उपद्रवों को दूर करनेवाले हैं, भक्तजनोंके समीप हैं, कर्म - समूहसे मुक्त बने हुए हैं, जिनका नाम - स्मरण सर्पके विषका नाश करता है, तथा मिध्यात्व आदि दोषोंको दूर करता है और जो
पास जिणचंद ! हे पार्श्वजिनचन्द्र ! जिनेश्वरोंमें समान पार्श्वनाथ !
चन्द्र
-
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६४
मङ्गल और कल्याणके गृहरूप हैं, ऐसे श्रीपार्श्वनाथको में वन्दन
करता हूँ ||१||
[ श्रीपार्श्वनाथ प्रभुके नामसे युक्त ] विसहर - फुलिंग नामक मन्त्रका जो मनुष्य नित्य स्मरण करता है, उसके दुष्टग्रह, महारोग, मारण-प्रयोग अथवा महामारी आदि उत्पात और दुष्टज्वर शान्त हो जाते हैं ||२||
यह मन्त्र तो दूर रहे, हे पार्श्वनाथ ! आपको किया हुआ प्रणाम ही बहुत फल देनेवाला होता है । उसके द्वारा मनुष्य और तिर्यञ्च — गति में स्थित जीव किसी भी प्रकारके दुःख तथा दुर्दशा - को नहीं प्राप्त करते हैं || ३ ||
--
चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्षसे भी अधिक शक्ति धारण करनेवाले आपके सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेपर जीव सरलतासे मुक्तिपदको प्राप्त करते हैं ||४||
मैंने इस प्रकार भक्तिसे भरपूर हृदयसे आपकी स्तुति की है, अतएव हे देव ! हे महायशस्विन् ! हे पार्श्वजिनचन्द्र ! मुझे प्रत्येक भवमें अपनी बोधि - अपना सम्यक्त्व प्रदान करो ||५|| सूत्र - परिचय -
इस स्तोत्र में श्रीपार्श्वनाथ भगवान्के गुणोंकी स्तुति बहुत सुन्दर रीति से की गयी है और इसका उपयोग चैत्यवन्दनमें स्तवन के रूपमें होता है । नव - स्मरणमें इसकी संख्या दूसरी है ।
इस स्तोत्रको रचना के विषय में निम्न कथा प्रचलित है- भद्रबाहुस्वामी के वराहमिहिर नामका एक भाई था । उसने भी जैन- दीक्षा ली थी;
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किन्तु किसी कारणवश बादमें वह त्याग दी और ज्योतिष शास्त्र के द्वारा अपनी महत्ता प्रदर्शित कर जैन-साधुओंकी निन्दा करने लगा । एक समय उसने राजाके पुत्रकी जन्मकुण्डली बनायी और उसमें लिखा कि 'पुत्र सौ वर्षका होगा !' राजाको यह बात सुनकर अत्यन्त हर्ष हुआ और वराहमिहिरका बहुत सम्मान किया। इस प्रसङ्गका लाभ लेकर वराहमिहिरने राजाके कान भर दिये कि महाराज ! आपके यहाँ कुँवरका जन्म होनेसे सभी प्रसन्न होकर आपसे मिलने आये किन्तु जैनोंके आचार्य भद्रबाहु नहीं आये, उसका कारण तो जानिये ? राजाने उस सम्बन्धमें खोज की तो श्रीभद्रबाहुस्वामीने उत्तर दिया कि निष्कारण दो बार क्यों जाना-आना ? यह पुत्र तो सातवें दिन बिल्लीके द्वारा मृत्युको प्राप्त होनेवाला है । राजाने यह सुनकर पुत्र रक्षाके लिये चौकी-पहरे रखे और गाँवकी सभी बिल्लियाँ दूर भेज दीं। परन्तु हुआ ऐसा कि सातवें दिन धात्री ( धाय ) दरवाजेमें बैठी हुई पुत्रको दूध पिला रही थी, इतने में बालकपर अकस्मात् लकड़ीकी अर्गला ( आगल) गिर पड़ी और वह मरणको प्राप्त हुआ। वराहमिहिर तो इससे बहुत ही लज्जित हुआ। श्रीभद्रबाह इस समय राजासे मिलने गये और संसारका स्वरूप समझाकर धैर्य दिया। राजाने उनके ज्योतिष-- ज्ञानकी प्रशंसा की और साथ-ही यह भी पूछा कि बिल्लीसे मरण होगा यह बात सत्य क्यों नहीं हुई ? इसी समय सूरिजीने लकड़ीकी आगल मँगायी तो उसके सिरेपर बिल्लीका मुँह खुदा हुआ था।
इस प्रसङ्गसे वराहमिहिरका द्वेष बढ़ा और वह मरकर व्यन्तरदेव बनकर जैनसङ्घमें महामारी-प्लेग जैसे रोग फैलाने लगा। परन्तु श्रीभद्रबाहुस्वामीने ' उवसग्गहरं ' स्तोत्र बनाकर सङ्घको कण्ठस्थ करनेके लिये कहा, उससे वह उपद्रव दूर हुआ, तबसे यह स्तोत्र प्रचलित है।
. इस स्तोत्रमें अनेक चमत्कारी मन्त्र-यन्त्र छिपे हुए हैं, जो इसपर रचित विविध टीकाओंसे जाने जा सकते हैं। इस स्तोत्रकी मूल गाथाएँ
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पाँच ही हैं, इसलिये अधिक गाथावाले जो स्तोत्र मिलते हैं, वे बादमें बने हुए हैं। +
१८ परिणहारण--सुत्त [ 'जय वीयराय'--सूत्र ]
मूल
[ गाहा ] जय वीयराय ! जग-गुरु !, होउ ममंतुह पभावओ भयवं!। भव-निव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफल-सिद्धी ॥१॥ लोग-विरुद्ध-चाओ, गुरुजण-पूआ परत्थकरणं च । सुहगुरु-जोगो तव्वयण-सेवणा आभवमखंडा ॥ २ ॥ वारिज्जइ जइ वि नियाण-बंधणं वीयराय ! तुह समये । तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥३॥ दुक्ख-खओ कम्म-खओ, समाहि-मरणं च बोहि-लाभो । संपज्जउ मह एअं, तुह नाह ! पणाम-करणेणं ॥४॥
[ अनुष्टुप् ] सर्व-मङ्गल-माङ्गल्यं, सर्व-कल्याण-कारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ ५॥
+ ‘उवसग्गहरं ' स्तोत्रका विशेष रहस्य जाननेके लिये देखियेप्रबोधटीका भाग पहला, सूत्र १७ ।
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शब्दार्थजय-आपकी जय हो। | आभवं-जहाँतक संसारमें परिवीयराय ! हे वीतराग प्रभो! भ्रमण करना पड़े वहाँतक । जग-गुरु ! हे जगद्गुरो ! अखंडा-अखण्ड रीतिसे । होउ-हो।
वारिज्जइ-निषेध किया है । ममं-मुझे।
जइ वि-यद्यपि । तुह-आपके ।
नियाण-बंधणं- निदान -बन्धन, प्रभावओ-प्रभावसे, सामर्थ्यसे ।
फलकी याचना। भयवं!-हे भगवन् !
वीयराय !-हे वीतराग ! भव-निव्वेओ-संसारके प्रति तुह-आपके। वैराग्य।
समये-शास्त्रमें, प्रवचनमे । मग्गाणुसारिआ- मोक्षमार्गमें
तह वि-तथापि । चलनेकी शक्ति ।
मम-मुझे । इट्टफल-सिद्धी-इष्टफलकी सिद्धि । हज्ज-प्राप्त हो । लोग-विरुद्ध-च्चाओ-लोक- सेवा-उपासना ।
निन्दा हो ऐसी प्रवृत्तिका त्याग, भवे भवे-प्रत्येक भवमें। लोकनिन्दा हो ऐसा कोई भी | तुम्ह-आपके।
कार्य करनेके लिये प्रवृत्त न होना। चलणाणं-चरणोंकी। गुरुजण-पूआ-धर्माचार्य तथा दुक्ख-खओ-दुःखका नाश ।
मातापितादि बड़े व्यक्तियोंके | कम्म-खओ-कर्मका नाश ।
प्रति परिपूर्ण आदर-भाव। | समाहि-मरणं-शान्तिपूर्वक मरण। परत्थकरणं-दूसरोंका भला करने- च-और । की तत्परता ।
बोहि-लाभो-बोधि-लाभ, सम्यच-और।
क्त्वकी प्राप्ति । सुहगुरु-जोगो-सद्गुरुका योग। अ-और। तव्वयण-सेवणा-उनकी आज्ञा- संपज्जउ-उत्पन्न हो। नुसार चलनेकी शक्ति ।
। मह-मुझे।
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एअं-ऐसी परिस्थिति। | प्रधानं-श्रेष्ठ । तुह-आपको।
सर्व-धर्माणां-सर्व धर्मोंमें । नाह !--हे नाथ ! पणाम-करणेणं-प्रणाम करनेसे। जैनं-जैन । सर्व-मङ्गल-माङ्गल्यं-सर्व मङ्ग- जयति--विजयी है, जयको प्राप्त
लोंका मङ्गलरूप । सर्व-कल्याण-कारणम-सर्व
हो रहा है। ___ कल्याणोंका कारणरूप। शासनम्-शासन ।
अर्थ-सङ्कलना
हे वोतराग प्रभो ! हे जगद्गुरो ! आपकी जय हो । हे भगवन् ! आपके सामर्थ्य से मुझे संसारके प्रति वैराग्य उत्पन्न हो, मोक्षमार्गमें चलनेकी शक्ति प्राप्त हो और इष्टफलको सिद्धि हो (जिससे मैं धर्मका आराधन सरलतासे कर सकूँ ) ॥१॥
हे प्रभो ! ( मुझे ऐसा सामर्थ्य प्राप्त हो कि जिससे ) मेरा मन लोकनिन्दा हो ऐसा कोई भी कार्य करनेको प्रवृत्त न हो, धर्माचार्य तथा मातापितादि बड़े व्यक्तियोंके प्रति परिपूर्ण आदर-भावका अनुभव करे और दूसरोंका भला करनेको तत्पर बने । और हे प्रभो! मुझे सद्गुरुका योग मिले, तथा उनकी आज्ञानुसार चलनेको शक्ति प्राप्त हो । यह सब जहाँतक मुझे संसार में परिभ्रमण करना पड़े, वहाँ तक अखण्ड रीतिसे प्राप्त हो ॥२॥
हे वीतराग ! आपके प्रवचनमें यद्यपि निदान-बन्धन अर्थात् फलकी याचनाका निषेध है, तथापि मैं ऐसी इच्छा करता हूँ कि प्रत्येक भवमें आपके-चरणोंकी उपासना करनेका योग मुझे प्राप्त हो ॥३॥
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हे नाथ! आपको प्रणाम करनेसे दुःखका नाश हो, कर्मका नाश हो, सम्यक्त्व मिले और शान्तिपूर्वक मरण हो ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो ।। ४ ।।
सर्व मङ्गलोंका मङ्गलरूप, सर्व कल्याणोंका कारणरूप और सर्व धर्मों में श्रेष्ठ ऐसा जैन शासन जयको प्राप्त हो रहा है ॥ ५ ॥ सूत्र-परिचय
श्रावक और साधु दिन एवं रात्रिके भागमें जो चैत्यवन्दन करते हैं, उसमें यह सूत्र बोला जाता है । मनका प्रणिधान करने में यह सूत्र उपयोगी है, इसलिये यह ‘पणिहाण-सूत्र' कहलाता है। इसमें वीतरागके समक्ष निम्न वस्तुओंकी प्रार्थना की जाती है:(१) भवनिर्वेद-फिर-फिरकर जन्म लेनेकी अरुचि ।। (२) मार्गानुसारिता-ज्ञानियोंद्वारा प्रदर्शित मोक्षमार्गमें चलनेकी शक्ति। (३) इष्टफल-सिद्धि-इच्छित फलकी प्राप्ति । (४) लोक-विरुद्ध-त्याग–अधिक मनुष्य निन्दा करें, ऐसे कार्योंका त्याग। (५) गुरुजनोंकी पूजा-धर्मगुरु, विद्यागुरु, बड़े व्यक्ति आदिकी पूजा। (६) परार्थकरण-परोपकार करनेकी वृत्ति । (७) सद्गुरुका योग । (८) सद्गुरुके वचनानुसार चलनेकी शक्ति । (९) वीतरागके चरणोंकी सेवा । (१०) दुःखका नाश । (११) कर्मका नाश । (१२) समाधि-मरण-शान्तिपूर्वक मृत्यु । (१३) बोधि-लाभ-सम्यक्त्वकी ( जैन धर्मको ) प्राप्ति ।
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१९ चेइयथय-सुत्त [ 'अरिहंत-चेइयाणं'-सूत्र ]
अरिहंत-चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं ।
वंदण-वत्तियाए पूअण-वत्तियाए सकार-वत्तियाए सम्माणवत्तियाए बोहिलाभ-वत्तियाए निरुवसग्ग-वत्तियाए,
सद्धाए मेहाए धिईए धारणाए अणुप्पेहाए वड्ढमाणीए ठामि काउस्सग्गं । शब्दार्थअरिहंत-चेइयाणं-अर्हत्-चैत्योंके, | बोहिलाभ-वत्तियाए-बोधिलाभके अर्हत् प्रतिमाओंके ।
निमित्तसे, बोधिलाभका निमित्त चैत्य-बिम्ब, मूर्ति अथवा प्रतिमा।
लेकर। करेमि-करता हूँ, करना चाहता हूँ।
निरवसग्ग - वत्तियाए - मोक्षके
निमित्तसे, मोक्षका निमित्त काउस्सग्ग-कायोत्सर्ग। लेकर। बंदण-वत्तियाए-वन्दनके निमि- | सद्धाए-श्रद्धासे, इच्छासे । त्तसे, वन्दनका निमित्त लेकर। | मेहाए-मेधासे, प्रज्ञासे ।
धिईए-धृतिसे, चित्तकी स्वस्थतासे। पूअण-वत्तियाए-पूजनके निमि
धारणाए-ध्येयका स्मरण करनेसे, त्तसे, पूजनका निमित्त लेकर।।
धारणासे । सक्कार - वत्तियाए - सत्कारके
अणुप्पेहाए - बार बार चिन्तन निमित्तसे, सत्कारका निमित्त
करनेसे, अनुप्रेक्षासे। लेकर।
वड्ढमाणीए - वृद्धि पाती हुई, सम्माण - वत्तियाए - सम्मानके | __ बढ़ती हुई। निमित्तसे, सम्मानका निमित्त ठामि काउस्सग्गं - मैं कायोत्सर्ग लेकर ।
करता हूँ।
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७१
अर्थ-सङ्कलना
अर्हत् प्रतिमाओंके आलम्बनसे कायोत्सर्ग करनेकी इच्छा करता हूँ। वन्दनका निमित्त लेकर, पूजनका निमित्त लेकर, सत्कारका निमित्त लेकर, सम्मानका निमित्त लेकर, बोधिलाभका निमित्त लेकर, तथा मोक्षका निमित्त लेकर बढ़ती हुई इच्छासे, बढ़ती हुई प्रज्ञासे, बढ़ती हुई चित्तकी स्वस्थतासे, बढ़ती हुई धारणासे और बढ़ती हुई अनुप्रेक्षासे मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। सूत्र-परिचय
इस सूत्रमें अरिहन्तके चैत्योंको ( स्थापनाजिनोंको) कायोत्सर्गद्वारा वन्दनादि करनेकी विधि बतलायी है, इसीसे यह 'चैत्यस्तव' कहाता है।
चैत्यस्तव
प्रश्न-चैत्य किसको कहते हैं ? उत्तर-बिम्ब, मूर्ति अथवा प्रतिमाको। जिनमन्दिरको भी चैत्य कहा
जाता है। प्रश्न-चैत्य किसके बनाये जाते हैं ? उत्तर-चैत्य अरिहन्त भगवान्के बनाये जाते हैं, क्योंकि मुख्य उपासना
__ आराधना उनकी ही की जाती है । प्रश्न-अरिहन्तके चैत्य किस वस्तुके बनाये जाते हैं ? । उत्तर-अरिहन्तके चैत्य रत्न, स्वर्ण, पाषाण आदिके बनाये जाते हैं ।
वे देखनेमें बहुत ही सुन्दर होते हैं । प्रश्न-अरिहन्तके चैत्यमें क्या विशेषता होती है ? । उत्तर-अरिहन्तके चैत्यमें विशेषता यह होती है कि उनका मुख-कमल
प्रसन्न होता है, उनके नेत्रोंमें शान्तरस भरा हुआ होता है, उनके
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७२
हाथमें किसी प्रकारके अस्त्र-शस्त्र नहीं होते हैं, अतः वीतरागका
अपूर्व दृश्य उपस्थित करता है । प्रश्न-अरिहन्तके चैत्योंकी उपासना किस रीतिसे की जाती है ? उत्तर-अरिहन्तके चैत्योंकी उपासना अङ्गपूजा, अग्रपूजा और भावपूजा
द्वारा की जाती है। प्रश्न-अङ्गपूजा किसे कहते हैं ? । उत्तर--जल, चन्दन, पुष्पादिसे अरिहन्तके अङ्गोंका पूजन करना, उसे
अङ्गपूजा कहते हैं। प्रश्न-अग्रपूजा किसे कहते हैं ? उत्तर-अरिहन्तके चैत्यके समक्ष अक्षत, फल, नैवेद्य, धूप, दीपादि रखना,
उसे अग्रपूजा कहते हैं ? प्रश्न-भावपूजा किसे कहते हैं । उत्तर-अरिहन्त भगवान्की स्तुति-प्रार्थना करना तथा उनका ध्यान
धरना, उसे भावपूजा कहते हैं । प्रश्न-अरिहन्त भगवान्का ध्यान कैसे धरते हैं ? उत्तर-उसके लिये प्रधानतया कायोत्सर्ग किया जाता है और उसमें
अरिहन्त भगवान्के चैत्यका आलम्बन ( सहारा ) लिया जाता है । प्रश्न-आलम्बन लेनेका कारण क्या है ? उत्तर-आलम्बन लेनेसे मन उनपर स्थिर होता है। यदि आलम्बन नहीं
लें तो मन उनपर स्थिर नहीं होता। प्रश्न-अरिहन्त भगवान्के चैत्यका आलम्बन लेनेके पश्चात् क्या किया
जाता है ? उत्तर-प्रथम उनके वन्दनका निमित्त लेकर चित्तको एकाग्र किया जाता
है। तदनन्तर उनके पूजनका निमित्त लेकर चित्तको एकाग्र किया
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जाता है। इस प्रकार सत्कारका निमित्त लेकर, सम्मानका निमित्त लेकर, बोधिलाभका निमित्त लेकर तथा मोक्षका निमित्त लेकर चित्त एकाग्र किया जाता है और उसके द्वारा वन्दनादिकसे
जो लाभ मिलते हैं, वे मिलें, ऐसी इच्छा की जाती हैं। प्रश्न-पृथक् पृथक् विषयोंमें भ्रमण करनेवाला चित्त एकाग्र किस तरह हो
सकता है ? उत्तर-यदि श्रद्धा धारण की जाय, प्रज्ञा ( मेधा ) विकसित की जाय,
धृति ( चित्तकी स्वस्थता ) रखी जाय, धारणाका अभ्यास किया जाय और अनुप्रेक्षा ( बार बार चिन्तन ) का फिर-फिरकर आश्रय लिया जाय, तो चित्त एक विषयमें एकाग्र हो सकता है ।
२० 'कल्लारण कंदं' थुई
[पञ्चजिन-स्तुति ]
मूल
[ उपेन्द्रवज्रा] कल्लाण-कंदं पढमं जिणिंदं, संतिं तओ नेमिजिणं मुणिंदं । पासं पयासं सुगुणिक-ठाणं, भत्तीइ वंदे सिरिवद्धमाणं ॥१॥
[उपजाति ] अपार-संसार-समुद्द-पारं, पत्ता सिवं दितु सुइक-सारं ।
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सव्वे जिणिंदा सुर-विंद-वंदा, कल्लाण-वल्लीण विसाल--कंदा ॥२॥ निव्वाण--मग्गे वर-जाण-कप्पं, पणासियासेस-कुवाइ-दप्पं । मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, नमामि निच्चं तिजग--प्पहाणं ॥३॥ कुंदिंदु--गोखीर-तुसार-वन्ना, सरोज--हत्था कमले निसन्ना । वाईसरी-पुत्थय-वग्ग--हत्था, सुहाय सा अम्ह सया पसत्था ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
कल्लाण-कंद-कल्याणरूपी वृक्षके | सुगुणिक्क-ठाणं-सभी सद्गुण
मूलको, कल्याणके कारणरूपको। जहाँ एकत्रित हुए हैं ऐसे, पढम-पहले, प्रथम ।
__ सर्व सद्गुणोंके स्थानरूप। जिणिदं-जिनेन्द्रको, तीर्थङ्कर श्री- भत्तीइ-भक्ति-पूर्वक । __ ऋषभदेवको।
वंदे-मैं वन्दन करता हूँ। संति-श्रीशान्तिनाथको। सिरिवद्धमाणं - श्रीवर्धमानको, तओ-तदनन्तर ।
श्रीमहावीर स्वामीको। नेमिजिणं-नेमिजिनको, श्रीनेमि- अपार-संसार-समुद्द- पारंनाथको।
जिसका पार पाना कठिन है; मुणिदं-मुनियोंमें श्रेष्ठ ।
ऐसे संसार-समुद्र के किनारेको । पासं-श्रीपार्श्वनाथको।
पत्ता-प्राप्त किये हुए। पयासं-प्रकाश-स्वरूप । सिवं-कल्याण, मोक्षसुख ।
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वितु- प्रदान करो ।
सुइक्क - सारं - शास्त्रका साररूप अथवा पूर्ण - पवित्र ।
सव्वे - सभी
।
जिणिदा - जिनेन्द्र |
सुर - विंद - वंदा - देवसमूहसे
वन्दनीय |
अनन्य
भी
'कल्लाण - वल्लीण - कल्याणरूपी
लता ।
विसाल - कंदा - विशाल
कन्दके
समान ।
निव्वाण - मग्गे - निर्वाण - प्राप्तिके
मार्ग में |
वर - जाण - कप्पं- श्रेष्ठ
समान ।
वाहनके
पणासियासेस- कुचाइ - दप्पंजिसने कुवादियोंका अभिमान सर्वथा नष्ट किया है, जिसने एकान्तवादियोंके सिद्धान्तोंको असत्य प्रमाणित किया है । मयं - मत, श्रुतज्ञान I जिणाणं-जिनोंका, श्रीजिनेश्वर
देव प्ररूपित |
सरणं - शरणरूप, शरण लेने योग्य ।
बुहाणं-विद्वानोंके |
७५
नमामि - मैं नमस्कार करता हूँ
निच्चं - नित्य |
लोकमें
तिजग- पहाणं- तीनों श्रेष्ठ ।
कु दिंदु - गोखीर- तुसार - वन्नामुचुकुन्द - पुष्प ( मोगरा ), चन्द्रमा, गायका दूध और हिमसमूह जैसी श्वेत कायावाली । कुंद - मोगरा | इंदु - चन्द्रमा | गोखीर - गायका दूध
तुसार - हिम ( बर्फ ) । वन्ता - वर्णवाली | सरोज - हत्था - हाथ में धारण करनेवाली ।
कमले - कमलपर । निसन्ना- बैठी हुई ।
वाईसरी- वागीश्वरी (सरस्वतीदेवी ) पुत्थय - वग्ग - हत्था - पुस्तक के समूह को हाथ में करनेवाली ।
धारण
लिये,
सुहाय-सुखके
देनेवाली ।
सा- वह |
अम्ह - हमें ।
सया-सदा ।
पसत्था - प्रशस्त,
प्रशस्त ।
कमल
सर्व
सुख
प्रकार से
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अर्थ सङ्कलना__कल्याणके कारणरूप प्रथम-तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेवको, श्रीशान्ति नाथको, तदनन्तर मुनियोंमें श्रेष्ठ ऐसे श्रीनेमिनाथको, प्रकाशस्वरूप एवं सर्व सद्गुणोंके स्थानरूप श्रीपार्श्वनाथको तथा श्रीमहावीर स्वामीको मैं भक्तिपूर्वक वन्दन करता हूँ॥१॥
जिसका पार पाना कठिन है, ऐसे संसार-समुद्रके किनारेको प्राप्त किये हुए, देवसमूहसे भी वन्दनीय, कल्याणरूपी लताके विशाल कन्दके समान ऐसे सभी जिनेन्द्र मुझे शास्त्रका अनन्य साररूप अथवा परम-पवित्र मोक्षसुख प्रदान करें ॥२॥
श्रीजिनेश्वरदेवद्वारा प्ररूपित श्रुतज्ञान जो निर्वाण-प्राप्तिके मार्गमें श्रेष्ठ-वाहनके समान है, जिसने एकान्ता-वादियोंके सिद्धान्तोंको असत्य प्रमाणित किया है, जो विद्वानोंके भी शरण लेने योग्य है तथा जो तीनों लोकमें श्रेष्ठ है, उसको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ॥ ३ ॥ ___मुचुकुन्द( मोगरा )के पुष्प जैसो, पूर्णिमाके चन्द्रमा जैसी, गायके दूध जैसी अथवा हिमके समह जैसी श्वेत कायावाली, एक हाथमें कमल और दूसरे हाथ में पुस्तकके समूहको धारण करनेवाली, कमलपर बैठी हुई सर्व प्रकारसे प्रशस्त ऐसी वागीश्वरी ( सरस्वती देवी ), हमें सदा सुख देनेवाली हो ॥ ४ ॥ सूत्र-परिचय__ प्रस्तुत सूत्र में चार स्तुतियाँ हैं । उनमेंसे पहली स्तुतिमें श्रीऋषभदेव, श्रीशान्तिनाथ, श्रीनेमिनाथ ( अरिष्टनेमि ), श्रीपार्श्वनाथ एवं श्रीमहावीर
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स्वामीको स्तुतिपूर्वक नमस्कार किया गया है । दूसरी स्तुति में सर्व तीर्थङ्करोंकी स्तुति की गयी है । तीसरी स्तुतिमें श्रुतज्ञान ( द्वादशाङ्गी ) की स्तुति की गयी है और चौथी स्तुतिमें वागीश्वरी अथवा सरस्वतीकी स्तुति की गयी है । चैत्यवन्दन - देववन्दनमें यह स्तुति बोली जाती है । सामायिक लेनेकी विधि
सामायिक के उपयुक्त वस्तुएँ
}
१ शुद्ध वस्त्र, २ कटासन, ३ मुहपत्ती ४ साँपडा, ५ धार्मिक पुस्तक, ६ चरवला, ७ घड़ी, ८ नवकारवाली |
७
७७
१ प्रथम शुद्ध वस्त्र पहनना । उसके पश्चात् —
. २ चरवलासे भूमि प्रमार्जन कर शुद्ध करनी ।
3 गुरुका योग न हो तो एक उच्च आसन पर धार्मिक पुस्तक, मुहपत्ती अथवा नवकारवाली स्थापित करनी । तदनन्तर
४ मुहपत्ती बाएँ हाथमें रखकर दाहिना हाथ उसके सम्मुख रखना फिरनमस्कार - मन्त्र तथा पंचिदिय-सूत्र कहकर उसमें आचार्यकी स्थापना करना । अर्थात् सारी क्रिया आचार्य के सम्मुख उनकी सम्मति से होती है, ऐसा समझना । उसके बाद
८
—-
एक 'खमासमण' देकर 'इरिया वही' सूत्र कहना ।
इसके बाद ' तस्स उत्तरी' तथा 'अन्नत्थ' सूत्र कहकर 'चंदेसु निम्मलयरा' तक एक लोगस्सका काउस्सग्ग करना । 'लोगस्स' नहीं आता हो तो चार बार 'नमस्कार - मन्त्र' बोलना |
काउस्सग्ग पूर्णकर प्रकटमें 'लोगस्स' बोलकर एक 'खमासमण' देना | बादमें
९ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक मुहपत्ती पडिलेहुं ?" 'इच्छं' ऐसा कहकर पचास बोलसे मुहपत्ती पडिलेहनी ।
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फिर एक 'खमासमण' देकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहुं ?' 'इच्छं' ऐसा कहकर--- एक 'खमासमण' देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक
ठाउं ?' 'इच्छं' ऐसा कहना । .१२ फिर दोनों हाथ मस्तकपर जोड़कर एक बार 'नमस्कार-मन्त्र'
गिनना। फिर 'इच्छकारी भगवन् ! पसायकरी सामायिक दंडक उच्चरावोजी ।' ऐसा कहना। तब गुरु अथवा पूज्य-व्यक्ति 'करेमि भंते !' सूत्र बुलवाये ! यदि गुरु अथवा पूज्य-व्यक्ति न हो तो सामायिक लेनेवालेको स्वयं यह सूत्र बोलना चाहिये । फिर एक 'खमासमण' देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बेसणे
संदिसाहुं ?' 'इच्छं' कहकर एक 'खमासमण' देकर१५ 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ? बेसणे ठाउं ?' 'इच्छं' कह कर
एक 'खमासमण' देकर--- 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झाय संदिसाहुं ?' 'इच्छं' कहकर दोनों हाथ जोड़ तीन बार 'नमस्कार-मन्त्र' बोलकर दो घड़ी अर्थात् अड़तालीस मिनिट तक धर्मध्यान करना। शास्त्रका पाठ लेना, उसका अर्थ सीखना, तत्सम्बन्धी प्रश्नोत्तर करना, धर्मकथा श्रवण करनी, अनानुपूर्वी गिननी, माला फिरानी. अरिहन्तका जप करना अथवा धर्मध्यानका अभ्यास करना, ये धर्मध्यान कहलाते हैं।
सामायिक पारनेकी विधि १ प्रथम एक ‘खमासमण' देकर 'इरियावही सूत्र' कहना । २ फिर 'तस्स उत्तरी०' 'अन्नत्थ०' कहकर 'चंदेसु निम्मलयरा'
तक एक 'लोगस्स'का अथवा चार नमस्कारका 'काउस्सग्ग' करना । बादमें 'काउस्सग्ग' पूर्ण करके
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७९
३ प्रकट 'लोगस्स' कहकर एक 'खमासमण' देना। तदनन्तर४ 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मुहपत्ती पडिलेहुं ?' 'इच्छं' ऐसा
कहकर मुहपत्तो पडिलेहना। बादमें एक 'खमासमण' देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक पारु ?' 'यथाशक्ति' ऐसा कहकर'खमासमण' देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक
पार्यु ?' 'तहत्ति' ऐसा कहकर७ दाहिना हाथ चरवला अथवा कटासण पर रखकर एक नमस्कार
गिनकर 'सामाइय-वय-जुत्तो' सूत्र कहना । फिर दाहिना हाथ सीधा रख कर, एक नमस्कार गिन स्थापनाचार्यको योग्य स्थानपर स्थापित करना । एक साथ दो या तीन सामायिक कर सकते हैं, उसमें हरसमय सामायिक लेनेकी विधि करना, परन्तु उसमें 'सज्झाय करूँ' के स्थानपर 'सज्झायमें हैं' ऐसा कहना, और प्रत्येक समय सामायिक पारना नहीं । दो सामायिक करने हों तो दो पूरे होने पर
और तीन करने हो तो तीन पूरे होने पर, एक बार पारना । यदि एक ही साथ आठ-दस सामायिक करने हों तो भी तीन तीन सामायिक पूरे होने पर पारना चाहिये ।
चैत्यवंदनकी विधि १ प्रथम तीन ‘खमासमण' देना, फिर बाँया घुटना खड़ा रखकर
उत्तरासन डालकर दोनों हाथ जोड़, ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !
चेइयवंदणं करेमि' 'इच्छं' कहकर२ 'जगचिंतामणि' चैत्यवन्दन कहना, अथवा 'सकल-कुशलवल्ली'
स्तुति x कहकर कोई भी पूर्वाचार्य-कृत चैत्यवन्दन कहना । x सकलकुशलवल्ली पुष्करावर्तमेघो, दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानः ।
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३ बादमें 'जं किंचि' कहकर 'नमो त्थु णं' सूत्र कहना। ४ फिर 'जावंति चेइयाई' सूत्र कहकर एक 'खमासमण' देना। ५ इसके बाद 'जावंत के वि साहू' तथा 'नमोहत्' सूत्र कहना। ६ तदनन्तर स्तवन कहना अथवा 'उवसग्गहरं' स्तोत्र कहना। . ७ फिर दोनों हाथ मस्तकपर रख 'जय वीयराय' सूत्र ‘आभ
वमखंडा' तक कहना, फिर दोनों हाथ नीचे उतारकर 'जय वीयराय' सूत्र कहना। फिर खड़े होकर 'अरिहन्त चेइयाणं' सूत्र कह 'अन्नत्थ०' सूत्र कहकर एक नमस्कारका 'काउस्सग्ग' करना। बादमें 'काउस्सग्ग' पूर्ण कर 'नमोऽर्हत्' सूत्र कह थुई (स्तुति) कहना । फिर एक 'खमासमण' देना ।
२१ संसारदावानल-थुई
[श्रीमहावीर-स्तुति ]
[ उपजाति ] संसार--दावानल-दाह-नीरं, संमोह--धूली--हरणे--समीरं ॥ माया--रसा-दारण-सार--सीरं, नमामि वीरं गिरि-सार-धीरं ॥ १ ॥ भवनिधिजलपोतः सर्वसम्पत्तिहेतुः, स भवतु सततं वः श्रेयसे शान्तिनाथः ॥ १॥
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८१
[ वसन्ततिलका ] भावावनाम - सुर- दानव - मानवेन चूला - विलोल - कमलावलि - मालितानि । संपूरिताभिनत - लोक - समीहितानि, कामं नमामि जिनराज - पदानि तानि ॥२॥ [ मन्दाक्रान्ता ] बोधागाधं सुपद - पदवी - नोर -पूराभिरामं, जीवाहिंसाविरल - लहरी - संगमागाह - देहं । चूला - वेलं गुरुगम - मणी - संकुलं दूरपारं, सारं वीरागम - जलनिधिं सादरं साधु सेवे || ३ | [ स्रग्धरा ] आमूलालोल - धूली- बहुल-परिमलाऽऽलीढ-लोलालिमालाझंकाराराव-सारामलदल- कमलागार - भूमी - निवासे ! | छाया - संभार - सारे ! वरकमल - करे ! तार- हाराभिरामे !, वाणी - संदोह - देहे ! भव - विरह - वरं देहि मे देवि ! सारं || ४ ||
शब्दार्थ
संसार - दावानल - दाहनोरं
संसाररूपी दावानलके तापको शान्त करनेमें जलके समान । दावानल - जङ्गलमें प्रकट हुई दाह-ताप ।
अग्नि ।
नोर-जल |
प्र-६
संमोह - धूली - हरणे - अज्ञानरूपी धूलकी दूर करने में । संमोह-अज्ञान । समीरं - पवन, वायु |
माया - रसा - दारण - सार - सीरं - मायारूपी पृथ्वीको चीरने में तीक्ष्ण हलके समान ।
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रसा - पृथ्वी | दारण - चीरनेकी क्रिया । सार - तीक्ष्ण । सीर - हल |
८२
नमामि - मैं नमस्कार करता हूँ, मैं वन्दन करता हूँ । वीरं - श्रीमहावीर प्रभुको । गिरि-सार- धीरं - मेरु- पर्वत जैसे
स्थिर |
भावावनाम - सुर- दानव -मानवेन - चूला - विलोल-कमलावलि - मालितानि - भक्तिपूर्वक नमन करनेवाले सुरेन्द्र, | दानवेन्द्र और नरेन्द्रोंके मुकुटमें स्थित चपल कमलश्रेणिसे पूजित ।
भाव - सद्भाव अथवा भक्ति ।
अवनाम-नमन । इन -
-
अथवा
चपल ।
स्वामी । चूला - सिर शिखा । विलोल आवलि - श्रेणि । मालित पूजित | यह पद 'जिनराज - पदानि' का विशेषण है ।
1
संपूरित - अच्छी तरह पूर्ण । अभिनत अच्छी तरह नमा हुआ । समीहित- अच्छी तरहसे इच्छित मनोवाञ्छित ।
कामं - बहुत, अत्यन्त । नमामि - मैं नमन करता हूँ । जिनराज पदानि - जिनेश्वरके चरणोंको । तानि-उन ।
-
सुपद
,
बोधागाधं- ज्ञानद्वारा गम्भीर ।
बोध - ज्ञान । अगाध - गम्भीर ।
- पदवी - नोर पूराभिरामं - सुन्दर पद-रचनारूप जलके समूहसे मनोहर ।
सुपद - अच्छा पद । पदवीयोग्य रचना | पूर - समूह, अभिराम - सुन्दर । जीवाहिंसाविरल - लहरी संगमागाह - देहं - जीवदयाके सिद्धान्तोंकी अविरल लहरियोंके सङ्गमसे जिसका देह अतिगहन है ।
1
अहिंसा - हिंसा से विरति । अविरल - संगम-मेल,
सङ्गम । निरन्तर । लहरी - तरङ्ग ।
ज्वार
संपूरिताभिनत - लोक - समोहितानि - जिनके प्रभावसे नमन करनेवाले लोगोंके मनोवाञ्छित | चूला - वेलं - चूलिकारूप
अच्छी तरह पूर्ण हुए हैं ।
वाला ।
-
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चूला-चूलिका । शास्त्रका परि- | आमूल-मूलपर्यन्त । आलोल
शिष्ट भाग । वेल-ज्वार। कुछ डोलता हुआ । धूलीगुरुगम-मणी-संकुलं - उत्तम रज अथवा पराग। बहुलआलापकरूपी रत्नोंसे भरपूर ।
बहुत । परिमल - सुगन्ध । गुरु-श्रेष्ठ । गम-समान | आलीढ - आसक्त, मग्न पाठवाले आलापक । संकुल
अथवा चिपके हुए। लोलव्याप्त ।
चपल । अलिमाला-भ्रमरदूर-पारं- जिसका सम्पूर्ण पार
समूह । आगार-भूमीपाना अतिकठिन है।
रहनेकी जगह। सारं-उत्तम, श्रेष्ठ ।
छाया-संभार-सारे !- कान्तिवीरागम - जलनिधि - श्रीवीर- पुञ्जसे उत्तम । अत्यन्त तेज
प्रभुके आगमरूपी समुद्रकी। स्विताके कारण रमणीय ।
आगम-आप्त-वचनोंका संग्रह । संभार-समूह, पुञ्ज अथवा सादरं-आदरपूर्वक।
जत्था । साधु-अच्छी तरह ।
वरकमल-करे!- सुन्दर कमलसेवे-मैं उपासना करता हूँ, मैं सेवा
युक्त हाथवाली।
तार-हाराभिरामे !-दैदीप्यमान ___करता हूँ।
हारसे सुशोभित । आमूलालोल - धूली- बहुल
तार-स्वच्छ । दैदीप्यमान, परिमलाऽऽलोढ- लोलालि
चमकीला-दमकता। माला-झंकाराराव-सारा- वाणी-संदोह - देहे ! - वाणीके मलदल - कमलागार -
समूहरूप देहवाली। भूमी-निवासे ! -मूलपर्यन्त | संदोह-समूह या जत्था । कुछ डोलनेसे गिरे हुए मक- भव - विरह - वरं - मोक्षका
। रन्दकी अत्यन्त सुगन्धमें मग्न
वरदान । बने हुए चपल भ्रमर-वृन्दके देहि-दो। झङ्कार शब्दसे युक्त उत्तम | मे-मुझे । निर्मल पंखुड़ीवाले कमल-गृहकी देवि !-हे श्रुतदेवि !, हे देवि ! भूमिमें निवास करनेवाले। सारं-श्रेष्ठ ।
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________________
४
अर्थ-सलना. संसाररूपी दावानलके तापको शान्त करने में जलके समान, अज्ञानरूपी धूलको दूर हटानेमें वायुके समान, माया-रूपी पृथ्वीको चीरने में तीक्ष्ण हलके समान और मेरु-पर्वत जैसे स्थिर श्रीमहावीर प्रभुको मैं वन्दन करता हूँ॥१॥ - भक्तिपूर्वक नमन करनेवाले सुरेन्द्र, दानवेन्द्र और नरेन्द्रोंके मुकुटमें स्थित चपल कमल-श्रेणि द्वारा जो पूजित हैं, जिनके प्रभावसे नमन करनेवाले लोगोंके मनोवाञ्छित अच्छी तरह पूर्ण हुए हैं, उन प्रभावशाली जिनेश्वरके चरणोंको मैं अत्यन्त श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ॥ २॥
यह आगम-समुद्र ( अपरिमित ) ज्ञानद्वारा गम्भीर है, सुन्दर पद-रचनारूप जलके समूहसे मनोहर है, जीवदयाके सिद्धान्तोंकी अविरल लहरियोंके संगमसे जिसका देह अति गहन है, चूलिकारूप ज्वारवाला है, उत्तम आलापकरूपी रत्नोंसे भरपूर है और जिसका सम्पूर्ण पार पाना अतिकठिन है, ऐसे श्रेष्ठ श्रीवीरप्रभुके आगमरूपी समुद्रकी मैं आदरपूर्वक अच्छी तरह सेवा करता हूँ॥ ३ ॥
मूलपर्यन्त कुछ डोलनेसे गिरे हुए मकरन्दकी अत्यन्त सुगन्धमें मग्न बने हुए चपल भ्रमर-वृन्दके झङ्कार शब्दसे युक्त उत्तम निर्मल पंखुड़ीवाले कमल-गृहकी भूमिमें वास करनेवाली, अत्यन्त तेजस्विताके कारण रमणीय, सुंदर कमल-युक्त हाथवाली, दैदीप्यमान हारसे सुशोभित वाणीके-समूहरूप देहवाली हे देवि ! मुझे मोक्षका वरदान दो।।४॥
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-
सूत्र-परिचय
इस सूत्रमें चार स्तुतियाँ हैं । उनमें पहली स्तुति महावीर स्वामीकी है, दूसरी स्तुति सर्व जिनोंकी है, तीसरी स्तुति श्रुतसागर अर्थात् द्वादशाङ्गकी है और चौथी स्तुति श्रुतदेवीकी है। ____ इनमेंसे पूर्वको तीन स्तुतियाँ अनेक शास्त्रोंके निर्माता श्रीहरिभद्रसूरिने बनायी हैं और चौथी स्तुतिका केवल पहला चरण ही उन्होंने बनाया है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थ बनानेकी प्रतिज्ञा की थी, उनमें यह रचना अन्तिम थी और उन्होंने इसका पहला चरण बनाया कि उनकी वाणी बन्द हो गयी, अतः शेष तीन चरण उनकी इच्छानुसार श्रीसङ्घने पूर्ण किये हैं और इसीसे ये तीनों चरण आज भी श्रीसङ्घद्वारा उच्चस्वरसे बोले जाते हैं।
इस स्तुतिको संस्कृत-भाषाकी रचना भी कह सकते हैं और प्राकृतभाषाकी रचना भी, क्यों कि इसमें व्यवहृत-शब्द दोनों भाषाओंमें समान हैं।
२२ सुयधम्म-थुई [ 'पुक्खरवर '-सूत्र ]
[ गाहा ] पुक्खरवर-दीवड्ढे, धायइखंडे य जंबुदीवे य । भरहेरवय-विदेहे, धम्माइगरे नमंसामि ।। १ ॥ तम-तिमिर-पडल-विद्धंसणस्स सुरगण-नरिंद-महियस्स । सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडिय-मोहजालस्स ॥ २ ॥
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८६
[ वसन्ततिलका ] जाई - जरा - मरण - सोग पणासणस्स, कल्लाण- पुक्खल-विसाल - सुहावहस्स । को देव-दानव - नरिंद - गणच्चियस्स, धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ॥ ३ ॥ [ शार्दूलविक्रीडित]
सिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए नंदी सया संजमे, देवं - नाग - सुवन्न - किन्नर - गण - स्सम्भूअ - भावच्चिए । लोगो जत्थ पट्टिओ जगमिणं तेलुक्क - मच्चासुरं, धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ || ४ || सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं, वंदण-वत्तियाए० ॥
शब्दार्थ—
पुक्खरवर - दीवड्ढे - अर्ध पुष्करवर | तम- तिमिर - पडल- विद्वंसणस्स - द्वीप | अज्ञानरूपी अन्धकारके समूह - का नाश करनेवालोंको ।
धायइखंडे - धातकीखण्ड में |
- और जंबुदीवे - जम्बूद्वीपमें |
य-तथा ।
भर हेरवय - विदेहे - भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्रोंमें । धम्मा गरे- धर्मकी आदि करनेवालोंको ।
नम॑सामि - मैं नमस्कार करता हूँ ।
सुरगण - नरिंद- महियस्स - देवसमूह तथा राजाओंके समूहसे पूजित |
सीमाधरस्स - सीमा धारण करनेवालेको, मर्यादायुक्त । सीमा - मर्यादा |
वंदे - मैं वन्दन करता हूँ ।
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पप्फोडिय-मोहजालस्स- | णमो-मैं नमस्कार करता हूँ। मोहजालको बिलकुल तोड़ने जिणमए-जिनमतको, जैनदर्शनको। वालेको।
नंदी-वृद्धि। जाई-जरा-मरण-सोग-पणा- | सया-सदा। सणस्स-जन्म, जरा, मृत्यु | संजमे-संयममें, संयम-मार्गकी। तथा शोकका नाश करनेवाला। देवं-नाग-सुवन्न-किन्नर-गणजाई-जन्म । जरा-वृद्धावस्था । स्सन्भूअ-भावच्चिए
मरण-मृत्यु । प्राण-नाश । देव, नागकुमार, सुपर्णकुमार, सोग-मानसिक दुःख, सम- किन्नर आदिसे सच्चे भाववेदना ।
पूर्वक पूजित। कल्लाण - पुक्खल - विसाल - देव-वैमानिक देव । नाग
सुहावहस्स-पूर्ण कल्याण और नागकुमार । यह भवनपति बड़े सुखको देनेवाला।
देवका एक प्रकार है। कल्लाण - आत्माका भला । सुवन्न-सुपर्णकुमार । यह
पुक्खल - पुष्कल, बहुत । भी भवनपति देवका एक विसाल-बड़ा।
प्रकार है । किन्नर-यह को-कौन ? कौन मनुष्य ?
व्यन्तर जातिके देवका देव-दाणव - नरिंद - गणच्चि
एक प्रकार है। सब्भूअ
भाव-सच्चा भाव, हृदयका यस्स-देवेन्द्रों, दानवेन्द्रों और
सच्चा उल्लास । अच्चिअनरेन्द्रोंके समूहसे पूजित ।
पूजित । धम्मस्स-धर्मका, श्रुतधर्मका। लोगो-लोक, सकल पदार्थ । सारमूवलब्भ-सार प्राप्त करके ।। जत्थ-जहाँ । करे-करे।
पइटिओ-प्रतिष्ठित है, वर्णित है । पमाय-प्रमाद ।
जगमिणं-यह जगत् । सिद्ध-सिद्ध।
तेलुक्क-मच्चासुरं-तीनों लोकके भो!-हे सुज्ञजनों!, हे मनुष्यों ! । मनुष्य तथा ( सुर )-असुरा- . पयओ-प्रयत्नपूर्वक, आदरपूर्वक ।। दिकको आधाररूप ।
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धम्मो -धर्म, जैनधर्म ।
वड्ढउ-वृद्धिको प्राप्त हो । वड्ढउ-वृद्धिको प्राप्त हो । सुअस्स-भगवओ- श्रुत- भगवासासओ-शाश्वत ।
न्की ( आराधनाके निमित्त )। विजयओ-विजयसे, विजयकी। | करेमि काउस्सग्गं- कायोत्सर्ग धम्मुत्तरं-धर्मोत्तर, चारित्रधर्म। । करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना___ अर्ध पुष्करवरद्वीप, धातकीखण्ड और जम्बूद्वीप ( मिलकर ढाई द्वीप ) में आये हुए भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्रोंमें ( श्रुत ) धर्मकी आदि करनेवालोंको मैं नमस्कार करता हूँ॥ १॥
अज्ञानरूपी अन्धकारके समूहका नाश करनेवाले, देव-समूह तथा राजाओंके समूहसे पूजित और मोहजालको बिलकुल तोड़नेवाले, मर्यादायुक्त ( श्रुतधर्म ) को मैं वन्दन करता हूँ॥२॥
जन्म, जरा, मृत्यु तथा शोकका नाश करनेवाला, पूर्ण कल्याण और बड़े सुखको देनेवाला, देवेन्द्रों, दानवेन्द्रों और नरेन्द्रोंके समूहसे पूजित ऐसे श्रुतधर्मका सार प्राप्तकरके कौन मनुष्य धर्मकी आराधना करनेमें प्रमाद करे ? ॥ ३ ॥
हे मनुष्यों ! ( नय-निक्षेपसे सिद्ध ) ऐसे जैनदर्शनको मैं आदरपूर्वक नमस्कार करता हूँ जो देव, नागकुमार, सुपर्णकुमार, किन्नर, आदिसे सच्चे भावपूर्वक पूजित है, तथा जो संयम-मार्गकी सदा वृद्धि करनेवाला है और जिसमें सकल पदार्थ तथा तीनों लोकके मनुष्य एवं (सुर ) असुरादिकका आधाररूप-जगत् वर्णित है । ऐसा (संयम-पोषक और ज्ञान-समृद्ध दर्शन द्वारा प्रवृत्त ) शाश्वत जैनधर्म
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वृद्धिको प्राप्त हो और विजयको परम्परासे चरित्र धर्म भी नित्य वृद्धिको प्राप्त हो ॥ ४॥
श्रुत-भगवानकी आराधनाके निमित्त मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। 'वंदण-वत्तियाए०' आदि । सूत्र-परिचय___ इस सूत्रमें श्रुतधर्म-श्रुतज्ञानकी स्तुति की गयी है, इसलिये वह 'सुयधम्म-थुई' कहाती है । इसका दूसरा नाम 'श्रुतस्तव' है ।
श्रुतज्ञान
(द्वादशाङ्गी) प्रश्न-श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ? . उत्तर-तीर्थङ्कर देवोंके पासमें गणधर भगवान्ने सुनकर जो ज्ञान प्राप्त
किया हो उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । श्रुत अर्थात् सुना हुआ। प्रश्न-गणधर भगवान् श्रुतज्ञान प्राप्त करके क्या करते हैं ? उत्तर-~-शास्त्रोंकी रचना करते हैं । प्रश्न-कितने शास्त्रोंकी रचना करते हैं ? उत्तर-बारह शास्त्रोंकी रचना करते हैं । इस प्रत्येक शास्त्रको अङ्ग कहा ___ जाता है, अर्थात् बारह शास्त्रोंके समूहको द्वादशाङ्गी कहते हैं । प्रश्न-द्वादशाङ्गीमें कौनसे बारह शास्त्र होते हैं ? उत्तर-(१) आचार, (२) सुयगड, (३) ठाण, (४) समवाय, (५) विवा
हपण्णत्ति, (६) नायाधम्मकहा, (७) उवासगदसा, (८) अंतगडदसा, (९) अणुत्तरोववाइयदसा, (१०) पण्हावागरण, (११) विवागसुय और (१२) दिट्ठिवाय ( दृष्टिवाद )।
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प्रश्न-क्या अभी द्वादशाङ्गी सम्पूर्ण मिलती है ? उत्तर-नहीं, अभी द्वादशाङ्गीके पहले ग्यारह शास्त्र मिलते हैं किन्तु . बारहवाँ दिट्ठिवाय नामका शास्त्र नहीं मिलता। क्योंकि उसका
दीर्घकाल-पूर्व ही विच्छेद हो गया है। प्रश्न-अभी जो द्वादशाङ्गी मिलती है, वह कौनसे गणधर भगवान्ने
रची है ? उत्तर-सुधर्मास्वामीने, परन्तु इसकी तीन वाचनाएँ हुई हैं। प्रश्न-वाचना किसे कहते हैं ? उत्तर-आचार्य तथा गीतार्थ सम्मिलित होकर जो शास्त्रका सङ्ग्रह
करते हैं उसे वाचना कहते हैं । प्रश्न-पहली वाचना कब हुई ? उत्तर–पहली वाचना श्रीमहावीरस्वामीके छठे पाट पर आये हुये श्रुत
केवली श्रीभद्रबाहुस्वामीके समयमें हुई। उस समय बारह वर्षका दुष्काल पड़ा था, इसलिये साधुगण पाटलीपुत्र और उसके आसपासका प्रदेश छोड़कर दूर-दूर चले गये थे और उनमेंसे बहुतसे अनशन करके कालधर्मको प्राप्त हो गये थे। जो साधु शेष रहे थे, वे शनैः शनैः पाटलीपुत्र वापस आये, किन्तु दुष्कालमें शास्त्रोंका स्वाध्याय उचितरूपमें नहीं होनेसे कुछ सूत्र सर्वथा विस्मृत हो गये, जिससे पाटलीपुत्रमें श्रमणसङ्घ एकत्रित हुआ और सूत्रोंकी वाचना
हुई थी। प्रश्न-दूसरी वाचना कब हुई ? उत्तर-विक्रमके द्वितीय शतकमें पुनः बारह वर्षका दुष्काल पड़ा, जिससे
श्रुत पुनः अव्यवस्थित हो गया, इसलिये वि. सं. १५३ में आर्यस्कन्दिलाचार्यने मथुरामें श्रमणसङ्घको एकत्रित कर दूसरी वाचना की।
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प्रश्न-तीसरी वाचना कब हुई ? उत्तर-तीसरी वाचना सम्भवतः इसी समयमें सौराष्ट्र के वल्लभीपुर नगर
में स्थविर नागार्जुनकी प्रधानतामें हुई। इतना स्मरण रहे कि प्राचीन कालमें जैनसाधु सूत्रोंको गुरुमुखसे धारण करते थे और उनकी बारम्बार आवृत्ति करके स्मरण रखते थे, परन्तु इसके लिये कोई
पुस्तक-पत्रादिका उपयोग नहीं करते थे। प्रश्न-तो जैन-सूत्र कब लिखे गये ? उत्तर-वीरनिर्वाणके पश्चात् ९८० वें वर्ष में देवर्धिगणि क्षमाश्रमणने वल्लभी
पुरमें श्रमणसङ्घको एकत्रित करके जैन-सूत्र लिखा लेनेका निर्णय किया, तबसे जैन-सूत्र लिखाये गये और उनको प्रतियाँ अलग अलग भण्डारोंमें सुरक्षित रहने लगीं। इन भण्डारोंके प्रतापसे ही वर्तमान द्वादशाङ्गी हम तक पहुँची है ।
२३ सिद्ध-थुई ['सिद्धाणं बुद्धाण'-सूत्र]
[ गाहा ] सिद्धाणं बुद्धाणं, पार--गयाणं परंपर-गयाणं । लोअग्गमुवगयाणं, नमो सया सव्व--सिद्धाणं ॥१॥ जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेव-महिअं, सिरसा वंदे महावीरं ॥२॥ इको वि नमुक्कारो, जिणवर-वसहस्स वद्धमाणस्स। संसार-सागराओ, तारेइ नरं व ना
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उजिंतसेल-सिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स। तं धम्म-चक्कवादि, अरिट्टनेमि नमसामि ॥४॥ चत्तारिअट्ठ दस दो, अ वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं ।
परमट्ठ--निटिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥५॥ शब्दार्थ
सिद्धाणं-सिद्धोंके लिए, सिद्धिपद ! पंजली-अञ्जलि पूर्वक ।
प्राप्त करनेवालोंके लिये। नमसंति-नमन करते हैं। बुद्धाणं-सर्वज्ञोंके लिये। तं-उनको। पार-गयाणं-पारङ्गतोंके लिये, | देवदेव-महिअं-इन्द्रोंद्वारा पूजि
संसारका पार प्राप्त करनेवालों- | तको। के लिये।
सिरसा-मस्तक झुकाकर । परंपर-याणं-परम्परासे सिद्ध
वंदे-मैं वन्दन करता हूँ। होनेवालोंके लिये।
महावीरं-श्रीमहावीरस्वामीको । लोअग्गमुवगयाणं-लोकके अग्र
इक्को -एक। भागपर गये हुओंके लिये। .
वि-भी। नमो-नमस्कार हो।
नमुक्कारो-नमस्कार। सया-सदा।
जिणवर-वसहस्स - जिनेश्वरोंमें सव्व-सिद्धाणं-सर्व सिद्ध-भग
उत्तम । वन्तोंको।
वद्धमाणस्स-श्रीमहावीरप्रभुको। जो-जो।
संसार - सागराओ - संसाररूप देवाण-देवोंके ।
___ सागरसे । वि-भी।
तारेइ-तिरा देता है।
नरं-पुरुषको। जं-जिनको।
व-अथवा। देवा-देव ।
| नारि-नारीको।
देवो-देव ।
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वा-अथवा।
दस-दस । उज्जितसेल-सिहरे-गिरनार दो-दो। पर्वतके शिखरपर।
अ-और। दिक्खा-दीक्षा।
वंदिआ-वन्दन किये हुए। नाणं-केवलज्ञान ।
जिणवरा-जिनेश्वर । निसीहिआ-निर्वाण।
चउव्वीसं-चौबीसों। जस्स-जिनका। तं-उन ।
परमट्ट-निटिअट्टा-परमार्थसे कृतधम्मचक्कट्टि-धर्मचक्रवर्ती ।।
कृत्य, मोक्ष-सुखको प्राप्त अरिटनेमि-श्रीअरिष्टनेमि भग
किये हुए। वान्के लिये।
सिद्धा-सिद्ध। नमसामि-मैं नमस्कार करता हूँ। सिद्धि-सिद्धि । चत्तारि-चार।
मम-मुझे। अट्ठ-आठ।
दिसंतु-प्रदान करें।
अर्थ-सङ्कलना
सिद्धिपदको प्राप्त किये हुए, सर्वज्ञ, संसारका पार प्राप्त किये हुए, परम्परासे सिद्ध बने हुए और लोकके अग्रभागपर गये हुए, ऐसे सर्व सिद्ध भगवन्तोंके लिये सदा नमस्कार हो ॥ १ ॥
जो देवोंके भी देव हैं, जिनको देव अञ्जलि-पूर्वक नमन करते हैं, तथा जो इन्द्रोंसे भी पूजित हैं, उन श्रीमहावीर-स्वामीको मैं मस्तक झुकाकर वन्दन करता हूँ।। २॥
जिनेश्वरोंमें उत्तम ऐसे श्रीमहावीर प्रभुको किया हुआ एक भी नमस्कार पुरुष अथवा नारीको संसाररूप सागरसे तिरा देता है।।३॥
जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण गिरनार पर्वतके शिखर
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पर हुए हैं, उन धर्मचक्रवर्ती श्रीअरिष्टनेमि भगवान्के लिये मैं नमस्कार करता हूँ ।। ४॥ ___ चार, आठ, दस, और दो ऐसे क्रमसे वन्दन किये हुए चौबीसों जिनेश्वर तथा जो मोक्ष-सुखको प्राप्त किये हुए हैं, ऐसे सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें ॥५॥ सूत्र-परिचय___ इस सूत्रमें सिद्ध भगवन्तोंकी स्तुति की गयी है, इसलिये यह 'सिद्ध-थुई' कहाती है।
सिद्ध भगवन्त प्रश्न-सिद्ध भगवन्त किसे कहते हैं ? उत्तर-जो आत्माएँ कर्मके सम्पूर्ण नाशद्वारा अपना शुद्ध स्वरूप प्रकट ___ करें वे सिद्ध भगवन्त कहाते हैं । प्रश्न-सिद्ध भगवन्त कैसे होते हैं ? उत्तर-जो सिद्ध हों, बुद्ध हों, पारङ्गत हों, परम्परागत हों और लोकके
अग्रभागपर विराजित हों। प्रश्न-सिद्ध अर्थात् ? उत्तर-कृतकृत्य । जिनको अब कुछ करना शेष नहीं रहा, वे कृतकृत्य
कहाते हैं। प्रश्न-बुद्ध अर्थात् ? उत्तर-सर्वज्ञ और सर्वदर्शी । जो केवलज्ञानसे सर्व वस्तुओंको जानते हैं वे
सर्वज्ञ और जो केवलदर्शनसे सर्व वस्तुओंको देख सकते हैं, वे सर्वदर्शी। प्रश्न-पारङ्गत अर्थात् ?
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उत्तर-संसारका पार प्राप्त किये हुए। जिनको नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य
या देवगतिमेंसे एक भी गतिमें जाना नहीं पड़े वे संसारका पार
प्राप्त किये हुए-पारङ्गत कहाते हैं । प्रश्न--परम्परागत अर्थात् ? उत्तर-परम्परासे मोक्ष प्राप्त किये हुए। जिनकी अनादिकालसे मोक्षमें
जानेकी परम्परा चालू है, अर्थात् प्रत्येक सिद्ध भगवन्त परम्परासे
मोक्षमें जाते हैं। प्रश्न-सिद्ध भगवन्त लोकके अग्रभागपर किसलिये विराजते हैं ? उत्तर-आत्माकी मूल गति सीधी रेखासे ऊपर जानेकी है, इसलिए सर्व
कर्मोंका नाश होनेपर वह सीधी रेखासे ऊपर गति करती है और जहाँ लोकका अग्रभाग आये, वहाँ जाकर रुकती है। लोकके अग्रभागको सिद्ध शिला कहते हैं, क्योंकि सिद्ध बने हुए सभी जीव वहाँ स्थिर होते हैं।
प्रश्न-लोक किसे कहते हैं ? उत्तर-विश्व, ब्रह्माण्ड अथवा जगत्को लोक कहते हैं। वह अनन्त
आकाशके एक भागमें आया है। चेतन तथा जड़ पदार्थोकी गति और स्थिरता उसमें ही होती है। जिस आकाशमें लोक न हो, उसको अलोक कहते हैं । अलोकमें कोई आत्मा अथवा जड़ पदार्थ नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा करनेके लिए जिन तत्त्वोंकी सहायता चाहिए, वे वहाँ नहीं हैं।
प्रश्न--सिद्ध भगवन्त कितने होंगे ? उत्तर- अनन्त । प्रश्न-वे सब आत्माएँ एक ही स्थान पर कैसे रहती होंगी ?
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उत्तर --जैसे अनेक दीपकोंका प्रकाश एक कमरेमें एक साथ रह सकता है,
वैसे ही अनन्त आत्माएँ सिद्धशिलामें एक साथ रह सकती हैं।
२४ वेयावच्चगर-सुत्तं [ 'वेयावच्चगराणं'-सूत्र]
वेयावच्चगराणं संतिगराणं सम्मदिहि-समाहिगराणं करेमि काउस्सग्गं । [अन्नत्थ० इत्यादि] शब्दार्थवेयावच्चगराणं-वैयावृत्त्य करने- । सम्मद्दिट्ठि-समाहिगराणं
सम्यग्दृष्टियोंके लिए समाधि वालोंके निमित्तसे।
उत्पन्न करनेवालोंके निमित्तसे । संतिगराणं-उपद्रवों अथवा उप- करेमि काउस्सग्गं-मैं कायोत्सर्ग सर्गोको शान्ति करनेवालोंके
करता हूँ।
[ अन्नत्थ० इत्यादि - अन्नत्थ० निमित्तसे।
आदि पद-पूर्वक ।] अर्थ-सङ्कलना___ वैयावृत्त्य करनेवालोंके निमित्तसे, उपद्रवों अथवा उपसर्गोंकी शान्ति करनेवालोंके निमित्तसे और सम्यग्दृ ष्टियोंके लिए समाधि उत्पन्न करनेवालोंके निमित्तसे मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। सूत्र-परिचय
गह सूत्र वैयावृत्त्य करनेवाले देवोंका कायोत्सर्ग करनेके लिए बोला जाता है।
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२५ भगवदादिवन्दनसूत्रम्
[ 'भगवानहं-सूत्र ] मूल
भगवानहं, आचार्यह, उपाध्यायहं, सर्वसाधुहं ॥ शब्दार्थ-- भगवानहं-भगवन्तोंको। | उपाध्यायह-उपाध्यायोंको । आचार्यह-आचार्योंको। | सर्वसाधुहं-सर्व साधुओंको । अर्थ-सङ्कलना
भगवन्तोंको वन्दन हो, आचार्योंको वन्दन हो, उपाध्यायोंको वन्दन हो, सर्व साधुओंको वन्दन हो । सूत्र-परिचय
भगवान्, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको थोभवन्दन करनेके लिये इस सूत्रका उपयोग होता है। इस सूत्रके चारों पदोंमें अपभ्रंशभाषाके नियमानुसार षष्ठीके बहुवचनका हं प्रत्यय लगा हुआ है और वन्दन हो अर्थ अध्याहारसे लिया गया है।
प्र०-७
lal
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२६ पडिक्कमण-ठवणा--सुत्तं
[ 'सव्वस्स वि'-सूत्र ] मूल___इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअ-पडिक्कमणे ठाउं ?* इच्छं।
सव्वस्स वि देवसिअ दुचिंतिअ दुब्भासिअ दुच्चिट्ठिअ मिच्छा मि दुक्कडं ॥
शब्दार्थ
इच्छाकारेण-स्वेच्छासे । देवसिअ-दिवस सम्बन्धी, दिनके संदिसह-आज्ञा प्रदान करो। मध्यमें। भगवन् ! हे भगवन् ! दुच्चिंतिअ-दुष्ट-चिन्तनदेवसिअ-पडिक्कमणे-दैवसिक
सम्बन्धी। , प्रतिक्रमणमें।
दुब्भासिअ-दुष्ट-भाषण-- ठाउं-स्थिर होनेकी।
सम्बन्धी। इच्छं-मैं भगवन्तके इस वचनको दुच्चिट्टिअ-दुष्ट-चेष्टाचाहता हूँ।
___ सम्बन्धी। सव्वस्स-सबका।
| मिच्छा मि दुक्कडं-मेरा दुष्टकृत वि-भी।
मिथ्या हो। - यहाँ गुरु आज्ञा देते हैं कि 'ठाएह'-प्रतिक्रमणमें स्थिर बनो। तब शिष्य कहे कि
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अर्थ-सङ्कलना
हे भगवन् ! स्वेच्छासे मुझे दैवसिक प्रतिक्रमणमें स्थिर होनेकी आज्ञा प्रदान करो। मैं भगवन्तके इस वचनको चाहता हूँ।
दिनके मध्यमें दुष्ट-चिन्तन-सम्बन्धी, दुष्ट-भाषण-सम्बन्धी, दुष्ट-चेष्टा-सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । सूत्र-परिचय
यह सूत्र प्रतिक्रमणका बीज माना जाता है, क्योंकि इसमें मन, वचन और काय से किये हुए पापोंका मिथ्या दुष्कृतद्वारा प्रतिक्रमण किया जाता है।
२७ अइयारालोअरण-सुत्तं
[अतिचार-आलोचना-सूत्र]
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसि आलोउं ? [गुरु-'आलोएह']
इच्छं।
आलोएमिजो मे देवसिओ अयियारो कओ, काइओ वाइओ माणसिओ,
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१०० उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो, दुज्झाओ दुविचिंतिओ, अणायारो अणिच्छिअव्वो असावग-पाउग्गो, नाणे दंसणे चरित्ताचरित्ते सुए सामाइए । तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं,
पंचण्हमणुव्वयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं,
बारसविहस्स सावगधम्मस्स जं खंडिअं, जं विराहिअं, तस्य मिच्छा मि दुक्कडं ॥ शब्दार्थइच्छाकारेण-इच्छा-पूर्वक । | वाइओ-वाचिक, वाणीद्वारा हुआ संदिसह-आज्ञा प्रदान करो।
हो। भगवन् ! हे भगवन् !
माणसिओ-मानसिक, मनद्वारा देवसिअं-दिवस सम्बन्धी।
हुआ हो। आलोउं-आलोचना करूँ ? उस्सुत्तो-उत्सूत्र, सूत्रके विरुद्ध [आलोएह-आलोचना करो।] । भाषण करनेसे हुआ हो । इच्छं-चाहता हूँ। (इसी प्रकार)। उम्मग्गो-उन्मार्ग, मार्गसे विरुद्ध आलोएमि-आलोचना करता हूँ। वर्तन करनेसे हुआ हो । जो-जो।
अकप्पो-अकल्प, कल्पसे विरुद्ध मे-मेरेद्वारा।
वर्तन करनेसे हुआ हो। देवसिओ-दिवस-सम्बन्धी । अकरणिज्जो-नहीं करने योग्य अइयारो-अतिचार।
__कर्तव्य करनेसे हुआ हो। कओ-किया हो-हुआ हो। दुज्झाओ-दुनिसे हुआ हो । काइओ - कायिक, कायद्वारा दुविचितिओ- दुष्ट - चिन्तनसे हुआ हो।
हुआ हो।
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१०१
अणायारो-अनाचारसे हुआ हो। पंचण्हं अणुव्वयाणं-पाँच अणिच्छिअव्वो-अनिच्छित वर्त- | अणुव्रतोंका। नसे हुआ हो।
| तिण्हं गुणव्वयाणं-तीन गुणअसावग-पाउग्गो-श्रावकके लिये
व्रतोंका। सर्वथा अनुचित हो, ऐसे व्यव
चउण्हं सिक्खावयाणं-चार हारसे हुआ हो। नाणे-ज्ञानाराधनके विषयमें ।
शिक्षाव्रतोंका। दसणे-दर्शनाराधनके विषयमें। बारसविहस्स-बारह प्रकारके । चरित्ताचरित्ते-देशविरति चारि- सावगधम्मस्स-श्रावकधर्मका । त्राराधनके विषयमें।
जं-जो। सुए-श्रुतज्ञान ग्रहणके विषयमें ।
खंडिअं-खण्डित हुआ हो । सामाइए-सामायिक विषयमें। विराहि-विराधित हुआ हो । तिण्हं गुत्तीणं-तीन गुप्तियोंका। तस्स-तत्सम्बन्धी। चउण्हं कसायाणं-चार कषा- मिच्छा मि दुक्कडं-मेरा दुष्कृत
मिथ्या हो। अर्थ-सङ्कलना
__ योंसे।
___इच्छा पूर्वक आज्ञा प्रदान करो, हे भगवन् ! मैं दिवस सम्बन्धी आलोचना करूँ ?
[ गुरु कहें-आलोचना करो।] [ शिष्य ]-इसी प्रकार चाहता हूँ।
दिवस-सम्बन्धी मुझसे जो अतिचार हुआ हो उसकी आलोचना करता हूँ। ( यह अतिचार---)
कायाद्वारा हुआ हो, वाणीद्वारा हुआ हो या मनद्वारा हुआ हो।
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१०२
- सूत्रसे विरुद्ध, मार्गसे विरुद्ध, कल्पसे विरुद्ध या कर्तव्यसे विरुद्ध ( चलनेके कारण हुआ हो।)
दुष्ट-ध्यानसे हुआ हो अथवा दुष्ट-चिन्तनसे हुआ हो।
अनाचारसे हुआ हो, नहीं चाहने योग्य वर्तनसे हुआ हो या श्रावकके लिये सर्वथा अनुचित ऐसे व्यवहारसे हुआ हो ।
ज्ञानाराधनके विषयमें, दर्शनाराधनके विषय में, देशविरति चारित्राराधनके विषयमें, श्रुतज्ञान-ग्रहणके विषयमें अथवा सामायिकके विषयमें हुआ हो।
तीन गुप्तियोंका, पाँच अणुव्रतोंका, चार शिक्षाव्रतोंका, बारह प्रकारके श्रावक धर्मका चार कषायोंसे जो खण्डित हुआ हो, विराधित हुआ हो, तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। सूत्र-परिचय
दिनके मध्यमें हुए अतिचारोंको गुरुके समक्ष प्रकट करनेके लिये इस सूत्रकी योजना की गयी है।
२८ अइयार-वियारण-गाहा [अतिचार विचारनेके लिए गाथाएँ ]
मूल
[ गाहा ] नाणम्मि दंसणम्मि अ, चरणम्मि तवम्मि तह य वीरियम्मि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ॥१॥
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१०३
शब्दार्थनाणम्मि-ज्ञानके विषयमें । वीरयम्मि-वीर्यके विषयमें । दसणम्मि -दर्शनके विषयमें । आयरणं-आचरण करना । अ-और।
आयारो-आचार। चरणम्मि-चारित्रके विषयमें । इअ-यह। तवम्मि-तपके विषयमें । पंचहा-पाँच प्रकारका। तह य-और।
भणिओ-कहा गया है। अर्थ-संकलना
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यके विषयमें जो आचरण करना आचार कहा गया है । यह आचार पाँच प्रकारका है :-(१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार और (५) वीर्याचार ॥१॥ मूल
काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिण्हवणे ।
वंजण-अत्थ-तदुभये, अट्टविहो नाणमायारो ॥२॥ शब्दार्थकाले-कालके विषयमें।
सिद्धान्त आदिके विषयमें अपविणए-विनयके विषयमें।
लाप करना। बहुमाणे-बहुमानके विषयमें ।
वंजण-अत्थ-तदुभये -व्यञ्जन, . उवहाणे-उपधानके विषयमें ।
अर्थ और तदुभयके विषयमें। . तह-तथा । अनिण्हवणे-अनिह्नवताके विषयमें। अट्टविहो-आठ प्रकारका । . अनिण्हवण-गुरु, ज्ञान और । नाणमायारो-ज्ञानाचार ।
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१०४ अर्थ-सङ्कलना. ज्ञानाचार आठ प्रकारका है :-(१) काल, (२) विनय, (३) बहुमान, (४) उपधान, (५) अनिवता, (६) व्यञ्जन, (७) अर्थ और (८) तदुभय ॥२॥ मूलनिस्संकिअ निकंखिअ, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ ।
उववूह--थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ ॥३॥ शब्दार्थनिस्संकिस-किसी प्रकारकी शङ्का । अ-और । __ न करना, निःशङ्कता। निक्कंखिअ-किसी प्रकारकी इच्छा | उववूह - थिरीकरणे - उपबृंहणा __ न करना, निष्कांक्षता ।
और स्थिरीकरण । निव्वितिगिच्छा-मतिविभ्रमसे ।
वच्छल्ल-पभावणे-वात्सल्य और रहित अवस्था, निर्विचिकित्सा।
प्रभावना। अमूढदिट्टी-जिस दृष्टिमें मूढता
न हो, अमूढदृष्टिता। | अठ्ठ-आठ। अर्थ-सङ्कलना___ दर्शनाचारके आठ प्रकार हैं :-(१) निःशङ्कता, (२) निष्काङ्क्षता, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढदृष्टिता (५) उपबृंहणा, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना ।।३।। मूलपणिहाण-जोग-जुत्तो, पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहि । एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो ॥४॥
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शब्दार्थपणिहाण- जोग-जुसो- चित्त- । एस-यह, इस तरह ।
की समाधि-पूर्वक । | चरित्तायारो-चारित्राचार। पंचहि समिईहि-पाँच समि- | तियोंका।
अट्ठविहो-आठ प्रकारका। तोहिं गुत्तोहि-तीन गुप्तियोंका हाइ-हाता है। ( पालन )।
| नायव्वो-जानने योग्य । अर्थ-सङ्कलना
चित्तकी समाधि-पूर्वक पाँच समिति और तीन गुप्तियोंका पालन, इस तरह चारित्राचार आठ प्रकारका जानने योग्य होता है।।४।। मूल
बारसविहम्मि वि तवे, सभितरे-बाहिरे कुसल-दिडे । अगिलाइ अणाजीवी, नायव्वो सो तवायारो ॥५॥ शब्दार्थबारसविहम्मि-बारह प्रकारका । ' अगिलाइ अणाजीवी – ग्लानिवि-भी।
रहित और आजीविकाके हेतु तवे-तपके विषयमें, तप ।
विना। सभितर - बाहिरे - अभ्यन्तर
सहित बाह्य, बाह्य और नायव्वो-जानना। अभ्यन्तर ।
सो-वह । कुसल - दिटे - जिनेश्वरोंद्वारा कथित ।
| तवायारो-तपाचार। अर्थ-सङ्कलना
जिनेश्वरोंद्वारा कथित बाह्य और अभ्यन्तर तप बारह प्रकारका
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है। वह जब ग्लानि-रहित और आजीविकाके हेतु विना होता हो, तब उसे तपाचार जानना ॥५॥
अणसणमूणोअरिआ, वित्ती-संखेवणं रस-चाओ। काय-किलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥६॥ शब्दार्थअणसणमूणोअरिआ-अनशन संलोणया-शरीरादिकका सङ्गो__ और ऊनोदरिका-ऊनोदरता। पन, संलोनता। वित्ती-संखेवणं-वृत्ति संक्षेप। । य-और । रस-च्चाओ-रस-त्याग। बज्झो-बाह्य । काय - किलेसो - कष्ट - सहन । तवो-तप ।
करना-तितिक्षा, काय-क्लेश। । होइ-होता है, है । अर्थ-सङ्कलना
(१) अनशन, (२) ऊनोदरता, (३) वृत्ति-संक्षेप, (४) रसत्याग, (५) काय-क्लेश और (६) संलीनता ये बाह्य तप हैं ।।६।।
पायच्छित्तं विणओ, वेयावचं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि अ, अभितरओ तवो होई ॥७॥ शब्दार्थपायच्छित्तं-प्रायश्चित
उस्सग्गो-त्याग। विणओ-विनय ।
वि अ-और फिर। वेयावच्चं-वैयावृत्त्य ( शुश्रूषा )।
अभितरओ-अभ्यन्तर। तहेव-वैसे ही। सज्झाओ-स्वाध्याय।
तवो-तप। झाणं-ध्यान।
होइ-होता है, हैं।
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१०७
अर्थ-सङ्कलना
(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) उत्सर्ग, ( त्याग ) ये अभ्यन्यर तप हैं ॥७॥ मूलअणिगृहिअ-बल-वीरिओ, परकमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ अ जहाथाम, नायव्यो वीरिआयारो ॥८॥ शब्दार्थअणिगहिअ-बल-वोरिओ- आउत्तो-उसके पालनमें । बाह्य-और अभ्यन्तर सामर्थ्यको | जुजइ-जोड़ता है। न छिपाते हुए।
अ-और। परक्कमइ-पराक्रम करता है ।।
जहाथाम-यथाशक्ति अपनी जो-जो। जहत्तं-उपर्युक्त ज्ञान, दर्शन. आत्माको । चारित्र और तपके छत्तीस नायव्वो-जानना। आचारोंके विषयमें।
वीरिआयारो-वीर्याचार ।
अर्थ-सङ्कलना
उपर्युक्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपके छत्तीस आचारोंके विषयमें जो बाह्य और अभ्यन्तर सामर्थ्यको न छिपाकर पराक्रम करता है और उसके पालनमें अपनी आत्माको यथाशक्ति जोड़ता है, ऐसे आचारवान्का आचार वीर्याचार जानना ॥८॥ सूत्र-परिचय
-
कायोत्सर्गमें अतिचार विचारनेके लिये इन गाथाओंका उपयोग
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१०८
होता है। इनमें प्रत्येक आचारके जो प्रकार दिखाये हैं, उनमें लगे हुए अतिचारोंका चिन्तन किया जाता है।
पञ्चाचार
प्रश्न-आचार किसे कहते हैं ? उत्तर-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यसम्बन्धी जो आचरण, वह
___आचार कहलाता है। प्रश्न-ये आचार कितने प्रकारके होते हैं ? । उत्तर-पांच प्रकारके । ज्ञानसम्बन्धी ज्ञानाचार, दर्शनसम्बन्धी दर्शनाचार,
चारित्रसम्बन्धी चारित्राचार, तपसम्बन्धी तपाचार, और
वीर्यसम्बन्धी वीर्याचार । प्रश्न--ज्ञानाचार कितने प्रकारका है ? उत्तर-आठ प्रकारका । वह इस तरह
(१) श्रुत समयानुसार पढ़ना। (२) श्रुत नियमसे पढ़ना। (३) श्रुत बहुमानपूर्वक पढ़ना। (४) श्रुत उपधानपूर्वक पढ़ना । (५) गुरु, ज्ञान अथवा सिद्धान्तका अपलाप नहीं करना । (६) उच्चारण शुद्ध करना । (७) अर्थ शद्ध करना ।
(८) उच्चारण और अर्थ दोनों शुद्ध करने । प्रश्न-दर्शनाचार कितने प्रकारका है ? उत्तर-आठ प्रकारका । वह इस तरहः
(१) जिनवचनमें शङ्का नहीं करना ।
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१०९
(२) जिनवचनके अतिरिक्त अन्यकी काङ्क्षा नहीं करना । (३) जिनवचनमें मतिभ्रम नहीं करना । (४) मूढदृष्टिवाला नहीं होना । अर्थात् सत्यासत्य-(विवेक) परीक्षण
___ सीखना चाहिए। (५) धर्माचरणवालोंकी पुष्टि करना। (६) धर्ममार्गसे विचलित होनेवालेको स्थिर करना । (७) साधर्मियोंके प्रति वात्सल्यभाव रखना।
(८) धर्मकी प्रभावना करनी। प्रश्न-चारित्राचार कितने प्रकारका है ? उत्तर-आठ प्रकारका । वह इस तरहः
(१) पाँच समितियोंका पालन करना।
(२) तीन गुप्तियोंका पालन करना। प्रश्न-तपाचार कितने प्रकारका है ? उत्तर-बारह प्रकारका । वह इस तरहः
छह प्रकारका बाह्यतप
(१) उपवास करना। (२) ऊणोदरी व्रतका पालन करना, भूखकी अपेक्षा कुछ कम
खाना। (३) वृत्ति-संक्षेप करना, खानेके द्रव्य कम करना । (४) रसका त्याग, दूध, दही, घृत, तेल, गुड़ और पक्वान्न
यथाशक्ति कम करना। (५) संयमके पालनमें यथाशक्य कायाका क्लेश सहन करना।
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११० (६) शरीरादिका सङ्गोपन करना; अर्थात् अङ्गोपाङ्ग सङ्कोच
पूर्वक रखना। छह प्रकारका अभ्यन्तर तप(१) दोषोंकी शुद्धिके लिए शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त लेना। (२) ज्ञानादि मोक्षके साधनोंकी यथाविधि आराधना करना । (३) सङ्घ, श्रमण आदिका वैयावृत्त्य करना। (४) शास्त्रका स्वाध्याय करना । (५) शुभ ध्यान धरना।
(६) कषाय आदिका त्याग करना। प्रश्न-वीर्याचार कितने प्रकारका है ? उत्तर-तोन प्रकारका । मन, वचन और कायकी शक्ति बिना छिपाये
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपके आचारोंका पालन करनेके लिये
पुरुषार्थ करना। प्रश्न-पञ्चाचारसे क्या होता है ? उत्तर-पञ्चाचारसे धर्मको आराधना सुन्दर रीतिसे होती है ।
२९ सुगुरु-वंदरण-सुत्तं
[ सुगुरु-वन्दन-सूत्र ] मूलइच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए, निसीहिआए, अणुजाणह मे मिउग्गहं,
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निसीहि अहोकाय, काय--सफासं खमणिज्जो भे! किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुमेण मे ! दिवसो वइक्कतो? जत्ता में? जवणिज्जं च भे? खामेमि खमासमणो ! देवसिअं वइक्कम, आवस्सिआए पडिकमामि । खमासमणाणं देवसिआए आसायणाए, तित्तीसन्नयराए, जं किंचि मिच्छाए, मण-दुक्कडाए वय-दुक्कडाए काय-दुक्कडाए, कोहाए माणाए मायाए लोभाए, सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए, सव्वधम्माइक्कमणाए, आसायणाए, जो मे अइयारो कओ, तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि निंदामि, गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥
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११२
शब्दार्थइच्छामि-चाहता हूँ।
अप्पकिलंताणं-अल्प ग्लानिवाले खमासमणो! हे क्षमाश्रमण __आपका। गुरुदेव !
बहुसुभेण-अत्यन्त सुखपूर्वक । बंदिउं-वन्दन करनेको।
भे!-आपका। जावणिज्जाए-सुखशाता (शान्ति) दिवसो-दिवस। पूछते हुए।
वइक्कतो?-बीता ?, व्यतीत निसीहिआए-अविनय आशा
___ हुआ ? तनाकी क्षमा माँगते हुए। जत्ता-यात्रा, संयम-यात्रा । अणुजाणह-आज्ञा प्रदान करो। भे?-आपकी। मे-मुझे।
जवणिज्जं-इन्द्रिय और मन मिउग्गह-अवग्रहमें आनेके लिये, । उपशमसे युक्त, इन्द्रिय मर्यादित भूमिमें प्रवेश । कषाय उपघातसे रहित । करनेकी।
च-और। मित-मर्यादित । अवग्रह
भे?-आपका। गुरुके आसपासकी शरीर जितनी खामेमि-खमाता हूँ, क्षमा ( साढेतीन हाथ ) जगह । ___ माँगता हूँ। निसीहि-अशुभ व्यापारोंके | खमासमणो!-हे क्षमाश्रमण ! __ त्याग-पूर्वक ।
देवसिअं-दिवस सम्बन्धी, दिनमें अहोकायं-चरणोंको।
___ किये हुए। काय-संफासं-मेरी कायाद्वारा वइक्कम-व्यतिक्रमको, अपराधको। ___ संस्पर्श ।
आवस्सिआए-आवश्यक - क्रियाखमणिज्जो-सहन करने योग्य है, के लिये। ___ क्षमा करें।
पडिक्कमामि-प्रतिक्रमण करता भे!-आपके द्वारा, आप।
हूँ, अवग्रहसे बाहर जाता हूँ। किलामो-खेद ।
खमासमणाणं-क्षमाश्रमणकी।
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११३
पिआए-दिवस-सम्बन्धी। | सव्वमिच्छोवयाराए-सर्व प्रकारके आसायणाए-आशातना।
मिथ्या उपचारोंसे। लित्तीसन्नयराए-तैंतीसमेंसे ।
सव्वधम्माइक्कमणाए-सर्व प्रकार
के धर्मका अतिक्रमण होनेके तं किंचि-जो कोई।
कारण हुई। मिच्छाए-मिथ्याभावद्वारा। जो-जो। मण-दुक्कडाए-मनके दुष्कृतद्वारा, मे-मुझसे । __ मनकी दुष्ट प्रवृत्तिसे हुई।
अइयारो-अतिचार ।
कओ-किया हो, हुआ हो। वय-दुक्कडाए-वचनके दुष्कृतद्वारा,
तस्स-तत् सम्बन्धी। वचनकी दुष्ट प्रवृत्तिसे हुई।
खमासमणो!-हे क्षमाश्रमण ! काय-दुक्कडाए-कायके दुष्कृत
पडिक्कमामि-प्रतिक्रमण करता हूँ, द्वारा, कायकी दुष्ट प्रवृत्तिसे हुई।
___ वापस लौटता हूँ। कोहाए-क्रोधसे हुई।
निंदामि-निन्दा करता हूँ। माणाए-मानसे हुई।
गरिहामि-गुरुके समक्ष निन्दा मायाए-मायासे हुई।
___करता हूँ।
| अप्पाणं-आत्माको, अशुभ योगमें लोभाए-लोभसे हुई, लोभकी
प्रवृत्त अपनी आत्माका । वृत्तिसे हुई।
वोसिरामि-छोड़ देता हूँ, त्याग सव्वकालियाए-सर्वकाल सम्बन्धी । करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
[शिष्य कहता है- ] हे क्षमाश्रमण गुरुदेव ! आपकी मैं सुखशाता पूछते हुए तथा अविनय आशातनाकी क्षमा मांगते हुए वन्दन करना चाहता हूँ।x
x यहाँ गुरु कहें-'छंदेणं' यदि ऐसी ही इच्छा हो तो ऐसा करो, तब शिष्य कहे
प्र-८
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११४
मुझे आपकी मर्यादितभूमिके समीप आनेकी आज्ञा प्रदान करो।+
सर्व अशुभ व्यापारोंके त्याग-पूर्वक आपके चरणोंको अपनी कायासे स्पर्श करता हूँ। उससे जो कोई खेद-कष्ट हुआ हो उसके लिए मुझे क्षमा प्रदान करें। आपका दिन अल्प-खेदसे सुखपूर्वक व्यतीत हुआ है ?*
आपको संयम-यात्रा चल रही है ?x आपकी इन्द्रियाँ और कषाय उपघात रहित वर्तन करते हैं ? हे क्षमाश्रमण ! दिनमें किये हुए अपराधोंकी क्षमा माँगता हूँ।
आवश्यक-क्रियाके लिये अब मैं अवग्रहके बाहर जाता हूँ। दिनमें आप क्षमाश्रमणकी तैंतीसमेंसे कोई भी आशातना की हो तो उससे मैं वापस लौटता हूँ। और जो कोई अतिचार मिथ्याभावके कारण हुई आशातनासे हुआ हो, मन, वचन और कायाकी दुष्टप्रवृत्तिसे हुई आशातनासे हुआ हो, क्रोध, मान, माया और लोभकी वृत्तिसे हुई आशातनासे हुआ हो अथवा सर्व कालसम्बन्धी, सर्व प्रकारके मिथ्या उपचारोंसे, सर्व प्रकारके धर्मके अति
+ यहाँ गुरु कहें- अणुजाणामि'-आज्ञा देता हूँ। तब शिष्य कहे* यहाँ गुरु कहें-'तह त्ति' ऐसा ही है । तब शिष्य कहेx यहाँ गुरु कहें-'तुब्भंपि वट्टए ?' तुम्हारी भी चल रही है ?
यहाँ गुरु कहें-'एवं' ऐसा ही है । तब शिष्य कहे
= यहाँ गुरु कहें-'अहमपि खामेमि तुब्भं'-मैं भी तुमसे क्षमा चाहता हूँ। फिर शिष्य कहे
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११५
क्रमणके कारण हुई आशातनासे हुआ हो, उनसे हे क्षमाश्रमण ! मैं वापस लौटता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, उसकी गर्हा करता हूँ और इस अशुभ - योग में प्रवृत्त अपनी आत्माका त्याग करता हूँ ।
सूत्र-परिचय
गुरुको बारह आवर्तपूर्वक वन्दन करनेके लिये यह सूत्र बोला जाता है । इसमें 'इच्छामि खमासमणो वंदिउ जावणिज्जाए निसीहिआए' इन पदोंसे वन्दनकी इच्छाका निवेदन किया जाता है, अतः इसको 'इच्छानिवेदन-स्थान' कहते हैं । 'अणुजाणह' से 'किलामी' पर्यन्तके पदों अनुज्ञा माँगी जाती है, अतः इसको 'अनुज्ञापन -स्थान' कहते हैं । 'अप्प किलंताणं' से 'वइक्कंतो' तकके पदोंसे 'अव्याबाध- स्थिति पूछी जाती है, अतः इसको 'अन्याबाध - पृच्छा स्थान' कहते हैं । 'जत्ता भे ?' इन दो पदोंसे संयम-यात्राकी पृच्छा की जाती है, अतः इसको 'संयमयात्रा - पृच्छा-स्थान' कहते हैं । 'जवणिज्जं च भे ?' इन तीन पदोंसे यापनाको पृच्छा की जाती है, अतः इसको 'यापनापृच्छा-स्थान' कहते हैं । और 'खामेसि खमासमणो' से 'वोसिरामि' तकके पदोंसे अपराधकी क्षमा माँगी जाती है, अतः इसको 'अपराधक्षमापनस्थान' कहते हैं ।
इस सूत्र में 'अहोकायं काय -- ' ' जत्ता भे ?' और 'जवणिज्जं च भे ?' ये शब्द विशिष्ट रीतिसे बोले जाते हैं, वे इस प्रकार -
अ - रजोहरणको स्पर्श करते हुए बोला जाता है । हो - ललाटको स्पर्श करते हुए बोला जाता है । का - रजोहरणको स्पर्श करते हुए बोला जाता है । यं - ललाटको स्पर्श करते हुए बोला जाता है । का -- रजोहरणको स्पर्श करते हुए बोला जाता है ।
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मूल
११६
य - ललाटको स्पर्श करते हुए बोला जाता है ।
ज - अनुदात्त-स्वरसे बोला जाता है और उसी समय गुरु-चरणकी स्थापनाको दोनों हाथोंसे स्पर्श किया जाता है ।
त्ता-स्वरित स्वर से बोला जाता है और उस समय चरण स्थापना से उठाये हुए हाथ रजोहरण और ललाटके बीच में चौड़े करनेमें आते हैं ।
भे - उदात्त स्वर से बोला जाता है और उस समय दृष्टि गुरुके समक्ष रखकर दोनों हाथ ललाटपर लगाये जाते हैं । ज - अनुदात्त - स्वरसे, चरणस्थापनाको स्पर्श करते हुए बोला जाता है । च - स्वरित - स्वरसे, मध्य में आते हुए हाथ चौड़े करके बोला जाता है ।
णि - उदात्त - स्वरसे, ललाटको स्पर्श करते हुए बोला जाता है । ज्ज - अनुदात्त - स्वरसे, चरण-स्थापनाको स्पर्श करते हुए बोला जाता है ।
च - स्वरित - स्वरसे, मध्यमें आते हुए हाथ चौड़े करके बोला जाता है ।
भे— उदात्त - स्वरसे, ललाटको स्पर्श करते हुए बोला जाता है ।
?
३० जीवहिंसा - प्रालोयणा [ 'सात लाख ' -सूत्र ]
सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेजकाय,
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११७
सात लाख वायुकाय, दस लाख प्रत्येक-वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण-वनस्पतिकाय, दो लाख दो इन्द्रिय, दो लाख तीन इन्द्रिय, दो लाख चार इन्द्रिय, चार लाख देवता, चार लाख नारकी, चार लाख तियञ्च-पञ्चेन्द्रिय,
चौदह लाख मनुष्य, इस प्रकार चौरासी लाख जीवयोनियोंमेंसे किसी जीवका हनन किया हो, हनन कराया हो, हनन करते हुएका अनुमोदन किया हो, वह सब मन, वचन और कायासे मिच्छा मि दुक्कडं ॥ शब्दार्थ और अर्थ-सङ्कलना
स्पष्ट है। सूत्र-परिचय___ यह सूत्र चौरासी लाख जीवयोनियोंके अन्तर्गत किसी भी जीवकी हिंसा की हो, उसका मिथ्या दुष्कृत लेनेके लिए बोला जाता है।
-
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११८
३१ अट्ठारस पाव-ठाणारिण
[ अठारह पापस्थानक]
पहला प्राणातिपात, दूसरा मृषावाद, तीसरा अदत्तादान, चौथा मैथुन, पाँचवाँ परिग्रह, छठा क्रोध, सातवाँ मान, आठवीं माया, नौवाँ लोभ, दसवाँ राग, ग्यारहवाँ द्वेष, बारहवाँ कलह, तेरहवाँ अभ्याख्यान, चौदहवाँ पैशुन्य, पन्द्रहवाँ रति-अरति, सोलहवाँ पर-परिवाद, सत्रहवाँ माया-मृषावाद, अठारहवाँ मिथ्यात्व-शल्य ।
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११९
इन अठारह पापस्थानकोंमेंसे मेरे जीवने जो कोई पाप सेवन किया हो, सेवन कराया हो, सेवन करते हुएके प्रति अनुमोदन किया हो; उन सबका मन, वचन और कायासे मिच्छामि दुक्कडं ॥
शब्दार्थ
प्राणातिपात - हिंसा । मृषावाद - झूठ बोलना ।
अदत्तादान - चोरी ।
मैथुन - अब्रह्म ।
परिग्रह - धन-दौलतपर मोह । क्रोध - गुस्सा, कोप |
मान - गर्व, मद ।
माया - छल, कपट ।
लोभ - तृष्णा ।
राग - प्रेम |
द्वेष- परस्पर ईर्ष्या करना |
अर्थ-सङ्कलना
स्पष्ट है |
सूत्र - परिचय -
कलह-क्लेश ।
अभ्याख्यान - दोषारोपण, व्यर्थ ही किसी पर झूठा दोष आरो
पण करना ।
पैशुन्य - चुगली, पीठ पीछे सच्चेझूठे दोष प्रकाशित करना । रति - अरति - हर्ष और उद्वेग । पर- परिवाद - दूसरेको बुरा कहना
और अपनी प्रशंसा करना । माया - मृषावाद - प्रवञ्चना, ठगाई । मिथ्यात्व - शल्य - मिथ्यात्व दोष |
यह सूत्र अठारह पापस्थानकोंमेंसे किसो भो पापस्थानकका सेवन किया हो, उसका मिथ्या दुष्कृत लेनेके लिये बोला जाता है ।
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३२ सावग-पडिक्कमरण-सुत्तं
[ 'वंदित्तु'-सूत्र]
मूल
[ गाहा ] वंदित्त सव्वसिद्धे, धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ ।
इच्छामि पडिकमिउं, सावग-धम्माइआरस्स ॥१॥ शब्दार्थवंदित्तु-वन्दन करके।
अ-और सम्वसिद्धे-सर्व सिद्ध भगवन्तोंको। इच्छामि-चाहता हूँ। धम्मायरिए-धर्माचार्योंको। पडिक्कमिउं-प्रतिक्रमण करनेको । अ-और।
सावग-धम्माइआरस्स-श्रावकसव्वासाहू-सब साधुओंको। धर्म में लगे हुए अतिचारोंका। अर्थ-सङ्कलना
सर्व सिद्ध भगवन्तों, (सर्व) धर्माचार्यों और सर्व साधुओंको वन्दन करके श्रावक-धर्म में लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ॥१॥ मूल
जो मे वयाइआरो, नाणे तहे दंसणे चरित्ते अ।
सुहुमो व बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि ॥२॥ शब्दार्थजो-जो।
वयाइआरो-व्रतोंके विषय में अतिमे-मुझे।
चार लगा हो।
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१२१ नाणे-ज्ञानकी आरायनाके विषयमें।। बायरो-शीघ्र ध्यानमें आये ऐसा, तह-उसी प्रकार।
बड़ा। दसणे-दर्शनकी आराधनाके | वा-अथवा । विषयमें ।
तं-उसकी। चरित्ते-चारित्रकी आराधनाके निदे-आत्मसाक्षीसे बुरा मानता हूँ, विषयमें।
निन्दा करता हूँ। अ- और।
तं-उसको। सुहमो-शीघ्र ध्यानमें न आये | च-और। ऐसा, छोटा।
गरिहामि-गुरुको साक्षीमें प्रकट व-अथवा ।
करता हूँ, गर्दा करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
मुझे व्रतोंके विषयमें तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी आराधनाके विषयमें छोटा अथवा बड़ा, जो अतिचार लगा हो, उसकी मैं निन्दा करता हूँ, उसकी मैं गर्दा करता हूँ॥ २॥
दुविहे परिग्गहम्मी, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे । कारावणे अ करणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥३॥
शब्दार्थ
दुविहे-दो प्रकारके, बाह्य और ___ अभ्यन्तर ये दो प्रकारके । परिग्गहम्मी-परिग्रहके विषयमें,
परिग्रहके कारण।
जो वस्तु ममत्वसे ग्रहण की जाय वह परिग्रह । धन,
धान्य आदि परिग्रह कहलाते हैं । सावज्जे-पापमय।
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१२२
बहविहे-अनेक प्रकारके। । पडिक्कमे-प्रतिक्रमण करता है, अ-और।
निवृत्त होता हूँ। आरंभे-आरम्भ । कारावणे-दूसरेसे करवाते हुए । ।
देसिअं-दिवस-सम्बन्धी। अ-और।
सव्वं-छोटे-बड़े जो अतिचार लगे कारणे-स्वयं करते हुए।
हों उन सबसे ।
अर्थ-सङ्कलना
बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहके कारण, पापमय अनेक प्रकारके आरम्भ दूसरेसे करवाते हुए और स्वयं करते हुए, दिवस-सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ ३॥
जं बद्धमिदिएहि, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं ।
रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ४ ॥ शब्दार्थजं बद्ध-जो बँधा हो ।
आसक्ति है। इंदिएहि-इन्द्रियोंसे।
व-अथवा । चरहिं कसाहि-चार कषायोंसे । दोसेण-द्वेषसे । अप्पसत्थेहि-अप्रशस्त ।
द्वेषका लक्षण अप्रीति है। रागेण-रागसे।
व-अथवा। रागका लक्षण प्रीति अथवा तं निदे तं च गरिहामि-पूर्ववत् अर्थ-सङ्कलना
अप्रशस्त इन्द्रियों, चार कषायों, ( तीन योगों) तथा राग और
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१२३
द्वेषसे, जो (अशुभ-कर्म) बँधा हो, उसकी मैं निन्दा करता हूँ, उसकी मैं ग करता हूँ ॥ ४ ॥ *
मूल
---
आगमणे निग्गमणे, ठाणे चकमणे अणाभोगे । अभिओगे अ निओगे, पक्किमे देसिअं सव्वं ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
आगमणे-आने में | निग्गमणे-जाने में ।
ठाणे - एक स्थानपर खड़े रहने में ! चकमणे - वारंवार चलने में अथवा
इधर उधर फिरने में । अणाभोगे - अनुपयोग में, उपयोग न होनेसे ।
अभिओगे - अभिग्रहसे,
होनेसे ।
अ- और ।
निओगे - नौकरी-आदिके कारण । पक्किमे देसिअं सव्वं - पूर्ववत् ०
अर्थ- सङ्कलना
उपयोग नहीं रहने से, दबाव होनेसे अथवा नौकरी-आदिके कारण आने में, जानेमें, एक स्थान पर खड़े रहने में और बारंबार चलने में अथवा इधर उधर फिरने में दिवस सम्बन्धी जो ( अशुभ कर्म) बँधे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ ५ ॥
दबाव
इन्द्रिय, कषाय, योग तथा विभागों के लिये देखो, प्रबोधटीका भाग योग उपलक्षणसे लिये जाते हैं ।
राग-द्वेषके प्रशस्त और अप्रशस्त
२, पृ.
१८२ । यहाँ तीन
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१२४
संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु ।
सम्मत्तस्स इआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥६॥ शब्दार्थसंका-वीतरागके वचनोंमें शङ्का । | संथवो-संस्तव । कंख-अन्यमतकी इच्छा, कांक्षा। कुलिंगीसु-कुलिङ्गियोंके बारेमें । विगिच्छा-धर्म के फलमें सन्देह
पृथक् पृथक् वेश पहनकर होना अथवा साधु-साध्वीके धर्मके बहाने जो लोगोंको मलिन वस्त्र देखकर दुर्भाव ठगते हैं वे कुलिङ्गी कहाते हैं । (दुगंछा) होना, विचिकित्सा । सम्मत्तस्स इआरे-सम्यक्त्वके पसंस-प्रशंसा, कुलिङ्गी प्रशंसा । अतिचारोंसे । तह-तथा ।
पडिक्कमे देसि सव्वं-पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना____ सम्यक्त्वके पालनमें शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, कुलिङ्गी-प्रशंसा तथा कुलिङ्गी-संस्तवद्वारा दिवस-सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ।। ६ ।। मूल
छक्काय-समारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा ।
अत्तट्ठा य परट्ठा, उभयट्ठा चेव तं निंदे ॥७॥ शब्दार्थछक्काय-समारंभे-छहकायके । पयणे-राँधते हुए । जीवोंकी-विराधना हो ऐसी अ-और। प्रवृत्ति करते हुए।
पयावणे-रँधाते हुए।
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अ-तथा ।
जे -जो ।
दोसा- दोष |
अट्ठा - स्वयंके लिये, अपने लिये
I
य-और
मूल
१२५
अर्थ- सङ्कलना
छह कायके जीवोंको विराधना हो ऐसी प्रवृत्ति करते हुए तथा अपने लिये, दूसरोंके लिये और साथ ही दोनोंके लिये राँधते हुए, रंधाते हुए जो दोष हुए हों, उनको मैं निन्दा करता हूँ ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
परट्ठा - दूसरोंके लिये । उभयट्ठा - दोनोंके लिये । चेव और साथ ही । तं निदे- उनकी
मैं
करता हूँ ।
पंचण्हमणुव्वयाणं, गुणव्वयाणं च तिण्हमइआरे । सिक्खाणं च चउण्हं, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ ८॥
पंचहमणुव्वयाणं- पाँच अणुव्रतोंमें।
स्थूल - प्राणातिपात विरमणव्रत
आदि पाँच व्रत अणुव्रत कहलाते हैं । गुणव्वयाणं - गुणव्रतोंमें ।
आदि
दिक्- परिणाम - व्रत तीन व्रत गुणव्रत कहलाते हैं । च - और ।
निन्दा
तिन्हं तीन ।
अइआरे - अतिचारोंको । सिक्खाणं-शिक्षाव्रतोंमें ।
'
सामयिक - व्रत व्रत शिक्षाव्रत कहलाते हैं ।
च - और ।
चउण्हं-चार |
पडिक्कमे देसिअं सव्वं - पूर्ववत् ०
आदि चार
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अर्थ-सङ्कलना
पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों में दिवस - सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ ८ ॥
मूल -
१२६
पढमे अणुव्वयम्मी, धूलग - पाणाइवाय - विरईओ । आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमाय - प्पसंगेणं ॥ ९॥
शब्दार्थ
पढमे अणुव्वयम्मी- प्रथम अणुव्रतके विषय में ।
थूलग - पाणाइवाय - विरईओ -स्थूल प्राणातिपातकी विरतिसे दूर हो ऐसा,
पालन करना ।
अर्थ- सङ्कलना
स्थूल - प्राणातिपात - विरमण - अप्पसत्थे
व्रतमें अतिचार लगे ऐसा ।
थूलग — स्थूल, कुछ अंशोंमें
पाणाइवाय- प्राणका वियोग करना, हिंसा । विरइ - विरमणव्रत, दूर रहना । आयरिय - जो कोई आचरण किया हो ।
- अप्रशस्त-भावका उदय
होनेसे | इत्थ - यहाँ ।
पमाय - प्प संगेणं - प्रमादके प्रसङ्गसे
अब प्रथम अणुव्रत के विषयमें ( लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है ।) यहाँ प्रमादके प्रसङ्गसे अथवा ( क्रोधादि ) अप्रशस्त भावका उदय होनेसे स्थूल - प्राणातिपात - विरमण - व्रतमें अतिचार लगे ऐसा जो कोई आचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ ९ ॥ मूल
वह-बंध- छविच्छेए, अइभारे भत्त - पाण- वुच्छेए । पढम - वयस्स इआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥१०॥
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१२७
शब्दार्थ
वह-बंध-छविच्छेए-मारते भूखा-प्यासा रखनेसे । (फटकारते), बाँधते और भत्त-भोजन । पाण-पानी । अङ्गोपाङ्ग छेदते ।
वुच्छेअ-विच्छेद करना, नहीं देना । वह-पशु अथवा दास
पढम-वयस्स-पहले व्रतके दासी आदिको निर्दयता-पूर्वक विषयमें। मारना । बंध-पशु अथवा दासदासी आदिको रस्सी या
इआरे-अतिचारोंको। साँकलसे बाँधना । छविच्छेअ
यहाँ मूल शब्द अइआरे अङ्गोपाङ्ग अथवा चमड़ी छेदना।
है, पर पूर्वके अकारका लोप
होनेसे इआरे ऐसा पाठ बोला अइभारे-बहुत बोझा भरनेसे । जाता है । भत्त-पाण-वुच्छेए-भोजन | पडिक्कमे देसि सव्वंऔर पानीका विच्छेद करनेसे, पूर्ववत् ।।
अर्थ-सङ्कलना___ प्राणियोंको मारनेसे (फटकारनेसे), रस्सी आदि बाँधनेसे, अङ्गोपाङ्ग छेदनेसे, बहुत बोझा भरनेसे और भूखा-प्यासा रखनेसे, पहले व्रतके विषयमें, दिवस--सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ॥ १०॥
बीए अणुव्वयम्मी, परिथूलग-अलिय-वयणविरईओ। आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमाय-प्पसंगेणं ॥११॥
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१२८ शब्दार्थबीए अणुव्वयम्मो-दूसरे अणु-। परिथूलग-स्थूल । अलियव्रतके विषयमें।
वयण--झूठे वचन, मृषावाद । परिथूलग-अलिय-क्यण- विरति-विरमण-व्रत । विरईओ-स्थूल मृषावाद- आयरियमप्पसत्थे इत्थ विरमणव्रतमें, अतिचार लगे ऐसा। पमाय-प्पसंगणं-पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना__ अब दूसरे अणुव्रतके विषयमें (लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है ।) यहाँ प्रमादके प्रसङ्गसे अथवा क्रोधादि अप्रशस्त भावका उदय होनेसे स्थूल-मृषावाद-विरमण-व्रतमें अतिचार लगे ऐसा जो कोई आचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ॥११॥ मूल
सहसा-रहस्स-दारे, मोसुवएसे अ.कूडलेहे अ ।
बीयवयस्स इआरे, पडिकमे देसि सव्वं ॥१२॥ शब्दार्थसहसा-रहस्स-दारे-सह- हों, उन्हें देखकर मनमाना अनुसाभ्याख्यान करनेसे, रहोऽ- . मान लगा लेना। स्वरदारमन्त्रभ्याख्यान करनेसे, स्वदारमन्त्र- भेद-अपनी स्त्रीकी गुप्त बात भेद करनेसे।
बाहर प्रकाशित करनो। सहसाऽभ्याख्यान-बिना मोसुवएसे-मिथ्या उपदेश विचारे किसीको दूषित कहना । ___ अथवा झूठी सलाह देनेसे । रहोऽभ्याख्यान-कोई मनुष्य रहस् अर्थात् एकान्तमें गुप्त बातें करते । कूडलेहे-झूठी बातें लिखनेसे ।
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अ-और।
। विषयमें। बीयवयस्स इआरे-दूसरे व्रतके | पडिक्कमे देसि सव्वं-पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना
बिना विचारे किसीको दूषित कहनेसे ( किसी पर दोषारोपण करनेसे ), कोई मनुष्य गुप्त बातें करते हों, उन्हें देखकर मनमाना अनुमान लगानेसे, अपनी स्त्रीको गुप्त बात बाहर प्रकाशित करनेसे, मिथ्या उपदेश अथवा झूठी सलाह देनेसे तथा झूठी बात लिखनेसे दूसरे व्रतके विषयमें दिवस-सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ।। १२ ।।
मूल
तइथे अणुव्वयम्मी, थूलग-परदव्व-हरण-विरईओ ।
आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमाय-पसंगेणं ॥ १३ ॥ शब्दार्थतइ अणुव्वयम्मी-तीसरे अणु- लगे ऐसा। व्रतके विषयमें।
थूलग-परदव्व-हरण-विरई - थूलग-परदव्व-हरण-विरईओ- दूसरेके धनको हरण करनेका स्थूल--परद्रव्य-हरणकी विरतिसे स्थूल रूपमें त्याग करना। दूर हो ऐसा, स्थूल-अदत्तादान- | आयरियमप्पसत्थे इत्थ पमायविरमण-व्रतमें अतिचार प्पसंगणं-पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना
अब तीसरे अणुव्रतके विषयमें (लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है।) यहाँ प्रमादके प्रसङ्गसे अथवा क्रोधादि अप्रशस्त
प्र-९
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१३०
भावका उदय होनेसे स्थूल - अदत्तादान - विरमण - व्रतमें अतिचार लगे ऐसा जो कोई आचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ ।। १३ ।।
मूल
तेनाहड - प्पओगे, तप्पडिरूवे विरुद्ध-गमणे अ । कूडतुल- कूडमाणे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥
१४ ॥
शब्दार्थ—
तेनाहड-पओगे - स्तेनाहूत तथा स्तेन - प्रयोगमें, चोरद्वारा लायी वस्तु रखलेनेसे और चोरी करनेका उत्तेजन मिले ऐसे वचन बोलनेसे |
तेन - चोर, आहड - लायी गयी । करनेका
स्तेन प्रयोग- चोरी
उत्तेजन मिले, ऐसे वचन
बोलना |
तपsिa - नकली माल बेचनेसे, माल में किसी तरहकी मिलावट करनेसे । विरुद्ध-गमणे - राज्यके नियमोंसे
विरुद्ध गमन करनेसे |
तौल
कूडतुल- कूडमाणे - झूठा तौलनेसे झूठा मापनेसे, झूठा तौल तथा झूठे मापका उप
1
योग करनेसे | पडिक्कमे देसिअं सव्वं पूर्ववत् ०
अर्थ- सङ्कलना
चोरद्वारा लायी हुई वस्तु रख लेनेसे, चोरी करनेका उत्तेजन मिले, ऐसा वचन - प्रयोग करनेसे, मालमें मिलावट करनेसे, राज्यके विरुद्ध गमन करनेसे और झूठा तौल तथा झूठे मापका उपयोग करनेसे, दिवस - सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ १४ ॥
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मूल
उत्थे अणुव्वयम्मी, निच्चं परदार- गमण - विरईओ । आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमाय - पसंगेणं ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
चउत्थे अणुव्वयम्मी - चौथे अणुव्रतके विषय में |
निच्चं - नित्य, निरन्तर । परदार-गमण - विरईओ - पर
१३१
मूल
अर्थ-सङ्कलना
ra चौथे अणुव्रत विषयमें ( लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है । ) यहाँ प्रमाद के प्रसङ्गसे अथवा क्रोधादि अप्रशस्तभावका उदय होनेसे निरन्तरकी परदारगमन - विरतिमें अतिचार लगे, ऐसा जो कोईआचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ १५ ॥
―――――
दार-गमन - विरतिमें अतिचार लगे ऐसा । आयरियमप्पसत्थे इत्थ पमायपसंगेणं पूर्ववत् ०
अपरिग्गहिआ - इत्तर - अणंग - वीवाह - तिव्व - अणुरागे । चउत्थवयस्स इआरे, पडिक मे देसिअं सव्वं ॥१६॥
शब्दार्थ
अपरिग्गहिआ - इत्तर - अनंग - वीवाह - तिव्व - अणुरागेअपरिगृहीता - गमन, इत्वरगृहीता - गमन, अनङ्ग-क्रीडा, परविवाह - करण और तीव्र - अनुरागके कारण ।
अपरिगृहीता-गमन - जो स्त्री परिगृहोता अर्थात् विवाहित न हो वह अपरिगृहीता, कन्या और विधवा स्त्रियाँ अपरिगृहीता कहलाती हैं, उनके साथ गमन करना-सङ्ग
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करना; वह
गमन ।
इत्वरगृहीता - अल्प समयके लिये ग्रहण करने में आयी हुई स्त्री अर्थात् रखात ( पासवान ) अथवा वेश्या ।
१३२
अनङ्ग - क्रीडा - कामवासना जागृत करनेवाली क्रिया ।
अर्थ-सङ्कलना
मूल
अपरिगृहीता
-
अपरिगृहीता - गमन, इत्वरगृहीता-गमन, अनङ्ग-क्रीडा, परविवाहकरण और तीव्र - अनुराग के कारण चौथे व्रतके विषय में दिवससम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ।। १६ ।।
परविवाह - करण- अपने
अथवा
लड़की अतिरिक्त
शब्दार्थ
इत्तो - हाँसे, अब I
अणुव्वये पंचमम्मि - पाँचवें अणुव्रत के विषय में |
*
लड़के
आश्रितोंके
दूसरोंके विवाह
आदि करना - कराना |
तीव्र - अनुराग - विषय-भोग करनेकी अत्यन्त आसक्ति । चउत्थवयस्स इआरे-चौथे व्रतके अतिचारोंको । पडिक्कमे देसिअं सव्वं - पूर्ववत् ०
इत्तो अणुव्वये पंचमम्मि आयरिअमप्पसत्यम्मि । परिमाण - परिच्छेए, इत्थ पमाय -- पसंगेणं ॥ १७ ॥
आचरण किया हो । परिमाण-परिच्छेए
परिमाण
परिच्छेदके विषयमें परिग्रहपरिमाण - व्रत में अतिचार लगे
आयरिअमप्पसत्यम्मि[-अप्रशस्त
ऐसा ।
भावका उदय होनेसे जो कोई | इत्थ पमाय -प्पसंगेणं - पूर्ववत् ०
-
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अर्थ- सङ्कलना
अब पाँचवें अणुव्रत के विषय में (लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है ।) यहाँ प्रमाद के प्रसङ्गसे अथवा क्रोधादि अप्रशस्त भावका उदय होनेसे परिग्रह - परिमाण - व्रतमें अतिचार लगे ऐसा जो कोई आचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ १७ ॥
मूल—
धण - धन्न - खित्त-वत्थू - रुप्प - सुवन्ने अ कुविअ - परिमाणे । दुपए चउप्पयम्मिय, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ १८ ॥ शब्दार्थ
धण - धन्न - खित्त - वत्थू - रुप्प - सुवन्ने - धन-धान्य- प्रमाणातिक्रममें, क्षेत्र - वास्तु प्रमाणातिक्रममें, रौप्य - सुवर्ण- प्रमाणातिक्रम |
१३३
वण - गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य वस्तुओंका सङ्ग्रह धन कहाता है । गणिम अर्थात् गिनकर लेने योग्य वस्तुएँ, जैसे- रोकड़े रुपये ( नोट ), सुपारी, श्रीफल आदि । धरिम अर्थात् तौलकर ली जाय ऐसी वस्तुएँ, जैसे कि गुड़, आदि । मेय अर्थात् माप
शक्कर
कर लेने योग्य वस्तुएँ, जैसे कि घी, तेल, कपड़ा आदि । परिच्छेद्य अर्थात् घिसकर अथवा काटकर ली जायँ ऐसी वस्तुएँ, जैसे कि सुवर्ण, रत्न आदि । धन्न–जव, गेहूँ, चावल आदि चौबीस प्रकारके धान्य । खित्त-खेत, वाडी, बागबगीचा आदि । वत्थू-मकान हाट, गोदाम आदि । रुप्प - चाँदी | सुवन्न - सोना । अतिक्रम - उल्लङ्घन ।
अ- और ।
कुविअ - परिमाणे- कुप्य णातिक्रमके विषयमें ।
प्रमा
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१३४
सोना-चाँदीके अतिरिक्त वस्तुएँ । दुपअ-दो पैरवाले, दास-दासी कुप्य कहलाती हैं । शृङ्गार- । और पक्षी। चउप्पय-चार सज्जा आदिका समावेश भी
पैरवाले, हाथी, घोड़ा, उँट इसी विभागमें हो जाता है ।
आदि। दुपए-चउप्पयम्मि-द्विपद और
य-और। चतुष्पदके विषयमें, द्विपदचतुष्पद - प्रमाणातिक्रमके
पडिक्कमे देसि सव्वं-- विषयमें ।
पूर्ववत् अर्थ-सङ्कलना
धन-धान्यका, क्षेत्र-वास्तुका, सोना-चाँदीका, अन्य धातुओंका तथा शृङ्गार-सज्जाका और मनुष्य, पक्षी तथा पशुओंका प्रमाण उल्लङ्घन करनेसे दिवस-सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ॥ १८ ।।
मूल
गमणस्स य परिमाणे, दिसासु उड्ढं अहे अतिरिक्षं च । बुड्ढी सइ-अंतरद्धा, पढमम्मि गुणव्वए निंदे ॥ १९॥ शब्दार्थ--
गमणस्स-गमनके, जाने-आनेके।। य-और। परिमाणे-परिमाणके विषयमें । दिसासु-दिशाओंमें । उड्ढ-ऊर्ध्व दिशामें जानेका
प्रमाण लाँघनेसे। अहे-अधोदिशामें जानेका प्रमाण
लाँघनेसे ।
अ-और । तिरिअं-तिर्यदिशामें जानेका
प्रमाण लाँघनेसे। ऊर्ध्व और अधोदिशाका मध्य
भाग तिर्यदिशा कह
लाता है। च-और।
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१३५ बुड्ढी -वृद्धि, बढ़ जानेसे । पढमम्मि-गुणव्वए-पहले गुणसइ-अंतरद्धा-स्मरण न रहनेसे, व्रतमें । __ भूल जानेसे।
निदे-मैं निन्दा करता हूँ।
अर्थ-सङ्कलना
(अब मैं दिक्परिमाणवतके अतिचारोंकी आलोचना करता हूँ।) उसमें ऊर्ध्वदिशामें जानेका प्रमाण लाँघनेसे, तिर्यग् अर्थात् उत्तर दक्षिणके मध्यकी दिशामें जानेका प्रमाण लाँघनेसे, क्षेत्रका प्रमाण बढ़ जानेसे अथवा क्षेत्रका प्रमाण भूल जानेसे पहले गुणव्रतमें जो अतिचार लगे हों, उनकी मैं निन्दा करता हूँ।। १९ ।।
मजम्मि अ मंसंम्मि अ, पुप्फे अ फले अ गंध-मल्ले अ। उवभोग-परीभोगे, बीअम्मि गुणव्वए निंदे ॥ २० ॥
शब्दार्थ
मज्जम्मि-मद्यके विषयमें, मदिरा । गंध-मल्ले-गन्ध और माल्यके (की विरति ) में।
विषयमें। अ-और।
गंध-केसर, कस्तूरी आदि मंसम्मि-मांसके विषयमें, मांस सुगन्धी पदार्थ। ( की विरति ) में ।
माल्य-फूलकी माला आदि अ-तथा ।
शृङ्गार। पुप्फे-फूलके विषयमें।
अ-और। अ-और। फले-फलके विषयमें।
उवभोग-परीभोगे-उपभोगअ-और।
परिभोग करने में ।
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उवभोग-एक बार उपयोगमें | बीयम्मि गुणव्वए-दूसरे गुणलेना। परीभोग-बारंबार उप- व्रतमें योगमें लेना।
निदे-मैं निन्दा करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
दूसरे गुणव्रतमें मदिरा (की विरति)में,मांस (की विरति) में, तथा फूल, फल और सुगन्धी पदार्थों एवं माला आदिके उपभोग-परिभोग करनेमें जो अतिचार लगे हों, उनकी मैं निन्दा करता हूँ।। २० ॥
मूल
सच्चित्ते पडिबद्धे, -दुप्पोलियं च आहारे । तुच्छोसहि-भक्खणया, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥२१॥ शब्दार्थसच्चित्ते-सचित्त आहारके । अपोल - दुप्पोलियं - अपक्व भक्षणमें ।
ओषधिके भक्षणमें; दुष्पक्व सचित्त-सजीव, चैतन्यवाला।
आहारके भक्षणमें। पडिबद्ध -सचित्त-प्रतिबद्ध आहा- अपोल-नहीं पकी हुई। दुप्पोरके भक्षणमें ।
लिय-कुछ पकी हुई और
कुछ नहीं पकी हुई। जो वस्तु सामान्यतया निर्जीव हो चुकी हो किन्तु उसका च-और । कोई भाग सचित्तके साथ
आहार-आहारके विषयों, आहाजुड़ा हुआ हो, वह सचित्त
। रके भक्षणमें। प्रतिबद्ध कहाता है। जैसे कि वृक्षका गोंद, बीज | तुच्छोसहि - भक्खणया - तुच्छ सहित पका हुआ फल । । ओषधिके भक्षणमें ।
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जिसमें खानेका भाग कम और 1 है, जैसे कि बेर, सीताफेंक देनेका भाग अधिक हो, फल, गन्ने आदि । वह तुच्छ वनस्पति कहलाती पडिक्कमे देसि सव्वं-पूर्ववत्०
अर्थ-सङ्कलना
निश्चित किये हुए प्रमाणसे अधिक सचित्त आहारके भक्षणमें, सचित्त प्रतिबद्ध आहारके भक्षणमें, अपक्व ओषधिके भक्षणमें, दुष्पक्व आहारके भक्षणमें तथा तुच्छ ओषधिके भक्षणमें, दिवस-सम्बन्धी छोटेबड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ।। २१ ।।
मूलइंगाली वण साडी, भाडी फोडी सुवज्जए कम्मं । वाणिज्जं चेव दंत-लक्ख-रस-केस-विस-विसयं ॥२२॥ एवं खु जंतपीलण-कम्मं निल्लंछणं च दव-दाणं । सर-दह-तलाय-सोसं, असई-पोसं च वज्जिज्जा ॥२३॥
शब्दार्थ
इंगाली वण साडी भाडी फोडी-~अङ्गार, बन, शकट
भाटक और स्फोटक । सुवज्जए-मैं छोड़ देता हूँ। कम्म-कर्म । वाणिज्ज-वाणिज्य । चेव-इसी प्रकार।
दंत-लक्ख-रस-केस-विस
-विसयं-दन्त, लाख, रस, ___ केश और विष-सम्बन्धी । एवं-इसी प्रकार। खु-वस्तुतः । जंत-पीलण-कम्मं - यन्त्र - पी
लन-कर्म ।
alionai
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१३८ निल्लंछणं-निर्लाञ्छन-कर्म, अङ्ग- (५) स्फोटक कर्म-पृथ्वी च्छेदन-कर्म ।
तथा पत्थर फोड़ने का च-और ।
कार्य। दव-दाणं-दव-दान-कर्म, वन, (६) दन्त - वाणिज्य-हाथी क्षेत्र आदि में आग लगानेका
। दाँत आदिका व्यापार । व्यापार।
(७) लाक्षा - वाणिज्य-लाख सर-दह-तलाय-सोसं-सरोवर, । आदिका व्यापार ।
स्रोत, तालाब आदिको (८) रस-वाणिज्य-दूध, दही, सुखानेका कार्य।
घृत, तेल आदिका व्यापार । असई-पोसं-असती-पोषण-कर्म । (९) केश - वाणिज्य - जहर वज्जिज्जा-मैं छोड़ देता हूँ।
___ और जहरीले पदार्थोंका जिस कर्म अथवा व्यापारसे
व्यापार । बहुत कर्म-बन्धन हो, उसे
(१०) यन्त्र-पीलन-कर्म-चक्की, कर्मादान कहते हैं। बाई
घाणी आदि अन्न तथा
बीज पीसनेका कार्य । सवीं और. तेईसवों गाथामें
(११) निर्लाञ्छन-कर्म-- पशुओंपन्द्रह कर्मादानोंके नाम
के अङ्गोंको छेदना, काटना, दिये हैं, वे इस तरह हैं :
आँकना, डाम लगाना तथा (१) अङ्गार-कर्म-जिसमें अग्नि
गलानेका कार्य । का अधिक काम पड़ता हो,
(१२) दव-दान-कर्म-वनमें ऐसा कार्य।
आग लगानेका कार्य । (२) वन-कर्म-जिसमें वन
(१३) जल-शोषण-कर्म--सरोस्पतिका अधिक समारम्भ
वर, स्रोत तथा तालाब हो ऐसा कार्य ।
आदि सुखानेका कार्य । (३) शकट-कर्म-गाड़ी बनाने
(१४) असती-पोषण-कर्मका कार्य ।
कुलटा अथवा व्यभिचारिणी (४) भाटक-कर्म-किराये पर स्त्रियों तथा हिंसक पशुओंवाहन चलानेका कार्य । .
के पोषणका कार्य ।
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१३९
अर्थ-सङ्कलना
अङ्गार-कर्म, वन-कर्म, शकट-कर्म, भाटक-कर्म, स्फोटककर्म, दन्त-वाणिज्य, लाक्षा-वाणिज्य, रस-वाणिज्य, केश-वाणिज्य, विष-वाणिज्य, यन्त्र-पीलन-कर्म, निर्लाञ्छन-कर्म, दव-दान-कर्म, जल-शोषण-कर्म और असती-पोषण-कर्म छोड़ देता हूँ॥२२-२३।। मल
सत्थग्गि-मुसल-जंतग-तण-कढे मंत-मूल-भेसज्जे । दिन्ने दवाविए वा, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ २४ ॥ शब्दार्थसत्थग्गि - मुसल-जंतग-तण- । मंत-मूल-भेसज्जे-मन्त्र, मूल
___ और ओषधिके विषयमें। कट्टे-शस्त्र, अग्नि, मूसल,
दिन्ने दवाविए वा-दूसरोंको चक्की ( पेषणी ) आदि यन्त्र,
देते हुए और दिलाते हुए । तृण और काष्ठके विषयमें। पडिक्कमे देसि सव्वं-पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना__शस्त्र, अग्नि, मूसल आदि साधन, चक्की (पेषणी) आदि यन्त्र, विभिन्न प्रकारके तृण, काष्ठ, मूल और ओषधि आदि (विना कारण) दूसरोंको देते हुए और दिलाते हुए ( सेवित अनर्थदण्डसे ) दिवससम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ २४॥
Bernie
पहाणव्वट्टण-वन्नग-विलेवणे सद्द-रूव--रस--गंधे । वत्थासण--आभरणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ २५ ॥
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शब्दार्थ
ण्हाणुव्वट्टण - वन्नग-विलेवणे विलेवण-लेपन करना ।
-स्नान, उद्वर्तन, वर्णक और । सह-रूव-रस-गंधे-शब्द, रूप, विलेपनके विषयमें।
- रस और गन्धके विषयमें । ण्हाण-स्नान करना ।
वत्थासण -- आभरणे-वस्त्र, उबट्टण-मैल निकालनेके लिये उबटन आदि पदार्थ लगाना ।
आसन और आभरणके वन्नग-रङ्ग लगाना तथा चित्र
विषयमें। कारी करना ।
पडिक्कमे देसिअंसव्वं पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना
१ स्नान, २ उद्वर्तन, ३ वर्णक, ४ विलेपन, ५ शब्द, ६ रूप, ७ रस, ८ गन्ध, ९ वस्त्र, १० आसन और ११ आभरणके विषयमें सेवित अनर्थदण्डसे दिवस-सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ ।। २५ ॥
मूल
कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरि--अहिगरण--भोग--अइरित्ते । दंडम्मि अणट्ठाए, तइअम्मि गुणव्वए निंदे ॥ २६ ॥ शब्दार्थकंदप्ये-कन्दर्पके विषयमें, काम- ! अइरिते-मौखर्य संयुक्ताधिकरण विकारके विषयमें।
और भोगातिरिक्तताके कारण । कुक्कुइए-अनुचित चेष्टाके विषय- मौखर्य-अधिक बोलना, आव- में, कौत्कुच्यके विषयमें ।
श्यकतासे अधिक बोलना । मोहरि - अहिगरण – भोग - संयुक्ताधिकरण-तैयार किया
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१४१
हुआ शस्त्र । जैसे कि:- धनुषके निकट तीर रखना। ऊखलके पास मूसल रखना । बन्दूक भरकर रखना आदि । भोगातिरिक्त-भोगोंकी अधिकता, आवश्यकतासे अधिक भोग भोगना।
दंडम्मि अणटाए-अनर्थ-दण्डके
विषयमें, अनर्थ-दण्ड विरमण
व्रत नामके। तइअम्मि गुणव्वए-तीसरे गुण
व्रतके विषयमें। निदे-मैं निन्दा करता हूँ।
अर्थ-सङ्कलना
-
अनर्थदण्ड-विरमण-व्रत नामके तीसरे गुण-व्रतके विषयमें (१) कन्दर्प, (२) कौत्कुच्य, (३) मौखर्य, (४) संयुक्ताधिकरण और (५) भोगातिरिक्तताके कारण जो अतिचार लगे हों, उनकी मैं निन्दा करता हूँ ॥ २६ ॥ मूलतिविहे दुष्पणिहाणे, अणवट्ठाणे तहा सई-विहूणे । सामाइय वितह-कए, पढमे सिक्खावए निंदे ॥ २७ ॥
शब्दार्थ
तिविहे - दुप्पणिहाणे - तीन अणवट्ठाणे-अनवस्थानके विषयमें,
प्रकारके दुष्प्रणिधानके विषय- एक स्थान छोड़कर दूसरे में; मनो-दुष्प्रणिधान, वचन- स्थानपर जानेसे। दुष्प्रणिधान और काय-दुष्प्र
तहा-इसी प्रकार । णिधानके विषयमें। दुप्पणिहाण-दुष्ट-प्रणिधान,दुष्ट । सइ-विहूणे-स्मृति - विहीनत्वके . प्रकारकी एकाग्रता।
विषयमें।
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१४२
सामाइय वितहकए-सामायिक । पढमे सिक्खावए-पहले शिक्षा
वितथ किया हो, सामायिककी व्रतके विषयमें। विराधना की हो । | निदे-मैं निन्दा करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
पहले शिक्षावतमें सामायिकको निष्फल करनेवाले मनो-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान, काय-दुष्प्रणिधान, अनवस्थान और स्मृतिविहीनत्व नामके पाँच अतिचारोंकी मैं निन्दा करता हूँ॥ २७ ॥ मूल
आणवणे पेसवणे, सद्दे रूवे अ पुग्गल--क्खेवे । देसावगासिअम्मी, बीए सिक्खावए निंदे ।। २८॥ शब्दार्थआणवणे-आनयन-प्रयोगके विषय- | अ-और ।
में, बाहरसे वस्तु मँगानेसे ।। पुग्गल-क्खेवे-पुद्गलके क्षेपसे, पेसवणे-प्रेष्य-प्रयोगके विषयमें,
वस्तु फेंकनेसे। वस्तु बाहर भेजनेसे। सद्द-शब्दानुपातके विषयमें, देसावगासिअम्मी-देशावकाशिक
आवाज करके उपस्थिति बत- व्रतके विषयमें। लानेसे। रूवे-रूपानुपातके विषयमें, जाली
| बीए सिक्खावए-दूसरे शिक्षा(झरोखे) आदि स्थानपर आकर
| व्रतमें। __ अपनी उपस्थिति बतलानेसे । । निदे-मैं निन्दा करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
देशावकाशिक नामके दूसरे शिक्षा-व्रतमें १ आनयन-प्रयोग, २ प्रेष्य-प्रयोग, ३ शब्दानुपात, ४ रूपानुपात और ५ पुद्गल-- क्षेपद्वारा जो अतिचार लगे हों, उनकी मैं निन्दा करता हूँ॥२८॥
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१४३
मूल
संथारुच्चारविही-पमाय तह चेव भोअणाभोए । पोसह--विहि--विवरीए, तइए सिक्खावए निंदे ॥२९॥ शब्दार्थसंथारुच्चारविही - पमाय - तह-तथा । संथारा और उच्चारकी विधिमें
चेव-इसी तरह। हुए प्रमादके कारण; संथारा
भोअणाभोए-भोजनादिकी चिऔर उच्चार-प्रस्रवण-भूमिकी
न्ताद्वारा। प्रतिलेखना और प्रमार्जनामें प्रमाद होनेसे ।
पोसह-विहि-विवरीए - पोषध संथारेकी विधि-घास, कम्बल विधिको विपरीतता। अथवा विस्तर आदि पर सोते रहनेकी विधि, उच्चार
तइए सिक्खावए - तीसरे को विधि-बड़ी नीति और
| शिक्षाव्रतमें। लघुनीति परठवनेकी विधि । निदे-मैं निन्दा करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
संथारा और उच्चार-प्रस्रवण-भूमिकी प्रतिलेखना और प्रमाणनामें प्रमाद होनेसे तथा भोजनादिकी चिन्ताद्वारा पौषधोपवास नामके तीसरे शिक्षाव्रतमें जो कोई विपरीतता हुई हो ( अतिचारोंका सेवन हुआ हो ) उसकी मैं निन्दा करता हूँ ।। २९ ॥
Hanumn
मूल
सचित्त निक्खिवणे, पिहिणे ववएस--मच्छरे चेव । कालाइक्कम-दाणे--चउत्थ सिक्खावए निंदे ॥ ३० ॥
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१४४ शब्दार्थसच्चित्ते निक्खिवणे-सचित्त चेव-इसी प्रकार ।
निक्षेपमें; सचित्त वस्तु डालनेमें। कालाइक्कम-दाणे - कालातिक्रम पिहिणे-सचित्त पिधानमें, सचित्त दानमें, काल बीत जानेपर वस्तु ढकने में।
दान देनेके विषयमें। ववएस-मच्छरे-परव्यपदेश और चउत्थ - सिक्खावए - चौथे मात्सर्यमें, बहाना करने में ___ शिक्षाव्रतके प्रतिक्रमण-प्रसङ्गमें ।
और ईर्षा करने में। | निदे-मैं निन्दा करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
सचित्त-निक्षेपण, सचित्त-पिधान, पर-व्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम-दान इन पाँच अतिचारोंकी मैं चौथे शिक्षाव्रतके प्रतिक्रमण-प्रसङ्गमें निन्दा करता हूँ ॥ ३० ॥ मूल
सुहिए सु अ दुहिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा । रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ३१ ।। शब्दार्थसुहिएसु-सुहितोंके विषयमें । वर न हो वे दुःखित कह
जो साधु ज्ञान, दर्शन और लाते हैं। चारित्रमें रत हो वह सुहित अ-और। कहलाता है।
जा-जो।
मे-मझसे । अ-और।
अस्संजएसु-अस्वयतोंके विषय में। दुहिएसु-दुःखितोंके विषयमें। अणुकंपा-अनुकम्पा भक्ति । जिस साधुके पास वस्त्र, पात्र रागेण-रागसे। आदि उपाधि (सामग्री) बरा- व-और ।
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१४५
दोसण-द्वेष से।
| तं निदे तं च गरिहामि-पूर्ववत्० व-तथा । अर्थ-सङ्कलना
जो मुझसे सुहित, दुःखित और अस्वयत साधुओं की भक्ति राग अथवा द्वेष से हुई हो, उसकी मैं निन्दा करता हूँ और गर्दा करता हूँ ।। ३१ ॥
मूल
साहूसु संविभागो, न कओ तव-चरण-करण-जुत्तेसु । संते फासुअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥३२॥
शब्दार्थ
साहूसु-साधुओंके विषयमें। । चरण और करणसे युक्त; तपस्वी, संविभागो-संविभाग, वस्तुओंका | . चारित्रशील और क्रियापात्र । . एक भाग।
संते फासुअदाणे-दानके योग्य न कओ-नहीं किया हो, नहीं वस्तुएँ उपस्थित होते हुए भी। दिया हो।
तं निदे तं च गरिहामितव-चरण-करण-जुत्त सु-तप, पूर्ववत् अर्थ-सङ्कलना
तपस्वी, चारित्रशील और क्रियापात्र साधुओं के दान देने योग्य वस्तुएँ उपस्थित होते हुए भी, उनमेंसे एक भाग नहीं दिया हो, तो अपने उस दुष्कृत्यकी मैं निन्दा करता हूँ और गर्दा करता हूँ॥३२॥
इह लोए परलोए, जीविअ-मरणे अ आसंस-पओगे। पंचविहो अइआरो, मा मज्झं हुज्ज मरणंते ॥३३॥
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-
शब्दार्थइहलोए-इहलोक सम्बन्धी आ- अ-और ।
सक्ति रखनेसे, इहलोकाशंसा- आसंस-पओगे-कामभोगको आप्रयोगमें।
___सक्ति करनेसे, मानता करनेसे, परलोए-परलोक सम्बन्धी आसक्ति कामभोगाशंसा-प्रयोगमें । रखनेसे, परलोकाशंसा-प्रयोग | पंचविहो-पाँच प्रकारका ।
अइआरो-अतिचार । जीविअ-मरणे-जीवन में आसक्ति मा-नहीं, न। रखनेसे और मरणकी इच्छा मज्झं-मुझे। करनेसे, जीविताशंसाप्रयोग हज्ज-होवें। में और मरणाशंसाप्रयोग मरणंते-मरणान्त समयमें, मरणके
समयमें ।
में।
अर्थ-सडुलना
१ इहलोकाशंसा-प्रयोग, २ परलोकाशंसा-प्रयोग, ३ जीविताशंसा-प्रयोग, ४ मरणाशंसा-प्रयोग और ५ कामभोगाशंसा-प्रयोग, ये पाँच प्रकार के अतिचार मुझे मरणके समय न होवें ।। ३३ ।।
काएण काइअस्सा, पडिक्कमे वाइअस्स वायाए । मणसा माणसिअस्सा, सव्वस्स वयाइआरस्स ॥३४॥
शब्दार्थकाएण काइअस्सा-कायाके | पडिक्कमे-प्रतिक्रमण करता हूँ।
अशुभ प्रवर्तनको शुभ काय- वाइअस्स वायाए-वचनके अशुभ योगसे ।
प्रवर्तनको शुभ वचनयोगसे ।
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१४७
मणसा माणसिअस्सा-मनके । सव्वस्स-सर्व ।
अशुभ प्रवर्तनको शुभ मनो- वयाइआरस्स - व्रतोंके अतियोग से।
चारोंका। अर्थ-सङ्कलना
कायाके अशुभ प्रवर्तनको शुभ काययोगसे, वचनके अशुभ प्रवर्तनको शुभ वचनयोगसे, मनके अशुभ प्रवर्तनको शुभ मनोयोगसे, इस प्रकार सर्व-व्रतोंके अतिचारोंका प्रतिक्रमण करता हूँ। ३४ ।।
वंदण-वय-सिक्खा-गारवेसुसण्णा--कसाय--दंडेसु । गुत्तीसु अ समिईसु अ, जो अइआरो अतं निंदे ॥३५॥
शब्दार्थ
वंदण-वय-सिक्खा-गारवेसु- निदे-निन्दा करता हूँ।
वन्दन; व्रत, शिक्षा और वन्दन दो प्रकारके हैं:-चैत्य
गारव (अभिमान) के विषयमें। वन्दन और गुरु-वन्दन । सण्णा-कसाय--दंडेसु--संज्ञा, व्रत बारह हैं :-स्थूल
कषाय और दण्डके विषयमें। प्राणातिपात-विरमण - व्रत गुत्तीसु-गुप्तिके विषयमें ।
आदि । शिक्षा दो प्रकार अ-और।
की है :--ग्रहण और आसेसमिईसु-समितिके विषयमें ।
वना । सूत्र और अर्थ अ-और।
ग्रहण करना ये ग्रहण शिक्षा जो-जो।
और कर्तव्योंका पालन अइआरो-अतिचार ।
करना ये आसेवनाशिक्षा । अ-तथा।
गारव तीन हैं:-रसगारव तं-उसकी।
अर्थात् मधुर खाने-पीनेका
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ऋद्धिगारव -
अभिमान अर्थात् धन कुटुम्ब आदिका अभिमान और सातागारव
अर्थात् शरीर को सुख उत्पन्न करे ऐसी सामग्रियों
का अभिमान । संज्ञा चार
हैं:--आहार,
भय, मैथुन
और परिग्रह । कषाय चार
१४८
शब्दार्थ
समद्दि - सम्यग्दृष्टिवाला ।
जीवो - जीव, आत्मा । जइ विहु-यद्यपि ।
पावं - पापको, पापमय प्रवृत्तिको । समायरइ - करता है । किचि-थोड़ी, किञ्चित् ।
अप्पो - अल्प |
हैं— क्रोध,
और लोभ ।
हैं : - मनोदण्ड,
और कायदण्ड ।
हैं : -- मनोगुप्ति
समिति
पाँच
समिति आदि ।
अर्थ- सङ्कलना
१ वन्दन, २ व्रत, ३ शिक्षा, ४ गारव, ५ संज्ञा, ६ कषाय, ७ दण्ड, ८ गुप्ति और ९ समिति- इन नौ विषयों में ( करने योग्य न करनेसे और नहीं करने योग्य करनेसे ) जो अतिचार लगे हों, उनकी मैं निन्दा करता हूँ ||३५||
मूल
{
मान,
सम्मद्दिट्ठी जीवो, जइ वि हु पावं समायरह किंचि । अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्र्धसं कुणइ || ३६॥
माया
दण्ड तीन
वचनदण्ड
गुप्ति तीन आदि ।
हैं: -- ईर्या
सि-उसको ।
होइ - होता है । बंधी-बन्ध,
कर्मबन्ध |
जेण - जिससे, कारण कि ।
न नहीं ।
निर्द्धधसं - निर्दयता पूर्वक । कुणइ करता है ।
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अर्थ-सङ्कलना
सम्यग्दृष्टिवाला जीव आत्मा यद्यपि (प्रतिक्रमण करने के अनन्तर भी) किंचित् पापमय-प्रवृत्तिको करता है, तो भी उसे कर्मबन्ध अल्प होता है, कारण कि वह उसको निर्दयता-पूर्वक नहीं करता || ३६ ||
मूल
शब्दार्थ --
-
तंपि हु सपडिकमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च । खिष्पं उवसामेइ, वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो ||३७||
तं - उसको ।
पि-भी ।
-
१४९
हु - अवश्य ( निश्चयका भाव बत
लाता है) । सपडिक्कमणं-प्रतिक्रमणवाला हो
कर, प्रतिक्रमण करके । सप्परिआवं - पश्चात्तापवाला हो कर, पश्चात्ताप करके ।
सउत्तरगुणं उत्तर गुणवाला हो
कर, प्रायश्चित्त करके ।
-
च - और |
खिष्पं- शीघ्र |
उवसामेइ - उपशान्त करता है, शमन कर देता है । वाहि व्व - जैसे व्याधिका । सुसिक्खिओ - सुशिक्षित । विज्जो - वैद्य |
अर्थ- सङ्कलना
जैसे सुशिक्षित वैद्य व्याधिका शोघ्र शमन कर देता है, वैसे ही (प्रतिक्रमण करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव उस अल्प कर्म -बन्धका भी ) प्रतिक्रमण करके, पश्चात्ताप करके तथा प्रायश्चित्त करके शीघ्र नाश कर देता है || ३७ ॥
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१५०
[ सिलोगो] जहा विसं कुट्ठ-गयं, मंत-मूल-विसारया । विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निव्विसं ॥३८॥ एवं अट्टविहं कम्मं, राग-दोस-समज्जिअं ।
आलोअंतो अ निदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ ॥३९॥ शब्दार्थजहा-जैसे।
निव्विसं-निविष, विष-रहित । विसं-विषको, जहरको। एवं-वैसे ही। कुट्ठ-गयं-कोष्ठमें गए हुए, पेटमैं अट्टविहं-आठ प्रकारके । गये हुये।
कम्म-कर्मको। मंत-मूल-विसारया-मन्त्र और राग-दोस-समज्जिअं-राग और मूलमें विशारद, मन्त्र और द्वेषसे उपाजित ।
जड़ी-बूटीके निष्णात । आलोअंतो - आलोचना करता विज्जा-वैद्य ।
हुआ। हणंति-नष्ट करते हैं, उतारते हैं। अ-और। मंतेहि-मन्त्रों से।
निदंतो-निन्दा करता हुआ । तो-उससे ।
खिप्प-शीघ्र । तं-वह।
हणइ-नष्ट करता है। हवइ-होता है।
सुसावओ-सुश्रावक । अर्थ-सङ्कलना
जैसे पेट में गये हुए जहरको मन्त्र और जड़ी-बूटी के निष्णात वैद्य मन्त्रों से उतारते हैं और उससे वह विष-रहित होता है; वैसे ही
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१५१
(व्रत-कर्म करनेवाला गुणवान्) सुश्रावक अपने पापोंकी आलोचना
और निन्दा करता हुआ राग और द्वेषसे उपाजित आठ प्रकारके कर्मको शीघ्र नष्ट करता है ॥३८--३९।। मूल
[ गाहा ] कय-पावो वि मणुस्सो, आलोइअनिदिअ गुरु-सगासे ।
होइ अइरेग-लहुओ, ओहरिअ-भरु व्व भारवहो॥४०॥ शब्दार्थकय-पावो-कृत-पाप, पाप करने । होइ-होता है, हो जाता है। वाला।
अइरेग-लहुओ-बहुत हलका । वि-भी।
ओहरिअ-भरु व्व-भार उतारे मणुस्सो-मनुष्य । आलोइअ निदिअ गुरु-स
हुएकी तरह, जिसने भार गासे-गुरुके समक्ष अपने
(बोझा) उतार दिया है उस पापोंकी आलोचना तथा निन्दा
के समान । करके।
भारवहो-भारवाहक, मजदूर । अर्थ-सङ्कलना
पाप करनेवाला मनुष्य भी गुरुके समक्ष अपने पापोंकी आलोचना तथा निन्दा करके भार उतारे हुए मजदूरको तरह बहुत हलका हो जाता है ।। ४०॥ मूल
आवस्सएण एएण, सावओ जइ वि बहुरओ होई । दुक्खाणमंतकिरिअं, काही अचिरेण कालेण ॥४१॥
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१५२ शब्दार्थआवस्सएण एएण-इस आव- होइ-होता है । श्यक-द्वारा।
दुक्खाणमंतकिरिअं-दुःखोंकी सावओ--श्रावक ।
अन्तक्रिया, दुःखोंका अन्त । जइ वि--यद्यपि। बहुरओ-बहुत रजवाला, बहुत
| काही--करेगा, करता है। कर्मवाला।
अचिरेण कालेण--अल्प समयमें । अर्थ-सङ्कलना
यद्यपि श्रावक ( सावध आरम्भोंके कारण ) बहुत कर्मवाला. होता है, तथापि इस आवश्यक-द्वारा अल्प समयमें दुःखोंका अन्त करता है ।। ४१ ॥
आलोयणा बहुविहा, न य सभरिआ पडिक्कमण-काले ।
मूलगुण-उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥४२॥ शब्दार्थआलोयणा--दोषोंको सँभालनेकी पडिक्कमण-काले -- प्रतिक्रमणके
क्रिया, आलोचना । ___ समयमें, प्रतिक्रमण करते समय । बहविहा--अनेक प्रकारकी।
मूलगुण -- उत्तरगुणे -- मूलगुण न-नहीं।
और उत्तरगुण सम्बन्धी । य-और। संभरिआ-याद आयीं। तं निदे तं च गरिहामि-पूर्ववत् । अर्थ-सङ्कलना
मूलगुण और उत्तरगुण सम्बन्धी आलोचना बहुत प्रकारकी होती
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१५३ है, वे सब प्रतिक्रमण करते समय याद नहीं आयी हों, उनको यहाँ मैं निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ॥ ४२ ।।
मल
तस्स धम्मस्स केवलि-पन्नत्तस्सअब्भुडिओ मि आराहणाए विरओ मि विराहणाए ।
तिविहेण पडिकतो. वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥४३॥ शब्दार्थतस्स धम्मस्स-उस धर्मकी, विराहणाए-विराधना से । उस श्रावक-धर्मकी। तिविहेण-तीन प्रकार से; मन,
__वचन और काय के द्वारा । केवलि-पन्नत्तस्स-केवली भग
पडिक्कतो- प्रतिक्रमण करता वन्तोंद्वारा प्ररूपित ।
हुआ, सम्पूर्ण दोषोंसे निवृत्त अब्भट्रिओ मि-खड़ा हुआ हूँ, होता हुआ। तत्पर हुआ हूँ।
वंदामि-मैं वन्दना करता हूँ। आराहणाए-आराधनाके लिए। जिणे-जिनोंको । विरओ मि-मैं विरत हुआ हूँ। चउव्वीसं-चौबीसों। अर्थ-सङ्कलना
अब मैं केवली भगवन्तोंद्वारा प्ररूपित ( और गुरुके निकट स्वीकृत ) श्रावक-धर्मकी आराधनाके लिए तत्पर हुआ हूँ और विराधनासे विरत हुआ हूँ, अतः मन, वचन और काय के द्वारा सम्पूर्ण दोषोंसे निवृत्त होता हुआ चौबीसों जिनोंको मैं वन्दन करता हूँ॥४३।। मूल
जावंति चेइआई, उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ । सव्वाइं ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥४४॥
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१५४
शब्दार्थजावंति--जिनके।
अ-भो। चेइआइं-चैत्य, जिनबिम्ब । उडढे-ऊर्ध्वलोकमें।
सव्वाइं ताई-उन सबको। अ-और।
वंदे-मैं वन्दन करता हूँ। अहे-अधोलोक में।
इह-यहाँ। अ-और। तिरिअलोए-तिर्यग्लोकमें, मनु- संतो-रहता हुआ । ___ष्यलोक में।
| तत्थ संताइं-वहाँ रहे हुओंको। अर्थ-सङ्कलना
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मनुष्यलोकमें जितने भी जिनबिंब हों, उन सबको यहाँ रहता हुआ,वहाँ रहे हुओंको मैं वन्दन करता हूँ॥४४॥
मूल
जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिंतेसिंपणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥४॥
शब्दार्थ
तिविहेण-करना, कराना, और
अनुमोदन करना इन तीन प्रकारों से।
जावंत के वि-जो कोई भी। साहू-साधु । भरहेरवय महाविदेहे-भरत, ___ ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में। अ-और। सवेसि तेसि-उन सबको। पणओ-नमा हुआ हूँ, नमन
करता हूँ।
तिदंड-विरयाणं-तीन दण्डसे
विरत; मन, वचन और कायासे पाप प्रवृत्ति नहीं करनेवाले ।
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अर्थ- सङ्कलना
भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में स्थित जो कोई भी साधु मन, वचन और काया से पाप-प्रवृत्ति करते नहीं, कराते नहीं, और करते हुए का अनुमोदन भी करते नहीं, उन सबको मैं नमन करता हूँ ।। ४५ ।।
मूल
चिर - संचिअ - पाव - पणासणीइ भव-सय- सहस्स - महणीए । चउवीस - जिण - विणिग्गय-कहाइ बोलंतु मे दिअहा ||४६ ॥ शब्दार्थ
१५५
चिर-संचिअ - पाव-पणासणीइदीर्घकाल से सचित पापोंका नाश करनेवाली ।
चिर- दीर्घकाल | संचिअ - उपाजित | पात्र - पाप । पणासणीइ-नाश करनेवाली । भव-सय सहस्स - महणीएलाखों भवका मथन करनेवाली, लाखों भवका अन्त करनेवाली भव-संसार । सय-सहस्स– सौ हजार, लाख | महणीए मथन करनेवाली, नाश
करनेवाली ।
—
FO
चउवीस - जिण - विणिग्गयकहाइ-चौबीसों जिनेश्वरोंके मुखसे निकली हुई कथाओंसे ।
I
चउवोस - चौबीस | जिण-जिनेश्वर । विणिग्गय - मुखसे निकली हुई | कहाइ-कथाओसे, धर्मकथाओंके स्वाध्यायसे ।
अर्थ-सङ्कलना
दीर्घकाल से सञ्चित पापोंका नाश करनेवाली, लाखों भवका
बोलंतु - बीतें, व्यतीत हों ।
मे-मेरे |
दिअहा - दिवस ।
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१५६ अन्त करनेवाली ऐसो चौबीसों जिनेश्वरोंके मुखसे निकली हुई धर्म कथाओंके स्वाध्यायसे मेरे दिवस व्यतीत हों ।। ४६ ।। मूल--
मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुअंच धम्मो अ ।
सम्मदिट्ठी देवा, दितु समाहिं च बोहिं च ॥४७॥ शब्दार्थमम-मुझे।
| अ-और। मंगलं-मंगलरूप हों।
सम्मद्दिट्ठी-देवा-सम्यग्दृष्टि देव । अरिहंता अरिहन्त, अर्हन्त । दितु-प्रदान करें। सिद्धा-सिद्ध ।
समाहि-समाधिको। सुअं-द्वादशांगीरूप श्रुत। च-और। च-और।
बोहिं-बोधिको। धम्मो-धर्म, चारित्रधर्म । । च-और। अर्थ-सङ्कलना___अर्हन्त, सिद्ध, साधु, द्वादशांगीरूप श्रुत और चारित्रधर्म मुझे मंगलरूप हों, तथा सम्यग्दृष्टि देव मुझे समाधि और बोधि प्रदान करें ।। ४७॥
पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं ।
असदहणे अ तहा, विवरीअ--परूवणाए अ॥४८॥ शब्दार्थपडिसिद्धाणं-निषेध किये हुए । किच्चाणं-करने योग्य कृत्यों के । कृत्योंके ।
अकरणे-नहीं करनेसे । करणे-करनेसे ।
अ-और ।
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पडिक्कमणं - - प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है । असद्दहणे- अश्रद्धा होनेसे ।
अ- और ।
१५७
अर्थ- सङ्कलना
निषेध किये हुए कृत्योंके करनेसे, करने योग्य कृत्यों के नहीं करनेसे, अश्रद्धा होनेसे और श्रीजिनेश्वरदेवके उपदेशसे विपरीत प्ररूपणा करने से प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है ॥ ४८ ॥
मूल
तहा -- इसी तनह । विवरीअ - परूवणाए - श्रीजिनेश्वरदेव के उपदेशसे विपरीत प्ररूपणा करनेसे ।
[ सिलोगो ]
खामि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभ्रूए सु, वेरं मज्झ न केइ ||४९ ||
शब्दार्थ
खामेमि-- मैं क्षमा करता हूँ । सव्वजीवे -- सब जीवोंको ।
सव्वे - सब |
जीवा - जीव । खमंतु- क्षमा करें । मे - मुझे ।
मित्ती -- मैत्री |
मे --मेरी ।
सव्व-भूएस--सर्व प्राणियोंके प्रति,
सब जीवोंके साथ ।
वेरं - वर |
मज्झ-मेरा ।
न--नहीं । hes-- किसी के साथ |
अर्थ- सङ्कलना
सब जीवोंको मैं क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों के साथ मैत्री (मित्रता) है। मेरा किसी के साथ वैर नहीं ॥ ४९॥
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१५८
[ गाहा]
एवमहं आलोइअ, निदिअ गरहिअ दुगंछिउं सम्म ।
तिविहेण पडिकतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥५०॥ शब्दार्थएवमहं--इस तरह मैं । दुगंछिउं सम्म--अरुचि व्यक्त आलोइअ-आलोचना करके ।
करके, जुगुप्सा करके।
| सम्म-सम्यक प्रकारसे । निदिअ-निन्दा करके । तिविहेण-पडिक्कतो, वंदामि गरहिअ--गर्दा करके।
जिणे चउव्वीसं-पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना
इस तरह सम्यक् प्रकारसे अतिचारोंकी आलोचना, निन्दा, गर्दा और जुगुप्सा करके, मैं मन, वचन और कायासे सम्पूर्ण दोषोंकी निवृत्तिपूर्वक चौबीसों जिनेश्वरोंको वन्दन करता हूँ॥ ५० ॥ सूत्र-परिचय
इस सूत्रसे श्रावक धर्ममें लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है, इसलिये यह श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र (सावग--पडिक्कमण--सुत्त) कहलाता है। इसका पहला शब्द 'वंदित्तु' है, इसलिये यह 'वंदित्तु-- सूत्र' भी कहलाता है।
श्रावक-धर्म प्रश्न-श्रावक किसे कहते हैं ? उत्तर-जो सुने उसे श्रावक कहते हैं। प्रश्न-क्या सुनने से श्रावक कहते हैं ?
.
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१५९
उत्तर-जो जिनवचन सुने उसे श्रावक कहते हैं । + प्रश्न-श्रावक जिनवचन किस प्रकार सुने ? उत्तर-जो जिनेश्वर भगवान् विद्यमान हों तो श्रावक उनके पास जाय और
श्रद्धापूर्वक उनके वचन सुने, परन्तु वे विद्यमान न हों तो उनकी पाट--परम्परामें उतरे हुए आचार्य महाराजों, उपाध्याय महाराजों अथवा साधु--मुनिराजोंके समीप जाय और उनसे श्रद्धापूर्वक
जिनवचन सुने। प्रश्न-श्रावक जिनवचन सुनकर क्या करे ? उत्तर-श्रावक जिनवचन सुनकर उनपर विचार करे, मनन करे और
उनमेंसे जितना शक्य हो, उतना अपने जीवनमें उतारे। प्रश्न-उत्तम श्रावक किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसे जिनेश्वर भगवान्के शासनमें सम्पूर्ण श्रद्धा हो, जो सुपात्रको
निरन्तर दान देता हो, जो प्रतिदिन पुण्यके कार्य करता हो और जो सुसाधुओंकी सेवा करनेमें अपने जीवनको धन्य मानता हो, उसे उत्तम श्रावक कहते हैं । एतदर्थ नीचेका पद्य स्मरण रखने योग्य है :
श्रद्धालुतां श्राति जिनेन्द्रशासने, धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । करोति पुण्यानि सुसाधुसेवना
दतोऽपि तं श्रावकमाहुरुत्तमाः ॥१॥ प्रश्न--श्रावकका धर्म कितने प्रकारका है ? उत्तर-श्रावकका धर्म दो प्रकारका है:--सामान्य श्रावक-धर्म और विशेष
श्रावक-धर्म ।
+ श्रावक शब्दको विशेष व्याख्याके लिये देखो-प्रबोधटीका भाग १ला, सूत्र १०-४ तथा प्रबोधटीका भा. २ रा, सूत्र ३२-४, गाथा ४६.।
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१६०
प्रश्न- सामान्य श्रावक--धर्म किसे कहते हैं ? उत्तर--मार्गानुसारीके पैंतास बोलोंका पालन करना, सामान्य श्रावक
धर्म कहलाता है। प्रश्न-मार्गानुसारीके पैंतीस बोल कौनसे हैं ? उत्तर-वे इस ग्रन्थके पीछे उपयोगी विषयोंके सङ्ग्रहमें दिये हैं। प्रश्न-मार्गानुसारीके पैंतीस बोलोंका पालन करनेसे क्या होता है ? उत्तर-मार्गानुसारीके पैंतीस बोलोंका पालन करनेसे व्यवहारकी शुद्धि होती
है, नीतिका स्तर उच्च होता है और विशेष श्रावक-धर्मके पालन
की योग्यता आती है। प्रश्न-विशेष श्रावक धर्म किसे कहते हैं ? उत्तर सम्यक्त्वमूल बारह व्रतोंके पालनको विशेष श्रावकधर्म कहते हैं । प्रश्न-सम्यक्त्वमूल अर्थात् ? उत्तर-जिसके मूलमें सम्यक्त्व स्थित हो, वह सम्यक्त्वमूल । प्रश्न-सम्यक्त्व किसे कहते है ? उत्तर-तत्त्वद्वारा अर्थकी श्रद्धा करनी, उसे सम्यक्त्व कहते हैं । प्रश्न-तत्त्व अर्थात् ? उत्तर-तत्त्व अर्थात् भाव । प्रश्न-अर्थ-अर्थात् ? उत्तर-अर्थ--अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा,
बन्ध और मोक्ष । तात्पर्य यह है कि जीवाजीवादि नव तत्त्वोंपर
हदयसे श्रद्धा रखनी, यह सम्यक्त्व है । प्रश्न-सम्यक्त्वका व्यावहारिक स्वरूप क्या है ? उत्तर-सुदेव, सुगुरु और सुधर्मपर श्रद्धा। प्रश्न-सूदेव किसे कहते हैं ?
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१६१
उत्तर - अरिहन्त भगवन्तको सुदेव कहते हैं, क्यों कि वे सर्व दोषोंसे
कहते हैं, क्यों कि उनमें
रहित हैं । सिद्ध भगवन्तको भी सुदेव भी कोई दोष नहीं है ।
प्रश्न --- सुगुरु किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो स्वयं तिरें और दूसरोंको तारें उनको सुगुरु कहते हैं । उनके
मुख्य लक्षण पाँच महाव्रत, पाँच आचार तथा पाँच समिति और तीन गुप्तिका पालन है ।
प्रश्न -- सुधर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर- -जो केवली भगवन्तद्वारा कथित हो उसको सुधर्म कहते हैं । प्रश्न - बारह व्रतोंके नाम क्या हैं ?
उत्तर- (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत |
(२) स्थूल - मृषावाद - विरमण-व्रत ।
(३)
स्थूल - अदत्तादान-विरमण व्रत ।
(४) परदारागमन - विरमण-व्रत । (५)
परिग्रह - परिमाण - व्रत |
(६) दिक्-परिमाण - व्रत |
(७) उपभोग - परिभोग - परिमाण - व्रत |
(८) अनर्थदण्ड - विरमण-व्रत ।
( ९ )
सामायिक- व्रत |
(१०) देशावकाशिक- व्रत |
(११) पोषधोपवास-व्रत ।
(१२) अतिथि- संविभाग- व्रत |
प्रश्न- इन व्रतोंके कितने विभाग होते हैं ?
प्र - ११
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१६२
उत्तर–तीन । उनमें एकसे पाँच तकके व्रतोंको अणुव्रत कहते हैं, छःसे
आठ तकके व्रतोंको गुणव्रत कहते हैं और नौसे बारहतकके व्रतोंको शिक्षाव्रत कहते हैं। इन बारह व्रतोंमें पहले पाँच मूलव्रत हैं और
बादके सात उत्तरव्रत हैं। प्रश्न-स्थूल-प्राणातिपात-विरमण-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-कुछ अंशोंमें हिंसा करनेसे रुकनेका व्रत । इस व्रतको लेनेवाला
किसी भी त्रस्त जीवकी सङ्कल्पपूर्वक निरपेक्ष हिंसा नहीं करे । प्रश्न-इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर–पाँचः-वध, बन्ध, छविच्छेद, अतिभार और भक्तपान-विच्छेद । + प्रश्न-स्थूल-मृषावाद-विरमण-व्रतका अर्थ क्या है ? । उत्तर-कुछ अंशों में झूठ बोलनेसे रुकनेका ( विरत होनेका ) व्रत ।
इस व्रतको लेनेवाला कन्या, गाय, भूमि, स्थापत्य अथवा साक्षीके
सम्बन्धमें बड़ा झूठ न बोले । प्रश्न-इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर–पाँच:-सहसाऽभ्याख्यान, रहोऽभ्याख्यान, स्वदारमन्त्रभेद, मृषो___ पदेश और कूटलेख। प्रश्न-स्थूल-अदत्तादान-विरमण-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-कुछ अंशों में अदृष्टवस्तु लेनेसे विरत होनेका व्रत। इस व्रतको
लेनेवाला डाका डालकर, सेंध लगाकर, गाँठ खोलकर अथवा तालेमें
कुंजी आदि लगाकर किसीकी बिना दी हुई वस्तु नहीं ले । प्रश्न-इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर-पाँचः-स्तेनाहृत-प्रयोग, स्तेन-प्रयोग, तत्प्रतिरूप, विरुद्धगमन और
कूटतुल-कूटमान ।
+ अतिचारोंके नाम विषयको स्पष्ट समझनेके लिये दिये हैं, इनके अर्थ प्रत्येक गाथाके पश्चात् आये हुए शब्दार्थसे जानने ।
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प्रश्न-परदारागमन-विरमण-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-दूसरेकी विवाहित स्त्रीके साथ सङ्ग करनेसे विरत होनेका व्रत ।
इस व्रतको लेनेवाला अपनी परिणीत-पत्नीसे सन्तुष्ट रहे। प्रश्न-इस व्रत में कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर–पाँच:--अपरिगृहीतागमन, इत्वरगृहीतागमन, अनङ्गक्रीडा, पर
विवाह-करण और तीव्र-अनुराग । प्रश्न-परिग्रह-परिमाण-व्रतका अर्थ क्या है। उत्तर-धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, चाँदी, सोना एवं अन्य धातु, द्विपद
और चतुष्पदके सङ्ग्रहको परिग्रह कहते हैं । उसका माप करना
मर्यादा करनी वह परिग्रह-परिमाण-व्रत । प्रश्न-इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर-पांच:-धन-धान्य-प्रमाणातिक्रम, क्षेत्र-वास्तु-प्रमाणातिक्रम, रुप्य
सुवर्ण-प्रमाणातिक्रम, कुप्य-प्रमाणातिक्रम और द्विपद-चतुष्पद
प्रमाणातिक्रम। प्रश्न-दिक्-परिमाण-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-प्रत्येक दिशामें कुछ अन्तरसे अधिक नहीं जाना ऐसा व्रत । प्रश्न-इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर--पाँच:-ऊर्ध्वदिक्-प्रमाणातिक्रम, अधोदिक्-प्रमाणातिक्रम, तिर्यग- .
दिक्-प्रमाणातिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान । प्रश्न-उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-जो वस्तु एकबार भोगी जाय वह उपभोग और बारबार भोगी
जाय वह परिभोग । उसका माप निश्चित करना, वह उपभोगपरिभोग-परिमाण-व्रत। इस व्रतमें बहुत आरम्भ-समारम्भवाले व्यापार अर्थात् कर्म भी छोड़ दिये जाते हैं।
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प्रश्न- इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? . उत्तर-बीस । उनमें सचित्त, सचित्त-सम्बद्ध, संमिश्र, अभिषव और
दुष्पक्व ये पाँच अतिचार भोगके सम्बन्धमें लगते हैं और पन्द्रह
अतिचार इंगाल आदि कर्मोके सम्बन्धमें लगते हैं । प्रश्न-अनर्थदण्ड-विरमण व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-बिना कारण आत्माको दण्ड देनेसे विरत होनेका व्रत । इस व्रत
को लेनेवाले अपध्यान, पापोपदेश, हिंस्रप्रदान और प्रमादाचरण इन चार वस्तुओंका त्याग करते हैं। अपध्यान अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यान । पापोपदेश अर्थात् अन्यको आरम्भ-समारम्भ करनेकी प्रेरणा मिले ऐसे वचन । हिंस्र प्रदान अर्थात् हिंसाकारी वस्तुएँ
दूसरोंको देनी और प्रमादाचरण अर्थात् प्रमादवाला आचरण । प्रश्न-सामायिक-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-दो घड़ीतक सर्व पापव्यवहार छोड़ देनेका व्रत। प्रश्न-देशावकाशिक-वतका अर्थ क्या है ? उत्तर-किन्हीं भी व्रतोंमें रखी हुई छूटोंको विशेष मर्यादित करके उसके
एक भागमें स्थिर रहना। इस व्रतमें चौदह नियम रखे जाते हैं,
वे पीछे उपयोगी विषयोंके संग्रहमें दिये हैं। प्रश्न-इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर–पाँचः-आनयन-प्रयोग, प्रेष्य-प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और
पुद्गलक्षेप। प्रश्न-प्रोषधोपवास-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें उपवासपूर्वक धर्मध्यान
करना। प्रश्न-इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर--पाँचः-अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्या-संस्तारक, अप्रमार्जित
___.
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दुष्प्रमार्जित-शय्या-संस्तारक, अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्रवणभूमि, अप्रमार्जित-दुष्प्रमाजित-उच्चार-प्रस्र वणभूमि और
अनुपालना। प्रश्न-अतिथि-संविभाग-व्रतका अर्थ क्या है ? उत्तर-साधुओंको निर्दोष आहार-पानी बहोरनेका व्रत । प्रश्न--इस व्रतमें कितने अतिचार लगते हैं ? उत्तर-पाँच:-सचित्तनिक्षेप, सचित्तविधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और
कालातिक्रमदान। प्रश्न-इस प्रकार श्रावक कुल कितने अतिचारोंका प्रतिक्रमण करता है ? उत्तर-१२४ अतिचारोंका, उनमें ५+५ + ५ + ५+५+५ + २० +
५+५+५+५+ ५ मिलकर ७५ अतिचार बारह व्रत सम्बन्धी
होते हैं और ४९ अतिचार दूसरे होते हैं । प्रश्न-४९ अतिचारोंको गणना किस तरह होती है ? उत्तर-ज्ञानाचारके ८, दर्शनाचारके ८, चारित्राचारके ८, तपाचारके
१२, वीर्याचारके ३, सम्यक्त्वके ५ और संलेखनाके ५, इस प्रकार
कुल ४९ 1x प्रश्न-सम्यक्त्वके पाँच अतिचार कौनसे हैं ? उत्तर--शङ्का, काङ्क्षा, विचिकित्सा, कुलिङ्गीप्रशंसा और कुलिङ्गी
संस्तव । प्रश्न--संलेखनाके पाँच अतिचार कौनसे हैं ? उत्तर-इहलोकाशंसा-प्रयोग, परलोकाशंसा-प्रयोग, जीविताशंसा-प्रयोग,
मरणाशंसा-प्रयोग और कामभोगाशंसा-प्रयोग । प्रश्न-~-अतिचारोंकी शुद्धि के लिये श्रावक क्या करे ? उत्तर---प्रतिक्रमण ।
x अतिचार विचारनेकी गाथामें पञ्चाचारके ३९ अतिचारोंका वर्णन आ जाता है।
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प्रतिक्रमण प्रश्न-प्रतिक्रमण क्या है ? उत्तर-एक प्रकारकी आवश्यक-क्रिया । प्रश्न-उसमें क्या किया जाता है ? उत्तर-आलोचना, निन्दा और गरे । प्रश्न-आलोचना किसे कहते हैं ? उत्तर-दोषों अथवा अतिचारोंका स्मरण करना, उसे आलोचना कहते हैं। प्रश्न-निन्दा किसे कहते हैं ? उत्तर-मैंने यह अनुचित किया अथवा मुझसे यह अनुचित हुआ, इस
प्रकार आत्मसाक्षीसे कहना, यह निन्दा कहलाती है । प्रश्न-गर्दा किसे कहते है ? उत्तर-दोषों अथवा अतिचारोंको गुरुके समक्ष निवेदन करना, यह गर्दा
कहलाती है। प्रश्न--प्रतिक्रमण शब्दका अर्थ क्या है ? उत्तर-इसके लिये शास्त्रकारोंद्वारा कथित गाथा सुनो
स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशं गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥
आत्मा प्रमादवश अपने स्थानसे परस्थानमें गयी हो, वहाँसे वापस लौटना, वह प्रतिक्रमण कहाता है । तात्पर्य यह है कि आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्रका भाव त्यागकर मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं कषायमें पड़ो हो, वहाँसे वापस, ज्ञान, .
दर्शन और चारित्रमें आ जाय, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं । प्रश्न-प्रतिक्रमण कितने प्रकारके हैं ?
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१६७
उत्तर-पाँच प्रकारके:-(१) देवसिअ-दैवसिक, (२) राइअ-रात्रिक, (३)
पक्खिअ-पाक्षिक, (४) चाउम्मासिअ-चातुर्मासिक और (५) संव
च्छरिअ--सांवत्सरिक । प्रश्न-दैवसिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर-जो प्रतिक्रमण दिवसके अतिचारोंके सम्बन्धमें किया जाय, उसको
दैवसिक-प्रतिक्रमण कहते हैं। यह प्रतिक्रमण सायंकालमें किया
जाता है। प्रश्न-रात्रिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर-जो प्रतिक्रमण रात्रिके अतिचारोंके सम्बन्धमें किया जाय, उसको
रात्रिक-प्रतिक्रमण कहते हैं । यह प्रतिक्रमण प्रातःकालमें किया
जाता है। प्रश्न-पाक्षिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर--जो प्रतिक्रमण पक्षके अतिचारोंके सम्बन्धमें किया जाय, उसको
पाक्षिक-प्रतिक्रमण कहते हैं। यह प्रतिक्रमण चतुर्दशीके दिन
सायंकालको किया जाता है। प्रश्न-चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर-जो प्रतिक्रमण चातुर्मासमें लगे हुए अतिचारोंके सम्बन्धमें किया
जाय, उसको चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण कहते हैं। यह प्रतिक्रमण कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी, फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी और आषाढ़
शुक्ला चतुर्दशीके दिन सायङ्कालको किया जाता है । प्रश्न-सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर-जो प्रतिक्रमण संवत्सर अर्थात् वर्ष के अतिचारोंके सम्बन्धमें किया
जाय, उसको सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कहते हैं। यह प्रतिक्रमण
भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी के दिन सायङ्कालको किया जाता है। प्रश्न-प्रतिक्रमण करना आवश्यक कब होता है ?
.
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१६८
उत्तर-इसका उत्तर वंदित्तु-सूत्रको ४८ वीं गाथामें दिया गया है; वह
इस प्रकार :पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं । असद्दहणे अ तहा, विवरीअ-परूवणाए अ॥४८॥
निषिद्ध किये गये कृत्योंको करनेसे, करने योग्य कृत्योंको नहीं करनेसे, अश्रद्धा उत्पन्न होनेसे और श्रीजिनेश्वरदेवके उपदेशसे
विपरीत प्ररूपणा करनेसे प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है । प्रश्न-प्रतिक्रमणका फल क्या है ? उत्तर-दोषोंकी निवृत्ति, आत्माको शुद्धि । प्रश्न-प्रतिक्रमण कौन करे ? उत्तर-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । प्रश्न-इन सबका प्रतिक्रमण एक समान होता है अथवा पृथक् पृथक् ? उत्तर-पृथक् पृथक् । साधु-साध्वी साधु-धर्म में लगे हुए अतिचारोंका
प्रतिक्रमण करे और श्रावक-श्राविका श्रावक-धर्म में लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण करे । परन्तु दोनों प्रतिक्रमणोंमें कुछ सूत्र समान होते हैं, इसलिये साधु तथा श्रावक और साध्वी तथा श्राविका साथ बैठकर प्रतिक्रमण कर सकते हैं।
३३ गुरुखामरणा-सुत्तं
[ 'अब्भुडिओ'-सूत्र ]
[शिष्य ] इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुडिओ हं अभिंतर-देवसि ( राइअं) खामेउं ।
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१६९ [गुरु-खामेह ] [शिष्य ] इच्छं, खामेमि देवसिअं (राइअ)।
जं किंचि अपत्तिअं, परपत्तिअं, भत्ते, पाणे, विणए, यावच्चे, आलावे, संलावे, उच्चासणे, समासणे, अंतरभासाए, उवरिभासाए ।
जं किंचि मज्झ विणय-परिहीणं सुहुमं वा बायरं वा तुब्भे जाणह, अहं न जाणामि, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ शब्दार्थइच्छाकारेण संदिसह-इच्छा- ' परपत्ति-विशेष अप्रीतिकारक ।
पूर्वक आज्ञा प्रदान करो। भत्ते-आहारमें। भगवन् !-हे भगवन् !
पाणे-पानीमें। अन्भुटिओ हं-मैं उपस्थित विणए-विनयमें। __ हुआ हूँ।
वेयावच्चे-वैयावृत्त्यमें । अभितर - देवसिअं-दिनके आलावे-बोलने में । किये हुए।
संलावे-बातचीत करने में । खामे-खमानेके लिये, क्षमा | उच्चासणे-( गुरु से ) उच्च आसन___ मांगनेके लिये।
पर बैठने में, ऊँचा आसन ( खामेह-खमावो-क्षमा माँगो ) रखने में । इच्छं-चाहता हूँ।
समासणे-(गुरुके आसनके ) समान खामेमि-खमाता हूँ, क्षमा आसन रखने में । माँगता हूँ।
अंतरभासाए-बीच में बोलने में देवसि-दिवस-संबंधी अपराध । उवरिभासाए-गुरुसे ऊपर होकर जं किंचि-जो कुछ।
' बोलने में। अपत्ति-अप्रीतिकारक । जं किंचि-जो कोई ( वर्तन )।
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१७०
मज्झ-मेरा। विणय-परिहीणं-विनयरहित । सुहुमं वा बायरं वा-सूक्ष्म
अथवा स्थूल। अर्थ-सङ्कलना
तुब्भे जाणह-आप जानते हों। अहं न जाणामि-मैं नहीं जानता। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं
पूर्ववत्०
हे भगवन् ! इच्छा-पूर्वक आज्ञा प्रदान करो। मैं दिन (रात्रि)के अन्दर किये हुए अपराधोंकी क्षमा माँगनेके लिये उपस्थित हुआ हूँ।
[ गुरु ]-क्षमा माँगो। [ शिष्य ]-चाहता हूँ ! दिवस-सम्बन्धी अपराधोंकी क्षमा
माँगता हूँ। आहारमें, पानीमें, विनयमें, वैयावृत्त्यमें, बोलने में, बातचीत करने में, ऊँचा आसन रखने में, समान आसन रखने में, बीचमें बोलनेमें, गुरुके ऊपर होकर बोलनेमें जो कुछ अप्रीति अथवा विशेष अप्रीतिकारक किया हो, तथा मुझसे सूक्ष्म अथवा स्थूल ( अल्प या अधिक ) जो कोई विनय-रहित वर्तन हुआ हो; आप जानते हों और मैं नहीं जानता, ( ऐसा कोई अपराध हुआ हो; ) तत्सम्बन्धी मेरे सब पाप मिथ्या हों। सूत्र-परिचय
इस सूत्रद्वारा शिष्य गुरुके प्रति हुए छोटे-बड़े अपराधों की क्षमा माँगता है, इसलिये ये 'गुरुखामणा-सुत्त' कहलाता है। पहले शब्दसे इसे 'अब्भुट्टिओ' सूत्र भी कहते हैं ।
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१७१
गुरु-क्षमापना
प्रश्न-गुरु-क्षमापना अर्थात् ? उत्तर-गुरुके प्रति छोटे-बड़े जो अपराध हुए हों उनकी क्षमा माँगने
को क्रिया। प्रश्न-गुरुके प्रति छोटे-बड़े अपराध कितने प्रकारसे होने सम्भव हैं ? उत्तर-तीन प्रकारसे ।
(१) अप्रीति अथवा विशेष अप्रीति उत्पन्न करें, ऐसे कार्य । (२) कोई भी विनय-रहित कृत्य होनेसे, जिनका कि शिष्यको
ध्यान हो। (३) कोई भी विनय-रहित कृत्य होनेसे, जिनका कि शिष्यको
ध्यान न हो। प्रश्न-अप्रीति अथवा विशेष अप्रीति उत्पन्न हो ऐसे कार्य होने कब - सम्भव हैं ? उत्तर-(१) भत्ते-आहार-सम्बन्धी गुरुने जो सूचना दी हो, उसपर
पूर्ण ध्यान न दिया जाय तब । (२) पाणे-पानी सम्बन्धी गुरुने जो सूचना दी हो, उसपर
पूर्ण ध्यान न दिया जाय तब । (३) विणए-गुरुका जिस जिस प्रकारसे विनय करना चाहिए,
उस उस प्रकारसे विनय न हुआ हो तब ।। (४) वेयावच्चे-गुरुका जिस जिस प्रकारसे वैयावृत्त्य करना
चाहिये, उस उस प्रकारसे वैयावृत्त्य नहीं हुआ हो तब । (५) आलावे-बोलते समय जिस तरह शब्द-प्रयोग होना
चाहिये, वह नहीं हुआ हो तब ।
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(६) संलावे.
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- बातचीत करते समय जिस तरह मान रखने में
सचेत रहना चाहिये, वैसा नहीं हुआ हो तब ।
(७) उच्चासणे - गुरुके आसनसे अपना आसन ऊँचा रखा हो तब |
(८) समासणे - गुरुके जितना ही अपना आसन ऊँचा रखना हो तब |
(९) अन्तरभासाए - - गुरु किसी के साथ वार्तालाप करते हों और बीच में बोल गये हों तब ।
(१०) उवरिभासाए - - गुरुके ऊपर होकर कोई बात कही गयी हो तब |
प्रश्न -- विनय - रहित कृत्य होना कब सम्भव है ?
उत्तर - किसी भी समय । शिष्यको गुरुके साथ अनेक प्रकारके कार्य होते हैं, अतः प्रत्येक समय उसको गुरुके प्रति योग्य विनय करना चाहिये, परन्तु किसी कारणवश उसका ध्यान न रहे तो विनयरहित कृत्य होता है ।
प्रश्न - शिष्य जान-बूझकर गुरुका विनय नहीं करे तो ?
उत्तर - तो वह महादोषका भागी होता है और उसकी सब साधना निष्फल हो जाती है । शास्त्रोंमें कहा है कि :- - जो साधु (शिष्य) गुरुका विनय यथार्थ रूपसे नहीं करता है, और मोक्षकी इच्छा करता है, वह जीवितकी इच्छा करते हुए अग्नि में प्रवेश करनेका कार्य करता है । इसलिये यहाँ भूल चूकका प्रसङ्ग समझना चाहिये | किसी समय भूल होनेके पश्चात् शिष्यको ध्यान आ जाता है कि मुझसे भूल हुई और किसी समय ऐसा ध्यान बिलकुल नहीं आता है, यद्यपि गुरुको इस बात का ध्यान आ जाता है । अतएव ऐसे समस्त अपराधों की क्षमा माँगी जाती है ।
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१७३
प्रश्न - क्षमा किस तरह माँगी जाती है ?
उत्तर -- प्रथम गुरुको आज्ञा लेकर तथा उनकी स्वीकृतिपूर्वक नीचे झुक कर भूमिपर मस्तक टेककर बाँये हाथमें धारण की हुई मुहपत्ती से ( प्रतिक्रमण के अतिरिक्त वन्दना के प्रसङ्गमें गृहस्थोंको दुपट्टे से ) मुख आच्छादित करके तथा दाँया हाथ गुरुके चरणपर रखकर ( ऐसा न हो सके तो उनकी ओर हाथ लम्बा करके अपने अपराधों की क्षमा मांगी जाती है ।
मूल
३४ प्रायरियाइ - खामरणासुत्तं 'आयरिय - उवज्झाए ' -सूत्र ]
[ गाहा ]
आयरिय - उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल - गणे अ । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ||१|| सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलिं करिअ सीसे । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि || २ || सव्वरस जीवरासिस्स, भावओ धम्म - निहिअ - निय-चित्ता । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ ३ ॥ शब्दार्थ
आयरिय-उवज्झाए - आचार्य और उपाध्यायके प्रति ।
सीसे - शिष्यपर | साहम्मिए - साधर्मिक के प्रति । सार्मिक-समान धर्मवाला ।
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१७४.
कुल-गणे-कुल और गणके प्रति । | सीसे-मस्तकपर ।
कुल-एक आचार्यका समुदाय । | सव्वं-सबको । गण-तीन कुलोंका समूह । खमवइत्ता-क्षमा माँगकर । अ-और।
खमामि-क्षमा करता हूँ। जे मे केइ कसाया-मैंने जो कोई
सव्वस्स-सबको। ___ कषाय की हो।
अहयं पि-मैं भी। सव्वे-उन सबकी।
सव्वस्स जीवरासिस्स-सकल
___ जीवराशिकी। तिविहेण-तीन प्रकारोंसे, मन,
भावओ-भावसे, अन्तःकरणसे । _वचन और कायासे ।
धम्म-निहिय-निय-चित्तोखामेमि-क्षमा माँगता हूँ।
धर्मके विषयमें स्थापित किया सव्वस्स-सकल।
है चित्त जिसने ऐसा मैं, धर्मसमण-संघस्स-श्रमण-सङ्घके ।। भावना-पूर्वक । भगवओ-पूज्य ।
सव्वं खमावइत्ता, खमामि अंजलिंकरिअ-हाथ जोड़कर। सव्वस्स अहयं पि-पूर्ववत् ।
।
अर्थ-सङ्कलना
__आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सार्मिक, कुल और गणके प्रति . मैंने जो कोई कषाय की हों, उन सबकी मैं मन, वचन और कायासे क्षमा माँगता हूँ।। १ ॥ __ मस्तकपर हाथ जोड़कर पूज्य ऐसे सकल श्रमण-सङ्घसे क्षमा माँगकर मैं भी सबको क्षमा देता हूँ ॥ २॥
अन्तःकरणसे धर्मभावना-पूर्वक सकल जीवराशिसे क्षमा माँगकर मैं भी उनको क्षमा करता हूँ ।। ३ ।।
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१७५
सूत्र-परिचय
इस सूत्रद्वारा आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सार्मिक, कुल, गण तथा सकल श्रमणसध के प्रति क्रोधादि कषायोंसे जो अपराध हुए हों उनकी क्षमा मांगी जाती है। इसी प्रकार सकल जीवराशि से क्षमा मांगकर उनको क्षमा दी जाती है।
३५ सुप्रदेवया-थुई
[ श्रुतदेवताकी स्तुति ] मूल[सुअदेवयाए करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ० ]
[ गाहा ] सुअदेवया भगवई, नाणावरणीअ-कम्म-संघायं । तेसिं खवेउ सययं, जेसि सुअ-सायरे भत्ती ॥१॥ शब्दार्थ[सुअदेवयाए-श्रुतदेवताके लिये, तेसि-उनके । श्रुतदेवीकी आराधनाके लिये।
खवेउ-खपाओ, क्षय करो। करेमि काउस्सगं-मैं कायोत्सर्ग
सययं-सदा। करता हूँ। सुअदेवया-श्रुतदेवी।
जेसि-जिनकी। भगवई-पूज्य ।
सुअ-सायरे --प्रवचनरूपी समुद्रके नाणावरणीअ-कम्म-संघायं
ज्ञानावरणीय-कर्मके समूहका । | भत्ती-भक्ति ।
विषयमें।
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अर्थ- सङ्कलना
श्रुतदेव की आराधना के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ । जिनकी प्रवचनरूपी समुद्रके विषयमें सदा भक्ति है, उनके ज्ञानावरणीयकर्मके समूहका पूज्य श्रुतदेवी क्षय करो ॥ १ ॥
सूत्र-परिचय-
यह स्तुति श्रुतदेवताकी है और इसको पुरुष ही बोलते हैं ।
शब्दार्थ
१७६
मूल
[ खित्तदेवयाए करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ० ] [ गाहा ] जीसे खित्ते साहू, दंसण - नाणेहिं चरण - सहिएहिं । साहंति मुक्ख - मग्गं, सा देवी हरउ दुरिआई || १||
-
३६ खित्तदेवया - थुइ [ क्षेत्र देवता-स्तुति ]
[ खित्तदेवयाए - क्षेत्रदेवताकी आराधनाके लिये । करेमि काउस्सग्गं-मैं
त्सर्ग करता हूँ । ]
कायो
जीसे- जिनके ।
खित्ते - क्षेत्र में ।
साहू - साधुगण ।
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१७७
दसणनाणेहि-दर्शन और ज्ञान- मुक्ख-मग्ग-मोक्ष-मार्गको। द्वारा, सम्यगदर्शन और
सा-वह, वे। सम्यग्ज्ञानद्वारा। चरण-सहिएहि-चारित्रसहित,
देवी-देवी, क्षेत्रदेवता, सम्यक्चारित्र सहित ।
हरउ-हरण करें, दूर करें। साहति-साधते हैं। | दुरिआई-दुरितोंको, विघ्नों को। अर्थ-सङ्कलना
क्षेत्रदेवताकी आराधनाके लिये कायोत्सर्ग करता हूँ। जिनके क्षेत्रमें साधुगण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित मोक्ष-मार्गको साधते हैं, वे क्षेत्रदेवता दुरितोंको-विघ्नोंको दूर करें॥१॥ सूत्र-परिचय
यह स्तुति क्षेत्रदेवताकी है और इसको पुरुष ही बोलते हैं ।
MER
३७ श्रुतदेवता-स्तुतिः
[ 'कमल-दल'-स्तुति ] मूल
[ गाहा ] कमल-दल-विपुल-नयना, कमल-मुखी कमलगर्भ--सम-गौरी। कमले स्थिता भगवती, ददातु श्रुतदेवता सिद्धिम् ॥१॥ शब्दार्थकमल-दल-विपुल-नयना
| कमल-मुखी-कमल जैसे मुखकमल-पत्र जैसे विशाल नय
वाली। नोंवाली।
प्र-१२
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१७८
कमल-गर्भ-सम-गौरी-कमल- । भगवती-पूज्य ।
के मध्यभाग जैसे गौर वर्णवाली।। ददातु-प्रदान करे। कमले-कमलमें।
श्रुतदेवता-श्रुतदेवता। स्थिता-स्थित।
| सिद्धिम्-सिद्धि । अर्थ-सङ्कलना
कमल-पत्र जैसे विशाल नयनोंवाली, कमल जैसे मुखवार कमल के मध्यभाग जैसे गौर वर्णवालो और कमल पर स्थित पूज्य श्रुतदेवता सिद्धि प्रदान करे ॥१॥ सूत्र-परिचय
यह स्तुति श्रुतदेवताकी है। और इसको 'सुयदेवया थुई' सूत्र ३५के स्थान पर स्त्रियाँ बोलतो हैं ।
३८ वर्धमान-स्तुतिः
[ 'नमोऽस्तु वर्धमानाय'-सूत्र ] मूल
इच्छामो अणुसढि नमो खमासमणाणं । नमोऽर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्व-साधुभ्यः ।
[अनुष्टुप् ] नमोऽस्तु वर्धमानाय, स्पर्धमानाय कर्मणा । तज्जयावाप्तमोक्षाय, परोक्षाय कुतीर्थिनाम् ॥१॥
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१७९
[ औपच्छन्दसिक ]x येषां विकचारविन्द-राज्या, ज्यायः-क्रम-कमलावलिं दधत्या। सदृशैरिति सङ्गतं प्रशस्यं, कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः॥२॥
[वंशस्थ ] कषाय-तापार्दित-जन्तु-निवृति, करोति यो जैनमुखाम्बुदोद्गतः । स शुक्र-मासोद्भव-वृष्टि-सन्निभो, दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ॥३॥
शब्दार्थइच्छामो-चाहते हैं।
कर्मणा-कर्म के साथ, कर्मवैरीके अणुट्टि-अनुशासन, आज्ञा । साथ । नमो-नमस्कार हो।
तज्जयावाप्तमोक्षाय - उस खमासमणाणं-पूज्य क्षमा- ( कर्म के जयद्वारा मोक्ष श्रमणोंको।
प्राप्त करनेवालेको। . नमोऽर्हत्०-पूर्ववत्०
परोक्षाय-परोक्ष, अगम्य । नमः अस्तु-नमस्कार हो । कुतीथिनाम्-कुतीथिकोंके लिये, वर्धमानाय-श्रीवर्धमानके लिये, मिथ्यात्वियोंके लिये । ___ श्रीमहावीरप्रभुको।
येषां-जिनकी। स्पर्धमानाय-जीतनेकी स्पर्धा विकचारविन्द-राज्या.-विक___ करते हुए।
सित कमलकी पङ्क्तिने । x औपच्छन्दसिक छन्द वैतालिकका ही एक भेद है, परन्तु इसमें १६ + १८, १६ + १८ मात्राएँ होती हैं, अर्थात् वैतालिकसे इसमें दो मात्राएँ अधिक होती हैं।
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१८०
विकच-विकसित, खिला हुआ। कषाय - तापादित - जन्तुअरविन्द-कमल । राजि- निति – कपायरूपी तापसे
पीड़ित प्राणियोंकी शान्तिको । श्रेणि।
करोति-करता है। ज्यायः-क्रम-कमलावलि-उत्तम
पः-जो। चरण-कमलकी श्रेणिको।
जैनमुखाम्बुदोद्गतः - जिनेश्वरज्यायस्-उत्तम । क्रम-चरण । __ के मुखरूपी मेघसे प्रकटित । आवलि-हार, श्रेणि।
जैनमुख-जिनेश्वरका मुख ।
अम्बुद-मेघ । उद्गत-प्रकटित । दधत्या-धारण करनेवाली।
सः-वह। सदृशैः-समानके साथ ।
शुक्रमासोद्भव - वृष्टि - सइति सङ्गतं-इस प्रकार समागम निभः-ज्येष्ठमासमें हुई वृष्टिके होना वह ।
जैसा। प्रशस्य-प्रशस्त, प्रशंसनीय । शुक्रमास-ज्येष्ठ मास । उद्भव कथितं-कहा।
-उत्पन्न । वृष्टि-वर्षा ।
सन्निभ-सदृश, जैसा। सन्तु-हों।
| दधातु-करो। शिवाय-शिवके लिये, मोक्षके
तुष्टिं-अनुग्रह। लिये।
मयि-मुझ पर। ते-वे।
विस्तरः-विस्तार, समह । जिनेन्द्राः-जिनेन्द्र ।
गिराम्-वाणीका। अर्थ-सङ्कलना--
हम अब आपकी आज्ञा चाहते हैं। पूज्य क्षमा-श्रमणोंको नमस्कार हो । अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार हो।
जो कर्म-वैरीके साथ जीतनेकी स्पर्धा करते हुए जय प्राप्त करके
___
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१८१ मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं और जिनका स्वरूप मिथ्यात्वियोंके लिये अगम्य है, ऐसे श्रीमहावीर प्रभुको मेरा नमस्कार हो ॥१॥
जिनकी उत्तम चरण-कमलकी श्रेणिको धारण करनेवाली ( देवनिर्मित ) विकसित ( सुवर्ण) कमलोंकी पङ्क्ति ने ( मानो ऐसा ) कहा कि-'समानके साथ इस प्रकार समागम होना, प्रशंसनीय है,' वे जिनेन्द्र मोक्षके लिये हों ।।२।। ___जो वाणीका समूह जिनेश्वरके मुखरूपी मेघसे प्रकटित होनेपर कषायके तापसे पीड़ित प्राणियोंको शान्ति प्रदान करता है और जो ज्येष्ठ मासमें हुई ( पहली ) वृष्टि जैसा है, वह मुझपर अनुग्रह करे ।।३।। सूत्र-परिचय
दैवसिक प्रतिक्रमणमें छ: आवश्यक पूर्ण होनेके पश्चात् मङ्गलस्तुतिके निमित्त यह सूत्र बोला जाता है। इसमें पहली स्तुति श्रीमहावीरस्वामीकी है, दूसरी स्तुति सामान्य जिनोंकी है और तीसरी स्तुति श्रीतीर्थङ्करके वाणीरूप श्रुतज्ञान की है। स्त्रियाँ इस स्तुति के स्थानपर 'संसार दावानल'की स्तुति बोलती हैं।
३९ प्राभातिक--स्तुतिः
की
me
[ 'विशाल-लोचन-दलं'-सूत्र ]
___ [ अनुष्टुप् ] विशाल-लोचन-दलं, प्रोद्यद्-दन्तांशु-केसरम् । प्रातरिजिनेन्द्रस्य, मुख-पद्मं पुनातु वः ॥१॥
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१८२
[ औपच्छन्दसिक ] येषामभिषेक-कर्म कृत्वा, मत्ता हर्षभरात सुखं सुरेन्द्राः। तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः।२।
[वंशस्थ ] कलङ्क-निर्मुक्त ममुक्तपूर्णतं, कुतर्क-राहु-ग्रसनं सदोदयम् । अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितं, दिनागमे नौमि बुधैनमस्कृतम्।३। शब्दार्थ
विशाल-लोचन-दलं-विशाल अभिषेक-कर्म-अभिषेकका कार्य, नेत्ररूपी पत्रवाला।
स्नान-क्रिया। प्रोद्यद्-दन्तांशु-केसरम्-देदी- कृत्वा-करके। प्यमान दाँतोंकी किरणरूप मत्ताः -मत्त बने हुए। केसरवाला।
हर्षभरात्-हर्षके समूहसे, अति प्रोद्यत्-देदीप्यमान । दन्त-दाँत। हर्षसे । अंशु-किरण । केसर- ।
। सुख-सुखको। पुष्पतन्तु - फूलके मध्यमें सुरेन्द्राः -सुरेन्द्र, देवेन्द्र । होनेवाले पुंकेसर, स्त्रीकेसर तृणमपि-तिनके जितना भी,
आदि तन्तुविशेष । __ तृणमात्र भी। प्रातः-प्रातःकालमें।
गणयन्ति नैव-नहीं गिनते हैं । वीर-जिनेन्द्रस्य - श्रीवीरजिने- नाकं-स्वर्गको स्वर्गके । श्वरका।
प्रातः-प्रातःकालमें। मुख-पद्म-मुखरूपी कमल । सन्तु-हों। पुनातु-पवित्र करो।
शिवाय-शिवसुखके लिये। वः-तुमको।
ते-वे। येषाम-जिनकी।
| जिनेन्द्राः-जिनेन्द्र ।
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कलङ्क-निर्मुक्तम्- कलङ्कसे रहित । अमुक्त पूर्णतं - पूर्णता नहीं त्यागने
वालेको ।
कुतर्क - राहु- ग्रसनं कुतर्क रूपी राहुको सनेवालेको । सदोदयम्-कभी अस्त नहीं होने
वाला, सदा उदयको प्राप्त । अपूर्वचन्द्र - नवीन प्रकारके चन्द्रमाको, अपूर्वचन्द्रकी ।
१८३
जिनचन्द्र - भाषितं - जिनचन्द्रकी वाणीसे बना हुआ ।
दिनागमे - प्रातः कालमें
नौमि - स्तवन
करता हूँ, स्तुति
करता हूँ ।
बुधैः - पण्डितों |
नमस्कृतम्-नमस्कार
उसको ।
अर्थ- सडुलना
विशाल नेत्ररूपी पत्रवाला, देदीप्यमान दाँतोंकी किरणरूप केसरवाला, श्रीवीरजिनेश्वरका मुखरूपी कमल प्रातः काल में तुमको पवित्र करे ||१||
किया है
जिनकी स्नान - क्रिया करनेसे अतिहर्षसे मत्त बने हुए देवेन्द्र स्वर्ग के सुखको तृणमात्र भी नहीं गिनते हैं, वे जिनेन्द्र प्रातः कालमें शिव-सुखके लिये हों ॥२॥
जो कलङ्कसे रहित हैं, पूर्णताका त्याग नहीं करते, कुतर्करूपी राहुको डस लेते हैं, सदा उदयको प्राप्त रहते हैं, ऐसे जिनचन्द्रको वाणी से जो बना हुआ है और पण्डितों ने जिसे नमस्कार किया है, आगमरूपी अपूर्वचन्द्रकी मैं प्रातः कालमें स्तुति करता हूँ ||३||
उस
सूत्र-परिचय
रात्रिक प्रतिक्रमण में ६ आवश्यक पूरे होने के बाद मङ्गल स्तुतिके
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१८४
निमित्त यह सूत्र बोला जाता है। इसमें पहलो स्तुति श्रीवीरजिनेश्वरकी है, दूसरी स्तुति सामान्य जिनों की है और तीसरी स्तुति श्रीतीर्थङ्करकी वाणोकी है।
४० साहुवंदरण--सुत्तं [ ‘अड्ढाइज्जेसु'-सूत्र ]
मूल
-
अड्ढाइज्जेसु दीव-सखुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु । जावंत के वि साहू, रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह-धारा ॥१॥ पंचमहव्वय-धारा, अट्ठारस-सहस्स-सीलंग-धारा । अक्खयायार-चरित्ता,ते सव्वे सिरसामणसा मत्थएणवंदामि।२। शब्दार्थअड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु- जावंत के वि साहू-जो कोई जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, और भी साधु । अर्धपुष्कर द्वीपमें, ढाई द्वीपमें। रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह-धाराअड्ढाइज्जेसु-अर्ध तीसरेमें, रजोहरण, गुच्छक और अर्धपुष्करद्वीपमें ।
( काष्ठ) पात्रको धारण
करनेवाले। दोच-समुद्दसु-द्वीप और समुद्र में
जम्बूद्वीप और धातकीखण्डमें । रयहरण-रजको दूर करनेवाला पण्णरससु-पन्द्रह।
उपकरण-विशेष। गुच्छकम्मभूमिसु-कर्मभूमियोंमें।
पातरेकी झोली पर ढंकनेका
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१८५.
एक प्रकारका ऊनका वस्त्र । आचार और चारित्र आदि पडिग्गह-पातरा, पात्र । ( भाव-लिङ्ग) को धारण
धारा-धारण करनेवाले । न करनेवाले। पंचमहव्वय-धारा-पाँच महा- ते-उन ।
व्रतोंको धारण करनेवाले। सब्वे-सवको । अठारस - सहस्स-सीलंग - । सिरसा-सिरसे, कायासे ।
धारा-अठारह हजार शीलके मणसा-मनसे ।
अङ्गोंको धारण करनेवाले । मत्थएण-वंदामि-वन्दन करता अक्खयायार - चरित्ता - अक्षत
2016
अर्थ-सङ्कलना
ढाई द्वीपमें आयी हुई पन्द्रह कर्मभूमियोंमें जो कोई साधु रजोहरण, गुच्छ और ( काष्ठ ) पात्र ( आदि द्रव्यलिङ्ग) तथा पाँच महाव्रत, अठारह हजार शीलाङ्ग, अक्षत आचार और चारित्र आदि ( भाव-लिङ्ग ) के धारण करनेवाले हों, उन सबको काया तथा मनसे वन्दन करता हूँ ।। सूत्र-परिचय
इस सूत्रसे ढाई द्वीपमें स्थित साधु-मुनिराजोंको वन्दन किया जाता है, इसलिये यह ‘साहु-बंदण-सुत्त' कहलाता है ।
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शीलाङ्ग-रथ
कुल १८००० न करे न करावे न अनु०करे ६००० | ६००० ६०००
मनोयोग | वचनयोग काययोग २००० | २००० । २०००
सजा
७
आहार | भय । परिग्रह संज्ञा
सज्ञा संज्ञा ५०० ५०० ५०० ५०० श्रोत्रेन्द्रिय चक्ष घ्राणे० । रसने० । स्पर्श
निग्रह । निग्रह नि० । नि०नि० | १०० १००
१०० १०० पृथ्वी०
ते उ० वाउ १० १० । १० । १०
१०० ।
वन०
दो. इ. | तीन इ. चतु. इ. पञ्च इ० अजीव |
क्षमा.
संयम | सत्य । शौच अकिञ्चनत्व ब्रह्मचर्य
मार्दव | आर्जव । मुक्ति २ । ३ । ४
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१८७
शीलाङ्ग - रथ
यतिधर्म दस प्रकारका है : – (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) मुक्ति, (५) तप, (६) संयम, (७) सत्य, (८) शौच, (९) अकिञ्चनत्व और (१०) ब्रह्मचर्य, इसलिये सबसे नीचेके कोष्ठक में यह बतलाया है । यतिको (१) पृथ्वीकाय - समारम्भ, (२) अपकाय - समारम्भ, (३) तेजस्काय-समारम्भ, (४) वायुकाय - समारम्भ, (५) वनस्पतिकाय - समारम्भ (६) द्वीन्द्रिय- समारम्भ, (७) त्रीन्द्रिय- समारम्भ, (८) चतुरिन्द्रिय-समारम्भ, ( ९ ) पञ्चेन्द्रिय समारम्भ और (१०) अजीव - समारम्भकी जयणा करनी चाहिए, अतः दूसरे कोष्ठक में यह बतलाया है । यह यतिधर्मयुक्त जयणा पाँच इन्द्रिय जयपूर्वक की जाती है, इसलिये तीसरे कोष्ठक में पाँच इन्द्रियोंके नाम दिखाये हैं । अर्थात् शीलके कुल भेद ५०० हुए ।
इस भेदको आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंसे मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीन योगोंसे और करना नहीं, कराना नहीं और करते हुएका अनुमोदन करना नहीं, इन तीन करणोंसे गुणन करनेपर अठारह हजार शीलाङ्ग होते हैं ।
१० × १० × ५ × ४ × ३ × ३ = १८०००
४१ सप्तति -शत - जिनवन्दनम् [ 'वरकनक' - स्तुति ]
मूल
[ गाहा ]
वरकनक - शङ्ख - विद्रुम- मरकत - घन - सन्निभं विगत- मोहम् । सप्ततिशतं जिनानां सर्वामर - पूजितं वन्दे ॥१॥
9
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१८८
शब्दार्थ
वरकनक-शङ्ख-विद्रुम-मर-- विशेष । विद्रुम-मूंगा ।
कत-घन - सन्निभं - श्रेष्ठ मरकत-नीलम । घन-मेघ । सुवर्ण, श्रेष्ठ शङ्ख, श्रेष्ठ विद्रुम, सन्निभ-जैसा। श्रेष्ठ नीलम और श्रेष्ठ मेघ विगत-मोहम्-जिनका मोह चला
जैसे ( वर्णवाले )। ___ गया है वैसे, मोह रहित । वरकनक-श्रेष्ठ सुवर्ण, उत्तम । सप्ततिशतं-एकसौ सत्तर।
सोना । शङ्ख-समुद्र में उत्पन्न जिनानां-जिनेश्वरोंको। होनेवाला दो इन्द्रियवाले सर्वामर-पूजितं-सर्व देवोंसे पूजित
( द्वीन्द्रिय ) प्राणीका कलेवर वन्दे-मैं वन्दना करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
श्रेष्ठ सुवर्ण, श्रेष्ठ शज, श्रेष्ठ मगा, श्रेष्ठ नीलम और श्रेष्ठ मेघ जैसे वर्णवाले, मोह-रहित और सर्व देवोंसे पूजित एकसौ सत्तर जिनेश्वरोंको मैं वन्दन करता हूँ ।।१।। सूत्र-परिचय. इस सूत्रसे उत्कृष्ट १७० जिनोंके लिये वन्दना की जाती है। तीर्थङ्करदेव कर्मभूमिमें ही उत्पन्न होते हैं, जिसके पृथक् पृथक् विभाग विजय कहलाते हैं। ऐसे एक-एक विजयमें एक समयमें एक ही तीर्थङ्कर हो सकते हैं। जम्बूद्वीपके महाविदेह क्षेत्रमें ३२ विजय हैं, भरत और ऐरावत में भी एक-एक विजय है, अर्थात् सब मिल कर ३४ विजय हैं। धातकीखण्ड, जम्बूद्वीपसे दुगुना है इसमें ६८ विजय हैं; और अर्ध-पुष्करावर्तखण्ड धातकीखण्ड जितना होनेसे उसमें भी ६८ विजय हैं । पुष्करावर्त्तका शेष आधा खण्ड मनुष्यक्षेत्रके बाहर होनेसे उसमें विजयकी गिनती नहीं है। इस प्रकार जम्बूद्वीपके ३४, धातकीखण्डके
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१८९ ६८ और अर्धपुष्करावर्त खण्डके ६८ मिलकर १७० विजय होते हैं । जिस समय प्रत्येक क्षेत्र में तीर्थङ्कर विद्यमान होते हैं उस समय उनकी उत्कृष्ट संख्या १७० की होती है। ऐसी घटना श्रीअजितनाथ प्रभुके वारेमें--समयमें हुई थी।
४२ शान्ति-स्तवः
[ 'लघु-शान्ति' ] सूल--
(मङ्गलादि)
[ गाहा ] शान्ति शान्ति-निशान्तं, शान्तं शान्ताशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शान्ति--निमित्तं, मन्त्रपदैः शान्तये स्तौमि ॥१॥ शब्दार्थशान्ति-श्रीशान्तिनाथ भगवान्को। । स्तोतुः-स्तुति करनेवालेकी। शान्ति-निशान्तं--शान्तिके गृह शान्ति-निमित्तं-शान्तिके निसमान ।
__मित्त, शान्ति करने में निमित्तशान्तं-शान्तरससे युक्त, प्रशम- भूत ऐसे साधन (तन्त्र) का।
रस-निमग्न । . | मन्त्रपदैः-मन्त्रपदोंसे, मन्त्रभित शान्ताशिवं-जिनने अशिवको पदोंसे । शान्त किया है, अशिवका | शान्तये-शान्तिके लिये।। नाश करनेवाले।
स्तौमि-स्तवन करता हूँ, वर्णन नमस्कृत्य-नमस्कार करके । करता हूँ।
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१९०
अर्थ-सङ्कलना
शान्तिके गृहसमान, प्रशमरस-निमग्न और अशिवका नाश करनेवाले श्रीशान्तिनाथ भगवान्को नमस्कार करके, स्तुति करनेवाले की शान्तिके लिये मैं मन्त्र-गर्भित पदोंसे शान्ति करने में निमित्तभूत ऐसे साधन (तन्त्र) का वर्णन करता हूँ॥१॥ मूल
(श्रीशान्ति-जिन-नाम-मन्त्र-स्तुति) ओमिति निश्चितवचसे, नमोनमो भगवतेऽर्हते पूजाम् । शान्तिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥२॥ शब्दार्थ
• ओम्-ॐकार, परम-तत्त्वकी } अर्हते पूजाम्-द्रव्य तथा भावविशिष्ट संज्ञा।
। पूजाके योग्य । इति-ऐसे।
शान्तिजिनाय-श्रीशान्तिजिनके निश्चितवचसे-व्यवस्थित वचन लिये, श्रीशान्तिजिनको। वाले।
| जयवते-जयवान् । नमो नमः-नमस्कार हो, नम- यशस्विने-यशस्वी । स्कार हो।
स्वामिने दमिनाम्-योगियोंके भगवते-भगवान्को। __ स्वामी, योगीश्वर ।
अर्थ-सङ्कलना
ॐ पूर्वक नाममन्त्रका प्रारम्भ करते हैं। (१) व्यवस्थित वचनवाले, (२) भगवान्, (३) द्रव्य तथा भावपूजाके योग्य, (४)
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१९१
जयवान्, (५) यशस्वी और (६) योगोश्वर ऐसे श्रीशान्तिजिनको नमस्कार हो, नमस्कार हो ॥२॥
मूल
सकलातिशेषक-महा-सम्पत्ति-समन्विताय शस्याय । त्रैलोक्य-पूजिताय च, नमो नमः शान्तिदेवाय ॥३॥
शब्दार्थसकलातिशेषक-महा-सम्प- त्रैलोक्य - पूजिताय - त्रिलोकसे
त्ति- समन्विताय - चौंतीस । पूजित, त्रैलोक्य-पूजितं । अतिशयरूप महासम्पत्तिसे युक्त।
च-और।
नमो नमः-नमस्कार हो, नमस्कार सकल - समग्न । अतिशेषक
अतिशय । समन्वित-युक्त। । शान्तिदेवाय-शान्तिके अधिपतिको, शस्याय-प्रशस्त ।
श्रीशान्तिनाथ भगवान्को।
हो।
अर्थ-सङ्कलना__(७) चौंतीस अतिशयरूप महासम्पत्तिसे युक्त, (८) प्रशस्त, (९) त्रैलोक्य-पूजित और (१०) शान्तिके अधिपति ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान्को नमस्कार हो, नमस्कार हो ।।३।।
मूल
सर्वामर-सुसमूह-स्वामिक-सम्पूजिताय निजिताय । भुवन-जन-पालनोद्यततमाय सततं नमस्तस्मै ॥४॥
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१९२
शब्दार्थसर्वामर-सुसमह -स्वामिक- । भुवन-जन-पालनोद्यततमाय
सम्पूजिताय--सर्व देवसमूहके विश्वके लोगोंका रक्षण करने में स्वामियोंद्वारा विशिष्ट प्रकारसे तत्पर । पूजित ।
सततं-सदा । निजिताय-किसीसे नहीं जीते नमः-नमस्कार हो। गये, अजित ।
तस्मै-उन श्री शान्तिनाथको । अर्थ-सङ्कलना
(११) सर्व देवसमहके स्वामियोंद्वारा विशिष्ट प्रकारसे पूजित (१२) अजित और (१३) विश्वके लोगोंका रक्षण करने में तत्पर ऐसे श्रीशान्तिनाथको सदा नमस्कार हो ।।४।। मूल
सर्व-दुरितौध-नाशनकराय सर्वाशिव-प्रशमनाय ।
दुष्ट-ग्रह-भूत-पिशाच-शाकिनीनां प्रमथनाय ॥५॥ शब्दार्थसर्व-दुरितौघ-नाशनकराय- दृष्ट – ग्रह - भूत - पिशाच -
समग्र भय-समूहोंका नाश शाकिनीनां -प्रमथनायकरनेवाले।
दुष्टग्रह, भूत, पिशाच, शाकिसर्वाशिव-प्रशमनाय-सर्व उप- नियोंद्वारा उत्पादित पीड़ाओं
द्रवों का शमन करनेवाले। का अत्यन्त नाश करनेवाले । अर्थ-सङ्कलना
(१४) समग्रभय-समूहोंका नाश करनेवाले, (१५) सर्व उपद्रवोंका
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१९३
शमन करनेवाले और (१६) दुष्ट ग्रह, भूत, पिशाच तथा शाकिनियोंद्वारा उत्पादित पीड़ाओंका अत्यन्त नाश करनेवाले ऐसे श्रीशान्तिनाथ को नमस्कार हो ॥५॥
मूल
यस्येति नाममन्त्र - प्रधान - वाक्योपयोग - कृततोषा । विजया कुरुते जनहितमिति च नुता नमत तं शान्तिम् ॥ ६ ॥
शब्दार्थ -
यस्य - जिसके ।
इति - ऐसे |
नाममन्त्र - प्रधान- वाक्योप योग - कृततोषा - नाममन्त्रवाले उत्तम अनुष्ठानोंसे तुष्ट की हुई ।
भगवान् के विशिष्ट नामवाले मन्त्रको ' नाममन्त्र' कहते हैं । वाक्योपयोग - विधि
-
युक्त जप अथवा अनुष्ठान ।
विजया - विजयादेवी । कुरुते - करती है । जनहितम् - लोगों का हित ।
इति - इससे ।
च - ही |
नुता - स्तुति की गयी है । नमत - नमस्कार करो । तं - उन ।
| शान्तिम् - श्री शान्तिनाथको ।
अर्थ-सङ्कलना
जिनसे नाममन्त्रावाले उत्तम अनुष्ठानोंसे तुष्ट की हुई विजयादेवी लोगोंका (ऋद्धि-सिद्धि प्रदानपूर्वक) हित करती है, उन श्रीशांतिनाथको ( हे मनुष्यों ! तुम ) नमस्कार करो और विजया ( -जया ) देवी कार्य करनेवाली है इससे उसकी भी प्रसङ्गानुसार यहाँ स्तुति की गयी है ||६||
प्र-१३
-
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१९४
( विजया-जया-नवरत्न-माला ) भवतु नमस्ते भगवति !, विजये ! सुजये ! परापरैरजिते ! । अपराजिते ! जगत्यां, जयतीति जयावहे ! भवति ! ॥७॥ शब्दार्थभवतु-हो।
अजिते ! हे अजिता! नमः-नमस्कार।
अपराजिते ! हे अपराजिता ! ते-आपको।
जगत्यां-जम्बूद्वीपमें, जगत्में । भगवति !-हे भगवती !
जयति-जयको प्राप्त होती है । विजये ! हे विजया !
इति-इस लिये। सुजये !-हे सुजया ! परापरैः-परापर और अन्य रह- जयावहे ! हे जयावहा! स्योंसे ।
। भवति-हे भवती! अर्थ-सङ्कलना
हे भगवती ! हे विजया! हे सुजया ! हे अजिता! हे अपराजिता ! हे जयावहा ! हे भवती ! आपकी शक्ति परापर और अन्य रहस्योंसे जगत्में जयको प्राप्त होती है, इस लिये आपको नमस्कार हो ॥७॥ मूल
सवेस्यापि च सङ्घस्य, भद्र-कल्याण-मङ्गल-प्रददे ! । साधूनां च सदा शिव-सुतुष्टि-पुष्टि-प्रदे ! जीयाः ॥८॥
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शब्दार्थसर्वस्य-सकल।
साधूनां-साधुओंको,श्रमणसङ्घको। अपि च और।
च-उसी प्रकार ।
सदा-निरन्तर, सदा । सङ्घस्य-सङ्घको। भद्र-कल्याण-मङ्गल-प्रददे !
शिव-सुतुष्टि-पुष्टि-प्रदे !-निरु
पद्रवी वातावरण, तुष्टि और " -भद्र, कल्याण और मङ्गल पुष्टि देनेवाली। देनेवाली !
| जीयाः-आपकी जय हो । अर्थ-सङ्कलना___ सकलसङ्घको भद्र, कल्याण और मङ्गल देनेवाली, उसी प्रकार श्रमण-सङ्घको सदा निरुपद्रवी वातावरण, तुष्टि और पुष्टि देनेवाली हे देवी! आपकी जय हो ।।८।। मूलभव्यानां कृतसिद्धे!, निवृति-निर्वाण-जननि ! सत्त्वानाम् । अभय-प्रदान-निरते ! नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे ! तुभ्यम् ॥९॥ शब्दार्थभव्यानां-भव्य उपासकोंको। सत्त्वानाम-सत्त्वशाली उपासकृतसिद्ध !- हे कृतसिद्धा, हे
कोंको। सिद्धिदायिनी!
अभय-प्रदान-निरते!-अभस
दान करने में तत्पर, निर्भयता निति-निर्वाण-जननि !
देनेवाली ! शान्ति तथा परम-प्रमोदको
| नमः अस्तु-नमस्कार हो ! . देने में कारणभूत, शान्ति तथा | स्वस्तिप्रदे!-क्षेम करनेवाली ! परम प्रमोद देनेवाली।
| तुभ्यम्-आपके लिये, आपको।
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अर्थ- सङ्कलना
भव्य उपासकों को सिद्धि, शान्ति और परम- प्रमोद देनेवाली तथा सत्त्वशाली उपासकों को निर्भयता और क्षेम देनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार हो ॥ ९ ॥
मूल
"
भक्तानां जन्तूनां शुभावहे ! नित्यमुद्यते ! देवि ! | सम्यग्दृष्टीनां धृति - रति-मति - बुद्धि-प्रदानाय ॥१०॥ जिनशासन - निरतानां, शान्ति-नतानां च जगति जनतानाम् । श्री-सम्पत्-कीर्ति-यशो-वर्धनि ! जय देवि ! विजयस्व ॥ ११ ॥
शब्दार्थ—
भक्तानां जन्तूनां कनिष्ठ उपा कोंका |
शुभावहे ! - शुभ करनेवाली । नित्यम् - सदा ।
उद्यते ! - उद्यमवती !, तत्पर रहनेवाली ! देवि ! - हे देवि !
१९६
सम्यग्दृष्टीनां - सम्यग्दृष्टिवाले जीवोंको । धृति-रति-मति - बुद्धि-प्रदानाथ - धृति, रति, मति और बुद्धि देने में सदा तत्पर । धृति - स्थिरता । रति - हर्ष । मति- विचार - शक्ति ।
बुद्धि-अच्छे बुरेका निर्णय करने वाली शक्ति | जिनशासन- निरतानां शान्ति
- नतानां च जैनधर्म में अनुरक्त तथा शान्तिनाथ भगवान्को नमन करनेवाली । जगति - जगत् में |
जनतानां - जनता के लिये । श्री सम्पत् कीर्ति - यशो व
धनि ! - लक्ष्मी, सम्पत्ति, कीर्ति और यशमें वृद्धि करनेवाली । जय-आपकी जय हो । देवि ! - हे देवि ! विजयस्व - आपकी विजय हो ।
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अर्थ- सङ्कलना
कनिष्ठ उपासकों का शुभ करनेवालो, सम्यग्दृष्टिवाले जीवोंको धृति, रति, मति और बुद्धि देने में सदा तत्पर रहनेवाली, जैनधर्म में अनुरक्त तथा शान्तिनाथ भगवान्को नमन करनेवाली जनताके लिये लक्ष्मी, सम्पत्ति, कोति और यशमें वृद्धि करनेवाली हे देवि ! आपकी जगत् में जय हो ! विजय हो ! ॥ १०-११ ॥
मूल
सलिलानल - विष - विषधर - दुष्टग्रह - राज-रोग-रण-भयतः । राक्षस - रिपुगण - मारी - चौरेति - श्वापदादिभ्यः ॥ १२ ॥
. १९७
अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्ति च कुरु कुरु सदेति । तुष्टिं च कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वम् ॥ १३ ॥
2
शब्दार्थ
सलिलानल - विष
दुष्टग्रह - राज
भयतः - जल,
विषधररोग-रणअग्नि, विष, सर्प, दुष्टग्रह, राजा, रोग और युद्ध - इन आठ प्रकारके भयोंसे । सलिल-जल | अनल - अग्नि । विष - जहर । विषधर - सर्प । दुष्ट- ग्रह - गोचर में
स्थित
अशुभ ग्रह |
रण - युद्ध ।।
GA
राक्षस - रिपुगण - मारी-चौरेति - श्वापदादिभ्यः - राक्षस,
शत्रुसमूह, महामारी, चोर, सात ईति हिंस्र - पशु आदिके उपद्रवसे ।
अथ - अब ।
रक्ष रक्ष रक्षण कर, रक्षण कर ।
सुशिवं कुरु कुरु - उपद्रव रहित कर, उपद्रव रहित कर ।
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संज्ञक उपद्रवसे, किनियोंके उपद्रवसे रक्षशान्ति कर; श
.१९८ शान्ति च कुरु कुरु-और | पुष्टि कुरु कुरु-पुष्टि कर पुष्टि . शान्ति कर, शान्ति कर ।
कर। सदा-निरन्तर। इति-इति, समाप्ति ।
स्वस्ति च कुरु कुरु-और क्षेम तुष्टिं कुरु कुरु-तुष्टि कर,
____ कर क्षेम कर। .. तुष्टि कर।
त्वं-तू । अर्थ-सङ्कलना____ और तू जलभयसे, अग्निभयसे, विषभयसे, सर्पभयसे, दुष्टग्रहोंके भयसे, राजभयसे, रोगभयसे, रणभयसे, राक्षसोंके उपद्रवसे, शत्रुसमूहके उपद्रवसे महामारीके उपद्रवसे, चोरके उपद्रवसे, ईतिसंज्ञक उपद्रवसे, शिकारी ( हिंस्र ) पशुओंके उपद्रवसे और भूत, पिशाच तथा शाकिनियोंके उपद्रवसे रक्षण कर ! रक्षण कर ! उपद्रव-रहित कर, उपद्रव-रहित कर; शान्ति कर; शान्ति कर; तुष्टि कर, तुष्टि कर; पुष्टि कर, पुष्टि कर; क्षेम कर, क्षेम कर ॥ १२-१३ ॥ मूल
भगवति ! गुणवति ! शिव-शान्ति-तुष्टि
पष्टि-स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम् । ओमिति नमो नमो हाँ ह्रीं हूँ हः
यः क्षः ही फट फट् स्वाहा ॥१४॥ शब्दार्थभगवति !-हे भगवती! शिव-शान्ति - तुष्टि - पुष्टिगुणवति ! हे गुणवती !
स्वस्ति इह कुरु कुरु-आप गुण-सत्त्व, रजस् और तमस् । यहाँ निरुपद्रवता, शान्ति, तुष्टि,
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पुष्टि और क्षेम करो, क्षेम
करो ।
१९९
जनानाम् - मनुष्यों के लिये ।
अर्थ-सङ्कलना
छ
हे भगवती ! हे गुणवती ! आप यहाँ मनुष्योंके लिये निरुपद्रवता, शान्ति, तुष्टि, और क्षेम करो, क्षेम करो, 'ॐ नमो नमो, ह्रां ह्रीं हँ ह्रः यः क्षः ह्रीँ फट् फट् स्वाहा ||१४||
मूल
शब्दार्थ
एवं - ऊपर कहे अनुसार यन्नामाक्षर - पुरस्सरं - जिनके नाम - मन्त्र और अक्षर-मन्त्रोंकी पुरश्चर्या - पूर्वक । संस्तुता- अच्छी तरह स्तुति की
}
हुई जयादेवी - जयादेवी ।
अर्थ- सङ्कलना
ॐ नमो नमो हाँ ह्रीं ह्रूं ह्रः यः क्षः ह्रीं फट् फट्ा
एवं यन्नामाक्षर - पुरस्सरं संस्तुता जयादेवी | कुरुते शान्ति नमतां, नमो नमः शान्तये तस्मै ॥ १५॥
स्वाहा यह एक प्रकारका षोडशी ( देवी ) मन्त्र है
कुरुते शान्ति - शान्ति करती है । नमतां - नमन करनेवालोंको । नमो नमः - नमस्कार हो, नमस्कार हो ।
शान्तये तस्मै - उन श्रीशान्तिनाथ भगवान्को ।
ऊपर कहे अनुसार जिनके नाम - मन्त्र और अक्षर - मन्त्रोंकी पुरश्चर्या-पूर्वक अच्छी तरह स्तुति की हुई ( विजया - ) जयादेवी
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२००
नमन करनेवालोंको शान्ति करती है, उन श्रीशान्तिनाथ भगवान्को नमस्कार हो, नमस्कार हो ।। १५ ॥
( फलश्रुति ) इति पूर्वसूरि-दर्शित-मन्त्रपद-विदर्भितः स्तवः शान्तेः । सलिलादि-भय-विनाशी, शान्त्यादिकरश्च भक्तिमताम् ।१६। शब्दार्थइति-अन्तमें।
शान्त्यादिकरः-उपद्रवोंकी शान्ति पूर्वसूरि - दर्शित - मन्त्रपद -
-पूर्वक तुष्टि और पुष्टिको विदर्भितः-पूर्वसूरियोंद्वारा गुर्वा
भी करनेवाला। म्नाय-पूर्वक प्रगट किये हुए
च-और। मन्त्रपदोंसे गूंथा हुआ। स्तवः शान्तेः-शान्ति-स्तव। भक्तिमताम्-भक्ति करनेवालोंको, सलिलादि - भय - विनाशी-ज- विधि-पूर्वक अनुष्ठान करने
लादिके भयसे मुक्त करनेवाला । वालोंको। अर्थ-सङ्कलना__ अन्त में यही कहना है कि यह शान्ति-स्तव पूर्वसूरियोंद्वारा गुर्वाम्नायपूर्वक प्रकट किये हुए मन्त्रपदोंसे गूंथा हुआ है और यह विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवालोंको जलादिके भयसे मुक्त करनेवाला तथा उपद्रवोंकी शान्ति-पूर्वक तुष्टि और पुष्टिको भी करनेवाला है।।१६।। मूलयश्चैनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगम् । स हि शान्तिपदं यायात, सूरिः श्रीमानदेवश्च ॥१७॥
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२०१
शब्दार्थयः-जो।
भावयति वा यथायोगम
अथवा मन्त्रयोगके नियमानुसार व-और।
उसकी भावना करता है। एनं-इस स्तवको।
स- वह ।
हि-निश्चय । पठति-पढ़ता है।
शान्तिपदं-सिद्धि पदको, शान्ति सदा-निरन्तर, सदा।
पदको। शृणोति-दूसरेके पापसे सुनता |
यायात्-प्राप्त करे। | सूरिः श्रीमानदेवः च-श्रीमान
देवसूरि भी। अर्थ-सङ्कलना
और जो इस स्तवको सदा भावपूर्वक पढ़ता है, दूसरेके पाससे सुनता है, तथा मन्त्रयोगके नियमानुसार इसकी भावना करता है, वह निश्चय ही शान्तिपदको प्राप्त करता है। सूरि श्रीमानदेव भी शान्तिपदको प्राप्त करें ॥१७॥
( अन्त्यमङ्गल )
[ श्लोक ] [ उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्न-वल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥१८॥ शब्दार्थउपसर्गाः-उपसर्ग, आपत्तियां । । छिद्यन्ते--कट जाती हैं। क्षयं यान्ति-नष्ट होते हैं। | विघ्न वल्लय:-विघ्नरूपी लताएँ।
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२०२
पूज्यमाने जिनेश्वरे-जिनेश्वर
देवका पूजन करनेसे ।
मन:-मन । प्रसन्नताम् एति-प्रसन्नताको प्राप्त
होता है। अर्थ-सङ्कलना
[श्रीजिनेश्वर देवका पूजन करनेसे समस्त प्रकारके उपसर्ग नष्ट होते हैं, विघ्नरूपी लताएं कट जाती हैं और मन प्रसन्नताको प्राप्त होता है ॥१८॥
मूलसर्व मङ्गल-माङ्गल्यं, सर्व-कल्याणकारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैन जयति शासनम् ॥१९॥] शब्दार्थ___ सर्व-मङ्गल-माङ्गल्यं०-अर्थ पूर्ववत्० अर्थ-सङ्कलना
सर्व मङ्गलों में मङ्गलरूप, सर्व कल्याणोंका कारण रूप और सर्व धर्मों में श्रेष्ठ ऐसा जैनशासन (प्रवचन) सदा जयवाला है ॥१९॥] सूत्र-परिचय___वीर-निर्वाणकी सातवीं शताब्दीके अन्तिम भागमें शाकम्भरी नगरीमें किसी कारणसे कुपित हुई शाकिनीने महामारीका उपद्रव फैलाया। यह उपद्रव इतना भारी था कि इसमें ओषध और वैद्य कुछ भी काम नहीं आ सकते थे। इसलिये प्रतिक्षण मनुष्य मरने लगे और सारी नगरी श्मशान जैसी भयङ्कर दिखने लगी।
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'२०.३
इस परिस्थितिमें कुछ सुरक्षित रहे हुए श्रावक जिनचैत्यमें एकत्रित होकर विचार करने लगे, तब आकाशसे आवाज़ हुई कि 'तुम चिन्ता क्यों करते हो ? नाडूल नगरी में श्रीमान देवसूरि विराजते हैं, उनके चरणोंके प्रक्षालित जलसे अपने घरों पर छिड़काव करो, जिससे सम्पूर्ण उपद्रव शान्त हो जायगा ।
इस वचनसे आश्वासन पाये हुए संघने वीरदत्त नामके एक श्रावकको विज्ञप्ति - पत्र देकर नाडूल नगर में विराजित ( नाडोल - मारवाडमें ) श्रीमान देवसूरि के पास भेजा ।
सूरिजी तपस्वी, ब्रह्मचारी और मन्त्रसिद्ध महापुरुष थे तथा लोकोपकार करनेकी परम निष्ठावाले थे, इससे उन्होंने शान्ति - स्तव नामका एक मन्त्रयुक्त चमत्कारिक स्तोत्र बनाकर दिया और चरणोदक भी दिया । यह शान्ति-स्तव लेकर वीरदत्त शाकम्भरी नगरी में आया । वहाँ उनके चरणजलको ( शान्ति-स्तवसे मन्त्रित ) अन्य जलके साथ मन्त्रित कर छिड़काव करनेसे तथा शान्ति - स्तवका पाठ करनेसे महामारीका उपद्रव शान्त हो गया, तबसे यह स्तव सब प्रकार के उपद्रवोंके निवारणार्थ बोला जाता है । प्रतिक्रमण में यह कालान्तर में प्रविष्ट हुआ है ।
शान्ति स्तव
प्रश्न - शान्ति - स्तवकी रचना किसने की है ? उत्तर
- शान्ति - स्तवकी रचना वीरनिर्वाणकी सातवीं शताब्दी के अन्तिम भागमें हुए श्रीमान देवसूरिने की है ।
प्रश्न – उन्होंने इस स्तवकी रचना किसलिये की ?
-
उत्तर— उन्होंने इस स्तवकी रचना शाकम्भरी नगरी में शाकिनीद्वारा किये हुए महामारीके उपद्रवका शमन करनेके लिए की थी, परन्तु इसमें विशेषता यह रखी कि इसका विधिवत् पाठ करनेसे अनेक प्रकारके भय दूर हों और उपद्रव शान्त हों ।
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२०४
प्रश्न--शान्तिस्तवका पाठ करनेसे कौनसे भय दूर होते हैं ? उत्तर-शान्ति-स्तवका पाठ करनेसे नीचे लिखे भय दूर होते हैं :
(१) जलका भय ( अतिवृष्टि बाढ़ आदि )। (२) अग्निका भय। (३) विषका भय । (४) सर्पका भय । (५) दुष्टग्रहका भय । (६) राजका भय । (७) रोगका भय ।
(८) युद्धका भय, ( लड़ाई-झगड़ा, आक्रमण आदिका भय )। प्रश्न-शान्ति-स्तवका पाठ करनेसे कौनसे उपद्रव शान्त होते हैं । उत्तर-शान्ति-स्तवका पाठ करनेसे नीचे लिखे उपद्रव शान्त होते हैं :
" (१) राक्षसका उपद्रव । (२) शत्रुसमूहका उपद्रव । (३) महामारी ( प्लेग ) का उपद्रव । (४) चोरका उपद्रव । (५) ईतिसंज्ञक-उपद्रव, (१) अतिवृष्टि होना, (२) बिलकुल वृष्टि
न होना, (३) चूहोंकी वृद्धि होना, (४) पतंगे आदिका आधिक्य होना, (५) शुकोंको बहुलता, (६) अपने राज्य-मण्डलमें आक्रमण होना और (७) शत्रु-सैन्यकी चढ़ाई, ये सात
ईतिसंज्ञक उपद्रव हैं।) (६) हिंसक ( शिकारी ) पशुओंका उपद्रव । (७) भूत-पिशाचका उपद्रव ।
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२०५ (८) शाकिनी-डाकिनियोंका उपद्रव । - प्रश्न-शान्ति-स्तव में किसकी स्तुति की गयी है ? उत्तर-शान्ति-स्तवमें श्रीशान्तिनाथ भगवान् तथा विजया-जयादेवीकी
स्तुति की गयी है। प्रश्न-शान्ति-स्तवमें श्रीशान्तिनाथ भगवान्की स्तुति किस प्रकार की
गयी है। उत्तर-शान्ति-स्तवमें प्रथम श्रीशान्तिनाथ भगवान्के सामान्य गुणोंको
स्तुति की गयी है, जैसे कि:-वे शान्तिके गृहसमान हैं, प्रशमरसमें निमग्न हैं, अशिवका नाश करनेवाले हैं, आदि । तदनन्तर पाँच
गाथाओंसे नाम-मन्त्र-स्तुति की गयी है। · प्रश्न-नाम-मन्त्र स्तुतिमें क्या आता है ? उत्तर-नाम-मन्त्र स्तुतिमें सोलह नाम-मन्त्र आते हैं; जो इस प्रकार हैं:
(१) ॐ निश्चितवचसे शान्तिनाथाय नमो नमः ।। (२) ॐ भगवते शान्तिजिनाय नमो नमः ।। (३) ॐ अर्हते शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (४) ॐ जयवते शान्तिजिनाय नमो नमः ।। (५) ॐ यशस्विने शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (६) ॐ दमिनां स्वामिने शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (७) ॐ सकलातिशेषक-महासम्पत्ति-समन्विताय शान्तिजिनाय
नमो नमः ॥ (८) ॐ शस्याय शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (९) ॐ शान्तिदेवाय शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (१०) ॐ त्रैलोक्यपूजिताय शान्तिजिनाय नमो नमः ॥
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२०६ (११) ॐ सर्वामरसुसमूह-स्वामिक-सम्पूजिताय शान्तिजिनाय
_ नमो नमः ॥ (१२) ॐ निजिताय शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (१३) ॐ भुवनजनपालनोद्यततमाय शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (१४) ॐ सर्वदुरितौघनाशनकराय शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (१५) ॐ सर्वाशिवप्रशमनाय शान्तिजिनाय नमो नमः ॥ (१६) ॐ दुष्टग्रह-भूत-पिशाच-शाकिनी-प्रमथनाय शान्ति
जिनाय नमो नमः ॥ ७ प्रश्न-इन नाम-मन्त्रोंसे क्या होता है ? उत्तर-इन नाम-मन्त्रोंवाले वाक्य-प्रयोगोंसे विजया-जयादेवी तुष्ट होकर
____ ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करती हुई लोक-हित करती है। प्रश्न-शान्ति-स्तवमें विजया-जया देवीकी स्तुति किस प्रकार की गई है ? उत्तर-शान्ति-स्तवमें प्रथम विजया-जया-देवीकी नामस्तुति की गई है
और फिर मन्त्रस्तुति की गई है । प्रश्न-विजया-जया देवीकी नामस्तुतिमें क्या आता है ? उत्तर-विजया-जया देवीकी नामस्तुतिमें चौबीस नामोंके सम्बोधनपूर्वक
भय और उपद्रवसे रक्षण करनेकी और शान्ति, तुष्टि, पुष्टि और
स्वस्ति देने की प्रार्थना की जाती है। प्रश्न-वह किस प्रकार ? उत्तर-सातवीं गाथामें भगवती', विजया, सुजया३, अजिता, अप
राजिता', जयावहा और भवती" ये सात नाम आते हैं। आठवीं गाथामे 'भद्र-कल्याण-मङ्गल-प्रददे !' इस वाक्यसे भद्रा, कल्याणी' और मङ्गला' का सूचन होता है एवं · शिव-सुतुष्टि-पुष्टिप्रदे !' से शिवा'१, तुष्टिदा१२ और पुष्टिदा१३ का सूचन होता है।
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२०७
नौवीं गाथामें ' भन्यानां कृतसिद्धे !' पदसे सिद्धिदायिनीका१४ ' निर्वृति-निर्वाणजननि !' इस पदसे निर्वृति१५ और निर्वाणी१६ नामका और — अभय-प्रदान-निरते ! ' तथा 'स्वस्तिप्रदे !' पदसे अभया१७ और क्षेमङ्करी' का सूचन होता है। दसवीं गाथामें 'शुभावहे !' पदसे शुभङ्करीका' तथा 'धृति-रति--मति-बुद्धिप्रदानाय ' पदसे सरस्वतीका२° सूचन होता है। इसी प्रकार ग्यारहवीं गाथामें श्री-सम्पत्-कीर्ति-यशो-वधिनी ।' पदसे श्रीदेवता, रमा२२, ( सम्पत्ति बढ़ानेवाली ), कोर्तिदा२३ और यशोदा का सूचन होता है। इस प्रकार सातवीं गाथासे लेकर ग्यारहवीं गाथा तक चौबोस नाम गुंथे हुए हैं और बारहवीं तथा तेरहवीं गाथामें सलिलादि-भयोंसे एवं राक्षसादि उपद्रवोंसे रक्षण करनेको तथा
शान्ति, तुष्टि, पुष्टि और स्वस्ति देनेकी प्रार्थना की गई है । प्रश्न-विजया-जया देवोकी मन्त्रस्तुतिमें क्या आता है ? उत्तर-विजया-जया देवीको मन्त्रस्तुतिमें 'ॐ नमो नमो ह्रां ह्रीं हूँ ह्रः
यः क्षः ह्रीं फट फट् स्वाहा' इन मन्त्राक्षर-पूर्वक शिव, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि और स्वस्ति करनेकी प्रार्थना की जाती है। सारांश यह है कि इन दोनों प्रकारकी स्तुतिद्वारा उपद्रवोंका निवारण तथा शान्ति, तुष्टि, पुष्टि और क्षेम प्राप्तिको इच्छा की गयी है और मन्त्रसे
प्रसन्न हुई देवी भक्तोंको यथाभिलषित लाभ देती है । प्रश्न-शान्ति-स्तवकी गाथाएँ कितनी है ? । उत्तर-सत्रह । अन्तकी दो गाथाएँ सुभाषितके रूपमें बोली जाती हैं।
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मूल
bobu
४३ पासनाह - जिरण - थुई
[ ' चउकसाय ' - सूत्र ]
[ पादाकुलक ] चउकसाय - पडिमल्लुल्लूरणु, दुज्जय-मयण-बाण-मुसुमूरणु । सरस-पियंगु - वण्णु गय - गामिउ, जयउ पासु भुवणत्तय - सामि ॥ १ ॥ [ अडिल्ल ]
जसु - तणु - कंति - कडप्प सिणिद्धउ, सोहs फणि-मणि - किरणालिद्धउ । नं नव - जलहर तडिल्लय - लंछिउ, सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ ||२||
शब्दार्थचउक्साय - पडियल्लुल्लूरणु - चार कषायरूपी शत्रु योद्धाओंका नाश करनेवाले । चउक्साय - क्रोध, मान, और लोभ ये चार कषाय । पडिमल्ल - सामने लड़नेवाला योद्धा । करनेवाला |
माया
उल्लुल्लूरण-नाश
दुज्जय-मयण-बाण-मुसुमूरणुकठिनाईसे जीते जायँ ऐसे कामदेव के बाणों को तोड़ देनेवाले |
दुज्जय- कठिनाईसे जीता जाने वाला । मयण-बाण-कामदेवके बाण | तोड़ देनेवाला ।
मुसुमूरणु
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२०९
सरस - पियंगु - वण्णु - नवीन | सोहइ - शोभित होता है। (ताजा) प्रियङ्गुलता जैसे वर्ण- फणि - मणि -किरणालिद्धउ - वाले।
नागमणिके किरणोंसे युक्त । सरस-ताजा, नवीन । पियंगु- फणि-नाग। मणि-मस्तकपर
-एक प्रकारकी वनस्पति, स्थित मणि ।
प्रियङ्गु । वण्णु-वर्ण, रंग । | नं-मानो। गय-गामिउ-हाथोके समान नव-जलहर-नवीन मेघ । गतिवाले।
नव-नवीन । जलहर-मेघ, बादल । जयउ-जयको प्राप्त हों !
तडिल्लय-लंछिउ-बिजलीसे युक्त पासु-पार्श्वनाथ ।
तडिल्लय-विजली। लंछिउ-युक्त, भवणत्तय-सामिउ-तीनों भुवनके | सहित । स्वामी।
सो-वह, वे। जसु-जिनके।
जिणु-जिन । तणु-कंति-कडप्प - शरीरका पासु-श्रीपार्श्वनाथ । तेजोमण्डल ।
पयच्छउ-प्रदान करें। सिणिद्धउ-स्निग्ध, देदीप्यमान ।। | वंछिउ-वाञ्छित, मनोवाञ्छित ।
अर्थ-सङ्कलना
चार कषायरूपी शत्रु-योद्धाओंका नाश करनेवाले, कठिनाईसे जीते जाने वाले ऐसे कामदेवके बाणोंको तोड़देनेवाले, नवीन प्रियंगुलताके समान वर्णवाले, हाथीके समान गतिवाले, तीनों भुवनके स्वामी श्रीपार्श्वनाथ जयको प्राप्त हों ॥१॥
जिनके शरीरका तेजोमण्डल देदीप्यमान है, जो नागमणिकी किरणोंसे युक्त और जो मानो बिजलीसे युक्त नवीन मेघ हों, ऐसे शोभित हैं वे श्रीपार्वजिन मनोवाञ्छित फल प्रदान करें ॥२॥
प्र०-१४
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२१०
सूत्र-परिचय--
__ इस सूत्रमें श्रीपार्श्वनाथ भगवान्की स्तुति की गयी है । अतः यह 'पासनाह-जिण-थुई' कहलाती है। पहले शब्दसे इसको ‘च उक्कसाय'सूत्र भी कहते हैं।
एक अहोरात्रमें साधु और श्रावकको सात चैत्यवन्दन करने होते हैं, उनमें साधु सातवाँ चैत्यवन्दन 'संथारा-पोरिसी' पढ़ते समय करते हैं और श्रावक सोते समय सातवां चैत्यवन्दन करना भूल न जायँ, इसलिये देवसियपडिक्कमणके अन्तमें सामायिक पारते समय 'लोगस्स' सूत्र कहनेके पश्चात् करते हैं, तब इस सूत्रका उपयोग होता है ।
४४ भरहेसर-सज्झायो
[ 'भरहेसर-बाहुबली'-सज्झाय ] मूल
[ गाहा ] भरहेसर बाहुबली, अभयकुमारो अ ढंढणकुमारो। सिरिओ अणिआउत्तो, अइमुत्तो नागदत्तो अ॥१॥ मेअज्ज थूलभद्दो, वयररिसी नंदिसेण सीहगिरी । कयवन्नो अ सुकोसल, पुंडरिओ केसि करकंडू ॥२॥ हल्ल विहल्ल सुदंसण, साल महासाल सालिभद्दो अ। भद्दो दसण्णभद्दो, पसण्णचंदो अ जसभदो ॥३॥
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जंबुपहु वंकचूलो, गयसुकुमालो अवंतिसुकुमालो। धन्नो इलाइपुत्तो, चिलाइपुत्तो अ बाहुमुणी ॥४॥ अञ्जगिरी अञ्जरक्खिअ, अजसुहत्थी उदायगो मणगो। कालयसूरी संबो, पज्जुण्णो मूलदेवो अ ॥५॥ पभवो विण्हुकुमारो अद्दकुमारो दढप्पहारी अ । सिज्जंस कूरगडू अ, सिज्जभव मेहकुमारोअ॥६॥ एमाइ महासत्ता, दितु सुह गुण-गणेहिं संजुत्ता । जेसिं नाम-ग्गहणे, पाव-पबंधा विलय जंति ॥७॥ सुलसा चंदणबाला, मणोरमा मयणरेहा दमयंती । नमयासुंदरी सीया, नंदा भद्दा सुभद्दा य ॥८॥ राइमई रिसिदत्ता, पउमावई अंजणा सिरीदेवी । जिट्ट सुजिट्ट मिगावइ, पभावई चिल्लणादेवी॥९॥ बंभी सुंदरी रुप्पिणी, रेवइ कुंती सिवा जयंती अ। देवइ दोवइ धारणी, कलावई पुप्फचूला य ॥१०॥ पउमावई अ गोरी, गंधारी लक्खमणा सुसीमा य । जंबूवई सञ्चभामा, रुप्पिणी कण्हट्ट महिसीओ॥११॥ जक्खा य जक्खदिन्ना, भूआ तह चेव भूअदिन्ना अ। सेणा वेणा रेणा, भइणीओ थूलभदस्स ॥१२॥ इच्चाइ महासइओ, जयंति अकलंक-सील-कलिआओ। अञ्ज वि वजह जासिं, जस-पडहोतिहअणे सयले॥१३॥
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शब्दार्थ
सरल है। अर्थ-सङ्कलना
भरतेश्वर, बाहुबली, अभयकुमार, ढंढणकुमार, श्रोयक, अणिकापुत्र, अतिमुक्त और नागदत्त ।।१।।
मेतार्यमुनि, स्थूलभद्र, वज्रऋषि, नंदिषेण, सिंहगिरि, कृतपुण्य, सुकोशलमुनि, पुण्डरीक, केशी और करकण्डू ( प्रत्येक बुद्ध ) ।।२।।
हल्ल, विहल्ल, सुदर्शन सेठ, शाल और महाशाल मुनि, शालिभद्र, भद्रबाहु स्वामी, दशार्णभद्र, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि और यशोभद्रसूरि ॥३॥ ___जम्बूस्वामी, वङ्कचूल राजकुमार, गजसुकुमाल, अवन्तिसुकुमाल, धन्नो (न्य), इलाचीपुत्र, चिलातीपुत्र और बाहुमुनि ।।४।।
आर्यमहागिरि, आर्य रक्षित, आर्य सुहस्तिसूरि, उदायन राजर्षि, मनककुमार और मूलदेव (राजा) ।।५।।
प्रभवस्वामी, विष्णुकुमार, आर्द्रकुमार, दृढप्रहारी, श्रेयांस, कूरगडू साधु, शय्यम्भव-स्वामी और मेघकुमार ॥६॥
इत्यादि जो महापुरुष अनेक गुणोंसे युक्त हैं और जिनका नाम लेनेसे पापके दृढबन्ध नष्ट हो जाते हैं, वे सुख प्रदान करें॥७॥
सुलसा, चन्दनबाला, मनोरमा, मदनरेखा, दमयन्ती, नर्मदासुन्दरी, सीता, नन्दा, भद्रा और सुभद्रा ।।८।।
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राजिमती, ऋषिदत्ता, पद्मावती, अञ्जनासुन्दरी, श्रीदेवी, ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा, मृगावती, प्रभावती और चेल्लणा रानी ॥९॥
ब्राह्मी, सुन्दरी, रुक्मिणी, रेवती, कुन्ती, शिवा, जयन्ती, देवकी, द्रौपदी, धारणी, कलावती और पुष्पचूला ।।१०।।
तथा पद्मावती, गौरी, गान्धारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जम्बूवती, सत्यभामा, रुक्मिणी ये आठ कृष्णकी पटरानियाँ ।।११।
यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेना, वेना, और रेणा ये सात स्थूलभद्र बहिनें ॥१२॥
इत्यादि निष्कलङ्क शीलको धारण करनेवाली महासतियाँ जयको प्राप्त होती हैं कि जिनके यशका पटह आज भी समग्र त्रिभुवनमें बज रहा है ।।१३।।
सूत्र-परिचय- प्रातःस्मरणीम महापुरुष और महासतियों का स्मरण करने के लिये यह सज्झाय प्रातःकालमें राइय-पडिक्कमण करते समय बोली जाती है । इसमें बताये हुए महापुरुषों तथा महासतियोंका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
महापुरुष १ भरत :-श्रीऋषभदेव भगवान्के सबसे बड़े पुत्र और प्रथम चक्रवर्ती। ये एक समय आरीसा-भुवनमें अपने अलङ्कत शरीरको देखते थे, इतने में एक उँगलीमेंसे अँगूठी निकल गयो, इसलिये वह शोभारहित लगी। यह देखकर अन्य अलङ्कार भी उतारे, तो सारा शरीर शोभारहित लगने लगा। इससे 'अनित्यं संसारे भवति सकलं यन्नयनगम्' संसारमें जो वस्तुएँ आँखोंसे देखी जाती हैं, वे सब नश्वर हैं,' ऐसी अनित्य-भावना होने लगी
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और केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। तब इन्द्रमहाराजने आकर कहा कि-'आप द्रव्यलिङ्ग धारण करिये, हम दीक्षाका महोत्सव करते हैं।' इन्होंने पञ्चमुष्टि-लोच किया और देवताओंसे दिये गये रजोहरण-पात्र आदि ग्रहण किये । अन्तमें अष्टापद पर्वतपर निर्वाणको प्राप्त हुए।
२ बाहबली :-भरत चक्रवर्तीके छोटे भाई । भगवान् ऋषभदेवने उनको तक्षशिलाका राज्य दिया था। उनका बाहुबल असाधारण था, इस कारण चक्रवर्ती की आज्ञा नहीं मानते थे। इससे भरत चक्रवर्तीने उनपर चढ़ाई की और दृष्टियुद्ध, वाग्युद्ध, बाहुयुद्ध और दण्डयुद्ध किया, जिसमें वे हार गये । अन्तमें भरतने मुष्टिप्रहार किया, उससे बाहुबली कटि ( कमर ) तक जमीनमें घुस गये । उसका प्रत्युत्तर देनेके लिये बाहुबलीने भी मुट्ठी उठायी। यदि यह मुट्ठी भरतपर पड़ी होती तो उनका प्राण निकल जाता; परन्तु इसी समय बाहुबलीकी विचारधारा पलट गयी कि नश्वर राज्यके लिये बड़े भाईकी हत्या करनी उचित नहीं, इससे मुट्ठी वापस नहीं उतारते हुए उससे मस्तकके केशोंका लोच किया और भगवान् ऋषभदेवके पास जानेको तत्पर हुए, किन्तु उसी समय विचार आया कि मुझसे छोटे अठानवे भाई दीक्षा लेकर केवलज्ञानको प्राप्त हुए, वे वहाँ उपस्थित हैं उनको मुझे वन्दन करना पड़ेगा; अतः मैं भी केवलज्ञान प्राप्त करके ही वहाँ जाऊँ। इस विचारसे वहीं कायोत्सर्ग में स्थिर रहे। एक वर्षतक उग्रतप करनेपर भी उनको केवलज्ञान नहीं हुआ, तब प्रभुने उनको प्रतिबोध देने के लिये ब्राह्मी और सुंदरी नामकी साध्वियोंको भेजा, जो कि संसारी अवस्थामें उनकी बहिनें थीं। उनने आकर कहा 'हे भाई ! हाथीकी पीठसे उतरो, हाथीपर चढ़े हुए केवलज्ञान नहीं होता है-वीरा मोरा गज थकी उतरो, गज चढये केवल न होय रे !' यह सुनकर बाहुबली चौंक पड़े। यह बात अभिमानरूपी हाथीको थी। अन्तमें भावना शुद्ध होनेसे उन्हें वहीं केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तदनन्तर वे श्रीऋषभदेव भगवान्के पास गये और उनको वन्दन करके केवलियोंकी परिषद्म विराजित हुए।
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- ३ अभयकुमार :-ये श्रेणिक राजाके पुत्र थे। इनकी माताका नाम सुनन्दा था। बाल्यावस्थामें ही खाली कुएँ में गिरी हुई अँगूठीको अपने बुद्धि-चमत्कारसे ऊपर ले आये, जिससे प्रसन्न होकर श्रेणिक राजाने इनको मुख्य-मन्त्री बनाया। ये औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिको और पारिणामिकी-इन चारों बुद्धियोंके स्वामी थे। पिताके कार्य में इन्होंने बहुत सहायता की थी। अन्तमें प्रभु महावीरसे दीक्षा ले, उत्कृष्ट तपकर मोक्ष प्राप्त किया । आज भी व्यापारीवर्ग शारदा-पूजनके समय अपनी बहीमें 'अभयकुमारकी वृद्धि हो' यह वाक्य लिखकर इनका स्मरण करता है ।
४ ढढणकुमार :-ये श्रीकृष्ण वासुदेवकी ढंढणा नामक रानीके पुत्र थे। इन्होंने बाईसवें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथसे दीक्षा ग्रहण की थी, परन्तु पूर्व-कर्मके उदयसे शुद्ध भिक्षा नहीं मिलती थी, इसलिये अभिग्रह किया कि 'स्वलब्धिसे भिक्षा मिले तब ही लेनी ।' एक समय भिक्षाके लिये ये द्वारिकामें फिरते थे, उस समय श्रीकृष्णने वाहन (रथ)से नीचे उतरकर भक्तिभावसे बन्दन किया। यह देखकर किसी श्रेष्ठिने उनको उत्तम मोदक वहोराये ( भिक्षामें दिये ); परन्तु 'यह आहार स्वलब्धिसे नहीं मिला,' ऐसा प्रभुके मुखसे जानकर, उसको कुम्हारकी शालामें परठवनेके हेतु चले। उस समय उत्तम भावना करनेसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।
५ श्रीयक :-ये शकडाल मन्त्रीके पुत्र और स्थूलभद्र के छोटे भाई थे। पिताकी मृत्युके अनन्तर नन्दराजाका मन्त्रीपद इनको प्राप्त हुआ था । धर्मपर अतीव अनुराग होनेसे लगभग सौ जिनमन्दिर और करीब तीनसौ धर्मशालाएँ बनवाई थी तथा अन्य भी धर्मके अनेक कार्य किये थे । अन्तमें इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और पर्युषण-पर्वमें उपवासका आराधन करते हुए कालधर्मको प्राप्त हुए।
६ अणिका-पुत्र आचार्य :-उत्तर मथुरामें देवदत्त नामका एक वैश्य रहता था। वह धन कमानेके लिये दक्षिण-मथुरामें आया और
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वहाँ अणिकाके साथ उसके लग्न हुए । वहाँसे वापस उत्तर-मथुरामें जा समय अणिकाने मार्ग पुत्रको जन्म दिया और उसका नाम सन्धीरण रखा, परन्तु जनतामें वे अणिकापुत्र के नामसे प्रसिद्ध हुए । योग्य आयुमें जयसिंह आचार्यसे दीक्षा ग्रहणकर क्रमानुसार वे आचार्य हुए। कुछ समय पश्चात् पुष्पचूल राजा को रानी-पूष्पचूलाने इनसे प्रतिबोध प्राप्तकर दीक्षा लो। एक समय दुष्काल पड़नेसे अन्य मुनिगण तो देशान्तर चले गये, किन्तु अणि का-पुत्र आचार्य वृद्ध होनेके कारण पुष्पचूल राजाके आग्रहसे वहीं रहे । पुष्पचूला उनकी वैय्यावृत्य करती थी, ऐसा करते-करते उसको केवलज्ञान हुआ। इस बातका आचार्यको समाचार मिला, तब उन्होंने केवली पुष्पचूलासे क्षमा माँगी और अपना मोक्ष कब होगा, यह प्रश्न पूछा ? इसका उत्तर मिला कि 'गङ्गा नदो पार उतरते समय तुम्हें मोक्ष प्राप्त होगा।' थोड़े समयके बाद जब वे अन्य मनुष्योंके साथ नौकामें बैठ कर गङ्गा नदी पार कर रहे थे तब जिस ओर आचार्य थे, उसी ओरसे नौका भारी होने लगी। इससे लोगोंने उनको उठा कर नदीमें फेंक दिया, परन्तु समभावमें स्थिर रहनेसे उसी समय उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन आचार्यका शरीर तिरता हुआ नदीके किनारे आ गया। उस स्थान पर कुछ समयके अनन्तर पाटल नामक पौधा लग गया कि जहाँ कालान्तरमें पाटलिपुत्र नामका सुन्दर नगर बसा ।
७ अतिमुक्त मुनि :-पेढालपुर नगरमें विजय नामका राजा राज्य करता था। उसके श्रीमती नामकी रानी थी। उसको एक पुत्र हुआ। उसका नाम अतिमुक्त रखा। इस कुमारने आठ वर्षकी अवस्थामें मातापिताकी अनुमति लेकर श्रीगौतमस्वामीसे दीक्षा ली थी। ये एक समय प्रातःकालमें कुछ समयसे पूर्व गोचरी करनेके लिये निकले और एक सेठके यहाँ गये, तब सेठको पुत्रवधूने कहा कि 'अभी कैसे ? क्या बिलम्ब हो गया क्या ?' शब्द द्वयर्थक थे। गोचरी और दीक्षा दोनोंको लागू पड़ते थे। मुनि उनका मर्म समझ कर बोले कि 'मैं जो जानता हूँ, वह नहीं जानता।' यह सुनकर चतुर पुत्रवधू विचारमे पड़
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गयो । अन्तमें मुनिने उसका मर्म समझाया कि मरण निश्चित है, यह बात मैं जानता हूँ, किन्तु कब होगा, यह मैं नहीं जानता। एक समय वर्षा होने के पश्चात् अन्य बालकोंके साथ ये बालमुनि भी पत्तोंकी नाव बना कर पानीमें तिराने लगे। उस समय श्रीगौतमस्वामी उधरसे निकले, उन्हें उनके मुनिधर्मका ध्यान आया और सहसा ये लज्जित हो गये। फिर श्रीमहावीर प्रभु के पास जाकर 'ईरियावहिया' आलोचन करते हुए 'दगमट्टी दगमट्टी' ऐसा शब्दोच्चार करने लगे तब पृथ्वीकाय तथा अप्कायके जीवोंसे क्षमा माँगते हए पापका अत्यन्त पश्चात्ताप होनेसे भावनाकी परम विशुद्धि हुई और केवलज्ञानी हुए।
८ नागदत्त ( १ ) :-वाराणसी नगरीमें यज्ञदत्त नामका एक सेठ रहता था, उसकी धनश्री नामकी स्त्री थी। उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम नागदत्त रखा गया। उसका विवाह नागवसु नामकी कन्याके साथ हआ। एक समय नगरका राजा अपना घोड़ा दौड़ाता हुआ जा रहा था, तब उसके कान मेंसे एक कुण्डल नीचे गिर गया। उसी मार्ग से होकर नागदत्त निकला, परन्तु उसको दूसरेकी वस्तु नहीं लेने की प्रतिज्ञा थी, इससे वह कुण्डलपर दृष्टि डाले बिना चला गया और उपाश्रयमें जाकर कायोत्सर्गमें स्थिर रहा । इसी समय नगरका कोटवाल { कोतवाल ) जो इनकी पत्नीको चाहता था, वहाँसे निकला और उसने वह कुण्डल नागदत्त के पास जाकर रख दिया।
राजाने देखा तो कुण्डल मिला नहीं। फिर कोतवालने ढूँढ़नेका बहाना करके कहा कि 'महाराज ! आपका कुण्डल नागदत्तके पाससे मिल गया है' इसलिए उसको शूलीपर चढ़ाया गया, किन्तु सत्यके प्रभावसे शूलीका सिंहासन हो गया और शासनदेवीने प्रकट होकर कहा कि-'यह नागदत्त उत्तम पुरुष है, यह प्राण जानेपर भी दूसरेको वस्तुका स्पर्श नहीं कर सकता । पहले धनदत्त सेठ ने इसकी एकसौ सोनेकी मोहरें रख ली थीं और अभी कोतवालने इस पर झूठा आरोप लगाया है।' यह सुनकर राजाने उन दोनोंको दण्ड दिया।
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अन्तमें नागदत्तने दीक्षा अङ्गीकृत की और सर्व कर्मोंका क्षय करके - केवलज्ञान प्राप्त किया तथा मोक्षलक्ष्मी का स्वामी हुआ ।
नागदत्त ( २ ) : – लक्ष्मीपुर नगर में दत्त नामका एक सेठ था । उसकी स्त्रीका नाम देवदत्ता था | उसके एक पुत्र हुआ । जिसका नाम नागदत्त रखा । वह नागकी क्रीडामें अत्यन्त निपुण था । एक समय उसको प्रतिबोध करानेके लिये उसका देवमित्र गारुडीका रूप लेकर उसके निकट आया और वे परस्पर एक दूसरेके सर्पोको खिलाने लगे। तब गारुडीको तो कुछ भी नहीं हुआ, परन्तु नागदत्त गारुडीके सर्पोंके दंशसे मूच्छित हो गया; तब गारुडिकने उसको जिलाया और अपना पूर्वभव सुनाया कि हम दोनों पूर्वभव में मित्रदेव थे । इससे नागदत्तको जाति स्मरण हुआ और उसने दीक्षा ग्रहण की । तदनन्तर क्रोध - मान-माया - लोभरूपी अन्तरङ्ग शत्रुओं को वश में करके मुक्तिको प्राप्त हुए ।
९ मेतार्यमुनि :- ये चाण्डालके यहाँ उत्पन्न हुए थे, किन्तु इनका लालन-पालन राजगृहीके एक श्रीमन्तके घर हुआ था । पूर्वजन्म के मित्रदेवकी सहायता से अद्भुत कार्य सिद्ध करनेसे महाराजा श्रेणिकके जामाता बने थे । बारह वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत कर अट्ठाईस वर्षकी आयु में दीक्षा ग्रहण की। एक समय किसी सुनारके यहाँ गोचरी लेनेको गये । वह सुनार सोनेके अलङ्कार -जव बना रहा था, उन्हें छोड़कर घर के अन्दर आहार लेने गया । इतनेमें क्रौञ्च पक्षी आकर वे जब चुग गया । सोनी बाहर आया और जव न देखकर मुनिके प्रति शङ्कित हो पूछने लगा कि 'महाराज ! सुवर्णके जव कहाँ गये ?' महात्मा मेतार्य मुनिने सोचा कि 'यदि मैं पक्षीका नाम लूँगा तो यह सुनार उसको अवश्य मार डालेगा' इसलिये मौन रहे । उन्हें मौन देखकर सुनारकी शङ्का पक्की हो गयी और उनको स्वीकृत कराने के विचारसे मस्तकपर गीले चमड़े की पट्टी खूब कसकर बाँधी तथा धूप में खड़ा रखा । उस पट्टीके सकुचित होनेसे तथा मस्तकपर रक्तका दबाव बढ़ जानेसे असह्यपीडा होने
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२१९ लगी, परन्तु उसको कर्म-क्षयका उत्तम मार्ग मानकर वे कुछ भी नहीं बोले । अन्तमें उनके दोनों नेत्र बाहर निकल पड़े। इस असह्य वेदनाको समभावसे सहन करनेके कारण उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
१० स्थूलभद्र :-ये नन्दराजाके मन्त्री शकडालके ज्येष्ठ पुत्र थे और यौवनावस्थामें कोशा नामकी गणिकाके मोहमें फँस गये थे। कालान्तरमें वैराग्य प्राप्तकर आचार्य सम्भूतिविजयसे दीक्षा ग्रहण की। श्रीभद्रबाहुस्वामीसे इन्होंने दशपूर्वका ज्ञान प्राप्त किया था। एक समय इनकी चिरपरिचिता कोशा वेश्याके यहाँ गुरुको आज्ञासे चातुर्मास किया और सब प्रकारके प्रलोभनोंका सामना करके अपने संयम-नियममें सम्पूर्ण सफलता प्राप्त करने के साथ ही इन्होंने कोशाको भी संयममें स्थिर रखा। गुरुने इनके कार्यको 'दुष्कर, दुष्कर, दुष्कर' कहा था।
११ वज्रस्वामी :-तुम्बवनमें इनका जन्म हुआ था। पिताका नाम धनगिरि और माताका नाम सुनन्दा था। इनके जन्म लेनेसे पूर्व ही पिता धनगिरिने दीक्षा ग्रहण की। एक बार वे भिक्षाके लिये अपने पहलेवाले घरपर आये, तब बालकके बहुत रोनेसे परेशान होकर माताने वह बालक मुनि ( पिता )को बहोरा दिया। बालकका नाम गुरुने वज्र रखा। कुछ वर्षों के अनन्तर माताने बालकको वापस लेनेके हेतु राजद्वारमें आवेदन किया; किन्तु राजाने बालककी इच्छानुसार न्याय दिया और वज्रस्वामी साधुओंके समुदायमें विद्यमान रहे। बाल्यवयमें ही इन्होंने पठन-पाठन करती हुई आर्याओंके मुखसे श्रवणकर पदानुसारी लब्धिसे ग्यारह अङ्ग याद कर लिये थे। इन्होंने अपने संयमसे प्रसन्न बने हुए मित्र देवोंसे आकाशगामिनी विद्या और वैक्रियलब्धि प्राप्त की थी।
इनके समयमें बारहवर्षी भयङ्कर दुष्काल पड़ा, जिसमें इनके पाँचसौ शिष्य गोचरी नहीं मिलने के कारण अनशन कर कालधर्मको प्राप्त हुए थे। ये आयसिंहगिरिके शिष्य और प्रभु महावीरके तेरहवें पट्टधर थे। दसवें
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पूर्वधरके रूपमें ये अन्तिम माने जाते हैं । शासन-- सेवा के अनेक कार्य कर अनशन--पूर्वक कालधर्मको प्राप्त हुए ।
१२ नन्दिषेण : - इस नाम से दो महापुरुषोंके चरित्र प्राप्त होते हैं, एक तो अद्भुत वैयावृत्त्य करनेवाले नन्दिषेण; कि जिनको देवता भी डिगा नहीं सके और दूसरे श्रेणिक राजाके पुत्र नन्दिषेण कि जिन्होंने प्रभु महावीरकी देशनासे प्रतिबोध प्राप्त करके दीक्षा ली थी । उग्र तपश्चर्याके कारण इनको कुछ लब्धियाँ प्राप्त हुई थीं । ये एक बार गोचरीके प्रसङ्गसे एक वेश्याके यहाँ चले गये और 'धर्मलाभ' कहकर खड़े रहे । वेश्या बोली : - 'हे मुनिराज ! तुम्हारे धर्मलाभको मैं क्या करूँ ? यहाँ तो द्रव्य लाभको आवश्यकता है !' यह सुनकर मुनिने एक तिनका खींचा जिससे लगातार सुवर्णकी वृष्टि हुई। यह देखकर वेश्या बोली - हे प्रभो ! मूल्य देकर ऐसे ही नहीं जाया जाता । मुझपर दया करो ! आप चले जायँगे तो मेरे मरणसे आपको स्त्रीहत्या लगेगी, आदि ।' मुनि धर्मका उल्लङ्घन करके भी वेश्याके यहाँ रहे, किन्तु इस बार ऐसा अभिग्रह किया कि प्रतिदिन दस पुरुषों को उपदेश देकर, धर्म में श्रद्धायुक्त बनाकर प्रभुके निकट भेजना । बारह वर्ष तो इस प्रकार व्यतीत हुए; किन्तु एक दिन ऐसा आया कि दसवाँ व्यक्ति समझा नहीं । नन्दिषेणने बहुत परिश्रम किया किन्तु वह सब व्यर्थ गया । तब वेश्याने विनोद करते हुए कहा कि 'स्वामिन् दसवें आप।' इसी समय मोहनिद्रा टूट जाने से नन्दिषेणने पुनः दीक्षा ग्रहण की और आत्मकल्याण किया ।
१३ सिंहगिरि : - ये प्रभु महावीरके बारहवें पट्टपर विराजने वाले प्रभावशाली आचार्य थे और श्रीवज्रस्वामीके गुरु थे ।
१४ कृतपुण्यक ( कयवन्ना सेठ ) : - ये पूर्वजन्म में मुनिको दान देनेसे राजगृही नगरीमें धनेश्वर नामक श्रेष्ठिके यहाँ पुत्ररूपमें अवतरित हुए। फिर अनुक्रमसे इन्होंने श्रेणिक राजाका आधा राज्य प्राप्त किया तथा उनकी पुत्री मनोरमाके स्वामी बने । संसारके अनेक भोग भोगनेके पश्चात्
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२२१ प्रभु महावीरके मुखसे अपने पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनकर इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और विविध तप करके अपनी आत्माका कल्याण किया। आज भी 'कयवन्ना सेठका सौभाग्य हो' ऐसे शब्द नये वर्षकी बहीमें लिखे जाते हैं। . १५ सुकोशलमुनि :-ये अयोध्याके राजा कीर्तिधरके पुत्र थे। इनकी माता का नाम सहदेवी था। पहले कीर्तिधरने दीक्षा ली और बादमे उनका उपदेश सुनकर इन्होंने दीक्षा ली थी। इनकी माता सहदेवी पति
और पत्रका वियोग असह्य होनेके कारण आतध्यान करती हई मरणको प्राप्त होकर, एक जङ्गलमें सिंहिनी हुई । एक बार दोनों राजर्षि उसी जङ्गलमें गये और कायोत्सर्ग ध्यानमें खड़े रहे, तब इस सिंहिनीने आकर सूकोशल मुनिपर आक्रमण किया और उनके शरीरको चीर डाला, परन्तु ये धर्मध्यानसे तनिक भी विचलित नहीं हुए। इस प्रकारकी अचल और प्रबल धर्मभावना होनेसे अन्तकृत् केवली हुए और मोक्षमें गये ।
१६ पुण्डरीक :-पिताने ज्येष्ठ पुत्र पुण्डरीकको राज्य सौंपकर संयम धारण किया, तब कनिष्टपुत्र कण्डरीकने उनके साथ दीक्षा ली, परन्तु उसका पालन न हो सकनेसे वह चारित्रभ्रष्ट होकर घर आया। पुण्डरीकने देखा कि छोटे भाई की लालसा राज्यासनमें है, अतः इन्होंने कुछ भी आनाकानी किये बिना राज्यासन उसको सौंप दिया और स्वयं दीक्षा लेकर निवृत्त हो गये। कण्डरीकको उसी रात्रिमें अत्याहारके कारण विषचिका हो गयी और मृत्युको प्राप्त हो सातवें नरकमें गया। जब कि पुण्डरीकमुनि भाव-चारित्रका पालन कर सर्वार्थसिद्ध विमानमें देवत्वको प्राप्त हुए।
१७ केशी:-ये श्रीपार्श्वनाथ स्वामीको परम्पराके गणधर थे। प्रदेशी जैसे नास्तिक राजाको इन्होंने प्रतिबोध दिया था तथा श्रीगौतमस्वामीके साथ धर्मचर्चा की थी। अन्तमें प्रभु महावीरके पाँच महाव्रत स्वीकृतकर सिद्धिपदको प्राप्त हुए।
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१८ राजर्ष करकण्डू : - चम्पानगरीके राजा दधिवाहनकी रानी पद्मावती के ये पुत्र थे । जब ये गर्भ में थे, तब राजा रानीका दोहद पूरने - के लिये रानी के साथ हाथीपर बैठकर फिरने निकला । इतने में हाथी उन्मत्त होकर जङ्गलकी ओर भागा। तब राजा तो जैसे-तैसे हाथी के ऊपरसे उतर गया और राज्य में वापस लौट आया, किन्तु रानी सूचनानुसार नहीं उतर सकी । हाथीने उसको घोर जङ्गल में छोड़ दिया तब रानी अत्यन्त प्रयाससे जङ्गलके बाहर आयी और साध्वियोंकी बस्ती में गयी । वहाँ साध्वियों का उपदेश सुनकर दीक्षा ग्रहण की। कुछ समय के बाद पुत्रका प्रसव हुआ उसको श्मशानमें छोड़ दिया । चाण्डालने उसको पालपोसकर बड़ा किया । शरीरमें खुजली ( कण्डू ) अधिक चलनेके कारण इनका नाम करकण्डू पड़ा । धीरे धीरे ये कञ्चनपुरके राजा हुए और दधिवाहनने इनका परिचय प्राप्तकर चम्पापुरीका राज्य भी इनको दिया । एक समय वृद्ध वृषभको देखकर इन्हें बोध हुआ और जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । इस प्रसङ्गसे राज्य छोड़ दिया और शुद्ध चारित्रका पालनकर आत्म-कल्याण किया । ये पहले प्रत्येक बुद्ध गिने जाते हैं ।
१९-२० हल्ल - विहल्ल : - हल्ल और विहल्ल ये दोनों श्रेणिककी पत्नी चेल्लणारानीके पुत्र थे । श्रेणिकने अपना सेचनक हाथी इनको दिया था, इसलिये कोणिकने इनके साथ युद्ध किया था । इस युद्ध में वैशाली - पति चेटक महाराजाने हल्ल- विल्लकी सहायता की थी, किन्तु युद्धके मध्य में सेचनकके खाईमें गिरकर मर जानेसे इन्हें वैराग्य हो गया, अतः प्रभु महावीरसे दीक्षा ग्रहणकर आत्म-कल्याण किया ।
२१ सुदर्शन सेठ : - इनके पिताका नाम अर्हद्दास और माताका नाम अर्हद्दासी था । ये बारहव्रतधारी श्रावक थे । परदारा-विरमण-व्रतके विषय में इनकी कठिन परीक्षा हुई थी एक समय ये पोषधव्रत लेकर ध्यानमें खड़े थे, तब राज-रानी अभयाकी सूचनासे दासी इनको राजमहल में उठा ले गयी और इनको विचलित करनेके लिये अनेक उपाय किये,
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२२३ पर सबसे निष्फल होनेसे इनपर शीलभङ्गका मिथ्या आरोप लगाया, जिसके फल-स्वरूप राजाने इनको शूलीपर चढ़ानेका दण्ड दिया; किन्तु शीलके प्रभावसे शूलीका सिंहासन बन गया और इनका जय-जयकार हुआ । तदनन्तर वैराग्य हो जाने से दीक्षा ग्रहण की। .. २२-२३ शाल-महाशाल :-इस नामके दो भाई थे। उनमें परस्पर अत्यन्त प्रीति थी। दोनों भाइयोंने राज्यको तृणवत् मानकर अपने भानजे गांगलिको राज्य सौंपकर दीक्षा ग्रहण की। उसके पश्चात् गांगलि और उसके माता-पिताको भी प्रतिबोध दिया। अन्तमें केवली होकर मोक्ष में गये।
२४ शालिभद्र :-पूर्वभवमें मुनिको क्षीरदान देनेके कारण राजगृही नगरीके अतिधनिक सेठ गोभद्र और भद्रा सेठानीके यहाँ पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए। ये अतुल सम्पत्ति तथा उच्चकुलकी ३२ सुन्दरियोंके स्वामी थे। गोभद्र सेठ प्रभु महावीरसे दीक्षा ग्रहण कर, उत्तम चारित्रका पालनकर मृत्युके बाद स्वर्गमें गये और वहाँ से प्रतिदिन अपने पुत्रके लिये दिव्य वस्त्र तथा आभूषणादि भोग-सामग्री पूरी करने लगे। एक समय श्रेणिक महाराजा उनको स्वर्गीय ऋद्धि देखने के लिये आये, जिससे अपने ऊपर भी स्वामी हैं, यह जान वैराग्य को प्राप्त हो, सर्वस्वका परित्यागकर प्रभु महावीरसे दीक्षा ले, उग्र तप कर, आत्म-साधना की।
२५ भद्रबाहुस्वामी :-ये चौदहपूर्व के जानकार थे, आवश्यकादि दस सूत्रोंपर इन्होंने नियुक्ति रची है। तथा इन्हींने सङ्घको विज्ञप्तिसे श्रीस्थूलभद्र को पूर्वोका ज्ञान दिया था।
२६ दशार्णभद्र राजाः-दशाणपुरके राजा थे। इनको नित्य त्रिकाल जिनपूजनका नियम था । एक बार अभिमानपूर्वक अपूर्व समृद्धिसे युक्त हो वीरप्रभुके वन्दनार्थ जाते हुए इन्द्रकी समृद्धि देखकर इनके गर्वका खण्डन हुआ और वैराग्य जागृत होनेसे वहीं दीक्षा ग्रहण की।
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२७ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि :-इनके पिता का नाम सोमचन्द्र और माताका नाम धारिणी था। इन्होंने अपने वालकुमारको राज्यासन देकर दीक्षा ग्रहण की थी। एक समय ये राजगृहीके उद्यानमें कायोत्सर्ग करते थे, इतने में सुना कि चम्पानगरोके दधिवाहन राजाने उसकी नगरीको घेर रखा है और अपना पुत्र जो अभी बालक है उसको मारकर राज्य ले लेगा।' इस कारण राज्य तथा कुमारके प्रति मोह उत्पन्न होनेसे तथा उसकी रक्षाका विचार करते करते मानसिक-युद्ध खेलने से कुछ ही समयमें सातवें नरकके योग्य कर्म एकत्रित किये, किन्तु पुनः विचारश्रेणी बदल जानेसे उन सब कर्मोका क्षय कर दिया और वहीं केवलज्ञान प्राप्त किया। ___२८ श्रीयशोभद्रसूरि :- ये श्रीशय्यम्भवसूरिके शिष्य और भद्रबाहु स्वामीके गुरु थे। इन्होंने चारित्रका सम्यग् आराधन किया था।
२९ श्रीजम्बूस्वामी :-अखण्ड बालब्रह्मचारी और अतुल वैभवत्यागी। निःस्पृह और वैराग्य-वासित होने पर भी माता-पिताके आग्रहसे आठ कन्याओंसे विवाह किया था, परन्तु पहली ही रात्रिमें उनको उपदेश देकर वैराग्य उत्पन्न किया। इसी समय पाँचसौ चोरोंके साथ चोरी करनेको आया हुआ प्रभव नामक चोरोंका स्वामी भी इनके उपदेशसे पिघल गया। दूसरे दिन सबने साथ मिलकर सुधर्मास्वामीसे दीक्षा ग्रहण की। धीरे धीरे इनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। ये इस युगके, इस क्षेत्रके, अन्तिम केवली गिने जाते हैं। श्रीसुधर्मा स्वामीके बाद जैन शासनका पूर्ण भार इन्होंने वहन किया था। श्रीसुधर्मा स्वामीने आगमोंका गुम्फ इन्हींको उद्देश करके किया था ।
३० कुमार वचूल :-विराट देशका राजकुमार। इन्हें बाल्यका लसे ही जुआ, चोरी आदि महाव्यसन की लत पड़ गई थी। पिताने परेशान होकर देश निकाला दिया। तब ये अपनी पत्नी ( तथा एक बहिन के साथ जङ्गलमें रहने लगे। फिर वहीं पल्लीपति हो गये। एक समय इनको पल्ली में मुनिने चातुर्मास किया। चातुर्मास पूर्ण होनेके पश्चात् मुनिके
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उपदेश से इन्होंने (१) अपरिचित फल नहीं खाना, (२) प्रहार करनेसे पूर्व सात कदम पीछे हटना, (३) राजाकी पटरानी के साथ सांसारिक भोग नहीं भोगना तथा ( ४ ) कौएका मांस नहीं खाना, ये चार नियम ग्रहण किये और अन्त तक इनका दृढ़तापूर्वक पालन किया, जिससे मरकर बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए ।
३१ गजसुकुमाल :- श्रीकृष्णके छोटे भाई । बाल्यावस्था में वैराग्य हुआ । माता-पिताने मोहपाश में बाँधनेके लिये विवाह कर दिया । परन्तु शीघ्र ही संसारका त्याग करके श्रीनेमिनाथप्रभुके निकट जाकर इन्होंने दीक्षा ग्रहण की; और उनकी आज्ञा लेकर श्मशान में कायोत्सर्ग करके ध्यान में खड़े रहे । इतनेमें इनका श्वसुर सोमशर्मा ब्राह्मण उधरसे निकला । वह गजसुकुमालको मुनिवेशमें ध्यानमग्न देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने अपनी पुत्रीका जीवन बिगाड़नेके कारण इनको योग्य दण्ड देनेका निर्णय किया । अतः वहाँ पास में ही जो चिता जल रही थी, उसमें से धधकते हुए अङ्गारे ले कर, इनके मस्तक पर रख दिये । गजसुकुमाल इससे तनिक भी क्षुब्ध नहीं हुए । अपि तु मनको ध्यान में और भी दृढ़ किया । ऐसा करने से ये अन्तकृत् केवली हुए और मोक्षमें गये ।
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३२ अवन्तिसुकुमाल :- अवन्ति - सुकुमार । इनके पिताका नाम भद्र और माताका नाम भद्रा था । ये उज्जयिनीके निवासी थे और इनके बत्तीस पत्नियाँ थीं। एक बार आर्य सुहस्तिसूरि के समीप 'नलिनीगुल्म' अध्ययन सुनते हुए जाति स्मरण-ज्ञान उत्पन्न हुआ और सब वैभव छोड़कर उन्हींसे दीक्षा ग्रहण की । तदनन्तर श्मशानभूमिमें कायोत्सर्गध्यान में मग्न थे तब एक सियारने इनके शरीर में काट खाया, परन्तु ये ध्यान से बिलकुल डिगे नहीं। फिर शुभ ध्यानमें मृत्युको प्राप्त हो, नलिनीगुल्म विमानमें देव हुए । इनके मृत्यु- स्थल पर माता-पिताने एक बड़ा प्रासाद बँधवाकर उसमें पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा करवायी, जो 'अवन्तिपार्श्वनाथ' के नामसे प्रसिद्ध हैं ।
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३३ धन्यकुमार :-इनके पिताका नाम धनसार और माताका नाम शीलवती था। इन्होंने अपने बुद्धिबलसे अक्षय लक्ष्मी उपाजित की थी। कालान्तरमें अपनी आठ पत्नियों का त्याग करके अपने साले शालिभद्रके साथ दीक्षा ग्रहण की और उग्र तपश्चर्या की।
३४ इलाचीपुत्र :-ये श्रेष्ठि-पुत्र होते हुए भी एक नटकी पुत्रीके मोहमें पड़ गये और उसके साथ विवाह करनेके लिये नटकी इच्छानुसार नट बने थे। अपनी अद्भुतकलासे राजाको प्रसन्न करनेके लिये एक बार ये बेन्नातट नगरमें गये । वहाँ बांस और रस्सीपर चढ़कर अद्भुत खेल करने लगे, किन्तु नटपुत्री को देखकर मोहित बना हुआ राजा प्रसन्न नहीं हुआ । इतने में दूर एक मुनिको देखा। उन्हें एक रूपवती स्त्री भिक्षा दे रही थी, किन्तु वे ऊँची दृष्टि करके भी उसको नहीं देख रहे थे। यह देखकर इन्हें वैराग्य हुआ। और वैसी ही भावना करनेसे वहीं केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
३५ चिलाती-पुत्र:-चिलाती नामकी दासीके पुत्र । ये पहले एक सेठके यहाँ नौकरी करते थे, पर सेठने अपलक्षण देखकर इनको निकाल दिया, तब ये जङ्गलमें जाकर चोरोंके सरदार बने । इनको सेठकी सुषमा नामक पुत्री पर मोह था; इससे एक बार सेठके घर डाका डाला और पुत्रीको उठा ले गये । अन्य चोरोंने दूसरा धन-माल लूटा। इतने में कोलाहल होनेसे राज्यके सिपाही आ पहुँचे। उनके साथ सेठ तथा सेठके पाँचों पुत्रोंने पीछा किया। तब अन्य चोर धन-माल मार्ग में छोड़कर भाग गये। सिपाही वह धन लेकर लौट गये, पर चिलातीने सुषमाको नहीं छोड़ा और वह जङ्गलमें चला गया। सेठने अपने पुत्रोंके साथ उसका बराबर पीछा किया । जब समीप आ गये, तो उनको देखकर चिलातीने सुषमाका सिर काट लिया और धड़ वहीं पड़ा रहने दिया। सेठ उसको देखकर रुदन करता हुआ वापस लौट आया। चिलातीपुत्रको अब कुछ शान्ति मिली। धीरे-धीरे वह जङ्गलमें चलने लगा। वहाँ एक मुनिको
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ध्यानमें स्थित देखा। उन्होंने चिलातीपुत्रको तीन पद दिये-“उपशम, विवेक और संवर ।' और आकाशमार्गसे चले गये। उक्त तीन पदोंका अर्थ विचारते हुए चिलातीपुत्र वहीं खड़ा रहा और शुभ ध्यानमें मग्न हो गया। उसका शरीर लहूसे भरा हुआ था । अतः लहूकी गन्धसे चींटियाँ आ पहुँची और काटने लगीं, परन्तु वह ध्यानसे विचलित नहीं हुआ। ढाई दिनमें तो उसका शरीर छलनी जैसा हो गया। किन्तु उसने सारे दुःखोंको समभावसे सहन कर लिया और मृत्युके पश्चात् स्वर्गको गया ।
३६ युगबाहु मुनि :-पाटलिपुत्र नामके नगरमें विक्रमबाहु नामका राजा था। उसकी मदनरेखा नामकी रानी थी। प्रौढावस्थामें उसके पुत्र हुआ। उसका नाम युगबाहु रखा गया। उनको शारदादेवी तथा विद्याधरोंकी सहायतासे अनेक विद्याएँ प्राप्त हुई थी और अनङ्गसुन्दरी नामक अत्यन्त रूपवती रमणीके साथ उनका लग्न हुआ था। तत् पश्चात् ज्ञानपञ्चमीकी विधिपूर्वक आराधना करके दीक्षा ली और उग्र तपश्चर्या करके कर्मक्षय किया, तथा केवलज्ञान प्राप्त किया।
३७-३८ आर्य महागिरि और आर्य सुहस्तिसूरि:-ये दोनों श्रीस्थूलभद्रजीके दशपूर्वी शिष्य थे। इस समयमें जिनकल्पका विच्छेद था, तो भी आर्य महागिरि गच्छमें रहकर जिनकल्पकी तुलना करते थे और आर्य सुहस्ति सङ्घका भार वहन करते थे। आर्य सुहस्तिसूरि ने कालान्तरमें अवन्तिपति सम्प्रति राजाको प्रतिबोध दिया। उस राजाने जिनदेवोंके अनेक मन्दिर बनाकर अनार्यदेशमें भी साधुओंके विहार करनेकी सरलता करके जैनधर्मकी बहुत प्रभावना की। जैनशासनका प्रभाव इनके समयमें अत्यन्त विस्तारको प्राप्त हुआ था।
३९ आर्यरक्षितसूरि :-ये विद्वान् ब्राह्मण थे। जब ये अध्ययन करके वापस लौटे तब बहुत बड़ा उत्सव हुआ। पर जैनधर्मका पालन करनेवाली माता इस अध्ययनसे प्रसन्न नहीं हुई । उसने कहा-दृष्टिवादके अतिरिक्त अन्य हिंसा प्रतिपादक शास्त्र नरकमें ले जानेवाले हैं। माता
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२२८ के ऐसे वचन सुनकर आर्य रक्षित तोसलिपुत्र आचार्य के पास गये और उक्त अध्ययनको योग्यता प्राप्त करनेके लिये जैन दीक्षा ग्रहण की। गुरुके समीप जितना दृष्टिवाद था; वह सब पढ़ लिया; फिर वज्रस्वामोके पास गये और नवपर्वका अभ्यास किया। कुछ काल पश्चात् माता-पिता आदि सारे कुटुम्बको प्रतिबोध कर दीक्षा दी। जैन श्रुतज्ञानके द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और धर्मकथानुयोग ऐसे चार विभाग इनके द्वारा हुए हैं।
४० उदायन राजर्षि :-ये वीतभय नगरीके राजा थे। अपने भानजे केशीको राजगद्दी देकर इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। इधर-उधर विहार करते-करते पुनः जब वीतभय नगरीमें आये, तब राजाके मन्त्रीद्वारा इनपर विष-प्रयोग हुआ। यद्यपि उस समय तो ये दैव-सहायसे बच गये; किन्तु बादमें विष-प्रयोग सफल हुआ। अपने को जहर दिया गया है ऐसा जानते हुए भी अन्ततक शुभ ध्यानमें रहे, और मरकर स्वर्गमें गये ।
४१ मनक:-श्रीशय्यम्भवसूरिके पुत्र और शिष्य । इनकी आयु अल्प थी, इस कारण साधुधर्मका शीघ्र ज्ञान करानेके लिए सूरिजीने सिद्धान्तोंका साररूप दशवकालिक नामका सूत्र बनाया। इस सूत्रका अभ्यासकर छः मासतक चारित्रका पालनकर स्वर्गमें गये ।
४२ कालकाचार्य (१):-तुरिमणि नगरीमें कालक नामके एक ब्राह्मण रहते थे। उनकी बहिनका नाम भद्रा था तथा भद्राके भी एक पुत्र था, जिसका नाम दत्त था। कालकने दीक्षा ली थी। एवं दत्त महान् उद्धत और सातों व्यसनोंमें पारङ्गत था, धीरे धीरे उसने जितशत्रु राजासे राज्य छीन लिया और उस राज्यका अधिपति बन बैठा । फिर उसने यज्ञ आरम्भ किया, जिसमें अनेक जीवोंका संहार होने लगा।
एक समय कालकाचार्य ( संसारी अवस्थाके उसके मामा ) फिरतेफिरते वहाँ आये तब दत्तने उनसे यज्ञका फल पूछा। तब कालकाचार्यने
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कहा कि-'ऐसा हिंसामय यज्ञ करनेसे नरककी ही गति प्राप्त होती है : दत्तने इसका प्रमाण माँगा, तब आचार्यने कहा कि 'आजसे सातवें दिन तेरे मुखमें विष्ठा पड़ेगी, यही इसका प्रमाण है।' आचार्यकी यह बात सत्य निकली, और मरकर वह सातवें नरकमें गया । जितशत्रु राजा फिरसे राज्य सिंहासनपर बैठा और उसने कालकाचार्य के उपदेशसे जैनधर्म अङ्गीकार किया।
कालकाचार्य (२) :-इनके पिताका नाम प्रजापाल था और वह श्रीपुरका राजा था। __ इनके भानजे बलमित्र और भानुमित्रके आग्रहसे इन्होंने भरुचमें चातुर्मास किया, पर पूर्वभवके वैरी गङ्गाधर पुरोहितने राजाको उलट-पुलट समझाकर युक्तिसे इनको चातुर्मासमें ही दूसरे स्थानके लिये निकलवाया, इसलिये ये वहाँसे प्रतिष्ठानपुरमें चातुर्मास करने गये। वहाँके राजा शालिवाहनने इनका नगर-प्रवेश महान् उत्सवके साथ करवाया। पर्युषणपर्व निकट होनेसे राजाने कहा कि भाद्रपद शुक्ला पञ्चमीके दिन यहाँ इन्द्रमहोत्सव मनाया जाता है इसलिये पर्युषणपर्व पहले अथवा बादमें रखना चाहिये, जिससे हम उसका आराधन कर सके। तब कालकाचार्यने कहा कि-विशिष्ट कारण उपस्थित होनेपर चतुर्थीके दिन इसका आराधन हो सकता है । तबसे पञ्चमीके स्थानपर चतुर्थीकी संवत्सरी हुई।
श्रीसीमन्धर स्वामीने इद्रके समक्ष कालकाचार्यकी प्रशंसा की कि'निगोदका स्वरूप कहने में उनके जैसा दूसरा कोई नहीं है।' यह सुनकर इन्द्र ब्राह्मणका रूप लेकर इनके पास आया और इनसे निगोदका स्वरूप पूछा। कालकाचार्यने सब यथार्थ रूपमें कह दिया, जिससे इन्द्र प्रसन्न होकर स्वस्थानपर चला गया।
कालकाचार्य (३):-इनके पिताका नाम वज्रसिंह और माताका नाम सुरसुन्दरी था। ये मगध देशके राजा थे। इन्होंने गुणधरसूरिसे दीक्षा ग्रहण की थी। इनकी बहिन सरस्वतीने भी इन्हींके साथ दीक्षा ली थी।
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एक समय ये उज्जयिनोमें आये, तब सरस्वती साध्वी भी वहाँ आयी थी। वह साध्वी जब बाहर जाकर पुनः शहरमें आरही थी, तो वहाँके राजा गर्दभिल्लने उसको अत्यन्त स्वरूपवती देख, पकड़वाकर महलमें भिजवा दिया। इस बातका समाचार मिलते ही सूरिजीने सङ्घको खबर दी तथा अन्य अनेक प्रकारोंसे राजाको समझाया, परन्तु दुराचारी राजा समझा नहीं, तब सूरिजीने वेश-परिवर्तन कर पारस-कूलकी ओर जाकर वहाँके ९६ शक राजाओंको प्रतिबोध देकर गर्दभिल्लपर चढ़ाई करवायी और उसको हराकर सरस्वती साध्वीको छुड़ाया। .... ये कालकाचार्य महाप्रभावक थे।
४३-४४ साम्ब और प्रद्युम्न :-ये दोनों श्रीकृष्णके पुत्र थे। साम्बकी माता जम्बूवती थी और प्रद्युम्नकी माता रुक्मिणी थी। बाल्यकाल में अनेक लीलाएँ करके, कौमार्यावस्थामें विविध पराक्रम दिखलाकर, अन्तमें वैराग्यको प्राप्त होकर, दीक्षित हुए और शत्रुञ्जय पर्वतपर मोक्षमें गये ।
४५ मलदेव :-राजकुमारमूलदेव सङ्गीतादि कलामें निपुण थे, किन्तु बहुत जुआ खेलनेवाले थे। पिताने इनको देशनिकाला दिया, तबसे उज्जयिनीमें आकर रहने लगे। सङ्गीत-कलासे देवदत्ता नामकी गणिका तथा उसके कलाचार्य उपाध्याय विश्वभूतिको इन्होंने पराजित कर दिया था। कुछ समयके पश्चात् दानके प्रभावसे ये हाथियोंसे समृद्ध विशाल राज्य तथा गुणानुरागिणी कला-प्रिय चतुर गणिका देवदत्ताके स्वामी हुए । अन्तमें सत्सङ्ग होनेसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और चारित्रका पालनकर स्वर्गमें गये । वहाँसे च्यवित होकर मोक्षको प्राप्त होंगे।
४६ प्रभव स्वामी:-ये पूर्वोक्त श्रीजम्बूस्वामीके यहाँ लग्नकी पहली रातको पाँचसौ चोरोंके साथ चोरी करने गये, वहाँ नवपरिणीत आठ वधुओंके साथ परस्पर चलते हुए आध्यात्मिक संवादको सुनकर प्रतिबुद्ध हुए और सब चोरोंके साथ दीक्षा ग्रहण को । फिर जम्बूस्वामीने शासनका भार इनको सँभलाया। ये चौदहपूर्व के जानकार थे।
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४७ विष्णुकुमार :-इनके पिताका नाम पद्मोत्तर और माताका नाम ज्वालादेवी था। इन्होंने श्रीमुनिसुव्रत आचार्यसे दीक्षा ग्रहण की
और तपके प्रभावसे अपूर्वलब्धिवाले हुए। एक समय पहले विवादमें हारे हुए धर्मद्वेषी नमुचि प्रधानने द्वेषबुद्धिसे जैन साधुओंको राज्यकी सीमासे बाहर निकालनेकी आज्ञा की। इस बातकी जानकारी होते ही ये जैन साधुओंकी सहायता करने आये और नमुचिसे केवल तीन पग जमीनकी माँग की, उसने देना स्वीकार किया। तब क्रुद्ध विष्णुमुनिने एक लाख योजनका विराट् शरीर बनाकर एक पाँव समुद्रके पूर्व भागपर और दूसरा पाँव समुद्रके पश्चिम भागपर रखा । 'तीसरा पाँव कहाँ रखू' यह कहकर वह पाँव नमुचिके मस्तक पर रखा । जिससे वह मरकर नरकमें गया । देव, गन्धर्व, किन्नर, देवाङ्गना आदिको उपशम-रसमय मधुर सङ्गीत-प्रार्थनासे अन्तमें क्रोध शान्त हुआ। फिर तपश्चर्या करते हुए और शुद्ध चारित्रका पालन करते हुए मोक्ष गये ।
४८ आर्द्रकुमार :-ये अनार्य देशमें आये हुए आर्द्रक-देशके राजकुमार थे। इनके पिता आर्द्रक और श्रेणिक राजाको परस्पर गाढ़ मैत्री थी, इस कारण अभयकुमार आर्द्रक राजाके पुत्र आर्द्रकुमारकी भी मैत्री हो गयी । एक समय अपने मित्रको जैनधर्म प्राप्त करानेके लिये अभयकुमार द्वारा प्रेषित जिन--प्रतिमाके दर्शन होनेसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ और आर्यदेशमें आकर इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। यह दीक्षा वर्षांतक पालनेके पश्चात्, भोगावली कर्मका उदय होनेसे इनको संसारवास स्वीकृत करना पड़ा और बालकके स्नेह बन्धनसे मुक्त होनेके लिए बारहवर्ष व्यतीत करने पड़े । तदनन्तर इन्होंने फिरसे दीक्षा ली और अनेक जीवोंको प्रतिबोध दिया। इन्होंने गोशालकके साथ धर्मचर्चा करके उसको निरुत्तर किया था।
४९ दृढप्रहारी :-ये यज्ञदत्तनामक ब्राह्मणके पुत्र थे और कुसङ्गसे बिगड़ गये थे। धीरे धीरे ये प्रसिद्ध चोर बन गये। एक बार लट
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करते समय इन्होंने ब्राह्मण, माय और सगर्भा स्त्रीकी हत्या की थी, किन्तु इन बड़ी हत्याओंसे इनका हृदय द्रवित हो गया और इन्होंने संयम धारण किया । उसके पश्चात् जहाँतक पूर्व पापको स्मृति हो, वहाँतक कायोत्सर्ग करनेका अभिग्रह करके, हत्यावाले गाँवके पास ध्यानमें मग्न हो गये। वहाँ लोगोंने इनपर पत्थर, कूड़ा आदिका प्रहार किया और असह्य कठोर शब्द कहे, परन्तु ये ध्यानसे किञ्चित् भी विचलित न हुए। सारे उपसर्ग समभावसे सहन करते हुए इन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
५० श्रेयांसकुमार :-ये बाहुबलीके पौत्र थे और सोमयश राजाके पुत्र थे । इन्होंने श्रीआदिनाथप्रभुको एक वर्षके उपवास के बाद गन्नेके रसका पारणा कराया था। __ ५१ करगडूमुनि :-ये धनदत्त श्रेष्ठीके पुत्र थे और श्रीधर्मघोषसूरिसे बाल्यवयमें दीक्षित हुए थे। इनमें क्षमाका गुण अद्भुत था, किन्तु कोई तपश्चर्या नहीं कर सकते थे। एक बार प्रातःकालमें गोचरी लाकर वापरनेके लिये बैठे कि मासखमणवाले एक साधुने कहा कि–'मैंने थूकनेका पात्र माँगा, वह क्यों नहीं दिया ? और आहार वापरनेको बैठ गये ? अतः अब मैं तुम्हारे पात्रमें ही बलगम डालूंगा।' ऐसा कहकर उस साधुने पात्रमें बलगम (कफ) डाल दिया। कूरगडूमुनि इससे कुछ भी क्रुद्ध नहीं हुए। अपि तु हाथ जोड़कर बोले कि 'महात्मन् ! क्षमा कीजिये, मैं बालक हूँ; भूल हुई। मेरे ऐसे धन्य भाग्य कहाँ हैं कि आपके जैसे तपस्वीका बलगम मेरे भोजनमें गिरे !' ऐसी भावना उत्तरोत्तर बढ़नेसे इनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
५२शय्यम्भवसूरिः-श्रीप्रभवस्वामोके पट्टधर शिष्य। ये पूर्वावस्थामें कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे । श्रीप्रभवस्वामीके अनन्तर समस्त जैनशासनका भार इन्होंने वहन किया था। इनका बाल-पुत्र मनक भी इन्हींके मार्गमें पला था और उसने अल्पवयमें ही आत्म-हित साध लिया था। इस पुत्र-शिष्यको पढ़ानेके लिये सूरिजीने सिद्धान्तमेंसे सारसंग्रह-कर दशवकालिक सूत्रकी रचना की थी, जो एक पवित्र आगम माना जाता है ।
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५३ मेघकुमार:-ये श्रेणिक राजाको धारिणी नामक पत्नोके पुत्र थे। और उच्च कुलीन आठ राजकुमारियोंके साथ इन्होंने विवाह किया था। किन्तु एक समय प्रभु महावीरकी देशना सुनकर, माता-पिताकी आज्ञासे इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। प्रभुने इनको स्थविर साधुओंको सौंप दिया। ( उन साधुओंने दूसरे स्थानपर जाकर रात बितायी। ) नवदीक्षित मेघकुमारका सन्थारा अन्तिम और द्वारके समीप था। इसलिये रात्रिमें लघुशङ्कादि करनेके लिये जाते--आते साधुओंके जाने-आनेसे, उनके पैरका स्पर्श होनेसे, एवं सन्थारेमें धूल पड़नेसे सारी रात नोंद नहीं आयी। तब विचार किया कि प्रातः उठकर ये सब वस्तुएँ प्रभुको सौंपकर घर जाऊँगा । प्रातः सब साधु प्रभु महावीरको वन्दन करने गये तब मेघकुमार भी साथ थे । सर्वज्ञ प्रभु महावीरने इनके द्वारा किया हुआ दुर्ध्यान बतलाकर प्रतिबोध दिया और इनका पूर्वभव कहा तथा हाथीके भवमें खरगोशको बचानेके लिये किस प्रकार अनुकम्पा की थी, यह जानकर इनके मनका समाधान हुआ। फिर चारित्रका निरतिचार पालन करके स्वर्गमें गये और वहाँसे महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर मोक्षमें जायँगे।
महासतियाँ - १ सुलसा :-इनके पतिका नाम नागरथ था, जो श्रेणिककी सेनामें मुख्य रथिक (सारथी ) थे। प्रथम तो उसके कोई सन्तान नहीं थी, किन्तु कालान्तरमें उत्तम धर्माराधना के प्रभावसे तथा प्रसन्न हुए देवकी सहायतासे बत्तीस पुत्र हुए। ये पुत्र पढ़-लिखकर योग्यावस्थामें विवाहके पश्चात् श्रेणिकके अङ्गरक्षक बनकर रहे और श्रेणिक जब सुज्येष्ठाका हरण करने गया तब वीरतापूर्वक लड़कर मृत्युको प्राप्त हुए । ____ अपने बत्तीस पुत्रोंकी एक साथ मृत्यु होनेपर भी भवस्थितिका विचार करके सुलसाने शोक नहीं किया और पतिको भी शोकातुर होनेसे रोका।
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सुलसा भगवान् महावीरकी परम श्राविका थी। एक समय अम्बड श्रावकके साथ भगवान महावीरने सुलसा को 'धर्मलाभ' कहलाया। इससे अम्बडके विचार आया कि यह कैसी श्राविका होगी जिसको कि भगवान् महावीर धर्मलाभ कहलाते हैं ? ऐसा विचारकर अम्बडने अपनी ऐन्द्रजालिक विद्यासे सुलसाकी परीक्षा की, परन्तु वह धर्मसे तनिक भी विचलित नहीं हुई। तब उसके घर जाकर भगवान्का धर्मलाभ पहुंचाया
और उसकी धर्मके प्रति जो दृढ़ता थी उसकी प्रशंसा की। यह मरकर स्वर्गमें गयीं और वहाँसे च्यवित होकर आनेवाली चौबीसीमें निर्मम नामक 'पन्द्रहवाँ तीर्थङ्कर होंगी।
२ चन्दनबाला :-चम्पापुरीमें दधिवाहन नामक एक राजा था। उसकी रानी पद्मावती थी, जिसका दूसरा नाम धारिणी था। उसके वसुमती नामकी एक पुत्री थी। एक दिन कौशाम्बीके राजा शतानीकने उसपर चढ़ाई की जिससे डरकर दधिवाहन राजा भाग गया। सैनिकोंने उसके नगरको लूटा और धारिणी तथा वसुमतीको उठाकर ले गये । अपने शीलकी रक्षाके लिये धारिणो मार्गमें ही अपनी जीभ काटकर मर गयी। कौशाम्बी पहुँचनेके बाद वसुमतीको बाजारमें बेचनेके लिये खड़ा किया गया वहाँ एक सेठने उसको खरीद लिया। उस सेठने वसुमतीका नाम चन्दनबाला रखा। यह अति स्वरूपवती थी। इस कारण सेठकी पत्नी मूलाको शङ्का हुई कि सम्भवतः सेठ स्वयं इसके साथ विवाह करेंगे।
एक दिन सेठ जब बाहर--गाँव गया, तब मूलाने चन्दनबालाको एक तलघरमें बन्द कर दिया, उसके पैरमें बेड़ियाँ डाली और मस्तक मुंडवा दिया। इस प्रकार अन्न--जलरहित तीन दिन बीत गये। चौथे दिन सेठको खबर हुई, तब तलघर खोलकर उसको बाहर निकाला और एक सूपेमें उड़दके बाकले ( उबाले हुए उड़द ) देकर, उसकी बेड़ियाँ तुड़वानेके लिये लुहारको बुलाने गया। इधर चन्दनबाला मनमें विचार करती है कि'मेरे तीन दिनका उपवास है, इसलिये यदि कोई मुनिराज पधारें तो उनको
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बहोराकर फिर पारणा करूँ ।' इतनेमें भगवान् महावीर वहाँ पधारे, जिनको कि दस बोलका अभिग्रह था । इन अभिग्रहके बोलों में से रुदनका एक बोल कम था यह देख कर वे पीछे फिरे । इसी समय चन्दनबालाकी आँखों में आँसू आ गये, यह देख भगवान् पीछे फिरे और चन्दनबालाके हाथसे पारण किया । उसी समय आकाश में देवदुन्दुभि बजी, पञ्चदिव्य प्रकट हुए | चन्दनबाला के मस्तकपर सुन्दर बाल आ गये और लोहेको बेड़ियोंके स्थानपर सुन्दर दिव्य आभूषण हो गये । सर्वत्र चन्दनबालाका जय -- जयकार हुआ । अन्तमें चन्दनबालाने भगवान् महावीरसे दीक्षा ली और साध्वी संघ में प्रधान बनी तथा क्रमशः केवली होकर मोक्षपदको प्राप्त हुई ।
३ मनोरमा : - जिनके शीलके प्रभावसे शूलीका सिंहासन बन गया था, उन सुदर्शन सेठकी पत्नी ।
४ मदनरेखा : - मणिरथ राजाके छोटे भाई युगबाहुकी अत्यन्त स्वरूपवती सुशील पत्नी । मणिरथने मदनरेखाको विचलित करनेके लिये अनेक यत्न किये, पर वे व्यर्थ गये । अन्त में युगबाहुका खून करवा दिया, परन्तु गर्भवती मदन रेखा भाग गयी । जङ्गलमें जाकर मंदनरेखाने एक पुत्रको जन्म दिया, जो प्रत्येक बुद्धके रूपमें नमिराज ऋषिके नामसे आगे जाकर प्रसिद्ध हुआ । कुछ समय पश्चात् मदनरेखाने दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया ।
1
५ दमयन्ती : - विदर्भ - नरेश भीमराजाकी पुत्री और नलराजकी पत्नी । कथा प्रसिद्ध है ।
६ नर्मदासुन्दरी : - सहदेवकी पुत्री और महेश्वरदत्तकी स्त्री । शीलकी रक्षा के लिये इसने अनेक सङ्कटों का सामना किया था । अन्तमें श्री आर्य सुहस्तिरिसे दीक्षा ग्रहण की और अपनी योग्यतासे प्रवत्तिनीपद प्राप्त किया ।
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७ सीता :- विदेहराज जनककी पुत्री और श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी ।
कथा प्रसिद्ध है ।
राजा
माता-पितासे रूठकर धारण किया था और किया । उससे अभय
८ नन्दा ( सुनन्दा ) बेनातट नगरमें चले गये तब वहाँ गोपाल नाम धनपति नामके सेठकी पुत्री नन्दाके साथ विवाह कुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बुद्धिके लिए आज भी दृष्टान्तरूप है । नन्दाको पतिका वियोग कुछ वर्षोंतक सहन करना पड़ा, पर वह धर्मपालन और शील-रक्षणमें अडिग रही, इसलिये उसकी गणना सती स्त्रियों में होती है ।
९ भद्रा :- शालिभद्रकी माता । जैन धर्मकी परम अनुरागिनी ।
- श्रेणिक
'——
१० सुभद्रा : - इनके पिताका नाम जिनदास और माताका नाम तत्त्वमालिनी था । इनके ससुरालवाले बौद्ध होनेसे इन्हें अनेक प्रकारसे सताया करते थे, परन्तु ये अपने धर्म से लेशमात्र भी चलित नहीं हुईं । एकबार मुनिकी आँख में गिरे हुए तिनकेको निकालनेसे इनपर कलङ्क लगा, जिसको दूर करनेके लिये शासनदेवको आराधना की । दूसरे दिन नगर के सब द्वार बन्द हो गये । और आकाशवाणी हुई कि 'जब कोई सती स्त्री कच्चे सूत के तारसे छलनीद्वारा कुएमेंसे जल निकालकर छींटेगी, तब इस चम्पानगरीके द्वार खुलेंगे ।' यह असाधारण कार्य सती सुभद्राने कर दिखलाया, तबसे वे प्रातःस्मरणीया गिनी जाती हैं । अन्तमें दीक्षा लेकर मोक्षमें गयीं ।
११ राजिमती : - विवाहकके लिये आया हुआ विवाहोत्सुक कन्त वापस लौट गया, निश्चित लग्न अधूरे रह गये, किन्तु एक बार मनसे पति के रूपमें वरण किये हुएके अतिरिक्त सती दूसरेकी आशा कैसे कर सकती है ? विवाहोत्सुक कन्त संसार से विरक्त होकर जब त्यागी-तपस्वी बने, तब धर्माराधनके लिये उनका शरण अङ्गीकृत किया । मन,
वचन
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और कायासे संयमका पालनकर वे श्रीनेमिनाथकी प्रथम साध्वी बनीं। श्रीनेमिनाथके छोटे भाई रथनेमि, उग्रसेन राजाको इन सौन्दर्यवती पुत्रीको देखकर मोहको प्राप्त हुए थे और साधुव्रतके अनन्तर भी डगमगाते रहे; परन्तु इन महासतीने सुन्दर शिक्षा देकर उनको चारित्रमें पुनः स्थिर कर दिया और अन्तमें सर्व कर्मोका क्षय करके मुक्तिको प्राप्त हुए।
१२ ऋषिदत्ता :-ये हरिषेण तापसकी पुत्री थीं और कनकरथ राजाके साथ इनका विवाह हुआ था। प्राक्तन कर्मोके कारण इन्हें अनेक प्रकारकी कठिनाइयोंसे गुजरना पड़ा; पर सभीसे पार हुई और अन्तिम समयमें संयम धारणकर सिद्धिपदको प्राप्त हुई।
१३ पद्मावती:-देखो राजर्षि करकण्डू (१८)।।
१४ अञ्जनासुन्दरी:-पवनञ्जयकी पत्नी और हनुमान्की माता। इनसे विवाह करके पतिने बरसोंतक छोड़ दिया था, इससे वियोगके दिन चल रहे थे। एक समय पति युद्ध में गये, वहाँ चक्रवाक-मिथुनकी विरहविह्वलता देखकर पत्नीकी स्मृति आयी। तब पत्नीसे मिलनेके हेतु गुप्त रोतिसे वापस आये, पर इस मिलनका परिणाम आपत्तिजनक निकला। इनके पतिके आनेकी बात किसीने जानी नहीं और अञ्जनाको जब गर्भवतीके रूपमें देखा तब इनपर कलङ्क लगाया । और ये पिताके घर भेज दी गयीं, किन्तु कलङ्कवाली पुत्रीको कौन रखे ? अन्तमें वनकी राह ली । वहाँ हनुमान् नामक तेजस्वी पुत्रको जन्म दिया। सती अञ्जना शीलव्रतमें तत्पर रहीं। पति वापस लौटनेपर सब बात जानकर बहुत पछताया, और पत्नीको खोजमें निकला एवं अत्यन्त परिश्रम व प्रयत्नसे मिलाप हुआ। कालान्तरमें दोनों चारित्रका पालनकर मुक्तिपदको प्राप्त हुए।
१५ श्रीदेवी:-ये श्रीधर राजाकी परम शीलवती स्त्री थीं । एकके बाद एक, इस प्रकार दो विद्याधरोंने अपहरण कर इन्हें शीलसे डिगानेका बहुत प्रयत्न किया, परन्तु पर्वतकी तरह ये निश्चल रहीं। अन्तमें चारित्रका पालन कर स्वर्गमें गयीं और वहाँसे मोक्षमें जायँगी ।
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२३८ .... १६ ज्येष्ठा :-ये चेटक राजाकी पुत्री और प्रभु महावीरके ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धनकी पत्नी थीं। प्रभुसे लिये हुए बारह व्रत इन्होंने अटल निश्चयसे पाले थे । इनके शीलकी शक्रेन्द्रने भी स्तुति की थी। १. १७ सुज्येष्ठा :-चेटककी पुत्री । सङ्केतानुसार इन्हें लेने आया हुआ श्रेणिक राजा भूलसे इनको बहिन चेल्लणाको लेकर चला गया, इस कारण वैराग्यको प्राप्त होकर इन्होंने श्रीचन्दनबालासे दीक्षा ली और विविध तपोंका आचरण करके आत्म-कल्याण किया । - १८ मृगावती :-ये भी चेटक राजाकी पुत्री थीं और कौशाम्बीके राजा शतानीकसे इनका विवाह हुआ था। एक बार इनका केवल अंगूठा देकर किसी चित्रकारने इनका पूरा चित्र बनाया, उसे देखकर शङ्कित हुए शतानीक राजाने चित्रकारका अपमान किया, तब उस चित्रकारने वह चित्र उज्जयिनीके राजा चण्डप्रद्योतको दिखाया। फल स्वरूप चण्डप्रद्योतने शतानीक राजासे मृगावतीकी माँग की, किन्तु शतानीकने मना कर दिया । इससे कौशाम्बीपर चढ़ाई की। शतानीक उसी रात्रिको अपस्मारके रोगसे मर गया, इसीलिये मृगावतीने युक्तिसे चण्डप्रद्योतको वापस हटाया और चातुर्यसे राज्य-रक्षाके लिये राजधानी में अत्यन्त दृढ़ दुर्ग (किला) बनवाया। वहाँ प्रभु महावीरका शुभागमन होनेपर रानी मृगावतीने नगरके द्वार खोल दिये और वन्दन करनेके लिये गयो । चण्डप्रद्योत भी प्रभु महावीरके दर्शनार्थ आया । समवसरणमें प्रभु महावीरके समक्ष अपने बालकुमारको चण्डप्रद्योतकी गोदीमें रख उसकी अनुमति प्राप्तकर मृगावतीने दीक्षा ग्रहण की तथा चन्दनबालाकी शिष्या बनी। इनके पुत्र उदयनको कौशाम्बीके राज्यासन पर बिठलाया गया ।
एक बार उपाश्रयमें आते समय विलम्ब होनेसे श्रीचन्दनबालाने उलाहना दिया। उसके निमित्त क्षमापना करते हुए उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। गुरुणी चन्दनबाला उस समय सोयी हुई थीं। गाढ अन्धकारमें उनके समीप होकर सर्प निकला, इसके केवलज्ञानका प्रभाव जानकर मृगावतीने उनका
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हाथ एकतरफ कर दिया। श्रीचन्दनबाला जग गयीं और पूछा कि 'मुझको क्यों जगाया ?' तब इनके दिये गये उत्तरसे ज्ञात हुआ कि मृगावतीको केवलज्ञान हुआ था। तदनन्तर इन्हें खमाते हुए श्रीचन्दनबालाको भी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और दोनों मोक्ष में गयीं।
१९ प्रभावती:-ये चेटक महाराजकी पुत्री और सिन्धुसौवीरके अन्तिम राजर्षि उदायन (४०) को पटरानी थीं। श्रीजिनेश्वरदेवके प्रति इनको अपूर्व भक्ति थी।
२० चेल्लणा:-ये चेटक महाराजकी पुत्री और महाराज श्रेणि-- ककी पत्नी थीं। प्रभु महावीर की ये परम श्राविका थीं। एक समय श्रेणिकको इनके शीलपर सन्देह हुआ, परन्तु सर्वज्ञ प्रभु महावीरके वचनसे वह दूर हुआ । शीलवतके अखण्ड पालनके कारण इनकी गणना सती. स्त्रियोंमें होती है।
२१-२२ ब्राह्मी और सुन्दरी :-श्रीऋषभदेव भगवान्की विदुषी पुत्रियाँ । एक लिपिमें प्रवीण थीं, और दूसरी गणितमें । दोनों बहिनोंने दीक्षा लेकर जीवनको उज्ज्वल किया। और बाहुबलीको उपदेश देनेके लिये ये दोनों बहिने साथ गयी थीं।
२३ रुक्मिणी :-एक सती स्त्री, जो श्रीकृष्णकी पटरानी रुक्मिणीसे पृथक् थीं।
२४ रेवती:-भगवान् महावीर की परम श्राविका । प्रभुको रुग्णावस्थामें भक्तिभावसे कूष्माण्डपाक बहोराकर तीर्थङ्कर-नामगोत्र बाँधा था। आगामी चौबीसीमें समाधि नामक सत्रहवाँ तीर्थङ्कर होंगी !
२५ कुन्ती :-पांच पाण्डवोंकी माता । कथा प्रसिद्ध है ।
२६ शिवा :-ये चेटक महाराजको पुत्री और महाराजा चण्डप्रद्योतकी रानी थीं। तथा परम शीलवती थीं। ये देवकृत उपसर्गसे भी चलायमान नहीं हुई थीं। उज्जयिनी नगरीमें अनेक बार आग लगती
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थो, जो इनके हाथसे पानी छिटकानेपर शान्त हो जाती थी । अन्तमें प्रभुसे दीक्षा लेकर मोक्षमें गयीं।
२७ जयन्ती :-ये शतानीक राजाकी बहिन और महारानी मृगावतीकी ननद थीं, और पूर्ण विदुषी थीं। इन्होंने प्रभु महावीरसे कुछ तात्त्विक प्रश्न पूछे थे, जिनके प्रत्युत्तर प्रभुने दिये थे। अन्ततः दीक्षा लेकर, कर्मक्षय करके मोक्षमें गयीं।
२८ देवकी :-ये वासुदेवकी पत्नी और श्रीकृष्णकी माता थीं। इनके भाई कंसको किसी मुनिके कहनेसे ज्ञात हुआ कि देवकीका पुत्र तुझे मारेगा। इस कारण देवकीके जो बालक उत्पन्न होता उसको कंस लेकर मार डालता। परन्तु देव-प्रभावसे वे देवकोके बालक भद्दिलपुरमें नागसेठके यहाँ पलते थे। और उसकी पत्नी जिन मृत बालकोंको जन्म देती थी, वे यहाँ आते थे । इस प्रकार छः बालक कंसको सौंपे गये थे । सातवाँ पुत्र नन्दकी यशोदाको सौंपा गया और उसकी बालक-पुत्री कंसको दी गयी । ये सातवें पुत्र ही श्रीकृष्ण थे। कालान्तरमें देवकीने सम्यक्त्व सहित श्रावकके बारह व्रत ग्रहण किये और उनका उचितरूपेण पालन किया था।
२९ द्रौपदी :-पाण्डवोंकी पत्नी । कथा प्रसिद्ध है ।
३० धारिणी :-ये चेटक महाराजाको पुत्री और चम्पापुरीके महाराजा दधिवाहनकी पत्नी थीं। तथा चन्दनबालाकी ये माता थीं। एक बार शतानीक राजाके नगरपर चढ़ाई करनेसे धारिणी अपनी पुत्री वसुमतीको लेकर भाग गयी। इतने में किसी सैनिकने उसको पकड़ लिया और मार्गमें अनुचित माँग की । ऐसे समयमें धारिणीने शीलकी रक्षाके लिये जीभ काटकर प्राण-त्याग किया।
३१ कलावती :-ये शङ्ख राजाको शीलवती स्त्री थीं। एक समय भाई द्वारा प्रेषित कङ्कणोंकी जोड़ी पहनकर ये प्रशंसाके वाक्य कहती थीं,
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उस समय मति-विभ्रमसे पतिको इनके शीलपर सन्देह हुआ, और उनने कङ्कण-सहित हाथ काटनेकी आज्ञा दी। वधिकोंने जङ्गलमें लेजाकर कङ्कण-सहित इनके हाथ काट लिये, किन्तु शीलके दिव्य प्रभावसे इनके हाथ वैसे-के-वैसे हो गये । इस जङ्गलमें इन्होंने एक पुत्रको जन्म दिया और वहाँसे चलकर एक तापसके आश्रममें आश्रय लिया। शङ्का दूर होने पर पति बादमें पछताया। अनेक वर्षोंके पश्चात् इनसे पतिका पुनः मिलाप हुआ, किन्तु तब तो जोवनका रङ्ग पलट चुका था । अन्तमें दोक्षा ग्रहणकर इन्होंने आत्म-कल्याण किया और स्वर्गमें गयीं। वहांसे च्यवित होकर मोक्षमें जायेंगी।
३२ पुष्पचूला :-देखो अणिकापुत्र आचार्य (६)।
३३-४०:-पद्मावती, गौरी, गान्धारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जम्बूवती, सत्यभामा और रुक्मिणी । ये आठों श्रीकृष्णको पटरानियाँ थीं। इनके शोलकी परीक्षा पृथक पृथक् समयमें हुई थी। किन्तु ये प्रत्येक पार उतरीं। अन्तमें आठों पटरानियोंने दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया।
४१-४७-१ यक्षा, २ यक्षदत्ता, ३ भूता, ४ भूतदत्ता, ५ सेना, ६ वेना और ७ रेणा । ये सातों महासतियां श्रीस्थूलभद्रकी बहिनें थीं। इनको स्मरण-शक्ति बहुत तीव्र थो। इनमें से प्रत्येकने भागवती-दीक्षा अङ्गीकार कर आत्माका उद्धार किया था। इनका विशेष परिचय श्रीस्थूलभद्रके जीवन-चरित्र में मिलेगा।
प्र-१६
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४५ सड्ढ-निच्च-किच्च-सज्झायो
'मनह जिणाणं' सज्झाय ]
[गाहा ] मन्नह जिणाणमाणं, मिच्छं परिहरह धरह सम्मत्तं । छव्विह-आवस्सयम्मि उज्जुत्ता होह पइदिवसं ॥१॥ पव्वेसु पोसहवयं, दाणं सीलं तओ अ भावो अ। सज्झाय-नमुक्कारो, परोवयारो अ जयणा अ ॥२॥ जिण-पूआ जिण-थुणणं, गुरु-थुअ साहम्मिआण वच्छल्लं। ववहारस्स य सुद्धी रह-जत्ता तित्थ-जत्ता य ॥३॥ उवसम-विवेग-संवर, भाषा-समिई छजीव-करुणा य । धम्मिअजण-संसग्गो, करण-दमो चरण-परिणामो ॥४॥ संघोवरि बहुमाणो, पुत्थय-लिहणं पभावणा तित्थे । सड्ढाण किच्चमेअं, निचं सुगुरूवएसेणं ॥५॥ शब्दार्थमन्नह-मानो।
मिथ्यात्व-जिसमें खोटापन जिणाणं-जिनेश्वरोंकी।
अथवा असत्यता हो।
परिहरह-त्याग करो। आणं-आज्ञाको।
धरह-धारण करो। मिच्छं-मिथ्यात्वको, मिथ्यात्वका।। सम्मत्तं-सम्यक्त्वको।
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छव्विह - आवस्सयम्मि -- छः । अ-और । प्रकारके आवश्यक करनेमें ।
जयणा-सावधानी रखो। छ: आवश्यक-१) सामायिक,
अ-और। (२) चतुर्विंशति-स्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण,
जिण-पूआ - जिनेश्वरकी पूजा (५) कायोत्सर्ग और (६)
करो। प्रत्याख्यान ।
जिण-थुणणं-जिन-स्तवन करो। उज्जुत्ता-उद्यमवान्, प्रयत्नशील। गुरु-थुअ-गुरुकी स्तुति करो। होह-बनो।
साहम्मिआण - वच्छल्लं-साधपइदिवसं-प्रतिदिन ।
मिक भाइयोंके प्रति वात्सल्य पव्वेसु-पर्वके दिनोंमें।
दिखलाओ। पोसहवयं-पोषधव्रत करो। साहम्मिअ-समान धर्मद्वारा अपना दाणं-दान दो।
जीवन व्यतीत करनेवाला । सोलं-सदाचारका पालन करो। वच्छल्ल-स्नेह, प्रेमभाव। तवो-तप, तपका अनुष्ठान करो। ववहारस्स य सुद्धी-और देनेअ-और।
लेनेमें प्रामाणिकता रखो, व्यवभावो-भाव, मैत्री आदि उतम हारमें शुद्धि रखो। प्रकारकी भावना करो।
विना करा। रह-जत्ता-रथ-यात्रा करो। अ-और।
तित्थ-जत्ता य- और तीर्थसज्झाय - नमुक्कारो - स्वाध्याय यात्रा करो। करो और नमस्कार-मन्त्रकी
उवसम-विवेग-संवर -उपशम, गणना करो; पाँच प्रकारके
विवेक और संवर धारण करो। स्वाध्यायमें मग्न बनो, नम
उवसम-कषायकी उपशान्ति । स्कारमन्त्रकी गणना करो।
विवेग-सत्यासत्यकी परीक्षा । परोवयरो - परोपकार - परायण संवर-नये कर्म बंधे नहीं, बनो।
ऐसी प्रवृत्ति ।
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२४४ भासा-समिई-बोलने में साव- चरण-चारित्र । परिणामधानी रखो।
भावना। छज्जीव-करुणा य-छः कायके | संघोवरि बहुमाणो-सङ्घके प्रति जीवोंके प्रति करुणा रखो।
बहुमान रखो। छज्जीव-छः कायके जीव- १) पुत्थय-लिहणं-(धार्मिक) पुस्तकें
पृथ्वीकाय, (२) अप्काय, लिखाओ। (३) तेजस्काय, (४) वायु
पभावणा तित्थे-तीर्थको प्रभाकाय, (५) वनस्पतिकाय
वना करो। और (६) त्रसकाय ।
तीर्थ-प्रभावना-धर्मको उन्नति धम्मिअजण - संसग्गो- धार्मिक
हो ऐसा प्रयत्न। मनुष्योंके संसर्गमें रहो।
| सड्ढाण-श्रावकोंके। करणदमो-इन्द्रियोंका दमन करो।
करण-इन्द्रियाँ । दम-दमन । निच्चं-नित्य । चरण-परिणामो-चारित्र ग्रहण सुगुरूवएसेणं- सद्गुरुके उपकरनेकी भावना रखो।
देशसे ।
अर्थ-सङ्कलना
हे भव्य जीवो ! तुम जिनेश्वरोंकी आज्ञाको मानो, मिथ्यात्वका त्याग करो, सम्यक्त्वको धारण करो और प्रतिदिन छ:प्रकारके आवश्यक करने में प्रयत्नशील बनो ।।१।।
और पर्वके दिनोंमें पोषध करो, दान दो, सदाचारका पालन करो, तपका अनुष्ठान करो, मैत्री आदि उत्तम प्रकारकी भावना करो, पाँच प्रचारके स्वाध्यायमें मग्न बनो, नमस्कार-मन्त्रकी गणना करो, परोपकार-परायण बनो और यथाशक्य दयाका पालन करो॥२॥
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२४५
प्रतिदिन जिनेश्वरदेवकी पूजा करो, नित्य जिनेश्वरदेवको स्तुति करो, निरन्तर गुरुदेवको स्तुति करो, सर्वदा सार्मिक भाइयोंके प्रति वात्सल्य दिखलाओ, व्यवहारकी शुद्धि रखो तथा रथ-यात्रा और तीर्थ यात्रा करो ॥३॥ ___कषायोंको शान्त करो, सत्यासत्यकी परीक्षा करो, संवरके कृत्य करो, बोलने में सावधानी रखो, छः कायके जीवोंके प्रति करुणा रखो, धार्मिकजनोंका संसर्ग रखो, इन्द्रियोंका दमन करो तथा चारित्र ग्रहण करने की भावना रखो ॥ ४ ॥ ___ सङ्घके प्रति बहुमान रखो, धार्मिक पुस्तकें लिखाओ और तीर्थकी प्रभावना करो। ये श्रावकोंके नित्य कृत्य हैं, जो सद्गुरुके उपदेशसे जानना चाहिये ।। ५ ।। सूत्र-परिचय
यह सज्झाय पोषधव्रतमें तथा पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिकप्रतिक्रमणके पहले दिन दैवसिक-प्रतिक्रमणमें बोला जाता है। इसमें श्रावकके करने योग्य ३६ प्रकारके कार्य प्रदर्शित किये गये हैं।
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४६ सकल-तीर्थ-वंदना
[ 'सकल-तीर्थ-वन्दना' ] मूल
[ चोपाई ] सकल-तीर्थ वन्दं कर जोड़, जिनवर-नामे मंगल कोड़ । पहले स्वर्गे लाख बत्तीश, जिनवर-चैत्य नमूनिश-दीस॥१॥ तीजे लाख अट्ठावीस कह्यां, बीजे बार लाख सद्दयां । चौथे स्वर्गे अड लक्खधार, पांचमे वन्दं लाख ज चार ॥२॥ छठे स्वर्गे सहस पचास, सातमे चालीस सहस प्रासाद । आठमे स्वर्ग छ हजार, नव-दशमे वन्दं शत चार ॥३॥ अग्यार-बारमे त्रणसें सार, नव ग्रेवेयके त्रणसें अढार । पांच अनुत्तर सर्वे मली, लाख चौरासी अधिकां वली ॥४॥ सहस सत्ताणुं त्रेवीश सार, जिनवर-भवन तणो अधिकार । लांबा सौ जोजन विस्तार, पचास ऊंचा बहोतर धार ॥५॥ एकसौ एंशी बिंब प्रमाण, सभा-सहित एक चैत्ये जाण । सौ कोड बावन कोड संभाल, लाख चोराणु सहस चौआल॥६॥ सातसै उपर साठ विशाल, सब बिंब प्रणमं त्रण काल । सात कोड़ ने बहोंतेर लाख, भवनपतिमां देवल भाख ॥७॥ एकसौ एंशी बिंब प्रमाण, एक एक चैत्ये संख्या जाण । तेरसै कोड़ नेव्याशी कोड, आठ लाख वन्दूं कर जोड ॥८॥
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बत्तीसं ने ओगणसाठ, ति लोकमां चैत्यनो पाठ । अण लाख एकाणुं हजार, त्रणसै बीस ते बिंब जुहार ॥९॥ व्यंतर ज्योतिषीमां वली जेह, शाश्वता जिन वन्दू तेह । ऋषभ चन्द्रानन वारिषेण, वर्धमान नामे गुण-सेण॥१०॥ संमेतशिखर वंदु जिन बीस, अष्टापद वन्दं चौबीस । विमलाचल ने गढ गिरनार, आबू ऊपर जिनवर जुहार॥११॥ शंखेश्वर केसरियो सार, तारंगे श्रीअजित जुहार । अंतरिक्ख वरकाणो पास, जीराउलो ने थंभण पास ॥१२॥ गाम नगर पुर पाटण जेह, जिनवर-चैत्य नमूं गुणगेह। विहरमाण वन्दूं जिन बीस, सिद्ध अनन्त नमूं निश-दीस ।१३। अढीद्वीपमा जे अणगार, अढार सहस सीलांगना धार । पंच महाव्रत समिति सार, पाले पलावे पंचाचार ॥१४॥ बाह्य अभ्यंतर तप उजमाल, ते मुनि वन्दं गुण-मणिमाल। नितनित उठी कीर्ति करूं, जीव कहे भवसायर तरुं॥१५॥
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शब्दार्थ
सरल है। अर्थ-सडुलना
सब तीर्थों को मैं वन्दन करता हूँ, कारण कि श्रीजिनेश्वर प्रभुके नामसे करोड़ों मङ्गल प्रवृत्त होते हैं। मैं प्रतिदिन श्रीजिनेश्वरके चैत्योंको नमस्कार करता हूँ। (वह इस प्रकार-) पहले देवलोकमें स्थित बत्तीस लाख जिन-भवनोंको मैं वन्दन करता हूँ ॥ १ ॥
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दूसरे देवलोक में अट्ठाईस लाख, तीसरे देवलोक में बारह लाग चौथे देवलोक में साठ लाख और पाँचवें देवलोक में चार लाख सिं भवनोंको मैं वन्दन करता हूँ ॥ २ ॥
छठे देवलोकमें पचास हजार, सातवें देवलोक में चालीस हजार, आठवें देवलोक में छः हजार, नौवें और दसवें देवलोकके मिलकर चारसौ जिन भवनों को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ३ ॥
ग्यारहवें और बारहवें देवलोकके मिलकर तीनसौ, नौ ग्रैवेयक में तीनसी अठारह तथा पाँच अनुत्तर विमानमें पाँच जिन - भवन मिलकर चौरासी लाख, सत्तानवे हजार तेईस जिन भवन हैं, उनको मैं वन्दन करता हूँ कि जिनका अधिकार शास्त्रों में वर्णित है । ये जिन - भवन सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और बहत्तर योजन ऊँचे हैं ।। ४-५ ।।
1
इन प्रत्येक जिन -- भवनों अथवा चैत्योंमें सभा - सहित १८० जिन - बिम्बों का प्रमाण है; इस प्रकार सब मिलकर एकसौ बावन करोड़ चौरानवे लाख, चौंतालीस हजार सातसौ साठ (१५२९४४४७६०) विशाल जिन - प्रतिमाओंका स्मरणकर तीनों काल मैं प्रणाम करता हूँ । भवनपति के आवासोंमें सात करोड़, बहत्तर लाख (७७२०००००) जिन - चैत्य कहे हुए हैं ।। ६-७ ।।
इन प्रत्येक चैत्योंमें एकसौ अस्सी जिन बिम्ब होते हैं । अतः सब मिलकर तेरह सौ नवासी करोड़ और साठ लाख (१३८९६००००००) जिन बिम्ब होते हैं, जिन्हें हाथ जोड़कर में वन्दन करता हूँ ॥ ८ ॥
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२४९
तिर्छा-लोक अर्थात् मनुष्य-लोकमें तीन हजार; दोसौ उनसठ ( ३२५९) शाश्वत चैत्योंका वर्णन आता है, जिनमें तीन लाख इकानवे हजार, तीनसौ बीस ( ३९१३२० ) जिनप्रतिमाएँ हैं, उन्हें मैं वन्दन करता हूँ॥९॥
इसके अतिरिक्त व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके निवासमें जो जो शाश्वत जिन-बिम्ब हैं, उन्हें भी मैं वन्दन करता हूँ। गुणोंकी श्रेणिसे परिपूर्ण चार शाश्वत जिन-बिम्बोंके शुभनाम-१ श्रीऋषभ, २ चन्द्रानन, ३ वारिषेण और ४ वर्द्धमान हैं ॥१०॥
संमेतशिखरपर बीस तीर्थङ्करोंकी प्रतिमाएं हैं, अष्टापदपर चौबीस तीर्थङ्करोंकी प्रतिमाएँ हैं, तथा शत्रुञ्जय, गिरनार और आबूपर भी भव्य जिन-मूर्तियाँ हैं, उन सबको मैं वन्दन करता हूँ। ११ ।।
तथा शङ्केश्वर, केशरियाजी आदिमें भी पृथक् पृथक् तीर्थङ्करोंकी प्रतिमाएँ हैं; एवं तारंगापर श्रीअजितनाथजीकी प्रतिमा है, उन सबको मैं वन्दन करता हूँ। इसी प्रकार अन्तरिक्षपार्श्वनाथ, जीरावला पार्श्वनाथ और स्तम्भनपार्श्वनाथके तीर्थ भी प्रसिद्ध हैं, उन सबको मैं वन्दन करता हूँ। १२ ।।
इसके उपरान्त भिन्न भिन्न ग्रामोंमें, नगरोंमें, पुरोंमें और पट्टन (पाटण )में गुणोंके गृहरूप जो जो जिनेश्वर प्रभुके चैत्य हों, उनको मैं वन्दन करता हूँ। तथा बीस विहरमाण जिन एवं आजतक हुए अनन्त सिद्धोंको मैं प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ। १३ ।।
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२५०
. ढाई द्वीपमें जो साधु अठारह हजार शीलाङ्ग-रथके धारण करनेवाले हैं, पाँच महाव्रत,पाँच समिति तथा पाँच आचारके स्वयं पालन करनेवाले हैं और दूसरोंसे भी पालन करानेवाले हैं, ऐसे गुणरूपी रत्नोंकी मालाको धारण करनेवाले मुनियोंको मैं वन्दन करता हूँ।। १४ ।।
जीव (श्रीजीवविजयजी महाराज) कहते हैं कि नित्य प्रातःकालमें उठकर इन सबका मैं कीर्तन करता हूँ, (मैं) भवसागर तिर जाऊँगा ॥ १५ ॥ सूत्र-परिचय
__यह सूत्र रात्रिक-प्रतिक्रमणके छः आवश्यक पूर्ण होनेके पश्चात् लोकमें स्थित शाश्वत चैत्य, शाश्वत जिनबिम्ब, वर्तमान तीर्थ, विरहमाण जिन, सिद्ध और साधुओंको वन्दन करने के लिये बोला जाता है; अतः इसे सकलतीर्थ-वन्दना कहते हैं । आरम्भके. शन्दोंसे 'सकल तीरथ' के नामसे भी प्रसिद्ध है । इसकी रचना विक्रमकी अठारहवीं शतीके अन्तिम भागमें उत्पन्न हुए श्रीजीवविजयजी महाराजने की है ।
४७ पोसह-सुत्तं ['पोषध लेनेका' सूत्र
मूल
करेमि मंते ! पोसह, आहार-पोसहं देसओ सव्वओ, सरीर-सत्कार-पोसहं सव्वओ,
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२५१ बंभचेर-पोसहं सव्वओ, अव्वावार-पोसहं सव्वओ, चउव्विहं पोसहं ठामि, जाव दिवसं ( जाव अहोरत्तं ) पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करोमि,
न कारवेमि। तस्स भंते ! पडिकमामि, निंदामि, गरिहामि,
अप्पाणं वोसिरामि॥
शब्दार्थ
करेमि-करता हूँ।
। सव्वओ-सर्वसे ।। भंते ! हे भदन्त ! हे पूज्य ! बंभचेर-पोसहं-ब्रह्मचर्य-पोषध। पोसहं-पोषध ।
सव्वओ-सर्वसे । आहार-पोसह-आहार-पोषध । अव्वावार-पोसह-अव्यापार-पोषध ____ आहार-सम्बन्धी पोषध करना __कुत्सित प्रवृत्तिके त्यागरूप जो वह-आहार--पोसह ।
पोषध वह अव्यापार-पोषध । देसओ-देशसे, कुछ अंशोंमें । सव्वओ-सर्वसे। सव्वओ-सर्वसे, सर्वांशमें । चउविहं-चार प्रकारके। सरीर-सकार-पोसहं- शरीर - पोसहं-पोषधके विषयमें, पोषधसत्कार-पोषध ।
व्रतमें। सरोर-काया । सक्कार-स्नान, ठामि-रहता हूँ, स्थिर होता हूँ। उद्वर्तन ( उबटन ), विलेपन | जाव-जहाँतक । आदि विशिष्ट वस्त्र अलङ्कार | दिवसं-दिन पूर्ण हो वहाँतक। धारण करनेकी क्रिया। । (जाव-जहाँतक ।
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२५२
अहोरत' - अहोरात्र | ) ( दिवस और रात्रि पूर्ण हो, वहाँतक । ) पज्जुवासामि - सेवन करू । दुविहं - दो प्रकारसे, करना और करानारूप दो प्रकारोंसे । तिविहेणं-तीन प्रकारसे, मन,
वचन और काया इन
तीन
प्रकारोंसे ।
मणेणं - मनसे ।
बायाए - वाणी से |
काणं - कायासे । न करेमि-न करूँ ।
न कारवेमि-न कराऊँ ।
1
तस्स - तत्सम्बन्धी सावद्य योगका न भंते ! - हे भदन्त ! हे भगवन् ! | पडिक्कमामि - प्रतिक्रमण करता हूँ, निवृत्त होता हूँ ।
निदामि - निन्दा करता हूँ, बुरा
मानता हूँ । गरिहामि गर्हा करता हूँ, घृणा
करता हूँ ।
अप्पाणं - आत्माका, कषायात्माका । वोसिरामि-वोसिराता हूँ, त्याग करता हूँ ।
अर्थ- सङ्कलना
हे पूज्य ! मैं पोषध करता हूँ । उसमें आहार - पोषध देशसे ( कुछ अंश में ) अथवा सर्वसे ( सर्वांशसे ) करता हूँ, ब्रह्मचर्य - पोषध सर्वसे करता हूँ और अव्यापार - पोषध ( भी ) सर्वसे करता हूँ । इस तरह चार प्रकारके पोषध- व्रतमें स्थिर होता हूँ । जहाँतक दिन अथवा अहोरात्र - पर्यन्त मैं प्रतिज्ञाका सेवन करूँ वहाँतक मन, वचन और कायासे सावद्य - प्रवृत्ति न करूँ और न कराऊँ । हे भगवन् ! इस प्रकारकी जो कोई अशुभ - प्रवृत्ति हुई हो उससे मैं निवृत्त होता हूँ । उन अशुभ प्रवृत्तियों को मैं बुरी मानता हूँ, तत्सम्बन्धी घृणा करता हूँ और इस अशुभ प्रवृत्तिको करनेवाले कषायात्माका मैं त्याग करता हूँ ।
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२५३ सूत्र-परिचय-- इस सूत्रसे पोषध लिया जाता है ।
पोषध प्रश्न-पोषध क्या है ? उत्तर-एक प्रकारका शिक्षाव्रत । श्रावकके बारह व्रतोंमें इसका क्रम ___ ग्यारहवाँ है ? प्रश्न-पोषधका अर्थ क्या है ? उत्तर-धर्मका पोषण करे, धर्मकी पुष्टि करे, वह पोषध । श्रीहरिभद्रसूरिने
दसवें पञ्चाशकमें कहा है कि 'जो कुशल धर्मका पोषण करता है जिसमें श्रीजिनेश्वर देवोंद्वारा कथित आहार-त्याग आदिका
विधि-पूर्वक अनुष्ठान किया जाय वह पोषध ।' प्रश्न-पोषध कितने प्रकारका है ? उत्तर-चार प्रकारका । आहार-पोषध, शरीरसत्कार-पोषध, ब्रह्मचर्य
पोषध और अव्यापार-पोषध । प्रश्न-आहार-पोषध किसे कहते हैं ? उत्तर-उपवास आदि तप करना, उसे आहार-पोषध कहते हैं । प्रश्न-शरीरसत्कार-पोषध किसे कहते हैं ? उत्तर-स्नान, उद्वर्तन ( पीठी अथवा अन्य उबटन लगाना ), विलेपन,
पुष्प, गन्ध, विशिष्ट वस्त्र और आभरणादिसे शरीरका सत्कार
करनेका त्याग करना, उसे शरीरसत्कार-पोषध कहते हैं। प्रश्न --ब्रह्मचर्य-पोषध किसे कहते हैं ? उत्तर-ब्रह्मचर्यका पालन करना, उसे ब्रह्मचर्य-पोषध कहते हैं। प्रश्न-अव्यापार-पोषध किसे कहते हैं ?
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२५४
उत्तर
—
- सावद्य व्यापारका त्याग करना, उसे अव्यापार - पोषध कहते हैं । प्रश्न - ये प्रत्येक पोषध कितने प्रकारसे होता है ?
उत्तर-- दो प्रकारसे :- - एक देशसे और दूसरा सर्व से, परन्तु वर्तमान सामाचारीके अनुसार आहार- पोषध हो देशसे और सर्व से, इस तरह दो प्रकारसे होता है और शेष तीन पोषध केवल सर्वसे होते हैं । प्रश्न- पोषव्रत कितने समय के लिये ग्रहण किया जाता है ?
उत्तर - पोषधव्रत सामान्यतया एक अहोरात्र अर्थात् आठ प्रहर के लिये ग्रहण किया जाता है, परन्तु ऐसी अनुकूलता न हो तो केवल दिन अथवा केवल रात्रिके लिये भी पोषध-व्रत लिया जा सकता है ।
प्रश्न -
- पोषध - व्रतसे क्या लाभ होता है ?
उत्तर - पौषधव्रतसे साधुजीवनकी शिक्षा मिलती है और आध्यात्मिक शान्ति प्राप्ति होती है ।
मूल -
४८ पोसह -- पाररण --सुत्तं [ 'पोसह पारनेका' - सूत्र ]
[ गाहा ] सागरचंदो कामो, चंदवर्डिसो सुदंसणो धन्नो । जेसिं पोसह - पडिमा, अखंडिया जीविअंते वि ॥१॥ धन्ना सलाहणिज्जा, सुलसा आणंद- कामदेवा य । जास पसंसइ भयवं, दढव्वयत्तं महावीरो ॥२॥
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२५५
पोषध विधिसे लिया, विधिसे पूर्ण किया, विधि करनेमें जो कोई अविधि हुई हो, उन सबका मन, वचन कायासे मिच्छा मि दुकडं ॥
पोषधके अठारह दोषोंमें जो कोई दोष लगा हो तो उन सबका मन, वचन और कायासे मिच्छा मि दुक्कडं ॥ शब्दार्थ
सागरचंदो-सागरचन्द्र राजर्षि । । सलाहणिज्जा-इलाघनीय हैं, कामो-कामदेव श्रावक ।
प्रशंसनीय हैं। चंदडिसो-चन्द्रावतंस राजा। सुलसा-सुलसा नामवाली भगवान सुदंसणो-सुदर्शन सेठ ।
__ महावीरकी परम श्राविका।
आणंद-कामदेवा-आनन्द और धन्नो-धन्य हैं।
कामदेव नामके श्रावक । जेसि-जिनकी।
य-और। पोसह-पडिमा-पोषधकी प्रतिमा
जास-जिनके । . ( नियम-विशेष )।
पसंसइ-प्रशंसा करते हैं। अखंडिआ-खण्डित नहीं हुई, |
भयवं-भगवान् । अखण्डित रही।
दढव्वयत्त-दृढव्रतताको, व्रतकी जीविअंते-जीवनके अन्त तक ।
दृढताकी । वि-भी।
महावीरो-श्रमण भगवान् महावीर । धन्ना-धन्य हैं।
पोसह-विधिसे०-अर्थ स्पष्ट है । अर्थ-सङ्कलना
सागरचन्द्र, कामदेव, चन्द्रावतंस राजा और सुदर्शन सेठ
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२५६ धन्य हैं जिनको पोषध-प्रतिमा ( प्रतिज्ञा ) जीवनके अन्ततक अखण्डित रही ।। १ ।।
श्रवण भगवान् महावोर जिनके व्रतकी दृढताकी प्रशंसा करते हैं, वे सुलसा, आनन्द और कामदेव आदि धन्य और प्रशंसनीय हैं ।।२।।
शेष स्पष्ट है। सूत्र-परिचय
इस सूत्रसे पोषध पूर्ण किया जाता है ।
पोषध त्यागने योग्य अठारह दोष
१. पोषधमें विरति-रहित किसी अन्य श्रावकका लाया हुआ आहार
पानो वापरना-काममें लाना । २. पोषधके निमित्त सरस ( रसादियुक्त ) आहार लेना। ३. उत्तरवारणाके दिन विविध प्रकारको सामग्री वापरना । ४. पोषधके निमित्त उसके पूर्व देहविभूषा करनी । ५. पोषधके निमित्त वस्त्रादि धुलवाना। ६. पोषधके निमित्त आभूषण बनवाना और पोषधके समय धारण करना। ७. पोषधके निमित्त वस्त्र रंगवाना । ८. पोषधके समय शरीरसे मैल उतारना । ९. पोषधमें असमयमें शयन करना अथवा निद्रा लेना ।
( रात्रिके दूसरे प्रहरमें संथारा-पोरिसो करके निद्रा लेना उपयुक्त है।) १०. पोषधमें अच्छे-बुरे आहारके सम्बन्धमें चर्चा करना ।
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२५७
१२. पोषधमें भली-बुरी राजकथा अथवा युद्धकथा करनी। १३. पोषधमें देशकथा करनी । १४. पोषधमें पूंजन-पडिलेहण विना लघुनीति अथवा बड़ीनीति परठवना। १५. पोषधमें किसीकी निन्दा करनी। १६. पोषधमें जिन्होंने पोषध नहीं लिया ऐसे माता, पिता, पुत्र, भाई,
स्त्री आदि सम्बन्धियोंसे वार्तालाप करना। १७. पोषधमें चोर सम्बन्धी बात करनी। १८. पोषधमें स्त्रियोंके अङ्गोपाङ्ग देखना।
४९ संथारा-पोरिसी
[ संस्तारक-पौरुषी ]
मूल
१ नमस्कार निसीहि, निसीहि, निसीहि,
नमो खमासमणाणं गोयमाइणं महामुणीणं ॥ शब्दार्थनिसीहि-अन्य सर्व प्रवृत्तियोंका । खमासमणाणं-क्षमा-श्रमणोंको। निषेध करता हूँ।
गोयमाइणं-गौतम आदि । नमो-नमस्कार हो। | महामुणिणं-महामुनियोंको।
प्र-१७
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-
-
२५८ अर्थ-सङ्कलना__ अन्य सर्व प्रवृत्तियोंका निषेध करता हूँ, निषेध करता हूँ, निषेध करता हूँ। क्षमाश्रमणोंको नमस्कार हो । गौतम आदि महामुनियोंको नमस्कार हो । मूल
२ संथारेकी आज्ञा अणुजाणह जिट्टज्जा! अणुजाणह परम-गुरू! गुरु-गुण-ग्यणेहिं मंडिय-सरीरा!। बहु-पडिपुन्ना पोरिसी, राइय-संथारए ठामि ॥१॥ शब्दार्थअणुजाणह-अनुज्ञा दीजिये। । बहु-पडिपुन्ना-सम्पूर्ण , अच्छी तरह जिट्टज्जा !-हे ज्येष्ठ आर्यों ।
परिपूर्ण । अणुजाणह-अनुज्ञा दीजिये। पोरिसी-पौरुषी। परम-गुरू-!-हे परम-गुरुओं ! पोरिसी-दिन अथवा रात्रिका गुरु-गुण-रयणेहि-उत्तम गुण- चौथा भाग। रत्नोंसे ।
राइय-संथारए-रात्रि-संथारेके मंडिय - सरीरा! - विभूषित । विषयमें । देहवाले !
| ठामि-स्थिर होता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
हे ज्येष्ठ आर्यो ! अनुज्ञा दीजिये।
उत्तम गुणरत्नोंसे विभूषित देहवाले हे परम-गुरुओं ( प्रथम ) पौरुषी अच्छी तरह परिपूर्ण हुई है, अतः रात्रि-संथारेके विषयमें स्थिर होता हूँ॥१॥
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मूल
२५९
३ संथारेकी विध
अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वाम-पासेणं । कुक्कुडि - पाय-पसारण, अतरंत पमज्जए भूमिं ॥ २ ॥
शब्दार्थ
अणुजाण - अनुज्ञा दीजिये ।
संथारं - संथारेकी । बाहुवहाणेण --हाथका ( तकिया ) करने से । बाहु-हाथ । उवहाण - तकिया । वाम-पासेणं - बाँयी करवट से ।
अर्थ-सङ्कलना
(हे भगवन् ! ) संथारेकी अनुज्ञा दीजिये, हाथका तकिया करने से तथा बाँयी करवट सोनेसे ( इसकी विधि को जाती है, वह मैं जानता हूँ ) और मुर्गी की तरह पाँव रखकर (सोना चाहिये यह भी मैं जानता हूँ । यदि इस प्रकार ) सोनेमें अशक्त होऊँ तो भूमिका प्रमार्जन करूँ ( और बादमें पाँव लम्बे करूँ ) ॥ २ ॥
मूल
उपधान
कुक्कुडि - पाय
पसारण
मुर्गीकी तरह पाँव रखकर सोने । अतरंत अशक्त होऊँ ।
पमज्जए - प्रमार्जन करूँ । भूमि भूमिका |
PERTA
संकोइअ संडासा उव्वते अ काय - पडिलेहा | ४ जगना पड़े तो दव्वाह-उवओगं, णिस्सास - निरंभणालोए ॥ ३॥
:
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२६०
शब्दार्थ
संकोइअ-पैर लम्बे करनेके बादमें | दव्वाइ - उवयोगं - द्रव्यादिका सिकोड़ने पड़ें तो।
विचार करना; द्रव्य, क्षेत्र, काल,
भावकी विचारणा करनी। संडासा-घुटनोंको ( पूंजकर )।
णिस्सास - निरंभणालोए - उन्वट्टते-करवट बदलना।
श्वासको रोकना और द्वारकी अ-और।
ओर देखना। काय-पडिलेहा-कायाकी पडि- णिस्सास-निःश्वास। निरंभणलेहणा करनी।
रोध, रोकना।
अर्थ-सङ्कलना
यदि पैर लम्बे करनेके बादमें सिकुड़ने पड़ें तो घुटनों को पूंजकर सिकुड़ने और करवट बदलना पड़े तो शरीरका प्रमार्जन करना ( यह इसकी विधि है। यदि कायचिन्ताके लिये उठना पड़े तो) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी विचारणा करनी और ( इतना करनेपर भी यदि निद्रा न उड़े तो हाथसे नाक दबाकर ) श्वासको रोकना और इस प्रकार निद्रा बराबर उड़े तब प्रकाशवाले द्वारके सामने देखना ( ऐसी इसकी विधि है ) ॥ ३॥ मूल
५ सागरी अणसण जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए । आहारमुवहि-देहं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥ ४ ॥
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२६१
शब्दार्थ
जइ-यदि ।
] आहारमुवहि-देहं- आहार-पानी, मे-मेरे।
वस्त्र-उपकरण और देहका । हुज्ज-हो।
सव्वं-सबका। पमाओ-प्रमाद, मरण ।
तिविहेण- तोन प्रकारसे, मन, इमस्स-इस ।
वचन और कायासे । देहस्स-देहका।
वोसिरिअं- वोसिराया है, त्याग इमाइ रयणीए-इस रात्रिमें ही। किया है। अर्थ-सङ्कलना
यदि मेरे इस देहका इस रात्रिमें ही मरण हो तो (अभीसे ) मैंने आहार-पाणी, वस्त्र-उपकरण और देह इन सबका मन, वचन और कायासे त्याग किया है ।। ४ ।। मूल
६ मङ्गल-भावना चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं,
साहू मंगलं, केवलि-पन्नत्तो धम्मो मंगलं ॥५॥ शब्दार्थचत्तारि-चार, चार पदार्थ। । साह-साधु । मंगलं-मङ्गल।
मंगलं-मङ्गल। अरिहंता-अरिहन्त ।
केवलि-पन्नत्तो-केवलियों से मंगलं-मङ्गल।
। प्ररूपित, केवलि-प्ररूपित । . सिद्धा-सिद्ध ।
धम्मो -धर्म । मंगल-मङ्गल ।
मंगलं-मङ्गल।
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२६२
अर्थ-सङ्कलना... चार पदार्थ मङ्गल हैं :-(१) अरिहन्त मङ्गल हैं, (२) सिद्ध मङ्गल हैं, (३) साधु मङ्गल हैं और (४) केवलि-प्ररूपित धर्म मङ्गल है॥ ५॥
चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि-पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो ॥ ६ ॥
शब्दार्थचत्तारि-चार, चार पदार्थ । अरिहन्ता०-पूर्ववत् । लोगुत्तमा लोकोत्तम हैं। अर्थ-सङ्कलना__चार पदार्थ लोकोत्तम हैं :-(१) अरिहन्त लोकोत्तम हैं, (२) सिद्ध लोकोत्तम हैं, (३) साधु लोकोत्तम हैं और (४) केवलि-प्ररूपित धर्म लोकोत्तम है ॥६॥
मूल
७ चार शरण चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ॥ ७ ॥
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२६३
शब्दार्थ
चत्तारि-चारोंकी।
पवज्जामि-स्वीकृत करता हूँ, सरणं-शरण ।
अङ्गीकार करता हूँ।
| अरिहंते-पूर्ववत् । अर्थ-सङ्कलना
( संसारके भयसे बचनेके लिये ) मैं चारोंकी शरण अङ्गीकार करता हूँ :-(१) अरिहन्तोंकी शरण अङ्गीकार करता हूँ, (२) सिद्धोंकी शरण अङ्गीकार करता हूँ, (३) साधुओं की शरण अङ्गीकार करता हूँ और (४) केवलि-प्ररूपित धर्मकी शरण अङ्गीकार करता हूँ ॥ ७ ॥
८ अठारह पापस्थानोंका त्याग पाणाइवायमलियं, चोरिक्कं मेहुणं दविण-मुच्छं । कोहं माणं मायं, लोहं पिज्जं तहा दोसं ॥ ८ ॥ कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्नं रइ-अरइ-समाउत्तं । परपरिवायं माया-मोसं मिच्छत्त-सल्लं च ॥९॥ वोसिरसु इमाइं मुक्ख-मग्ग-संसग्ग-विग्धभूआई ।
दुग्गइ-निबंधणाई, अट्ठारस पावठाणाई ॥ १० ॥ शब्दार्थपाणाइवायं-प्राणातिपात । मेहुणं-मैथुन। अलियं-झूठा, मृषावाद ।
दविण-मुच्छं-द्रव्यपर ममत्व, चोरिक्कं-चोरी, अदत्तादान । परिग्रह ।
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२६४
कोह-क्रोध ।
मिच्छत्त-सल्लं - मिथ्यात्वरूपी माणं-मान।
शल्यको, मिथ्यात्व-शल्य । मायं-माया।
च-और।
वोसिरसु-छोड़ दे, त्याग करने लोहं-लोभ ।
योग्य हैं। पिज्ज-राग।
इमाइं-ये। तहा-तथा।
मुक्ख - मग्ग - संसग्ग - विग्घदोसं-द्वेष ।
भूआई-मोक्षमार्गकी प्राप्तिमें कलह-कलह ।
विघ्नभूत।
मुक्ख-मग्ग-मोक्षमार्ग। अब्भक्खाणं-आक्षेप, अभ्याख्यान ।
संसग्ग-प्राप्ति । पेसुन्नं-चुगली, पैशुन्य।
विग्घभूअ-विघ्नभूत, अन्तरायरूप। रइ-अरइ-समाउत्तं-रति और
। दुग्गइ-निबंधणाई-दुर्गतिके कारअरतिसे युक्त, रति-अरति । ।
णरूप। पर-परिवायं-दूसरेको अवर्णवाद
दुग्गइ-नरक, तिर्यञ्च आदि ( अयोग्यवचन) बोलनेको
. गति । निबंधण-कारणरूप। क्रिया, पर-परिवाद ।
अट्ठारस-अठारह । माया-मोसं-माया-मृषावाद। पाव-ठाणाइं-पाप-स्थानक ।
अर्थ-सङ्कलना
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, माया-मृषावाद और मिथ्यात्व-शल्य ये अठारह पाप-स्थानक मोक्ष-मार्गकी प्राप्ति में विघ्नभूत और दुर्गतिके कारण होनेसे त्याग करने योग्य हैं ( अतः मैं इनका त्याग करता हूँ ) ।। ८-९-१० ।।
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२६५
मूल
९ आत्मानुशासन
[ सिलोगो] एगो हं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ ।
एवं अदीण-मणसो, अप्पाणमणुसासइ ॥ ११ ॥ शब्दार्थएगो-एक, अकेला ।
अन्नस्स-दूसरेका। हं-मैं ।
कस्सइ-किसी। नत्थि-नहीं है।
एवं-इस प्रकार।
अदोण-मणसो-दीनतासे रहित मे-मेरा।
मनवाला, अदीन मनसे कोइ-कोई।
विचारता हुआ। न-नहीं।
अप्पाणमणुसासइ - आत्माको अहं-मैं।
शिक्षा दे, आत्माको समझाये । अर्थ-सङ्कलना
'मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं किसी दूसरेका नहीं हँ,' इस प्रकार अदीन मनसे विचारता हुआ आत्माको समझाये ( समझाना चाहिये ) ॥ ११ ॥
सूल
एगो मे सासओ अप्पा, नाण-दसण-संजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग-लक्खणा ॥१२॥
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शब्दार्थएगो-एक ।
मे-मेरे । मे-मेरी।
बाहिरा भावा - बाह्य - भाव, सासओ-शाश्वत, अमर ।
बहिर्भाव । अप्पा-आत्मा।
सव्वे-सब । नाण-दंसण-संजुओ-ज्ञान और संजोग - लक्खणा - पुद्गलके दर्शनसे युक्त ।
संयोगसे उत्पन्न, संयोगसे सेसा-शेष, दूसरे सब ।
उत्पन्न । अर्थ-सङ्कलना
ज्ञान और दर्शनसे युक्त एक मेरी आत्मा ही अमर है और दूसरे सब संयोगसे उत्पन्न बहिर्भाव हैं ।। १२ ।। मल
१० सर्व सम्बन्धका त्याग संजोग-मूला जीवेण, पत्ता दुक्ख-परंपरा ।
तम्हा संजोग-संबंधं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं॥१३॥ शब्दार्थसंजोग-मूला-संयोगके कारण । संजोग-संबंधं-संयोग - सम्बन्ध
उत्पन्न हुई, कर्म-संयोगके को, कर्म-संयोगोंको। कारण ही।
सव्वं-सर्व । जीवेण-जीवने।
तिविहेणं-तीन प्रकारसे, मन, पत्ता-प्राप्त की है।
वचन और कायासे । दुक्ख-परंपरा-दुःखकी परम्परा । वोसिरिअं- वोसिराया-त्याग किया तम्हा -अत एव ।
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२६७
.
अर्थ-सङ्कलना
मेरे जीवने दुःखकी परम्परा कर्म-संयोगके कारण ही प्राप्त की है, अत एव इन सर्व कर्म-संयोगोंको मैंने मन, वचन और कायासे वोसिराया-त्याग किया है ।। १३ ।। मूल
११ सम्यक्त्वकी धारणा
[ गाहा ] अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिण-पन्नत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिअं ॥१४॥
शब्दार्थ
अरिहंतो-अरिहन्त ।
जिन-पन्नत्त-जिनोंद्वारा प्ररूपित। मह-मेरे।
तत्त-तत्त्व। देवो-देव ( हैं )।
इअ-ऐसा। जावज्जीव-जीऊँ वहाँतक। सम्मत्त-सम्यक्त्व। सुसाहुणो-सुसाधु ।
मए-मैंने। गुरुणो-गुरु ( हैं )।
गहिअं-ग्रहण किया है। अर्थ-सङ्कलना___ मैं जोऊँ वहाँतक अरिहन्त मेरे देव हैं, सुसाधु मेरे गुरु हैं और जिनोंद्वारा प्ररूपित तत्त्व ( यह मेरा धर्म है, ) ऐसा सम्यक्त्व मैंने ग्रहण किया है ॥ १४ ॥
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मूल
१२ क्षमापना
[ दोहा ]
खमिअ खमाविअ मड् खमह, सव्वह जीव - निकाय ! | सिद्धह साख आलोयण, मुज्झह वइर न भाव ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
खमिअ-क्षमा करके (क्षमा किया)
।
खमाविअ - क्षमा कराकर, क्षमा
माँगकर ( क्षमा माँगी ) ।
मइ - मुझे ।
- क्षमा करो ।
२६८
खमह -
सव्वह-आप सब |
जीव- निकाय ! हे जीव-समूह !
सिद्धह-सिद्धोंकी ।
साख- साक्षी में |
आलोयण - आलोचना करता हूँ ।
मुज्झह-मेरा ।
वइर- वैर |
न- नहीं ।
भाव-भाव |
अर्थ-सङ्कलना
हे जीव- समूह ! आप सब खमत - खामणा करके मुझे क्षमा करो। मैं सिद्धोंकी साक्षी में आलोचना करता हूँ कि मेरा किसी भी जीवके साथ वैर भाव नहीं है ।। १५ ।।
मूल
सव्वे जीवा कम्म - वस, चउदह - राज-भमंत । ते मे सव्व खमाविआ, मज्झ वि तेह खमंत ॥ १६ ॥
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२६९ शब्दार्थसव्वे जीवा-सब जीव ।
सव्व-सबको। कम्म-वस-कर्म-वश होकर ।
खमाविआ-खमाये हैं। चउदह-राज-चौदह रज्जुप्रमाण
मज्झ-मुझे। लोकमें।
वि-भी। भमंत-भ्रमण करते हैं। ते-उन।
तेह-वे। मे-मैंने।
खमंत-क्षमा करें। अर्थ-सङ्कलना
सब जीव कर्म-वश होकर चौदह रज्जुप्रमाण लोकमें भ्रमण करते हैं, उन सबको मैंने खमाया है, वे भी मुझे क्षमा करें ॥१६॥
मूल
१३ सर्व पापोंका मिथ्यादुष्कृत जं जं मणेण बद्धं, जं जं वायाइ भासिअंपावं ।
जं जं काएण कयं, मिच्छा मि दुक्कडं तस्स ॥१७॥ शब्दार्थजं जं-जो जो।
जं जं-जो जो। मणेण-मनसे ।
काएण-कायासे । बद्ध-बाँधा हो।
कयं-किया हो। जंज-जो जो।
मिच्छा-मिथ्या । वायाइ-वाणीसे, वचनसे । मि-मेरा। भासिअं-कहा हो।
दुक्कडं-दुष्कृत। पावं-पाप।
तस्स-तत्सम्बन्धी।
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२७०
अर्थ-सङ्कलना
जो जो पाप मनसे बाँधा हो, जो जो पाप वचन से कहा हो, जो जो पाप कायासे किया हो, तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।१७।। सूत्र-परिचय
साधु तथा पोषधधारी श्रावक रात्रिके प्रथम प्रहरमें स्वाध्याय करनेके पश्चात् दूसरे प्रहरमें संथारा करनेके लिये जब गुरु महाराजकी आज्ञा माँगता है, तब यह सूत्र बोलता है । संथारा करनेकी पोरिसीमें यह सूत्र बोला जाता है, इसलिये इसको संथारा-पोरिसी कहते हैं ।
संथारा-पोरिसी
प्रश्न--संथारा-पोरिसीमें पहले क्या किया जाता है ? उत्तर-संथारा-पोरिसीमें प्रथम स्वाध्यायादि प्रवृत्तियोंका निषेध करके
नमस्कार किया जाता है। प्रश्न-यह नमस्कार किसको किया जाता है ? उत्तर-यह नमस्कार सामान्यतः सर्व क्षमाश्रमणों और विशेषतः गौत
मादि महामुनियोंको किया जाता है, क्योंकि निर्वाण-मार्गके
साधनमें इनका जीवन मार्गदर्शक है । प्रश्न-इसके बाद क्या किया जाता है ? उत्तर-बादमें नमस्कार-मन्त्र और सामायिक-सूत्र ( 'करेमि भंते' सूत्र)
का पाठ तीन बार बोला जाता है और ज्येष्ठ आचार्य अथवा गुरुको निवेदन किया जाता है कि 'बहु पडिपुन्ना पोरिसी' अर्थात् पोरिसी स्वाध्यायमें अच्छी तरह व्यतीत हुई है, इसलिये संथारेपर जानेकी आज्ञा दीजिये और उस समय संथारेकी सामान्य विधि भी कही जाती है ।
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२७१
प्रश्न-संथारेकी सामान्य विधि क्या है ? उत्तर-संथारेकी सामान्य विधि यह है कि(१) तृण; सूखा घास अथवा कमलीका संथारा करना और उसपर
तकिया आदि साधन न रखकर हाथका तकिया देकर सोना । (२) वाम-पार्श्वसे सोना। (३) सोते समय मुर्गीकी तरह पैरोंको घुटनोंके यहाँसे सिकोड़ लेना। (४) यदि पैरोंको घुटनेके यहाँसे सिकुड़ना अनुकूल न हो तो पैर . लम्बे कर लें किन्तु ऐसा करते समय जिस भूमिपर पैर रखने हों
उसका प्रमार्जन कर लेना चाहिए। (५) पैर लम्बे करनेके बाद सिकोड़ने हों तो घुटनोंका भाग पुंजना
जिससे जोव-विराधना होना सम्भव न हो। यदि करवट बदलनी हो तो शरीरका प्रमार्जन करना । तात्पर्य यह है कि सोनेके पश्चात् इच्छानुसार करवटें नहीं बदली
जा सकतीं। (७) सोनेके बाद कायचिन्ता ( मल-मूत्र-त्याग ) आदिके लिये
उठना पड़े तो निद्रासे सर्वथा मुक्त होकर ही जाना योग्य है, अन्यथा निद्रावस्थामें उठकर इधर उधर धक्के खाते हुए
चलना, यह आत्मनिष्ठ पुरुषके लिये योग्य नहीं । (८) बराबर जागृत होनेके लिये प्रथम द्रव्य, क्षेत्र, काल और
भावसे विचारणा करनी चाहिये कि 'मैं कौन हूँ ?' 'अभी प्रव्रजित हूँ कि अप्रव्रजित ?' 'व्रतमें हूँ कि व्रतसे बाहर ?' 'कहाँ सोया हुआ हूँ ?' 'पहली, दूसरी या तीसरी मंजिल पर अथवा किसी अन्य स्थानपर ( क्षेत्र ) ? 'कितना समय व्यतीत हुआ होगा ( काल ) ? मेरे अभी उठनेका प्रयोजन क्या है ( भाव ) ? आदि ।
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२७२
(९) इतना होनेपर भी यदि निद्रा पूर्णतया दूर न हो तो नाक
दबाना और श्वास रोकना । जिससे थोड़े ही समयमें निद्राका
दूर होना सम्भव है। (१०) निद्रा बराबर दूर होने पर यदि खिड़की अथवा द्वारसे प्रकाश
आता हो तो उसके सामने देखना तथा इस प्रकार सर्वथा
निद्रामुक्त होनेके पश्चात् ही जयणापूर्वक कायचिन्ता दूर करनी। 'प्रश्न-इसके बाद क्या किया जाता है ? उत्तर-बादमें सागारी अणसण किया जाता है । प्रश्न-वह किस तरह ? उत्तर--'यदि इस रात्रिमें ही मेरा मरण हो जाय तो आहार-पाणी,
वस्त्र-उपकरण और देहको मैं मन, वचन और कायासे वोसिराता हूँ' इस प्रकार गुरुके समक्ष प्रकट किया जाता है। इस तरहकी
एकरारवाली विज्ञप्तिको ‘सागारी अणसण' कहते हैं। प्रश्न-फिर क्या किया जाता है ? उत्तर-फिर मङ्गलभावना की जाती है तथा अरिहन्त, सिद्ध, साधु और
केवलिप्रणीत धर्म इन चारोंकी शरण अङ्गीकार की जाती है । प्रश्न-फिर क्या किया जाता है ? उत्तर-फिर अठारह पापस्थानकोंका त्याग करके आत्मानुशासन किया
जाता है। उसके बाद सर्व पौद्गलिक सम्बन्धोंका त्याग करके सम्यक्त्वको धारणा दृढ़ की जाती है और सब जीवोंके साथ खमत-खामणा करके सब पापोंका मिथ्यादुष्कृत किया जाता है । तदनन्तर रात्रिका संथारा किया जाता है ।
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५० पच्चक्खारणके सूत्र
प्रभातके पच्चक्खाण। १ नवकारसीका पच्चक्खाण । २ पोरिसी और साड्ढपोरिसीका पच्चक्खाण । ३ पुरिमड्ढ-अवड्ढका पच्चक्खाण । ४ एगासण-बियासण और एगलठाणका पच्चक्खाण । ५ आयंबिल-निव्विगइय (निव्वी) का पच्चक्खाण । ६ तिवि(हा)हार उपवासका पच्चक्खाण । ७ चउवि(हा)हार उपवासका पञ्चक्खाण ।
सायंकालके पच्चक्खाण । ८ पाणहारका पञ्चक्खाण । ९ चउवि(हा)हारका पञ्चक्खाण । १० तिवि(हा)हारका पञ्चक्खाण । ११ दुवि(हा)हारका पच्चक्खाण । १२ देशावकाशिकका पञ्चक्खाण । मूल
१ नवकारसीका पच्चक्खाण । . उग्गए सूरे, नमुक्कार-सहिअं मुट्ठि-सहिअं, पञ्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाप्र-१८
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२७४
भोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह ||
२ पोरिसी और साढपोरिसीका डॅपच्चक्खाण । उग्गए सूरे, नमक्कार - सहिअं पोरिसिं साड्ढ - पोरिसिं मुट्ठि - सहिअं पच्चक्खाइ ।
उग्गए सूरे, चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाहमं साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं पच्छन्नकालेणं दिसा - मोहेणं, साहु-वयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिबत्तियागारेण वो सिरs ||
३ पुरिमड्ड - अवड्डका पच्चक्खाण ।
सूरे उग्गए पुरिमड्ढं अवढं मुट्ठि - सहिअं पच्चक्खाइ | चडव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ || ४ एगारण, बियासण और एगलठाण का पच्चक्खाण |
उग्गए सूरे, नमुक्कार - सहिअं, पोरिसिं, साड्ढपोरिसिं मुट्ठि - सहिअं पच्चक्खाइ । चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नका लेणं दिसामोहेणं साहु - वयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं ।
विगइओ पच्चक्खाइ । अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं हित्थसंसद्वेणं अक्खित्तविवेगेणं पडुच्चमक्खिएणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं ।
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२७५
एगासणं पच्चकुखाइ । तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सागारिआगारेणं आउंटणपसारणेणं गुरु-अब्भुट्ठाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा अच्छेण वा बहुलेवेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरs ||
५ आयंबिल, निव्विगइय (निव्वी) का पच्चक्खाण । उग्गए सूरे नमुकार - सहिअं, पोरिसिं, साड्ढपोरिसिं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ ।
उग्गए सूरे, चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहु-वयणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, आयंबिलं पच्चक्खाइ । अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं लेवा - लेवेणं गिहत्थ - संसट्टेणं उक्खित्त - विवेगेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं,
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एगासणं पच्चकुखाइ । तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं सहसागारेणं सागारिआगारेणं आउंटण-पसारणेणं गुरु-अब्भुट्ठाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा अलेवेण या अच्छेण वा बहुलेवेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरs ||
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२७६
६ तिवि (हा) हार उपवासका पच्चक्खाण । सूरे उग्गए अब्भत्तट्ठे पच्चक्खाड़ | तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पारिडावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिबत्तियागारेणं, पाणहार पोरिसिं साड्ढपोरिसिं मुट्ठि - सहिअं पच्चक्खाइ । अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसा - मोहेणं साहु-वयणेणं महत्तरागारेण सव्वसमाहिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा अच्छेण वा बहुलेवेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरइ ॥ ७ चउव्वि (हा) हारका पच्चक्खाण । सूरे उग्गए अभत्तदु पच्चक्खाइ ।
चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ||
८ पाणहारका पच्चक्खाण | पाणहार - दिवसचरिमं पच्चक्खाइ । अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ||
९ चउव्वि (हा) हारका पच्चकखाण । दिवसचरिमं पच्चक्खाड़ |
चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेण वोसिरs ||
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१० तिवि(हा)हारका पच्चक्खाण । दिवसचरिमं पच्चक्खाइ ।
तिविहं पि आहारं-असणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ।
११ दुवि(हा)हारका पच्चक्खाण । दिवसचरिमं पच्चक्खाइ ।
दुविहं पि आहारं-असणं खाइम, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ।।
१२ देशावकाशिकका पच्चक्खाण । देशावगासियं उवभोग-परिभोगं पच्चक्खाइ ।
अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सब्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह ॥ शब्दार्थ( सभी पच्चक्खाणोंके अर्थ एक | नमुक्कार- सहिअं मुट्टि- सहिअं साथ दिये हैं। बार बार -नमस्कार-सहित, मुष्टि-सहित । आनेवाले शब्दोंके अर्थ एक | पच्चक्खाइ-मन, वचन और
बार ही दिये गये हैं। ) ___ कायासे त्याग करता है, उग्गए सूरे-सूर्योदयके पश्चात् । प्रत्याख्यान करता है। दो धड़ीतक, सर्योदयसे दो चउन्विहं पि आहारं - चारों घड़ीतक।
प्रकारके आहारका ।
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.२७८
असणं-अशन ।
सहसागारेणं-सहसाकारसे। अशन-क्षुधाका शमन करे ऐसे
कोई वस्तु इच्छा न होने पर चावल, कठोल, रोटी, पूरी
भी संयोगवशात् अथवा आदि पदार्थ।
हठात् मुँहमें प्रविष्ट हो पाणं-पान ।
जाय उसको सहसागार पान-पानी, छाछ ( मट्ठा ),
कहते हैं। धोवन आदि पीने योग्य । महत्तरागारेणं-महत्तराकारसे । पदार्थ ।
किसी विशिष्ट प्रयोजनके उपखाइम-खादिम ।
स्थित होने पर श्रीसङ्घ खादिम-जिससे कुछ अंशमें अथवा आचार्य महाराज
क्षुधाकी तृप्ति हो ऐसे फल, आज्ञा करें और पच्चक्खाण
गन्ने, चिवड़ा आदि पदार्थ । का समयसे पूर्व पालन साइमं-स्वादिम।
करना पड़े तो उसको स्वादिम–स्वाद लेने योग्य महत्तरागार कहते हैं।
सुपारी, तज, लौंग, इला- सव्वसमाहिवत्तियागारेणं -
यची, चूर्ण आदि पदार्थ । सर्वसमाधिवत्तियागारसे, सर्वअन्नत्थ-इसके अतिरिक्त ।
समाधि-प्रत्ययाकारसे । अणाभोगेणं-अनाभोगसे ।
तोत्र शूल आदि रोगके कारण ( यहाँ मूल शब्द अणाभोगेणं शरीर विह्वल हो और है, किन्तु इनमेंसे अकार प्रत्याख्यानका काल पूर्ण
का लोप हो गया है।) होनेसे पर्व चित्तकी किसो वस्तुका प्रत्याख्यान किया समाधि टिकाने के लिये
है यह बात बिलकुल भूल प्रत्याख्यान पूर्ण किया जानेसे कोई वस्तु खानेमें जाय तो उसको सव्वसमाआ जाय अथवा मुँहमें हिवत्तियागार कहते हैं । रख दी जाय, उसको अना- वोसिरइ-त्याग करता है । भोग कहते हैं। | पोरिसि-पोरिसी।
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२७९ सूर्योदयके बाद एक पोरिसी । भोजन करनेके पात्र अथवा
जितना समय व्यतीत हो चम्मच आदि । वहाँतक चारों आहारका |
अलेव-ऐसे पात्रादिको पोंछ त्याग करनेको पोरिसी
लेना। कहते हैं। साड्ढपोरिसि-डेढ़ पोरिसी।
.. मिहत्थ-संसठ्ठणं-गृहस्थसे जो ।
मिला हुआ हो उससे। साड्ढ-आधेसे युक्त, डेढ़।
गिहत्थ-भोजन देनेवाले (से)। पच्छन्न-कालेणं-कालज्ञान न
संसद-मिला हआ। भोजन होनेसे ।
देनेवालेकी असावधानीके दिसा-मोहेणं-दिशाका विपरीत
कारण विकृतिसे मिला हुआ। भास होनेसे, दिङ्मोहसे। साहुवयणेणं-साधुका वचन सु
उक्खित्त - विवेगेणं- जिस पर
विकृति रखकर उठा ली गयो ननेसे, 'उग्घाडा पोरिसी' ऐसा साधुका वचन सुननेसे ।
हो ऐसी वस्तु काममें लानेसे । पुरिमड्ढ-दिनका पहला आधा
उक्खित्त-उठा ली गयी। विवेगभाग पूर्वार्ध ।
त्याग, विभाग करना ! अवड्ढ-बादका आधा भाग, पडुच्च-मक्खिएणं - साधारण अपरार्ध ।
घृत आदि चुपड़ा हुआ हो एगासणं-एकाशन, एक बार
ऐसी वस्तुसे। ___ खानेका नियम।
पडुच्च-सर्वथा शुष्क ऐसे मांड बे-आसणं-द्वयशन, दो बार
आदि का आश्रय लेकर। खानेका नियम ।
मक्खिअ-जो चुपड़नेमें आया विगइयो-विकृति, विगइ।। लेवालेवेणं-लेपालेपसे, लेपको पारिट्ठावणियागारेणं - विधिअलेप करनेसे ।
पूर्वक परठवना पड़े उससे । लेप-आयंबिलमें त्याग करने- सागारिआगारेणं-गृहस्थ आदियोग्य विकृतिसे लिप्त | के आ जानेसे आहार करनेके
हो।
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२८०
लिये दूसरे स्थानपर जाना पड़े । ग्रहण करनेकी समाचारी उससे।
है। वा-अथवा। सागारिअ-गृहस्थ ।
अलेवेण वा-अथवा छाछके निआगार-घर । साधुको गृह- तारे हुए पानीसे, अलेपसे । स्थके समक्ष आहार-पानी करना यहाँ अलेप शब्दसे साबूदानेका निषिद्ध है अतः गृहस्थके आ धोवन तथा छाछ-मट्ठाका जानेपर अन्यत्र जाकर आहार नितरा हुआ पानी ग्रहण पानी करे तो उसको सागारि
करनेकी समाचारी है। कागार कहते हैं।
| अच्छेण वा -- अथवा स्वच्छ आउंटण - पसारणेणं - सुन्न
पानीसे। पड़ जानेसे अथवा झनझनाहट अच्छ-तीन बार उकाला हुआ आनेसे शरीरके अङ्गोपाङ्ग पानी, निर्जीव, निर्मल जल सिकोड़ने या फैलानेसे।
तथा फल आदिका धोवन । आउंटण-सङ्कोच, सिकुड़ना। बहुलेवेण वा-अथवा चावल पसारण-विस्तार, अङ्गोंको
आदिके धोवनसे । फैलाना ।
यहाँ बहुलेवेण शब्दसे चावल गुरु-अब्भुटाणेणं-गुरु अथवा आदिके धोवनका पानी ज्येष्ठ मुनिके आ जानेसे खड़ा
लेनेकी समाचारी है। होना पड़े उससे । | ससित्वेण वा-अथवा राँधे हुए गुरु-गुरु, अपनेसे पहले दीक्षित चावलोंके गाढ़े माँडसे ।
मुनि । अब्भुट्ठाण-खड़ा ससित्थ-राँधे हुए चावलोंका होना ।
धोवन । पाणस्स-पानी सम्बन्धी।
असित्थेण वा-अथवा चावल लेवेण वा-ओसामण, इमली, | आदिके पतले माँडसे ।
दाख आदिके पानीसे, लेपसे । असित्थ-जो वस्तु अधिक न यहाँ लेप-शब्दसे ओसामण | धोयी गयी हो पर सामान्य
इमली, दाख आदिका पानी धोयी गयो हो।
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२८१ आयंबिल-आयंबिल, आयामाम्ल । पाणहार - दिवसचरिमं - पाणअथवा आचामाम्ल।
हार नामका दिवस चरिम आयाम-मांड ( धोवन )।
प्रत्याख्यान। आम्ल-कॉजी अथवा खट्टा पानी।
पाणहार-पानीके आहारकी जो चावल, उड़द और जब
छट थी उसका प्रत्याख्यान । आदिके भोजनमें जिसका
दिवस चरिम-जो दिनके (इन दो वस्तुओंका) मुख्य
अवशिष्ट भागमें तथा सारी उपयोग होता है, उसको
रातके लिये किया जाता आगमकी भाषामें आयंबिल
है, वह दिवस - चरिम कहते हैं।
प्रत्याख्यान ।
देसावगासियं -देशावकाशिक-व्रत अब्भत्तटुं-उपवासको।
सम्बन्धी। अब्भत्तट्ठ-जिसमें भोजन कर- उवभोगं परिभोगं - उपभोग नेका प्रयोजन न हो।
परिभोगको।
-
अर्थ-सङ्कलना
(१) नवकारसी सूर्योदयसे दो घड़ीतक नमस्कार-सहित मुष्टि-सहित नामका प्रत्याख्यान करता है। उसमें चारों प्रकारक आहारका अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार-पूर्वक त्याग करता है।
( २ ) पोरिसी और साड्ढपोरिसी सूर्योदयसे एक प्रहर ( अथवा डेढ़ प्रहर ) तक नमस्कार-सहित मुष्टि-सहित प्रत्याख्यान करता है। उसमें चारों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिमका अनभोग, सहसाकार,
___
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२८२
प्रच्छन्नकाल, दिङ मोह, साधु-वचन, महत्तराकार और सर्व-समाधिप्रत्ययाकार-पूर्वक त्याग करता है।
(३) पुरिमड्ढ-अवड्ढ
सूर्योदयसे पूर्वार्ध अर्थात् दो प्रहरतक अथवा अपराध अर्थात् तीन प्रहरतक ( नमस्कार-सहित ) मुष्टि-सहित प्रत्याख्यान करता है। उसमें चारों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिङ्मोह, साधु-वचन, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार-पूर्वक त्याग करता है ।
( ४ ) एगासण, बियासण और एगलठाण
सूर्योदयसे एक प्रहर अथवा डेढ़ प्रहरतक नमस्कार-सहित, मुष्टि-सहित प्रत्याख्यान करता है। उसमें चारों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिङ्मोह, साधु-वचन, महत्तराकार और सर्व-समाधिप्रत्याकार-पूर्वक त्याग करता है।
अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थ-संसृष्टं, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्य-म्रक्षित, पारिष्ठापनिकार, महत्ताकार और सर्व-समाधिप्रत्ययाकार-पूर्वक विकृतियोंका त्याग करता है।
बियासणमें चौदह आगारोंकी छूट होती है, वह इस प्रकार :अनाभोग,' सहसाकार, सागरिकाकार,आकुञ्चन-प्रसारण, गुर्व
___
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भ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार, लेप, अलेप, अच्छ,११ बहुलेप, ससिक्थ,१३ असिक्थ५४ ।
(५) आयंबिल और निवी
सूर्योदयसे एक प्रहर ( अथवा डेढ़ प्रहर ) तक नमस्कार-सहित, मुष्टि-सहित प्रत्याख्यान करता है। उसमें चारों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिङ्मोह, साधुवचन, महत्तराकार और सर्व-समाधिप्रत्ययाकार-पूर्वक त्याग करता है।
आयंबिलका आठ आगार-पूर्वक प्रत्याख्यान करता है :-अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थ-संसृष्ट, उत्क्षिप्त-विवेक, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार।
एकाशनका प्रत्याख्यान करता है, उसमें तीनों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, आकुञ्चन-प्रसारण, गुर्वभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार-पूर्वक त्याग करता है । ___ पानी-सम्बन्धी छ: आगार :- लेप, अलप, अच्छ, बहुलेप, ससिक्थ और असिक्थ ।
( ६ ) तिवि(हा)हारका उपवास
( सूर्योदयसे लेकर दूसरे दिनके ) सूर्योदयतक उपवासका प्रत्याख्यान करता है। उसमें तीनों प्रकारके आहारोंका अर्थात्
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पानोके अतिरिक्त अशन, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार पूर्वक त्याग करते हैं ।
__ पानी-आहारका एक प्रहर ( अथवा डेढ़ प्रहर ) तक नमस्कारसहित, मुष्टि-सहित, अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिङ्मोह, साधु-वचन, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार-पूर्वक प्रत्याख्यान करता है।
पानीके-( आगार ):-लेप, अलेप, अच्छ, बहुलेप, ससिक्थ और असिक्थ ।
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(७) चउवि(हा)हार उपवास
( सूर्योदयसे लेकर दूसरे दिनके ) सूर्योदयतक उपवासका प्रत्याख्यान करता है। उसमें चारों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार-पूर्वक त्याग करता है।
(८) पाणहार
दिवसके शेष भागसे सम्पूर्ण रात्रि-पर्यन्त पानीके आहारका अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकारपूर्वक त्याग करता है।
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(९) चउव्वि(हा)हार
दिवसके शेष भागसे सम्पूर्ण रात्रि-पर्यन्तका प्रत्याख्यान करता है। उसमें चारों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधि-प्रत्ययाकार-पूर्वक-त्याग करता है।
(१०) तिवि(हा)हार
दिवसके शेष भागसे सम्पूर्ण रात्रि-पर्यन्तका प्रत्याख्यान करता है। उसमें तीनों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन खादिम और स्वादिमका अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधिप्रत्ययाकार-पूर्वक त्याग करता है।
(११) दुवि(हा)हार
दिवसके शेष भागसे सम्पूर्ण रात्रि-पर्यन्तका प्रत्याख्यान करता है। उसमें दोनों प्रकारके आहारका अर्थात् अशन और खादिमका अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकारपूर्वक त्याग करता है।
(१२) देशावकाशिक
देशसे संक्षेप की हुई उपभोग और परिभोगकी वस्तुओंका प्रत्याख्यान करता है, और उसका अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार पूर्वक त्याग करता है।
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प्रत्याख्यान
मूलगुण-प्रत्याख्यान
उत्तरगुण-प्रत्याख्यान
सर्व मल०
देश मूल
सर्व उत्तर०
देश उत्तर०
| | १ | २, ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १०
पहला दूसरा तीसरा चौथा पाँचवाँ महाव्रत म० म० म० म०
अतिक्रान्त कोटि-सहित " नियन्त्रित
अनाकार कृत-परिमाण ८ निरवशेष सङ्केत अद्धा
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अनागत
साकार
स्थूल प्रा. स्थूल मृ. स्थूल अ० परदारा० परिग्रह परिमाण व्रत
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९ सङ्कत
१० अद्धा
ਆ ਚ ਜਦ ਜਦ ਜ ਦ , ਕਦੇ
अंगुट्ट स० मुट्ठि स०
गंठि स०
घर स० सेउ स० सास स० थिबुअ स० जोइ स०
।१ । २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ नमुक्कार-स० पोरिसी पुरिमड्ढ- एगासण एगलठाण आयंबिल उपवास चरिम
साड्ढ पोरिसी अवडढ
९ । १० अभिग्रह विगइत्याग
२८७
देश उत्तर
दिगव्रत उपभोग- अनर्थदण्ड- सामायिक देशावकाशिक पोषधोपवास अतिथि-संविभाग
परिभोग-परिमाण विरमण
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सूत्र-परिचय
प्रतिक्रमण में छठे आवश्यकके अधिकार में जब पच्चक्खाण किये जाते हैं, तब इस सूत्र का उपयोग होता है ।
प्रत्याख्यान ( पच्चक्खाण )
२८८
प्रश्न
प्रश्न -- प्रत्याख्यान क्या है ?
उत्तर—आत्माको संयमगुणसे विभूषित करनेवाली एक प्रकारकी क्रिया । - प्रत्याख्यानका अर्थ क्या है ?
-
उत्तर—प्रत्याख्यान शब्द प्रति आ और ख्यान ऐसे तीन पदोंसे बना हुआ है । प्रति अर्थात् अविरतिसे प्रतिकूल, आ अर्थात् विरतिके अभिमुख और ख्यान अर्थात् कहना | तात्पर्य यह है कि अविरतिके प्रतिकूल और विरतिके अनुकूल ऐसा जो प्रतिज्ञारूप कथन है वह प्रत्याख्यान कहलाता है ।
प्रश्न – प्रत्याख्यान के पर्यायवाची शब्द कौनसे हैं ?
-
उत्तर — नियम, अभिग्रह, विरमण, व्रत, विरति आश्रवद्वार - निरोध
निवृत्ति, गुणधारणा आदि ।
प्रश्न - प्रत्याख्यान कितने प्रकारका होता है ?
जाय,
उत्तर -- दो प्रकारका : - ( १ ) मूलगुण - प्रत्याख्यान और ( २ ) उत्तरगुणप्रत्याख्यान । उसमें मूलगुणके सम्बन्ध में जो प्रत्याख्यान किया उसको मूलगुण - प्रत्याख्यान कहते हैं और उत्तरगुणके सम्बन्ध में जो प्रत्याख्यान किया जाय, उसको उत्तरगुण प्रत्याख्यान कहते हैं । इनके भेद - प्रभेद ऊपर बतलाई हुई तालिकासे बराबर समझ में आ जायगा ।
प्रश्न -- अनागत- प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर- पर्व के दिनोंमें ग्लान, वृद्ध आदिका वैयावृत्त्य हो सके तदर्थ पर्व
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२८९ आनेसे पूर्व ही तपश्चर्याका प्रत्याख्यान करना, उसको अनागत
प्रत्याख्यान कहते हैं। प्रश्न-अतिक्रान्त-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर-पर्व के दिनोंमें वैयावृत्त्य आदिके कारणसे जो तपश्चर्या न हो सकी
हो तो वह बादके दिनोंमें करनी, उसको अतिक्रान्त-प्रत्याख्यान
कहते हैं। प्रश्न-कोटिसहित-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर-उपवास आदि जो तपश्चर्या पूर्ण हो गयी हो, वैसी ही तपश्चर्या
फिरसे करनेके प्रत्याख्यानको कोटिसहित-प्रत्याख्यान कहते हैं । प्रश्न-नियन्त्रित-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर--पहले जिस प्रत्याख्यानका सङ्कल्प किया हो, वह रोगादि कारणोंके
उपस्थित होनेपर भी पूर्ण करना, उसको नियन्त्रित प्रत्याख्यान कहते हैं । ऐसा प्रत्याख्यान चौदहपर्वी, दसपूर्वी तथा जिनकल्पोंको
होता है। प्रश्न-साकार-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर-प्रत्याख्यानमें आवश्यक आगार ( आकार ) रखे हों, उसको
साकार--प्रत्याख्यान कहते हैं । प्रश्न-अनाकार-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर-जिस प्रत्याख्यानमें कोई आगार ( आकार ) नहीं रखे हों, उसको
अनाकार-प्रत्याख्यान कहते हैं । प्रश्न-परिमाणकृत-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसमें दत्ती, कवल ( कौर ) अथवा घरकी संख्याका परिमाण
हो, उसको परिमाणकृत-प्रत्याख्यान कहते हैं। प्रश्न-निरवशेष-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ?
प्र-१९
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२९०
उत्तर-जिसमें चारों आहार तथा अफीम-तम्बाकू आदि अनाहारका भी
प्रत्याख्यान किया जाय, उसको निरवशेष-प्रत्याख्यान कहते हैं । प्रश्न-सङ्केत-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर-जो प्रत्याख्यान किसी भी संकेतसे किया गया हो, उसको
संकेत-प्रत्याख्यान कहते हैं। जैसे कि अँगूठा मुट्टीमें रखकर नमस्कार नहीं गिनूँ वहाँतकका प्रत्याख्यान, जहाँतक मुट्ठी बन्द
रखकर नमस्कार न गिनें वहाँतकका प्रत्याख्यान आदि । प्रश्न-अद्धा-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसमें समयकी मर्यादा रखी गयी हो, उसको अद्धा-प्रत्याख्यान
कहते हैं। इसके दस प्रकार हैं, वे इस तरह :(१) नमस्कार-सहित ( नमुक्कारसी अथवा नवकारसी )। (२) पौरुषी-सार्द्ध पौरुषी ( पोरिसी, साड्ढपोरिसी )। (३) पुरिमाध-अपार्ध ( पुरिमड्ढ, अवड्ढ ) । (४) एकाशन-द्वयशन ( एगासण, बियासण )। (५) एकलस्थान ( एगलठाण ) । (६) आयामाम्ल ( आयंबिल )। (७) उपवास ( चउत्थभत्त )। (८) चरिम ( चरिम )। (९) अभिग्रह ( अभिग्गह )। (१०) विकृतित्याग ( विगइका त्याग )।
आधुनिक समयमें इन दस प्रत्याख्यानोंका ब्यवहार विशेष है । प्रश्न-कैसा प्रत्याख्यान विशेष फल देता है ? उत्तर--छः शुद्धिपूर्वक किया हुआ प्रत्याख्यान विशेष फल देता है, वह
इस प्रकार :-स्पर्शना-अर्थात् उचित समय पर विधिपूर्वक प्रत्याख्यान
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२९१
करना, (२) पालना - अर्थात् प्रत्याख्यानका हेतु लक्ष्य में रखकर वर्तन करना, (३) शोभना - अर्थात् प्रत्याख्यान पूर्ण करने से पूर्व अतिथि - संविभाग करना, (४) तीरणा - अर्थात् प्रत्याख्यानका समय पूर्ण होने तक धैर्य रखकर उससे कुछ अधिक समय जाने देना, (५) कीर्तना - अर्थात् प्रत्याख्यान पूर्ण होने पर उसका उत्साहपूर्वक स्मरण करना और (६) आराधना - अर्थात् कर्मक्षय के निमित्तसे ही प्रत्याख्यान करना ।
प्रश्न - प्रत्याख्यान से कौनसे लाभ होते हैं ?
उत्तर - प्रत्याख्यानसे मनको दृढ़ता ( एकाग्रता ) प्राप्त होती है, त्यागकी शिक्षा मिलती है, चारित्रगुणकी धारणा होती है, आस्रवका निरोध होता है, तृष्णाका छेद होता है, अतुलनीय उपशम गुणको उपलब्धि होती है और क्रमशः सर्व संवरकी प्राप्ति होकर अणाहारीपदकी प्राप्ति होती है ।
मूल
५१ श्रीवर्धमानजिन - स्तुतिः [ ' स्नातस्या' - स्तुति ]
( शार्दूलविक्रीडित )
स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे शच्या विभोः शैशवे, रूपालोकन - विस्मयाहृत - रस - भ्रान्त्या भ्रमच्चक्षुषा । नयन - प्रभा - धवलितं क्षीरोदकाशङ्कया, वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति श्रीवर्धमानो जिनः ॥ १ ॥
उन्मृष्टं
•
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२९२ हंसांसाहत-पझरेणु - कपिश - क्षीरार्णवाम्भोभृतैः, कुम्भैरप्सरसां पयोधर-भर-प्रस्पर्धिभिः काञ्चनैः । येषां मन्दर-रत्नशैल-शिखरे जन्माभिषेकः कृतः, सर्वैः सर्व-सुरासुरेश्वरगणस्तेषां नतोऽहं क्रमान् ॥२॥
( स्रग्धरा ) अर्हद्वक्त्र-प्रसूतं गणधर-रचितं द्वादशाङ्गं विशालं, चित्रं बह्वर्थ-युक्तं मुनिगण-वृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः । मोक्षाग्रद्वारभूतं व्रतचरण-फलं ज्ञेय-भाव-प्रदोपं, भक्त्या नित्यं प्रपद्ये श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥३॥ निष्पङ्क-व्योम-नील-द्युतिमलसदृशं बालचन्द्राभदंष्ट्र, मत्तं घण्टारवेण प्रसृत-मदजलं पूरयन्तं समन्तात् । आरूढो दिव्यनागं विचरति गगने कामदः कामरूपी, यक्षः सर्वानुभूतिर्दिशतु मम सदा सर्वकार्येषु सिद्धिम् ॥४॥ शब्दार्थस्नातस्य-स्नान कराये हुए, स्नात- | करनेसे उत्पन्न अद्भुतरसको ___ अभिषेक कराये हुए।
भ्रान्तिसे । अप्रतिमस्य-अनुपम, अद्भुत ।
रूप-सौन्दर्य । आलोकन-अवमेरुशिखरे-मेरुपर्वतके शिखरपर । लोकन, देखना। विस्मयशच्या-इन्द्राणीने ।
आश्चर्य, अद्भुत । आहृतविभोः-अर्हदेवके, प्रभुके।
उत्पन्न हुआ। रस-उत्कट शैशवे बाल्यावस्थामें।
भाव । भ्रान्ति-भ्रम । रूपालोकन - निस्मयाहृत - रस भ्रमच्चक्षुषा-घूमते हुए नेत्रवाली,
-भ्रान्त्या-रूपका अवलोकन । चञ्चल बने हुए नेत्रोंवाली।
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२९३
पर।
उन्मृष्ट-पोंछा।
| अप्सरसां-अप्सराओंके नयन-प्रभा - धवलितं - नेत्रकी पयोधर-भर-प्रस्पधिभिः-स्तनकान्तिसे श्वेत बना हुआ, अपनी समूहकी स्पर्धा करनेवालोंसे । नेत्रकान्तिसे ही उज्ज्वल बने हुए। पयोधर-स्तन । भर-समूह । नयन-नेत्र । प्रभा-कान्ति ।
प्रस्पधिन्-स्पर्धा करनेवाला। धवलित-उज्ज्वल बना हुआ। काञ्चनैः-सुवर्ण के बने हुए,सुवर्ण के । क्षीरोदकाशङ्कया - क्षीरोदककी येषां-जिनका।
शङ्कासे, क्षीरसागरका जल रह | मन्दर-रत्नशैल - शिखरे – मेरु
तो नहीं गया ? इस शङ्कासे। पर्वतके रत्नशैल नामक शिखर वक्त्रं-मुखको। यस्य-जिनके।
जन्माभिषेकः-जन्माभिषेक । पुनः पुनः-बार-बार ।
कृतः-किया है। स-वह, वे।
सर्वैः-सबने । जयति-जयको प्राप्त हो रहे हैं। सर्व - सुरासुरेश्वरगणैः - सब श्रीवर्धमानो जिन:-श्रीमहावीर जातिके सुर और असुरोंके जिन ।
इन्द्रोंने। हंसांसाहत - पद्मरेणु - कपिश- सुर-वैमानिक और ज्योतिष्क
क्षीरार्णवाम्भोभृतैः - हंसकी देव । असुर-भवनपति और पाँखोंसे उड़े हुए कमल-पराग व्यन्तरदेव । ईश्वर-स्वामी, से पीत ऐसे क्षीरसमुद्रके जलसे
इन्द्र । गण-परिवार । भरे हुए।
तेषां-उनके। हंस-पक्षि-विशेष । अंस-पक्ष, | नतः-नमन करता हूँ। पाँख । आहत-उड़ा हुआ।
त-उड़ा हुआ। अहं-मैं । पद्म-कमल । रेणु-पराग। क्रमान-चरणोंको, चरणोंमें । कपिश-पीत,पीला। क्षीरा- अर्हवक्त्र-प्रसूतं-श्रोजिनेश्वर णव-क्षीर समुद्र । अम्भ:- देवके मुखसे अर्थरूपमें प्रकटित ।
जल । भृत-भरा हुआ, पूर्ण । अर्हद्-श्रीजिनेश्वरदेव । वक्त्रकुम्भैः -घड़ोंसे ।
___ मुख । प्रसूत-प्रकटित ।
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२९४ गणधर - रचितं - गणधरोंद्वारा सर्वलोक-अखिल विश्व । एक सूत्ररूपमें गुंथे हुए।
सार-अद्वितीय सारभूत । द्वादशाङ्ग-बारह अङ्गवाले। निष्पङ्क - व्योम - नील-द्युतिविशालं-विस्तृत ।
बादल-रहित (स्वच्छ) आकाशचित्रं-अद्भुत ।
की नील-प्रभाको धारण करनेबह्वर्थ- युक्तं-बहुत अर्थोंसे युक्त ।। वाले। मुनिगण वृषभैः-श्रेष्ठमुनि-समूहसे।
निष्पङ्क-बादल रहित, स्वच्छ । वृषभ-श्रेष्ठ ।
व्योम-आकाश। नील -- वर्ण धारितं- धारण किये हुए।
विशेष गहरा बादली रङ्ग । बुद्धिमद्भिः-बुद्धि निधान ।
द्युति-प्रभा। मोक्षान - द्वारभूतं-मोक्षके द्वार ।
अलस - दृशं - आलस्यसे मन्द समान। व्रत-चरण-फलं-व्रत और चारित्र
(मदपूर्ण) बनी हुई दृष्टिवाले । रूपी फलवाले।
अलस-आलस्य । दृश्-दृष्टि । ज्ञेय-भाव-प्रदोपं-जानने योग्य बालचन्द्राभ - दंष्ट्र - द्वितीयाके पदार्थोंको प्रकाशित करने में
चन्द्रकी तरह वक्र दाढ़ोंवाले ।
बालचन्द्र - द्वितीयाका चन्द्र । दोपक-समान ।
आभ-जैसा । दंष्ट्र-दाढ़ । ज्ञेय - जानने योग्य । भावपदार्थ । प्रदीप-दीपक ।
| मत्तं-मत्त । भक्त्या -भक्तिपूर्वक ।
घण्टारवेण - घण्टाओंके नादसे, नित्यं-अहर्निश ।
गले में बँधी हुई घण्टियोंके नादसे । प्रपद्ये-आश्रय ग्रहण करता हूँ। प्रसृत-मदजलं - झरते हुए मदश्रुतं-श्रुतका।
जलको। अहं-मैं।
पूरयन्तं-पूरित करता हुआ, फैलाते अखिलं-समस्त । सर्वलोकैकसारम्-अखिल विश्वमें समन्तात्-चारों ओर। अद्वितीय सारभूत ।
आरूढो-आरूढ, विराजित ।
हुये।
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२९५
दिव्य-नागं-दिव्य हाथी पर यक्षः-यक्ष । विचरति-विचरण करता है, विच- सर्वानुभूतिः-सर्वानुभूति । रण करनेवाला।
दिशतु-प्रदान करे। गगने-आकाशमें।
मम-मुझे। कामदः- सम्पूर्ण मनःकामनाओंको
सदा-सदा। पूर्ण करनेवाले। कामरूपी-इच्छित रूपको धारण | सर्वकार्येषु-सब कार्योंमें । करनेवाला।
सिद्धिम्-सिद्धिको। अर्थ-सङ्कलना
बाल्यावस्थामें मेरु पर्वतके शिखरपर स्नात-अभिषेक कराये हुए प्रभुके रूपका अवलोकन करते हुए उत्पन्न हुई अद्भुत-रसकी भ्रान्ति से चञ्चल बने हुए नेत्रोंवाली इन्द्राणीने क्षीरसागरका जल रह तो नहीं गया? इस शङ्का से अपनी नेत्रकान्तिसे ही उज्ज्वल बने हुए जिनके मुखको बार-बार पोंछा, वे श्रीमहावीर जिन जयको प्राप्त हो रहे हैं ।। १।।
सर्व जातिके सुर और असुरोंके इन्द्रोंने जिनका जन्माभिषेक हंसके पाँखोंसे उड़े हुए कमल-परागसे पीत ऐसे क्षीर समुद्रके जलसे भरे हुए और अप्सराओंके स्तन-समूहकी स्पर्धा करनेवाले सुवर्णके घड़ोंसे मेरुपर्वतके रत्नशैल नामक शिखरपर किया है, उनके चरणोंमें मैं नमन करता हूँ॥ २ ॥ ____ श्रीजिनेश्वरदेवके मुखसे अर्थरूपमें प्रकटित और गणधरोंद्वारा सूत्ररूपमें गुंथे हुए, बारह अङ्गवाले, विस्तृत, अद्भुत रचना-शैलीवाले, बहुत अर्थोंसे युक्त, बुद्धिनिधान ऐसे श्रेष्ठ मुनि-समूहसे धारण किये हुए, मोक्षके द्वार समान, व्रत और चारित्ररूपी फलवाले, जानने
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२९६ योग्य पदार्थों को प्रकाशित करने में दीपकसमान और समस्त विश्व में अद्वितीय सारभूत ऐसे समस्त श्रुतका मैं भक्तिपूर्वक अहर्निश आश्रय ग्रहण करता हूँ।। ३ ।।
बादल-रहित स्वच्छ आकाशको नील-प्रभाको धारण करनेवाले आलस्यसे मन्द ( मदपूर्ण ) दृष्टिवाले, द्वितीयाके चन्द्रकी तरह वक्र दाढ़ोंवाले, गले में बँधी हई घण्टियोंके नादसे मत्त, झरते हुए मदजलको चारों ओर फैलाते हुए ऐसे दिव्य हाथीपर विराजित मन:कामनाओंको पूर्ण करनेवाले, इच्छित रूपको धारण करनेवाले और आकाशमें विचरण करनेवाले सर्वानुभूति यक्ष मुझे सर्व कार्यों में सिद्धि प्रदान करें ॥४॥ सूत्र-परिचय
इस सूत्रमें चार स्तुतियाँ हैं। उनमें पहली स्तुति श्रीमहावीर स्वामीकी है, दूसरी स्तुति सर्व जिनोंकी है, तीसरी स्तुति द्वादशाङ्गीकी है और चौथी स्तुति सर्वानुभूति यक्षको है।
सूत्र की चतुर्थ-स्तुतिमें आये हुए बालचन्द्र पदसे यह सूत्र श्रीबालचन्द्रसूरिने बनाया हो ऐसा प्रतीत होता है। सम्प्रदाय ( किंवदन्ती ) के अनुसार ये बालचन्द्रसूरि श्रीहेमचन्द्राचार्य के शिष्य थे और बादमें गुरुके साथ विरोध होनेसे पृथक् हो गये थे, इसलिये उनके द्वारा रचित स्तुतिकी संघकी ओरसे स्वीकृति नहीं हुई; परन्तु कालधर्म प्राप्त होनेके पश्चात् वे व्यन्तर जातिके देव हुए और उन्होंने श्रीसंघमें उपद्रव करना आरम्भ किया, तब श्रीसंघने द्रव्य-क्षेत्र -काल-भावका विचार करके इस स्तुतिको स्वीकृति दी थी और तबसे यह स्तुति पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके प्रसङ्गपर बोली जाती है ।
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PARE
५२ भुवनदेवता-स्ततिः
[ भुवनदेवताकी स्तुति ]
मूल
भुवणदेवयाए करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ.
[ गाहा ] ज्ञानादिगुण-युतानां, नित्यं स्वाध्याय-संयम-रतानाम् । विदधातु भुवनदेवी, शिवं सदा सर्वसाधूनाम् ॥१॥ शब्दार्थभुवणदेवयाए-भुवनदेवताके लिये, नित्यं-निरन्तर ।
भुवनदेवीकी आराधनाके स्वाध्याय - संयम - रतानाम् - निमित्तसे।
स्वाध्याय और संयममें लीन । करेमि-मैं करता हूँ।
विदधातु-करो। काउस्सग्गं-कायोत्सर्गको। भुवनदेवी-भुवनदेवी। अन्नत्थ०-इसके अतिरिक्त० । शिवं-कल्याण, उपद्रव-रहित । ज्ञानादिगुण - युतानां - ज्ञानादि | सदा-सदा।
गुणोंसे युक्तका, ज्ञान, दर्शन सर्वसाधूनाम् – सब साधुओंका, और चारित्रसे युक्त।
साधुओंको। अर्थ-सङ्कलना
भुवनदेवीकी आराधना के निमित्तसे मै कायोत्सर्ग करता हूँ। इसके अतिरिक्त
ज्ञान, दर्शन, और चारित्रसे युक्त, निरन्तर स्वाध्याय और संयममें लीन ऐसे सब साधुओंको भुवनदेवी सदा उपद्रव रहित करे ॥१॥
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२९८
सूत्र-परिचय
पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके समय भुवनदेवताका कायोत्सर्ग करते हुए यह स्तुति बोली जाती है ।
५३ क्षेत्रदेवता-स्तुतिः
[ क्षेत्रदेवताकी स्तुति ] मूलखित्तदेवयाए करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ०
[ सिलोगो] यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, साधुभिः साध्यते क्रिया ।
सा क्षेत्रदेवता नित्यं, भूयान्नः सुखदायिनी ॥१॥ शब्दार्थखित्तदेवयाए-क्षेत्रदेवताकी आरा- साध्यते-साधी जाती है, की धनाके निमित्तसे।
जाती है। करेमि-मैं करता हूँ। क्रिया-मोक्षमार्गकी आराधना । काउस्सग्गं-कायोत्सर्ग। सा-वह। अन्नत्थ०-इसके अतिरिक्त क्षेत्रदेवता-क्षेत्रदेवता। यस्याः -जिनके।
नित्यं-सदा। क्षेत्र-क्षेत्रका।
भूयात्-हो। समाश्रित्य-आश्रय लेकर । नः-हमें । साधुभिः-साधुओंद्वारा। सुखदायिनी-सुख देनेवाली।
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२९९
अर्थ-सङ्कलना
क्षेत्रदेवताकी आराधनाके निमित्त मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। इसके अतिरिक्त
जिनके क्षेत्रकाआश्रय लेकर साधुओंद्वारा मोक्षमार्ग को आराधना की जाती है, वह क्षेत्रदेवता हमें सदा सुख देनेवाला हो ॥१।। सूत्र-परिचय
पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके समय क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करते हुए यह स्तुति बोली जाती है ।
५४ चतुर्विशति-जिन-नमस्कारः
[ 'सकलाहत्'-स्तोत्र ]
[ अनुष्टुप् ] सकलाईत्-प्रतिष्ठानमधिष्ठानं शिवश्रियः।
भूर्भुवः-स्वस्त्रयीशानमार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥१॥ शब्दार्थसकलाईत -प्रतिष्ठानं-जो सर्व । अधिष्ठानं शिवश्रियः-जो मोक्ष
अरिहन्तोंमें स्थित है। सकल-सर्व । अर्हत् - अरि
-लक्ष्मीका निवास स्थान है। हन्तोंमें प्रतिष्ठान - प्रतिष्ठित अधिष्ठान-निवास-स्थान । शिवकिया हुआ है, स्थित है। . । श्री-मोक्षरूपी लक्ष्मी।
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३०० भूर्भुवः स्वस्त्रयोशानं - जो भू- स्वः – स्वर्ग । त्रयी-तीन
र्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक ईशान-प्रभुत्व रखनेवाले। इन तीनोंपर सम्पूर्ण प्रभुत्व आर्हन्त्यं प्रणिदध्महे - अरिहन्तके रखता है।
तत्त्व ( आर्हन्त्य का हम भूः-पाताल । भुवः-मर्त्यलोक। ध्यान करते हैं।
अर्थ-सङ्कलना
जो सर्व अरिहन्तोंमें स्थित है, जो मोक्ष-लक्ष्मीका निवासस्थान है, तथा जो पाताल, मर्त्यलोक और स्वर्गलोक इन तीनोंपर सम्पूर्ण प्रभुत्व रखता है, उस अरिहन्तके तत्त्व ( आर्हन्त्य )का हम ध्यान करते हैं ॥१॥
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नामाऽऽकृति-द्रव्य-भावैः, पुनतस्त्रिजगजनम् ।
क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे ॥२॥ शब्दार्थनामाऽऽकृति-द्रव्य-भावैः- त्रिजगज्जनम्-तीनों लोकके प्राणिनाम, स्थापना, द्रव्य और
क्षेत्रे-क्षेत्र में। भाव-निक्षेपद्वारा।
काले-कालमें। नाम-नाम-निक्षेप । आकृति | च-और। -स्थापना-निक्षेप । द्रव्य-द्रव्य
सर्वस्मिन्-सर्व । निक्षेप । भाव-भाव-निक्षेप । अर्हतः-अर्हतोंको, अर्हतोंकी।
निक्षेप अर्थात् अर्थव्यवस्था। समुपास्महे-हम सम्यग् उपासना पुनतः-पवित्र कर रहे हैं।
करते हैं।
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३०१
अर्थ-सङ्कलना___ जो सर्वक्षेत्रमें और सर्वकाल में नाम, स्थापना, द्रव्य और भावनिक्षेपद्वारा तीनों लोकके प्राणियोंको पवित्र कर रहे हैं, उन अर्हतोंकी हम सम्यग् उपासना करते हैं ॥ २॥
मूल
आदिमं पृथिवीनाथमादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभ-स्वामिनं स्तुमः ॥३॥
शब्दार्थआदिम-पहले।
आदिमं-पहले। पृथिवीनाथं-पृथ्वीनाथकी, राजाको।
तीर्थनार्थ-तीर्थङ्करको।
च-और। आदिम-पहले।
ऋषभ-स्वामिन-श्रीऋषभदेवकी। निष्परिग्रहम-साधुको।
स्तुमः-हम स्तुति करते हैं।
अर्थ-सङ्कलना___पहले राजा, पहले साधु और पहले तीर्थङ्कर ऐसे श्रीऋषभदेवकी हम स्तुति करते हैं ॥ ३ ॥
मूल
अहेन्तमजितं विश्व-कमलाकर-भास्करम् । अम्लान-केवलादर्श-सक्रान्त-जगतं स्तुवे ॥ ४ ॥
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३०२
शब्दार्थअर्हन्तं-पूजनीय
अम्लान-केवलादर्श-सङ्क्रान्तअजितं-श्रीअजितनाथ भगवानको। जगतं-जिनके केवलज्ञानरूपी विश्वकमलाकर - भास्करम्- दर्पणमें सारा जगत् प्रतिबि
जगत्के प्राणीरूप कमलोंके म्बित हुआ है, उनकी। समूहको विकसित करने के लिये
अम्लान-निर्मल । केवलादर्शसूर्य-स्वरूप ।
_केवलज्ञानरूपी दर्पण । विश्व-जगत्के प्राणी । कमलाकर-कमलोंका समूह ।
सङ क्रान्त-प्रतिबिम्बित हुआ है। भास्कर-सूर्य । स्तुवे-मैं स्तुति करता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
जगत्के प्राणीरूपी कमलोंके समूहको विकसित करनेके लिये सूर्य-स्वरूप तथा जिनके केवलज्ञानरूपी दर्पणमें सारा जगत् प्रतिबिम्बित हुआ है, ऐसे पूजनीय श्रीअजितनाथ भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ॥ ४॥ मूल
विश्व-भव्य-जनाराम-कुल्या-तुल्या जयन्ति ताः ।
देशना-समये वाचः, श्रीसम्भव-जगत्पतेः ॥ ५॥ शब्दार्थविश्व-भव्य-जनाराम - कुल्या- आराम-बगीचा। कुल्या
तल्याः-विश्वके भव्यजनरूपी ___नाली । तुल्या-समान । बगीचेको सींचनेके लिये नालीके | जयन्ति - जयको प्राप्त हो समान ।
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३०३
ताः -वे |
वाच:- वाणी, वचन | देशना-समये - धर्मोपदेश करते श्रीसम्भवजगत्पतेः - श्री सम्भवनाथ
समय ।
भगवन्तको ।
अर्थ- सङ्कलना
धर्मोपदेश करते समय जिनकी वाणी विश्वके भव्यजनरूपो बगीचेको सींचनेके लिये नालोके समान है, वे श्रीसम्भवनाथ भगवन्तके वचन जयको प्राप्त हो रहे हैं ।। ५॥
मूल-
अनेकान्त-मताम्मोधि - समुल्लासन - चन्द्रमाः । भगवानभिनन्दनः ||६ ॥
दद्यादमन्दमानन्दं
शब्दार्थ
अनेकान्त - मताम्भोधि - समुल्लासन- चन्द्रमा:- अनेकान्त मतरूपी समुद्रको पूर्णतया उल्लसित करनेके लिये चन्द्रस्वरूप । अनेकान्तमत - वस्तुको भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दु से देखनेका सिद्धान्त । अम्भोधि - समुद्र । समुल्लासन-अच्छी प्रकार से
उल्लसित करना | चन्द्रमाः
-चन्द्र ।
1
दद्याद्-दे, प्रदान करें अमन्दम् - अति, परम । आनन्दं - आनन्द | भगवान् - भगवान् ।
अभिनन्दन:- श्रीअभिनन्दन नामके चौथे तीर्थङ्कर ।
अर्थ- सङ्कलना
अनेकान्त - मतरूपी समुद्रको पूर्णतया उल्लसित करनेके लिये चन्द्र-स्वरूप भगवान् श्रीअभिनन्दन हमें परम आनन्द प्रदान करें ॥६॥
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३०४
मूल
सत्-किरीट-शाणाग्रोत्तेजिताङिघ्र-नखावलिः । भगवान् सुमतिस्वामी, तनोत्वमितानि वः ॥७॥ शब्दार्थधुसत्-किरीट - शाणामोत्तेजि- उत्तेजित-चकचकित की हुई।
ताङिघ्र-नखावलिः-देवोंके अज्रि-चरण । आवलि-पङ्क्ति। मुकुटरूपी शाण ( कसौटी )के | भगवान-भगवान् । अग्रभागसे जिनके चरणकी नख | सुमतिस्वामी-श्रीसुमतिनाथ । पङ्क्तियाँ चकचकित हो गयी हैं। तनोतु-प्रदान करें। द्युसत्-देव । किरीट-मुकुट । अभिमतानि-मनोवाञ्छित । शाण-कसौटी । अग्र-अग्रभाग।। वः-तुम्हें । अर्थ-सङ्कलना
जिनके चरणको नख-पङ्क्तियाँ देवोंके मुकुटरूपी कसौटीके अग्रभागसे चकचकित हो गयी हैं, वे भगवान् श्रीसुमतिनाथ तुम्हें मनोवाञ्छित प्रदान करें। ७ ।।
पद्मप्रभ-प्रभोदेह-भासः पुष्णन्तु वः श्रियम् ।
अन्तरङ्गारि-मथने, कोपाटोपादिवारुणाः ॥८॥ शब्दार्थपद्मप्रभ-प्रभोः-श्रीपद्मप्रभस्वामीके।। वः-तुम्हारो। देह-भासः-शरोरकी कान्ति। श्रियम् - लक्ष्मीको, पुष्णन्तु-पुष्ट करे।
लक्ष्मीको।
आत्म
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३०५
अन्तरङ्गारि - मथने आन्तरिक | कोपाटोपाद् - कोपके आटोपसे,
क्रोध के आवेशसे ।
शत्रुओंका हनन करने के लिये । अन्तरङ्ग आन्तरिक । अरि
-
शत्रु । मथन - हनन करना ।
अर्थ-सङ्कलना
-
आन्तरिक शत्रुओं का हनन करनेके लिये क्रोधके आवेशसे मानो लाल रङ्गकी हो गयी हो ऐसी श्रीपद्मप्रभ - स्वामी के शरीरकी कान्ति तुम्हारी आत्म - लक्ष्मीकी पुष्ट करे ॥ ८ ॥
मूल
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय, महेन्द्र - महिताये । चतुर्वर्ण- सङ्घ - गगनाभोग - भास्वते ||९||
शब्दार्थ
श्रीसु
श्रीसुपार्श्व जिनेन्द्राय पार्श्वनाथ भगवान् के लिये । महेन्द्र - महिताङ्घ्रये - महेन्द्रों से पूजित चरणोंवाले |
इव - मानो ।
अरुणाः - लाल रङ्गकी |
महेन्द्र - बड़ा इन्द्र | महितपूजित | अङ्घ्रि-चरण । नमः - नमस्कार हो । चतुर्वर्ण-सङ्घ- गगनाभोगभास्वते - चतुर्विध संघरूपी
अर्थ- सङ्कलना-
आकाश मण्डल में सूर्य --सदृश के
लिये |
}
चतुर्वर्ण - जिसमें चार वर्ण हैं ऐसा । चार वर्ण से यहाँ साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका समझना । सङ्घसमुदाय । गगन आकाश । आभोग - मण्डल । भास्वत्सूर्य ।
चतुर्विध सङ्घरूपी आकाशमण्डल में सूर्यसदृश और महेन्द्रोंसे पूजित चरणवाले श्रीसुपार्श्वनाथ भगवान्को नमस्कार हो ॥ ९ ॥
प्र-२०
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मूल
चन्द्रप्रभ-प्रभोश्चन्द्र - मरीचि - निचयोज्ज्वला । मूर्तिर्मूर्त-सितध्यान - निर्मितेव श्रियेऽस्तु वः || १० ||
३०६
शब्दार्थ -
चन्द्रप्रभ - प्रभोः स्वामीकी |
चन्द्र - मरीचि - निचयोज्ज्वलाचन्द्र-किरणोंके समूह जैसी श्वेत ।
मरीचि - किरण | निचय - समूह | उज्ज्वल - श्वेत |
मूर्ति:- काया शुक्लमूर्ति । मूर्त-सितध्यान-निर्मिता इवमानो मूर्तिमान् शुक्लध्यान से न हो ऐसी |
-
श्रीचन्द्रप्रभ
मूर्त - आकार प्राप्त किया हुआ ।
सितध्यान शुक्लध्यान निर्मिता - बनायी हुई । मानो ।
श्रिये - लक्ष्मी के लिये, आत्मलक्ष्मी की
वृद्धि करनेवाली ।
अस्तु हो ।
व:- तुम्हारे लिये |
इव
अर्थ- सङ्कलना
चन्द्र- किरणोंके समूह जैसी श्वेत और मानो मूर्तिमान् अर्थात् साक्षात् शुक्लध्यान से बनायी हो ऐसी श्री चन्द्रप्रभस्वामीकी शुक्ल मूर्ति तुम्हारे लिये आत्म - लक्ष्मीकी वृद्धि करने वाली हो ।। १० ।।
मूल
करामलकवद् विश्वं, कलयन केवलश्रिया । अचिन्त्य-माहात्म्य-निधिः, सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥ ११ ॥
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शब्दार्थ
करामलकवद् - हाथमें स्थित
आँवले के समान ।
कर - हाथ | आमलक-आँवला ।
३०७
विश्वं जगत्को ।
कलयन् - जानते हुए, देख रहे हैं । केवलश्रिया
केवलज्ञानकी
सम्पत्तिसे ।
केवल–केवलज्ञान। श्री-सम्पत्ति । वः - तुम्हारे लिये ।
अचिन्त्य - माहात्म्य - निधिःकल्पनातीत प्रभाव के भण्डार । अचिन्त्य - जिसका विचार न किया जा सके, ऐसा, कल्पनातीत | माहात्म्यप्रभाव । निधि-भण्डार |
सुविधिः - श्री सुविधिनाथ प्रभु । बोधये - वोधिके लिये, सम्यक्त्वकी
अर्थ- सङ्कलना
जो केवलज्ञानकी सम्पत्ति से सारे जगत्को हाथमें स्थित आँवले के समान देख रहे हैं तथा जो कल्पनातीत प्रभावके भण्डार हैं, वे श्रीसुविधिनाथ प्रभु तुम्हारे लिये सम्यक्त्वको प्राप्ति करानेवाले हों ॥। ११॥
मूल
शब्दार्थ
सत्त्वानां - प्राणियोंका, प्राणियों के लिये । परमानन्द - कन्दोदभेद - नवा
*
प्राप्ति करानेवाले । अस्तु - हों ।
सत्त्वानां - परमानन्द - कन्दो भेद - नवाम्बुदः । स्याद्वादामृत - निः स्यन्दी, शीतलः पातु वो जिनः ॥ १२ ॥
म्बुदः - परमानन्दरूप कन्दको प्रकटित करनेके लिये नवीन मेघस्वरूप |
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३०८ परम-उत्कृष्ट । कन्द-वनस्पतिका स्याहाद-' स्यात् ' . पदको भूमिगत भाग । उद्भेद -
प्रधानतावाला वाद, अनेका
न्तवाद अथवा अपेक्षावाद । प्रकट करना। नव-नया ।
निःस्यन्दी-बरसानेवाला। अम्बुद-मेघ ।
शीतलः-श्रीशीतलनाथ । स्याद्वादामृत - निःस्यन्दी - पातु-रक्षा करें।
स्याद्वादरूपी अमृतको बरसाने-व-तुम्हारी। वाले।
जिन:-जिनेश्वर । अर्थ-सङ्कलना
प्राणियोंके परमानन्दरूपी कन्दको प्रकटित करनेके लिये नवीन मेघ-स्वरूप तथा स्याद्वादरूपी अमृतको बरसानेवाले श्रीशीतलनाथ जिनेश्वर तुम्हारी रक्षा करें ।। १२ ।।। मूल
भव-रोगाऽऽत्त-जन्तूनामगदङ्कार-दर्शनः ।
निःश्रेयस-श्री-रमणः, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु बः॥१३॥ शब्दार्थभव - रोगाऽऽर्त - जन्तूनाम् - | निःश्रेयस-श्री-रमणः - निःश्रेयस
भव-रोगसे पीड़ित जन्तुओंके (मुक्ति) रूपी लक्ष्मीके पति । लिये।
निःश्रेयस-मुक्ति । श्री-लक्ष्मी। भवरूपी जो रोग वह भवरोग । |
रमण-पति। आर्त्त-पोडित ।
श्रेयांसः-श्रीश्रेयांसनाथ । अगदङ्कार - दर्शनः-वैद्यके दर्शन । समान जैसे ।
श्रेयसे-श्रेयके लिये, मुक्तिके लिये । अगदङ्कार-रोगरहित करनेवाले, | अस्तु-हों । वैद्य ।
वः-तुम्हारे ।
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अर्थ- सङ्कलना-
जिनका दर्शन भव- रोग से पीड़ित जन्तुओंके लिये वैद्यके दर्शन समान है तथा जो निःश्रेयस - ( मुक्ति ) रूपी लक्ष्मी के पति हैं, वे श्रीश्रेयांसनाथ तुम्हारे श्रेय - मुक्ति के लिये हों ।। १३ ।।
मूल
sanga
शब्दार्थ
विश्वोपकारकीभूत- तीर्थकृत् - कर्म - निर्मितिः । सुरासुर - नरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः ॥ १४ ॥
३०९
विश्वोपकारकीभूत- तीर्थकृत्
कर्म - निर्मितिः - विश्वपर महान् उपकार करनेवाले, तोर्थङ्कर नाम - कर्मको बाँधनेवाले ! विश्वोपकारकीभूत विश्वपर
मल
महान् उपकार करनेवाले ।
तीर्थकृत् - कर्म - तीर्थङ्कर - नाम
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कर्म | निर्मिति - निर्माण, बाँधना ।
सुरासुर - नरैः- सुर, असुर मनुष्यों द्वारा । पूज्य:- पूज्य ।
अर्थ- सङ्कलना
विश्वपर महान् उपकार करनेवाले, तीर्थङ्कर - नाम - कर्मको बाँधनेवाले तथा सुर, असुर और मनुष्योंद्वारा पूज्य ऐसे श्रीवासुपूज्यस्वामी तुम्हें पवित्र करें ॥ १४ ॥
और
वासुपूज्य :- श्रीवासुपूज्यस्वामी । पुनातु - पवित्र करें । वः - तुम्हें ।
विमलस्वामिनो वाचः, कतक - क्षोद -- सोदराः । जयन्ति त्रिजगच्चेतो - जल - नैर्मल्य - हेतवः ॥ १५ ॥
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३१०
शब्दार्थविमलस्वामिनः - श्रीविमलनाथ ! जयन्ति-जयको प्राप्त हो रही है। प्रभुको।
त्रिजगत् - चेतस् जल नैर्मल्यवाचः-वाणी।
हेतवः - त्रिभुवनमें स्थित कतक-क्षोद - सोदरा:-कतक - प्राणियोंके चित्तरूपी जलको फलके चूर्ण जैसी।
स्वच्छ करने में कारणरूप । कतक-निर्मली नामकी वनस्प- त्रिजगत् - त्रिभुवन । चेतस्ति । क्षोद - चूर्ण । सोदरा
चित्त । नैर्मल्य-निर्मलता, बहिन जैसी।
स्वच्छ । हेतु-कारण। अर्थ-सङ्कलना
त्रिभुवनमें स्थित प्राणियोंके चित्तरूपी जलको स्वच्छ करने में कारणरूप कतक-फलके चूर्ण जैसी श्रीविमलनाथ प्रभुकी वाणी जयको प्राप्त हो रही है ॥ १५ ।। मूल
स्वयम्भूरमण-स्पी, करुणारस-बारिणा ।
अनन्तजिदनन्तां वः, प्रयच्छतु सुख-श्रियम् ॥१६॥ शब्दार्थस्वयम्भूरमणस्पर्धी - स्वयम्भू
। . करुणारस-दयारूपी (रस)।
वारि-जल। रमण समुद्र की स्पर्धा करनेवाले।
| अनन्तजिद-श्रीअनन्तनाथ प्रभु । स्वयम्भूरमण – अन्तिम समुद्र ।
अनन्तां-अनन्त । स्पद्धिन्-स्पर्धा करनेवाला । | वः-तुम्हारे लिये । करुणारस - वारिणा -- दयारूपो | प्रयच्छतु-प्रदान करें। जलसे।
सुख-श्रियम्-सुख-सम्पत्ति
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३११
अर्थ-सङ्कलना
दयारूपी जलसे स्वयम्भूरमण समुद्रकी स्पर्धा करनेवाले श्री-. अनन्तनाथ तुम्हारे लिये सुख-सम्पत्ति प्रदान करें।। १६ ।।
मूल
कल्पद्रुम-सधर्माणमिष्ट-प्राप्तौ शरीरिणाम् ।
चतुर्धा धर्म-देष्टारं, धर्मनाथमुपास्महे ॥१७॥ शब्दार्थकल्पद्रुम - सधर्माणम् - कल्प- । शरीरिणाम-प्राणियोंको । वृक्ष-समान।
चतुर्धा-चार प्रकारको। कल्पद्रुम-कल्पवृक्ष, इच्छित फल धर्म - देणारं - धर्मको देशना देनेवाला एक प्रकारका वृक्ष ।। सधर्म-समान ।
देनेवाले। इष्ट-प्राप्तौ-इष्ट-प्राप्तिमें, इच्छित धर्मनाथम्-श्रीधर्मनाथ प्रभुको ।
फल प्राप्त कराने में। उपास्महे-हम उपासना करते हैं। अर्थ-सङ्कलना
प्राणियोंको इच्छित फल प्राप्त कराने में कल्पवृक्ष-समान और धर्मकी दानादि भेदसे चार प्रकारकी देशना देनेवाले श्रीधर्मनाथ प्रभुको हम उपासना करते हैं ॥ १७ ॥
-
मूल
सुधा-सोदर वाक्-ज्योत्स्ना--निमलीकृत-दिङ्मुखः। मृग-लक्ष्मा तमाशान्त्यै, शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः॥१८॥
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३१२
शब्दार्थ
सुधा-सोदर-वाग - ज्योत्स्ना- मृग-लक्ष्मा-हरिणके लाञ्छनको निर्मलीकृत - दिङ्मुखः
धारण करनेवाले। अमृततुल्य धर्म-देशनासे दिशा
.मृग-हरिण। लक्ष्मन्-लाञ्छन। ओंके मुखको उज्ज्वल
तमाशान्त्यै-अज्ञानका निवारण करनेवाले।
__ करनेके लिये। सुधा-अमृत । सोदर-तुल्य । वाग्ज्योत्स्ना-वाणीरूपी च
| शान्तिनाजिनः- श्रीशान्तिनाथ न्द्रिका। निर्मलीकृत-उज्ज्वल
भगवान् । किये हैं। दिङ्मुख- अस्तु-हो । दिशाओंके मुख ।
| वः-तुम्हारे । अर्थ-सङ्कलना
अमृत-तुल्य धर्म-देशनासे दिशाओंके मुखको उज्ज्वल करनेवाले तथा हरिणके लाञ्छनको धारण करनेवाले श्रीशान्तिनाथ भगवान् तुम्हारे अज्ञानका निवारण करने के लिये हों। १८ ।।
मूल
श्रीकुन्थुनाथो भगवान् , सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः ।
सुरासुर-नृ-नाथानामेकनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥१९॥ शब्दार्थश्रीकुन्थुनाथः भगवान्-श्री- प्रत्येक तीर्थङ्करोंको ३४ कुन्थुनाथ भगवान् ।
अतिशयरूपी महाऋद्धि होती है। सनाथ:-सहित, युक्त।
सुरासुर-नृ - नाथानाम् - सुर, अतिशद्धिभिः-अतिशयोंकी असुर और मनुष्यों के स्वामियोंऋद्धिसे ।
के । नृ-मनुष्य ।नाथ-स्वामी।
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३१३
एकनाथः-एक मात्र स्वामी, । लक्ष्मीके लिये । अनन्यस्वामी।
अस्तु-हों। श्रिये-लक्ष्मीके लिये, आत्म- | वः-तुम्हें । अर्थ-सङ्कलना
अतिशयों की ऋद्धिसे युक्त और सुर, असुर तथा मनुष्यों के स्वामियोंके भी अनन्यस्वामी ऐसे श्रीकुन्थुनाथ भगवान् तुम्हें आत्मलक्ष्मीके लिये हों ।। १९ ।।
मूल
अरनाथस्तु भगवान्, चतुर्थार-नभो-रविः ।
चतुर्थ--पुरुषार्थ-श्री-विलासं वितनोतु वः ॥२०॥ शब्दार्थअरनाथः-श्रीअरनाथ ।
| चतुर्थ-पुरुषार्थ-श्री-विलासंतु-तो।
मोक्षरूपी लक्ष्मीका विलास । भगवान्-भगवान् । चतुर्थार-नभो-रविः-चतुर्थ आरा
चतुर्थ-पुरुषार्थ-मोक्ष । श्रीरूपी गगनमण्डल में सूर्यरूप ।। लक्ष्मी।
चतुर्थ-चौथा। अर-आरा ।। नभस्-आकाश, गगन-मण्डल ।
वितनोतु-प्रदान करें। रवि-सूर्य ।
| वः-तुम्हें । . अर्थ-सङ्कलना
चतुर्थ आरारूपी गगनमण्डलमें सूर्यरूप श्रीअरनाथ भगवान् तुम्हें मोक्ष-लक्ष्मीका विलास प्रदान करें ॥ २० ॥
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मूल
सुरासुर-नराधीश-मयूर-नव-वारिदम् । कर्मगुन्मूलने हस्ति-मल्लं मल्लिमभिष्टुमः ॥२१॥
शब्दार्थ
सुरासुर - नराधीश - मयूर - को मूलसे उखाड़नेके लिये ।
नव-वारिदम्-सुरों, असुरों कर्म-ज्ञानावरणादि। द्रु-वृक्ष । और मनुष्योंके अधिपतिरूप । उन्मूलन-मूलसे उखाड़ना। मयूरोंके लिये नवीन मेघ-समान। हस्ति-मल्लं-ऐरावण हाथोके अधीश-अधिपति । नव- समान। हस्ति-हाथी मल्ल-श्रेष्ठ ।
नवीन । वारिद-मेघ। मल्लिम्-श्रीमल्लिनाथकी। कर्मद्रु-उन्मूलने-कर्मरूपी वृक्ष- । अभिष्टुमः-स्तुति करते हैं । अर्थ-सङ्कलना
सुरों, असुरों और मनुष्योंके अधिपतिरूप मयूरोंके लिये नवीन मेघ-समान तथा कर्मरूपी वृक्षको मूलसे उखाड़नेके लिये ऐरावण हाथी-समान श्रीमल्लिनाथकी हम स्तुति करते हैं ।। २१ ॥
मूल
जगन्महामोह-निद्रा-प्रत्यूष-समयोपमम् ।
मुनिसुव्रतनाथस्य, देशना-वचनं स्तुमः ॥२२॥ शब्दार्थजगन्महामोह - निद्रा - प्रत्यूष- जगत्-संसार, संसारके
समयोपमम्-संसारके प्राणि- प्राणी। महामोद-प्रबल मोहनीय योंकी महामोहरूपी निद्रा उड़ा- कर्मका उदय । प्रत्यूष-समयनेके लिये प्रातःकाल जैसे । । प्रातःकाल । उपम-सदृश।
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३१५
मुनिसुव्रतनाथस्य - श्रीमुनिसुव्रत | देशना-वचनं-देशना-वचनकी। स्वामोके ।
| स्तुमः-हम स्तुति करते हैं। अर्थ-सङ्कलना
संसारके प्राणियोंकी महामोहरूपी निद्रा उड़ाने के लिये प्रातःकाल जैसे श्रीमुनिसुव्रत स्वामीके देशना-वचनकी हम स्तुति करते हैं ॥२२॥
मूल
लुठन्तो नमतां मूनि, निर्मलीकार-कारणम् वारिप्लवा इव नमः, पान्तु पाद-नखांशवः ॥२३॥
शब्दार्थ
लुठन्तः-लुढ़कती हुई, लोटती हुई। वारि-प्लवाः-जलका प्रवाह । नमतां-नमस्कार करनेवालोंके । । वारि-जल। प्लव-प्रवाह । मनि-मस्तकपर ।
इव-तरह । निर्मलीकार - कारणम् - निर्मल | नमे:-श्रीनमिनाथ प्रभुके
करनेमें कारणभूत । पान्तु-रक्षा करें। निर्मलीकार-अनिर्मलको नि- | पाद-नखांशवः-चरणोंके नखकी मल करने की क्रिया। कारण- किरणें । हेतु।
पाद-चरण । अंशु-किरण । अर्थ-सङ्कलना
-
नमस्कार करनेवालोंके मस्तकपर लोटतो हुई और जलके प्रवाहकी तरह निर्मल करने में कारणभूत, ऐसो श्रीनमिनाथ प्रभुके चरणोंके नखको किरणें तुम्हारा रक्षण करें ।। २३ ।।
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मूल
- यदुवंश-समुद्रेन्दुः, कर्म-कक्ष-हुताशनः ।
अरिष्टनेमिर्भगवान् , भूयाद् वोऽरिष्टनाशनः ॥१४॥
शब्दार्थ
यदुवंश-समुन्द्रेन्दुः -- यदुवंशरूपी | कर्म-ज्ञानावरणीय-कर्म । कक्ष समुद्रमें चन्द्र-समान।
वन । हुताशन-अग्नियदु-मथुराके हरिवंशी राजा |
अरिष्टनेमि-श्रीअरिष्टनेमि । ययाति के बड़े पुत्र । वंश
भगवान्-भगवान् । कुल । समुद्र-सागर ।
भूयाद्-हों। इन्दु-चन्द्रमा ।
वः-तुम्हारे । कर्म-कक्ष-दुताशनः - कर्मरूपी अरिष्टनाशन:-अमङ्गलका नाश
वनको जलाने में अग्निसमान । करनेवाले । अर्थ-सङ्कलना-- ___ यदुवंशरूपी समुद्र में चन्द्र-तथा कर्मरूपी वनको जलाने में अग्निसमान श्रीअरिष्टनेमि भगवान् तुम्हारे अमङ्गलका नाश करनेवाले हों ।। २४ ॥
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कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति ।
प्रभुस्तुल्य-मनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ।।२५॥ शब्दार्थकमठे-कमठासुरपर ।
स्वोचितं-अपने लिए उचित । धरणेन्द्र --धरणेन्द्रपर ।
कर्म-कृत्य । च-और।
कुर्वति-करनेवाले।
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प्रभुः - प्रभु | तुल्य
मनोवृत्तिः - समानभाव
धारण करनेवाले
३१७
।
तुल्य - समान । मनोवृत्ति भाव । अस्तु हों । पार्श्वनाथ:-श्रीपार्श्वनाथ |
वः - तुम्हें ।
अर्थ- सङ्कलना
अपने लिए उचित ऐसा कृत्य करनेवाले, कमठासुर और धरणेन्द्रपर समानभाव धारण करनेवाले श्रीपार्श्वनाथ प्रभु तुम्हें आत्म- लक्ष्मी के लिये हों ।। २५ ।।
मूल
श्रीमते वीरनाथाय, सनाथायाद्भुतश्रिया । महानन्द - सरो - राजमरालायार्हते नमः || २६ ||
शब्दार्थ
श्रीमते - अनन्त ज्ञानादि - लक्ष्मीसे युक्त के लिये ।
वीरनाथाय - श्रीवीरस्वामी के लिये,
श्रीमहावीर स्वामी के लिये ।
सनाथाय - अद्भुत - श्रिया
श्रिये - लक्ष्मीके लिये, आत्म
लक्ष्मी के लिये |
अलौकिक लक्ष्मो से युक्त के लिये ।
सनाथ-युक्त । अद्भुत - अलौकिक । श्री - लक्ष्मी । यहाँ
अलौकिक लक्ष्मीसे चौंतोस अतिशय समझने चाहिये । महानन्द- सरो- राजमरालाय - परमानन्दरूपी राजहंस - स्वरूप |
सरोवर में
सरस्-सरोवर । राजहंस | अर्हते - पूज्य । नमः - नमस्कार हो ।
राजमराल
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३१८
अर्थ-सङ्कलना
परमानन्दरूपी सरोवरमें राजहंस-स्वरूप (समान तथा अलौकिक लक्ष्मीसे युक्त ऐसे पूज्य श्रीमहावीरस्वामीके लिये नमस्कार हो।।२६।।
मूल
कृतापराधेऽपि जने, कृपा-मन्थर--तारयोः । ईषद्-बाष्पार्द्रयोर्भद्रं, श्रीवीरजिन-नेत्रयोः ।।२७।।
शब्दार्थ
कृतापराधेऽपि जने-अपराध किये ईषद् - वाष्पार्द्रयोः - कुछ अश्रुसे हुए मनुष्यपर भी।
भीगे हुए। ___ जिसने अपराध किया है __ ईषद्-अल्प,कुछ। बाष्पवह कृतापराध ।
अश्रु । आर्द्र-भीगे हुए । कृपा-मन्थर - तारयोः - अनुक- भद्र-कल्याण । म्पासे मन्द कनीनिकावाले। श्रीवीरजिन-नेत्रयोः - श्रीवीर
कृपा-अनुकम्पा । मन्थर- जिनेश्वर के दोनों नेत्रोंका, श्री... मन्द । तारा-कनीनिका । महावीर प्रभुके नेत्रोंका। अर्थ-सङ्कलना
अपराध किये हए मनुष्यपर भी अनुकम्पासे मन्द कनीनिकावाले और कुछ अश्रुसे भीगे हुएश्रीमहावीर प्रभुके नेत्रोंका कल्याण हो।॥२७॥ मूल
[ आर्या ] जयति विजितान्यतेजाः, सुरासुराधीश-सेवितःश्रीमान्। विमलस्त्रास-विरहितस्त्रिभुवन-चूडामणिभगवान्॥२८॥
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शब्दार्थ
जयति जयको प्राप्त हो रहे हैं । विजितान्यतेजाः जिन्होंने
अन्यका तेज जीत लिया है
ऐसे, अन्य तीथिकोंके प्रभावको जीतनेवाले |
विजित-जीता हुआ । तेजस् - अन्यका तेज । सुरासुराधीश - सेवितः - सुरे
३१९
न्द्रों और असुरेन्द्रोंसे सेवित । अधीश - अधिपति, इन्द्र |
122
अन्य
श्रीमान्- केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीसे
युक्त । विमल:- निर्मल, अठारह दोषोंसे रहित । त्रास - विरहितः विरहितः भय मुक्त,
1
सातों प्रकारके भयसे मुक्त । त्रिभुवन - चूडामणिः- त्रिभुवन के.
मुकुटमणि ।
त्रिभुवन- तीनों लोक ।
चूडा - मुकुट | मणि-मणि ।.
अर्थ- सङ्कलना
अन्य तीर्थिकोंके प्रभावको जीतनेवाले; सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रोंसे सेवित, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीसे युक्त, अठारह दोषोंसे रहित, सातोंप्रकारके भयसे मुक्त और त्रिभुवनके मुकुटमणि ऐसे अरिहन्त भग वान् जयको प्राप्त हो रहे हैं ॥ २८ ॥
भगवान् - अरिहन्त भगवान् ।
वीरः सर्व-सुरासुरेन्द्र-महितो, वीरं बुधाः संश्रिताः, वीरेणाभिहतः स्वकर्म - निचयो, वीराय नित्यं नमः | वीरात् तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्री - धृति - कीर्ति - कान्ति - निचयः श्रीवीर !
भद्रं दिश ||२९||
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३२०
शब्दार्थ
वीरः-श्रीमहावीरस्वामी। वीरात्-श्रीमहावीरस्वामीसे । . सर्व-सुरासुरेन्द्र - महितः - सर्व | तीर्थम-तीर्थ । सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रोंसे पूजित । |
इदं-यह । महित-पूजित ।
प्रवृत्तम्-प्रवर्तित । वीरं-श्रीमहावीरस्वामीका।
अतुलं-अनुपम । बुधाः-पण्डित, पण्डितोंने ।
वीरस्य-श्रीमहावीरस्वामीका। संश्रिताः-अच्छी प्रकारसे आश्रय
घोरं-उग्र। लिया है।
तपः-तप। वीरेण-श्रीमहावीरस्वामोद्वारा। अभिहतः-नष्ट किया गया है।
वीरे-श्रीमहावीरस्वामोमें । स्व-कर्म-निचयः-अपना कर्म
श्री - धृति - कीर्ति - कान्तिसमूह ।
निचयः-ज्ञानरूपी लक्ष्मी, धैर्य स्व-अपना । कर्म ज्ञानावरणादि कीर्ति और कान्तिका समूह कर्म । निचय-समूह ।
( स्थित है। वीराय-श्रीमहावीरस्वामीको ।
श्रीवीर !-हे महावीरस्वामी ! नित्यं-प्रतिदिन ।
भद्र-कल्याण । नमः-नमस्कार हो।
दिश करो।
अर्थ-सङ्कलना
श्रीमहावीरस्वामी सर्वसुरेन्द्रों और असुरेन्द्रोंसे पूजित हैं, पण्डितोंने श्रीमहावीरस्वामीका अच्छो प्रकारसे आश्रय लिया है; श्रीमहावीरस्वामीद्वारा अपने कर्म-समूहको नष्ट किया गया है; श्रीमहावीर स्वामीको प्रतिदिन नमस्कार हो, यह अनुपम चतुर्विध सङ्घरूपी तीर्थ श्रीमहावीर स्वामीसे प्रवर्तित है; श्रीमहावीरस्वामीका तप बहुत उग्र है; श्रीमहावीर
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३२१
स्वामीमें ज्ञानरूपी लक्ष्मी, धैर्य, कीति और कान्तिका समूह स्थित है, ऐसे हे महावीरस्वामी ! मेरा कल्याण करो ॥ २९ ॥
मूल
[ मालिनी-वृत्त ] अवनितल-गतानां कृत्रिमाकृत्रिमानां, वरभवन-गतानां दिव्य-वैमानिकानाम् । इह मनुज-कृतानां देवराजार्चितानां,
जिनवर-भवनानां भावतोऽहं नमामि ॥३०॥ शब्दार्थअवनितल-गतानां - पृथ्वीतलपर | दिव्य-देवता-सम्बन्धी । वैमास्थित।
निक-विमानमें स्थित । अवनितल-पृथ्वीतल। गत- | इह-इस मनुष्यलोकमें। स्थित ।
मनुज - कृतानां - मनुष्योंद्वारा कृत्रिमाकृत्रिमानां-कृत्रिम अकृ- कराये हुए।
त्रिम-अशाश्वत और शाश्वत। मनुज-मनुष्य । कृत-कराये हुए। कृत्रिम-मनुष्यद्वारा बनाये हुए। देवराजाचितानां - देव तथा अकृत्रिम-शाश्वत ।
राजाओंसे एवं देवराजसे वरभवन-गतानां - भवनपतियोंके पूजित ।
श्रेष्ठ निवासस्थानमें। जिनवर-भवनानां-श्रीजिनेश्वरवर-श्रेष्ठ । भवन-भवनपति- । देवके चैत्योंको।
देवोंका निवासस्थान। भावतः-भावपर्वक। दिव्य-वैमानिकानाम् - दिव्य | अहं-मैं।
विमानोंमें स्थित । | नमामि-नमन करता हूँ। प्र-२१
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३२२
अर्थ-सङ्कलना
श्रीजिनेश्वरदेवके चैत्योंको मैं भावपूर्वक नमन करता हूँ, जो अशाश्वत और शाश्वतरूपमें पृथ्वीतलपर, भवनपतियोंके श्रेष्ठ निवासस्थानपर स्थित हैं, इस मनुष्य लोकमें मनुष्योंद्वारा कराये हुए हैं और देव तथा राजाओंसे एवं देवराज-इन्द्रसे पूजित हैं ।। ३० ।।
मूल
[ अनुष्टुप् ] सर्वेषां वेधसामाघमादिमं परमेष्ठिनाम् । देवाधिदेवं सर्वज्ञ, श्रीवीरं प्रणिदध्महे ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
सर्वेषाम्-सब ।
देवाधिदेव-देवोंके भी देव । वेधसाम्-ज्ञाताओंमें । सर्वज्ञ-सर्वज्ञ। आद्यम्-श्रेष्ठ ।
श्रीवीरं-श्रीमहावीर स्वामीका । आदिम-प्रथम, प्रथम स्थानपर , विराजित होनेवाले।
प्रणिदध्महे-उपासना करते हैं, परमेष्ठिनाम्-परमेष्ठियोंमें ।
हम ध्यान करते हैं।
अर्थ-सङ्कलना
सर्व ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ, परमेष्ठियोंमें प्रथम स्थानपर विराजित होनेवाले, देवोंके भी देव और सर्वज्ञ ऐसे श्रीमहावीर स्वामीका हम ध्यान करते हैं ॥ ३१ ॥
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३२३
मूल
[ शार्दूलविक्रीडित ] देवोऽनेक-भवार्जितोर्जित-महापाप-प्रदीपानलो , देवः सिद्धि-वधू-विशाल-हृदयालङ्कार-हारोपमः। देवोऽष्टादश-दोष-सिन्धुरघटा-निर्भेद-पश्चाननो,
भव्यानां विदधातु वाञ्छितफलं श्रीवीतरागो जिनः॥३२॥ शब्दार्थदेवः-देव।
विशाल-विस्तृत । हृदयअनेक - भवाजितोजित - महा- वक्ष:-स्थल । अलङ्कार
पाप - प्रदीपानलः - अनेक अलङ्कृत करना। हारोपमभवोंमें उपाजित-इकट्ठे किये हारके समान । हुए तीव्र महापापोंको दहन देवः-देव। करने के लिये अग्नि-समान । | अष्टादश - दोष - सिन्धुरघटाअनेक-असंख्य । भव-जन्म- निर्भेद-पञ्चाननः - अठारह
मरणके फेरे । अजित-इकट्टे दूषणरूपी हाथीके समूहका किये हुए। जित-बलवान्, भेदन करनेमें सिंहसदृश । तीव्र ।महापाप-बड़ा पाप। अष्टादश-अठारह । दोष-दूषण। प्रदीप-जलाना, दहन करना। सिन्धुर-हाथी। घटा-समूह । अनल-अग्नि ।
निर्भेद-भेदनकी क्रिया, भेदन देवः-देव ।
करना । पञ्चानन-सिंह । सिद्धि-वधू- विशाल - हृदया- भव्यानां-भव्यप्राणियोंको ।
लङ्कार-हारोपमः-मुक्तिरूपी | विदधातु-प्रदान करें। स्त्रीके विस्तृत वक्षःस्थलको अल- वाञ्छित-फलं- इच्छित फल ।
कृत करने में हारके समान । श्रीवीतरागः जिनः - श्रीवीतराग सिद्धि-मुक्ति । वधू-स्त्री। जिनेश्वर देव ।
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३२४
अर्थ-सङ्कलना
___जो देव अनेक भवोंमें इकट्ठे किये हुए तीव्र महापापोंको दहन करनेके लिये अग्नि-समान हैं, जो देव मुक्तिरूपी स्त्रीके विशाल वक्षःस्थलको अलङ्कृत करनेके लिये हारके समान हैं, जो अठारह दूषणरूपी हाथीके समूहका भेदन करने के लिये सिंहसदृश हैं, वे श्रीवीतराग जिनेश्वरदेव भव्य-प्राणियोंको इच्छित फल प्रदान करें ॥ ३२ ॥
मूल
ख्यातोऽष्टापदपर्वतो गजपदः सम्मेतशैलाभिधः, श्रीमान् रैवतकः प्रसिद्ध महिमा शत्रुञ्जयो मण्डपः । वैभारः कनकाचलोबुंदगिरिः श्रीचित्रकूटादयस्तत्र श्रीऋषभादयो जिनवराः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥३३॥ शब्दार्थख्यातः-प्रसिद्ध ।
[ प्रसिद्धमहिमा - प्रसिद्ध महिमाअष्टापदपर्वतः - अष्टापद नामका वाला। पर्वत ।
शत्रुञ्जयः-शत्रुञ्जयगिरि । गजपदः-गजपद अथवा गजाग्र
| मण्डपः-मांडवगढ । पाद नामका पर्वत, दशार्णकूट
वैभारः-वैभारगिरि। पर्वत । सम्मेतशैलाभिधः - सम्मेतशिखर
कनकाचलः-सुवर्णगिरि। नामका पर्वत ।
अर्बुदगिरिः-आबूपर्वत । श्रीमान्-रैवतकः-शोभावान् गिर- | श्रीचित्रकूटादयः - श्रीचित्रकूट नार पर्वत ।
आदि तीर्थ ।
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३२५
तत्र-वहाँ स्थित।
| कुर्वन्तु-करो। श्रीऋषभादयः जिनवरा:- | वः-तुम्हारा।
श्रीऋषभ आदि जिनेश्वर। | मङ्गलं-मङ्गल, कल्याण । अर्थ-सङ्कलना
प्रसिद्ध अष्टापद पर्वत, गजाग्रपाद अथवा दशार्णकूट पर्वत, सम्मेतशिखर, शोभावान् गिरनार-पर्वत, प्रसिद्ध महिमावाला शत्रुजय गिरि, मांडवगढ़, वैभारगिरि, कनकाचल ( सुवर्णगिरि ), आबूपर्वत, श्रीचित्रकूट आदि तीर्थ हैं, वहाँ स्थित श्रीऋषभ आदि जिनेश्वर तुम्हारा कल्याण करें ।। ३३ ॥ सूत्र-परिचय. इस स्तोत्रका मूल नाम 'चतुर्विंशति-जिन-नमस्कार' है, परन्तु यह प्रथमाक्षरोंके आधारपर 'सकलाहत्-स्तोत्र' के नामसे भी प्रसिद्ध है। कुछ लोग इसे बृहच्चैत्यवन्दनके नामसे पहिचानते हैं, क्यों कि पाक्षिक चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके समय बड़ा चैत्यवन्दन करने में इसका उपयोग होता है। - इस स्तोत्रके २८, २९, ३०, ३२ और ३३ वें श्लोकके अतिरिक्त सभी श्लोक कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित हैं ।
इस स्तोत्रमें चौबीस जिनेश्वरोंकी स्तुति करते हुए जो उपमाएँ दी गयी हैं, वे अत्यन्त मनोहर हैं और वे जैनधर्म के महत्त्वपूर्ण विषयोंका वास्तविक निदर्शन कराती हैं ।
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५५ अजिय-संति-थो [अजित-शान्ति-स्तव ]x
मूल
[ मङ्गलादि ] अजियं जिय-सव्व-भयं, संतिं च पसंत-सव्व-गय-पावं । जयगुरूँ संति-गुणकरे, दो वि जिणवरे पणिवयामि ॥१॥
-गाहा ॥ शब्दार्थअजियं-श्रीअजितनाथको।
पसंत-पुनः न हो इस प्रकार जिय-सव्व-भयं-समस्त भयोंको निवृत्ति प्राप्त, प्रशमन जीतनेवाले।
करनेवाले। सव्व-सर्व । जिय-जीतनेवाले । सव्व-भय- | जय-गुरू-जगत्के गुरुको । __समस्त भय ।
संति-गुणकरे-विघ्नोंका उपशमन
करनेवालेको । संति-श्रीशान्तिनाथको ।
संति-विघ्नोंका उपशमन । च-और।
दो वि-दोनों ही। पसंत-सव्व- गय - पावं - सर्व |
जिणवरे-जिनवरोंको। रोगों और पापोंका प्रशमन | पणिवयामि-मैं पञ्चाङ्ग प्रणिपात करनेवाले।
____ करता हूँ। x अक्षरके ऊपर दिया हुआ ऐसा चिह्न गुरुको लघु दिखलानेके लिए और-ऐसा चिह्न लघुको गुरु दिखलानेके लिये है। प्रत्येक गाथाकी उत्थापनिकाके लिये देखो-प्रबोधटीका भाग ३ रा. पृ. ४७१ से ५३१ ।
एक स्वतन्त्र पद्यको मुक्तक, दो पद्योंके समूहको सन्दानितक, तीन पद्योंके समूहको विशेषक और चार पद्योंके समूहको कलापक कहते हैं ।
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३२७
अर्थ-सङ्कलना
समस्त भयोंको जीतनेवाले श्रीअजितनाथको तथा सर्व रोगों और पापोंका प्रशमन करनेवाले श्रोशान्तिनाथको, इसी तरह जगत्के गुरु और विघ्नोंका उपशमन करनेवाले इन दोनों ही जिनवरोंको मैं पञ्चाङ्ग प्रणिपात करता हूँ॥ १ ॥ मूलववगय-मंगुल-भावे, ते हं विउल-तव-निम्मल-सहावे । निरुवम-महप्पभावे, थोसामि सुदिट्ट-सब्भावे ॥२॥
-गाहा ॥ शब्दार्थववगय- मंगुल- भावे - जिनका | विउल-विपुल, विस्तीर्ण । तव
राग-द्वेषरूपी अशोभनभाव तप । निम्मल-निर्मल। सहाव चला गया है ऐसे, वीतराग । -स्वभाव। ववगय-विशिष्ट प्रकारसे गया | निरुवम - महप्पभावे - अनुपम हुआ। मंगुल-अशोभन । । माहात्म्यवालोंको । भाव-भाव ।
निरुवम-अनुपम । ते-उन दोनों जिनवरोंको । | महप्पभाव-महाप्रभाव, माहात्म्य । हं-मैं ( नन्दिषेण )।
थोसामि-स्तुति करता हूँ। विउल-तव-निम्मल - सहावे- सुदिट्ट - सब्भावे - सर्वज्ञ और
अति तपद्वारा निर्मलीभूत सर्वदर्शियोंको। स्वभाववालोंको, विपुल तपसे सुदिट्ठ-जिसने सम्यक् प्रकारसे आत्माके अनन्तज्ञानादि निर्मल देखा और पहिचाना है । स्वरूपको प्राप्त करनेवाले।। सब्भाव-वस्तुका सद्रूप भाव ।
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३२८
अर्थ-सङ्कलना
वीतराग, विपुल तपसे आत्माके अनन्तज्ञानादि निर्मल स्वरूपको प्राप्त करनेवाले, ( चौंतीस अतिशयोंके कारण ) अनुपम माहात्म्यमहाप्रभाववाले और सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी ( ऐसे ) दोनों जिनवरोंकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ २॥
सव्व-दुक्ख-प्पसंतीणं, सव्व-पाव-प्पसंतीणं । सया अजिय-सतीणं, नमो अजिय-संतीणं ॥३॥
-सिलोगो ॥ शब्दार्थ
सव्व - दुक्ख - प्पसंतीणं - सर्व | अजिय – संतीणं- अखण्ड शान्ति
दुःखोंका प्रशमन करने वाले । धारण करनेवाले। सव्व-दुक्ख-आधि-व्याधि और
अजिय-जिनका रागादिद्वारा उपाधि ये तीनों प्रकारके
पराभव न हो सके ऐसी, दुःख । पसंति-प्रशमन ।
अखण्ड । सव्व- पाव - प्पसंतीणं - सर्व
पापोंका प्रशमन करनेवाले । नमो-नमस्कार हो । पाव-पाप ।
अजिय - संतीणं- श्रीअजितनाथ सया-सदा।
। और श्रीशान्तिनाथको । अर्थ-सङ्कलना
सर्व दुःखोंका प्रशमन करनेवाले, सर्व पापोंका प्रशमन करने
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३२९
वाले और सदा अखण्ड शान्ति धारण करनेवाले श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथको नमस्कार हो ॥ ३ ॥
( श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथकी विशेषकद्वारा स्तुति )
अजियजिण ! सुह-प्पवत्तणं, तव पुरिसुत्तम ! नाम-कित्तणं । तह य धिइ-मइ-प्पवत्तणं तव य जिणुत्तम ! संति ! कित्तणं ॥४॥
-मागहिया ।। किरिआ-विहि-संचिय-कम्म-किलेस-विमुक्खयरं, अजियं निचियं च गुणेहिं महामुणि-सिद्धिगयं । अजियस्स य संतिमहामुणिणो वि य संतिकरं, सययं मम निव्वुइ-कारणयं च नमसणयं ।।६।।
-आलिंगणयं ॥
पुरिसा ! जइ दुक्ख-वारणं, जइ य विमग्गह सुक्ख-कारणं । अजियं संतिं च भावओ, अभयकरे सरणं पवज्जहा ॥६॥
-मागहिआ ॥
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शब्दार्थ
अजियजिण! हे अजितनाथ ! किरिआ-कायिकी आदिपच्चीस सुह-प्पवत्तणं-शुभका प्रवर्तन प्रकारकी क्रिया। विहिकरनेवाला ।
विधान, करना। सञ्चितसुह-सुख, शुभ । प्पवत्तण
एकत्रित । कम्म-ज्ञानावरप्रवर्तन करनेवाला।
णोय आदि कर्म । किलेसतव-आपका।
पोड़ा। विमुक्खयर-विशेषपुरिसुत्तम!-हे पुरुषोत्तम !
तापूर्वक मुक्त करनेवाला, नाम-कित्तणं-नामस्मरण ।
सर्वथा छुड़ाने वाला। कित्तण-कीर्तन, स्मरण । | अजिय-पराभूत न हो ऐसा तह य-वैसा ही।
____ सर्वोत्कृष्ट । 'धिइ-मइ -प्पवत्तणं - धृतियुक्त निचियं-व्याप्त, परिपूर्ण ।
मतिका प्रवर्तन करनेवाला, च-और । स्थिर बुद्धिको देनेवाला । गुणेहि-गुणोंसे, सम्यग्दर्शनादि धिइ-चित्तका स्वास्थ्य, स्थिरता। गुणोंसे । मइ-बुद्धि।
महामुणि - सिद्धिगयं - महामुतव-आपका।
नियोंको ( अणिमादि आठों) य-और।
सिद्धियोंको प्राप्त करानेवाला। जिणुत्तम !-हे जिनोत्तम !
महामुणि-योगी। सिद्धिगयसंति !-हे शान्तिनाथ !
सिद्धियोंको प्राप्त करानेवाला । कित्तणं-कीर्तन, नाम-स्मरण । अजियस्स-श्रीअजितनाथका। किरिआ-विहि संचिय-कम्म | य-और ।
- किलेस - विमुक्खयरं - संति - महामुणिणो वि य - कायिकी आदि पच्चीस प्रकारकी श्रीशान्तिनाथ भगवान्का भी। क्रियाओंसे सञ्चित कर्मको | संतिकर-शान्तिकर । पीड़ासे छुड़ाने वाला। सययं-सदा।
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मम-मुझे।
| विमग्गह-खोजते हो। निव्वुइ-कारणयं-मोक्षका का- सुक्ख - कारणं- सुख प्राप्तिका रण ।
कारण । निव्वुइ-मोक्ष । कारणय-कारण।
अजियं-श्रीअजितनाथका। च-और। नमंसणयं-पूजन ।
संति-श्रीशान्तिनाथका। पुरिसा! हे पुरुषो!
च-और। जइ-यदि ।
भावओ-भावसे । . दुक्ख-वारणं - दुःख – निवारण, अभयकरे-अभय प्रदान करनेदुःख-नाशका उपाय।
वाले। वारण-निषेध, प्रत्युपाय । सरणं-शरण। जइ य-और यदि ।
| पवज्जहा-अङ्गीकृत करो।
अर्थ-सङ्कलना
हे पुरुषोत्तम ! हे अजितनाथ ! आपका नाम-स्मरण ( जैसे) शुभ ( सुख ) का प्रवर्तन करनेवाला है, वैसे ही स्थिर-बुद्धिको देनेवाला है । हे जिनोत्तम ! हे शान्तिनाथ ! आपका नाम-स्मरण भी ऐसा ही है ॥ ४॥
कायिकी आदि पचीस प्रकारकी क्रियाओंसे सञ्चित कर्मकी पीड़ासे सर्वथा छुड़ानेवाला, सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे परिपूर्ण, महामुनियोंकी अणिमादि आठों सिद्धियोंको प्राप्त करानेवाला और शान्तिकर ऐसा श्रीशान्तिनाथ भगवान्का पूजन मेरे लिए सदा मोक्षका कारण बने।। ५।।
हे पुरुषो ! यदि तुम दुःख-नाशका उपाय अथवा सुखप्राप्तिका कारण खोजते हो तो अभयको देनेवाले श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथकी शरण भावसे अङ्गीकृत करो।॥ ६ ॥
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मूल
( मुक्तकद्वारा श्रीअजितनाथको स्तुति ) अरइ-रइ-तिमिर-विरहियमुवरय-जर-मरणं, सुर-असुर-गरुल-भुयगवइ-पयय-पणिवइयं । अजियमहमवि य सुनय-नय-निउणमभयकरं, सरणमुवसरिय भुवि-दिविज-महियं सययमुवणमे ॥७॥
-संगययं ॥ शब्दार्थअरइ-रइ-तिमिर - विरहियं- ।
कुमार। भुयग-नागकुमार। विषाद और हर्षको उत्पत्र वइ-पति, इन्द्र । पययकरनेवाले अज्ञानसे रहित ।
अत्यन्त आदरपूर्वक । पणिअरइ-विषाद। रइ-हर्ष ।
वइय-प्रणिपात - नमस्कार तिमिर-अन्धकार, अज्ञान ।
किये हुए। विरहिय-रहित ।
अजियं-श्रीअजितनाथका । उवरय-जर-मरणं - वृद्धावस्था | अहमवि य-मैं भी।
और मृत्युसे रहित । सुनय-नय - निउणं - सुनयोंका उवरय-निवृत्त, रहित । जरा- प्रतिपादन करने में अति कुशल।
वृद्धावस्था । मरण-मृत्यु । सुनय-सम्यग्नय । नय-पद्धति, सुर-असुर- गरुल – भुयगवइ- प्रकार । निउण-अतिकुशल।
पघय-पणिवइयं-देव, असुर- | अभयकरं-सर्व--प्रकारके भय और कुमार, सुपर्ण (गरुड) कुमार, | उपसर्गोको दूर करनेवाले । नागकुमार आदिके इन्द्रोंसे | सरणं-शरण । अच्छी तरह नमस्कार किये हुए। उवसरिय-प्राप्तकर, स्वीकृतकर । सुर-वैमानिक देव । असुर- भुवि-दिविज - महिय - मनुष्य असुरकुमार । गरुल - सुपर्ण- और देवताओंसे पूजित ।
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भुविज-मनुष्य । दिविज-देवता। उवणमे-समीपमें जाकर नमन . महिय-पूजित ।
करता हूँ, चरणोंकी सेवा सययं-निरन्तर ।
करता हूँ ! अर्थ-सङ्कलना___ मैं भी विषाद और हर्षको उत्पन्न करनेवाले, अज्ञानसे रहित, ( जन्म ), जरा और मृत्युसे निवृत्त; देव, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, नागकुमार आदिके इन्द्रोंसे अच्छी तरह नमस्कार किये हुए; सुनयोंका प्रतिपादन करने में अतिकुशल; सर्व-प्रकारके भय और उपसर्गोंको दूर करनेवाले तथा मनुष्य और देवोंसे पूजित श्रीअजितनाथका शरण स्वीकृत कर उनके चरणोंकी सेवा करता हूँ॥ ७ ॥ मूल
( दूसरे मुक्तकसे श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) तं च जिणुत्तममुत्तम-नित्तम-सत्त-धरं, अज्जव-मदव-खंति-विमत्ति-समाहि-निर्हि । संतिकरं पणमामि दमुत्तम-तित्थयरं, संतिमुणी ! मम संति-समाहि-वरं दिशउ ॥८॥
-सोवाणयं ॥ शब्दार्थतं-उन ।
श्रेष्ठ और निर्दोष पराक्रमको
धारण करनेवाले। च-और।
उत्तम-श्रेष्ठ । नित्तम-निर्मल, जिणुत्तम-जिनोत्तमको।
निर्दोष । सत्त- पराक्रम । उत्तम-नित्तम-सत्त-धरं
धर-धारण करनेवाले
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३३४ अज्जव-मद्दव-खंति - विमुत्ति- | दमुत्तम - तित्थयरं - इन्द्रिय -
समाहि-निहिं-सरलता, मद्- दमनमें उत्तम ऐसे तीर्थङ्करके। ता, क्षमा और निर्लोभताद्वारा
दम-इन्द्रियोंका दमन । समाधिके भण्डार।
संतिमुणी !-हे शान्तिनाथ !
मम-मुझे। अज्जव-सरलता। मद्दव-मृदुता। संतिसमाहि-वरं-श्रेष्ठ शान्तिखंति-क्षमा। विमुत्ति-निर्लो
समाधि । भता। समाहि-समाधि। संति-उपद्रवरहित स्थिति । निहि-निधि, भण्डार ।
समाहि-चित्तकी प्रसन्नता। संतिकरं-शान्ति करनेवाले।
वर-श्रेष्ठ । पणमामि-प्रणाम करता हूँ। दिसउ-दो, देनेवाले बनो। अर्थ-सङ्कलना___श्रेष्ठ और निर्दोष पराक्रमको धारण करनेवाले; सरलता, मृदुता, क्षमा, और निर्लोभता द्वारा समाधिके भण्डार; शान्ति करनेवाले; इन्द्रिय-दमनमें उत्तम ऐसे तीर्थङ्करको मैं प्रणाम करता हूँ। हे शान्तिनाथ ! मुझे श्रेष्ठ समाधि देनेवाले बनो ॥ ८॥ मूल
(सन्दानितकद्वारा श्रीअजितनाथकी स्तुति ) सावत्थि-पुव्व-पत्थिवं च वरहत्थि-मत्थय-पसत्थवित्थिन्न-संथियं थिर-सरिच्छ-वच्छं,
मयगल-लीलायमाण-वरगंधहत्थि-पत्थाण-पत्थियं संथ-वारिहं ।
हत्थि-हत्थ-बाहुं धंत-कणग-रुअग-निरुवहयपिंजरं पवर-लक्खणोवचिय-सोम-चारु-रूवं.
-
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सुइ-सुह-मणाभिराम-परम-रमणिज-वर-देव-दुंदुहिनिनाय-महुरयर-सुहगिरं ॥९॥
-वेड्ढओ ( वेढो)॥ अजियं जियारिगणं, जिय-सव्व-भयं भवोह-रिउं । पणमामि अहं पयओ, पावं पसमेउ मे भयवं ॥१०॥
-रासालुद्धओ ॥ शब्दार्थ-- सावत्थि - पुव्व - पत्थिवं - । मयगल - लीलायमाण - वर - श्रावस्ती नगरीके पूर्व (कालमें)
गंधहत्थि-पत्थाण-पत्थियंराजा।
जिनका मद झर रहा हो और सावत्थि-श्रावस्ती ( आधुनिक
लीलायुक्त श्रेष्ठ गंध हस्तिके बहराइच जिले का सहेट
जैसी गतिसे चलते हुए। ग्राम ) पुव्व-पूर्व । पत्थिव
मयगल-जिसका मद झर रहा राजा ।
हो। लीलायमाण-लीलायुक्त। च-और।
वर-श्रेष्ठ । गंधहत्थि-गन्धवरहत्थि-मत्थय-पसत्थवित्थिन्न-संथियं श्रेष्ठ हाथीके
हस्ती। पत्थान-प्रस्थान, कुम्भस्थल जैसे प्रशस्त और
गति । पत्थियं-प्रस्थित, विस्तोर्ण संस्थानवाले।
चलते हुए। वर-श्रेष्ठ । हत्थि-हाथी । मत्थय-- | संथवारिहं-प्रशंसाके योग्य । कुम्भस्थान । पसत्थ-प्रशस्त।
हत्थि-हत्थ-बाहु-हाथी की सूंड वित्थिन्न-विस्तीर्ण । संथिय
जैसी दीर्घ और ( सुन्दर ) संस्थान ।
भुजावाले। थिर-सरिच्छ - वच्छं - निश्चल
हत्थि-हत्थ-हाथोकी सूंड़ । और अविषम वक्षःस्थल वाले। थिर-निश्चल। सरिच्छ-समान,
बाहु-भुजा। अविषम । वच्छ-वक्षस्थल। धंत-कणग - रुअग - निरुवहय
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रूव-रूप ।
पिंजरं-तपाये हुए सुवर्णकी । सुइ-कान । सुह-सुख । कान्ति जैसे स्वच्छ पीत वर्णवाले। मणाभिराम-मनको आनन्द धंत-तपाया हुआ। कणग- देनेवाला। रमणिज्ज-रमसुवर्ण। रुअग-कान्ति ।
णीय । निनाय-नाद, ध्वनि । निरुबहय-स्वच्छ । पिंजर
महुरयर-अत्यन्त मधुर । पीतवर्ण ।
सुह-मङ्गल। गिर्-वाणी।
| सुहगिरं-मंगलमय । पवर - लक्खणोचिय - सोम
अजियं -श्रीअजितनाथ भगवान्को। चारु-रूवं-श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त,
जियारिगणं-अन्तरके शत्रुओंपर . शान्त और मनोहर रूपवाले ।
जय प्राप्त करनेवाले। पवर-श्रेष्ठ । लक्खण-लक्षण ।
जिय-सव्व-भयं-सर्व भयोंको उवचिय-युक्त। सोम
जीतनेवाले। शान्त । चारु - मनोहर ।।
भवोह-रिउं-भव-परम्पराके प्रबल
शत्रु । सुइ - सुह - मणाभिराम- पणमामि-नमस्कार करता हूँ। परम - रमणिज्ज - वर - देव- | अहं-मैं । दुन्दुहि - निनाय - महुरयर - पयओ-मन, वचन और कायाके
कानोंको सुखकारक, मनको प्रणिधानपूर्वक । आनन्द देनेवाले, अति रमणीय | पावं-पापका, अशुभ कर्मोंका। और श्रेष्ठ ऐसे देवदुन्दुभिके | पसमेउ-प्रशमन करो। नादसे अतिमधुर और मङ्गलमय | मे-मेरे । वाणीवाले।
| भयवं-हे भगवन् । अर्थ-सङ्कलना
जो दीक्षासे पूर्व श्रावस्ती ( सहेट) के राजा थे, जिनका संस्थान श्रेष्ठ हाथीके कुम्भस्थल जैसा प्रशस्त और विस्तीर्ण था, जो निश्चल और अविषम वक्षःस्थलवाले थे (जिनके वक्षःस्थल पर निश्चल श्रीवत्स था ), जिनकी चाल मद झरते हुए और लीलासे चलते हुए
national
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३३७
श्रेष्ठ गन्धहस्तिके जैसी मनोहर थी, जो सर्व प्रकार से प्रशंसाके योग्य थे, जिनकी भुजाएँ हाथी की सूड़के समान दीर्घ और गठीली थीं, जिनके शरीरका वर्ण तपाये हुए सुवर्णकी कान्ति जैसा स्वच्छ पीला था, जो श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त, शान्त और मनोहर रूपवाले थे,जिनकी वाणी कानोंको प्रिय, सुखकारक, मनको आनन्द देनेवाली, अतिरमणीय और श्रेष्ठ ऐसे देवदुन्दुभिके नादसे भी अतिमधुर और मङ्गलमय थी, जो अन्तरके शत्रुओंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे, जो सर्व भयोंको जोतनेवाले थे, जो भव-परम्पराके प्रबल शत्रु थे, ऐसे श्रीअजितनाथ भगवान्को मैं मन, वचन और कायाके प्रणिधानपूर्वक नमस्कार करता हूँ और निवेदन करता हूँ कि 'हे भगवन् ! आप मेरे अशुभ कर्मोंका प्रशमन करो॥९-१०॥ मूल
( दूसरे सन्दानितकद्वारा श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) कुरु-जणवय-हत्थिणाउर-नरीसरो य पढम तओ महाचक्कवट्टि-भोए महप्पभावो, - जो बावत्तरि-पुरवर-सहस्स-वर-नगर-निगम-जणवय-वई-बचीसा-रायवर-सहस्साणुयाय-मग्गो ।
चउदस-वररयण-नव-महानिहि-चउसट्ठि- सहस्सपवर-जुवईण-सुन्दरवई,
चुलसी-हय-गय--रह--सयसहस्स--सामी छन्नवइ-- गामकोडि-सामी य आसी जो भारहमि भयवं ॥११॥
-वेड्ढओ ( वेढो ) ॥ प्र-२२
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३३८ तं संति संतिकरं, संतिण्णं सव्वभया । संतिं थुणामि जिणं, संति (च) विहेउं मे ॥१२॥
-रासाणंदिययं ।। शब्दार्थकुरु - जणवय - हत्थिणाउर - नगर-शहर। निगम-व्यानरोसरो-कुरुदेशके हस्तिनापुरके पारियोंकी बस्तीवाला गाँव । राजा ।
जणवय - जनपद, देश । कुरु-जणवय - कुरुदेश। हत्थि- वई-पति ।
णाउर-हस्तिनापुर । नरीसर- | बत्तीसा-रायवर - सहस्साणु - नरेश्वर, राजा।
याय-मग्गो-जिनके मार्गका य-और।
बत्तीस हजार भूप अनुसरण पढमं-पहले, प्रथम।
करते थे। तओ-तदनन्तर ।
बत्तीसा-बत्तीस । रायवरमहाचक्कवट्टि-भोए-महान् च
उत्तम राजा । अणुयाय-अनुक्रवर्तीके राज्यको भोगनेवाले।
सरण करना । मग्ग-मार्ग । महाचक्कवट्टि-महान् चक्रवर्ती।
चउदस-वररयण-नव - महाभोअ-भोग, राज्य।
निहि-चउसट्टि - सहस्स - महप्पभावो-महान् प्रभाववाले ।।
पवर-जुवईण-सुदरवई - जो-जो।
चौदह उत्तम रत्न, नव महाबावत्तरि-पुरवर-सहस्स - वर निधि, चौंसठ हजार श्रेष्ठ -नगर-निगम - जणवयवई
स्त्रियोंके सुन्दर स्वामी।। बहत्तर हजार मुख्य शहरों
और हजारों नगर तथा चउदस-चौदह । वररयण-वर निगमवाले देशके पति ।
रत्न । महानिहि-महानिधि । बावत्तरि-बहत्तर । पुरवर-मुख्य चउसट्ठि - चौंसठ । पवर। शहर । सहस्स-हजार ।
श्रेष्ठ । जुवई-स्त्री।
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चुलसी हयगय रहसय सहस्स - सामी- चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख हाथी और चौरासी लाख रथके स्वामी । चुलसा - चौरासी । हय - घोड़ा ।
गय- हाथी । सय- सहस्सलाख । सामी - स्वामी ।
३३९
छन्नवइ-गाम- कोडि - सामी
छियानबे करोड़
गाँवोंके
अधिपति ।
छन्नवई - छियानबे । गाम-गाँव ।
कोडि-करोड़ । सामी
अधिपति ।
य-और ।
आसी-थे ।
जो-जो ।
भारहंमि - भरतक्षेत्र में ।
अर्थ- सङ्कलना-
भयवं - भगवान् ।
तं - उन !
संति-साक्षात्
शान्ति
मूर्तिमान् उपशम जैसे ।
संतिकरं - शान्ति करनेवाले । संतिण्णं- अच्छी
तरहसे
जैसे,
हुए ।
सव्वभया - सर्व प्रकार के भयोंसे ।
P
तिरे
संति - श्रीशान्तिनाथ भगवान्की । थुणामि स्तुति करता हूँ ।
( च - और ) | विहे- देने को |
मे- मुझे
जिणं - रागादि शत्रुओंको जीतनेवाले | संति - शान्ति ।
जो भगवान् प्रथम भरतक्षेत्र में कुरुदेश के हस्तिनापुर के राजा थे और तदनन्तर महाचक्रवर्ती के राज्यको भोगनेवाले महान् प्रभाववाले हुए, तथा बहत्तर हजार मुख्य शहर और हजारों नगर तथा निगमवाले देशके अधिपति बने; कि जिनके मार्गका बत्तीस हजार उत्तम भूप अनुसरण करते थे, और जो चौदह वररत्न, नव महानिधि, चौंसठ हजार सुन्दर स्त्रियोंके स्वामी बने थे, तथा चौरासी लाख
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३४०
घोड़े, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ और छियानबे करोड़ गाँवों के अधिपति बने थे, तथा जो मूर्तिमान् उपशम जैसे, शान्ति • करनेवाले, सर्वभयोंसे अच्छी तरह तिरे हुए और रागादि शत्रुओंको जीतनेवाले थे, उन श्रीशान्तिनाथ भगवान्की मैं शान्तिके निमित्त स्तुति करता हूँ ।। ११-१२ ।।
मूल
( मुक्तकद्वारा श्री अजितनाथ की स्तुति ) इक्खाग ! विदेह ! नरीसर ! नर-वसहा ! मुणि-वसहा !, नव - सारय-ससि - सकलाणण ! विगय-तमा ! विहुय - रया । अजि ! उत्तम - तेअ ! [गुणेहिं] महामुणि ! अमिय बला ! विउल-कुला !,
पणमामि ते भव-भय-मूरण ! जग-सरणा ! मम सरणं ॥ १३ ॥
- चित्तलेहा ॥
शब्दार्थ
इक्खाग ! - हे इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न होनेवाले !
विदेह ! - हे विशिष्ट देहवाले । नरीसर ! - हे नरेश्वर !
नर-वसहा- हे नर-श्रेष्ठ !
वसह श्रेष्ठ |
मुणि-वसहा ! हे मुनि श्रेष्ठ !
ससि - सकलाणण ! - हे शरदऋतु के नवीन
चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले । सारय- शरद् ऋतुका । ससि
चन्द्र । सकल - पूर्ण, कलापूर्ण | आणण-मुख |
विगय-तमा ! - हे अज्ञान - रहित !
नव-सारय
-
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विहुय - रया !-हे कर्म-रहित ! | विउल-कुला !-हे विशाल विहुय-दूर किया हुआ । रय- कुलवाले ! रजस्, कर्म ।
पणमामि - प्रणाम करता हूँ। अजि! हे अजितनाथ !
ते-आपको। उत्तम-तेअ ! हे उत्तम तेजवाले !
भव-भय - मरण !-हे भवके
भयको नष्ट करनेवाले! [गुहि-गुणोंसे ।]
मूरण-नष्ट करनेवाला । महामुणि ! हे महामुनि !
| जग-सरणा !-हे जगत्के जोवोंअमिय - बला !- हे अपरिमित को शरण देनेवाले ! -बलवाले !
मम-मेरे। अमिय-अपरिमित। | सरणं- शरण । अर्थ-सङ्कलना
हे इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न होनेवाले ! हे विशिष्ट देहवाले ! हे नरेश्वर ! हे नर-श्रेष्ठ ! हे मुनि-श्रेष्ठ ! हे शरद् ऋतुके नवीन चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले ! हे अज्ञान-रहित ! हे कर्म-रहित ! हे उत्तम तेजवाले ! (गुणोंसे) हे महामुनि ! हे अपरिमित बलवाले ! हे विशाल कुलवाले ! हे भवका भय नष्ट करनेवाले ! हे जगत्के जीवोंको शरण देनेवाले अजितनाथ प्रभु ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ; क्योंकि आप ही मुझे शरणरूप हैं ।। १३ ।। मूल
( दूसरे मुक्तकसे श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) देव-दाणविंद-चंद-सूर-वंद ! हट्टतुट्ट ! जिट्ठ !
परम-लट्ठ-रूव !, धंत-रुप्प-पट्ट-सेय-सुद्ध-निद्ध-धवल-दंत-पंति !।
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संति! सत्ति-कित्ति-(दित्ति)-मत्ति-जुत्ति-गुत्ति-पवर
दित्त-तेअ-वंद-धेय !, सव्व-लोअ-भाविय-प्पभाव ! णेय ! पइस मे समाहि ॥१४॥
-नारायओ (१) शब्दार्थदेव-दाणविंद-चंद-सूर-वंद! | संति !-हे शान्तिनाथ !
हे देवेन्द्र, दानवेन्द्र, चन्द्र | सत्ति-कित्ति- (दित्ति)-मुत्तितथा सूर्यद्वारा वन्दना करने
जुत्ति - गुत्ति - पवर ! हे योग्य !
शक्ति-प्रवर ! हे कीर्तिदाणविंद-दानवेन्द्र। चंद-चन्द्र।। प्रवर ! ( हे दीप्ति-प्रवर! ) हे सूर-सूर्य ।
मुक्ति-प्रवर ! हे युक्ति-प्रवर! हट्टतुट्ट! हे आनन्दस्वरूप !
हे गुप्ति-प्रवर ! जिट्ट!-हे अतिशय महान् !
सत्ति-शक्ति । कित्ति-कीर्ति । परम-लगुरूव !-हे परम सुन्दर । दित्ति- दीप्ति । )मुत्ति-- रूपवाले !
मुक्ति । जुत्ति – युक्ति । धतं-रुप्प - पट्ट - सेय - सुद्ध- गुत्ति-गुप्ति । पवर-प्रवर, निद्ध-धवल-दंत-पंति !
श्रेष्ठ । हे तपायी हुई पाटकी चाँदी जैसी उत्तम, निर्मल, चकचकित
दित्त-तेअ-वंद-धेय !-हे देवऔर धवल दन्त पंक्तिवाले !
समूहसे भी ध्यान करने
योग्य ! धंत-तपायी हुई, गरम की हुई। रुप्प-चाँदी । पट्ट-पाट । दित्त-दीप्त । तेअ-तेज । यहाँ सेय-उत्तम । शुद्ध-निर्मल ।। दीप्त-तेज शब्दसे देवोंको निद्ध-चिकनी, चकचकित । ग्रहण करना चाहिये । वंदधवल-उज्ज्वल, श्वेत ।
वृन्द, समूह । धेय-ध्येय, दन्तपंति-दन्तपंक्ति।
ध्यान करनेयोग्य ।
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३४३ सव्व-लोअ-भाविय - पभाव ! । णेय !-हे जानने योग्य !
-हें समस्त विश्वम प्रकाटत पइस-प्रदान करो। प्रभाववाले! लोअ-लोक, विश्व । भाविय- मे-मुझे।
प्रकटित । प्पभाव-प्रभाव। समाहि-समाधि । अर्थ-सङ्कलना
हे देवेन्द्र, दानवेन्द्र, चन्द्र तथा सूर्यद्वारा वन्दन करने योग्य ! हे आनन्द-स्वरूप ! ( प्रसन्नता पूर्ण ! ), हे अतिशय महान् ! हे परम-सुन्दर रूपवाले ! हे तपायी हुई पाटकी चाँदी जैसी उत्तम, निर्मल, चकचकित और धवल दन्त-पंक्तिवाले ! हे सर्व शक्तिमान् ! हे कीर्तिशाली ! हे अत्यन्त तेजोमय ! हे मुक्तिमार्गको बतलानेमें श्रेष्ठ ! ( अथवा हे परम त्यागी ! ) हे युक्ति-युक्त-वचन बोलनेमें उत्तम ! हे योगीश्वर ! हे देव-समूहसे भी ध्यान करने योग्य ! हे समस्त विश्वमें प्रकटित प्रभाववाले और जानने योग्य श्रीशान्तिनाथ भगवान् ! मुझे समाधि प्रदान करो ॥ १४ ॥
मूल
( सन्दानितकद्वारा श्रोअजितनाथकी स्तुति ) विमल-ससि-कलाइरेअ-सोम, वितिमिर-सूर-कलाइरेअ-ते। तिअस-वह गणाइरेअ-रूवं, धरणिधर-प्पवराइरेअ-सारं ॥१५॥
-कुसुमलया ॥
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३४४ सत्ते अ सया अजियं, सारीरे अ बले अजियं तव-संजमे अअजियं, एस थुणामि जिणं अजिय॥१६॥
-भुअगपरिरिंगिअं॥ शब्दार्थविमल - ससि - कलाइरेअ- धरणि-धर - पर्वत। प्पवर
सोम-निर्मल चन्द्रकलासे भी श्रेष्ठ । धरणि-धर-प्पवरसौम्य ।
मेरु-पर्वत । विमल-निर्मल । ससि-चन्द्र । सत्ते-आत्म-बलमें ।
अइरेअ-अधिक। सोम- | अ-और । सौम्य।
सया-निरन्तर । वितिमिर - सूर - कराइरेअ
अजियं - अजित, अन्यसे नहीं तेअं-आवरण रहित सूर्यकी
जीते हुए। किरणोंसे भी अधिक तेजवाले।
सारीरे-शारीरिक । वितिमिर - आवरण रहित ।
अ-और । सूर-सूर्य । कर - किरण ।
बले-बलमें। तेज-तेज ।
अजियं-अजित। तिअस-वइ-गणाइरेअ - रूवं
तव-संजमे-तप तथा संयममें । इन्द्रोंके समूहसे भी अधिक
अ-और रूपवान् । तिअस-त्रिदश, देव । वइ-पति, | अजियं-अजित ।
स्वामी । रूव-रूप। एस-यह । धरणि-घर-प्पवराइरेअ-सारं- थुणामि-मैं स्तुति करता हूँ।
मेरुपर्वतसे भी अधिक | जिणं-जिनकी। दृढ़तावाले ।
| अजियं-अजितनाथको। अर्थ-सङ्कलना
निर्मल-चन्द्रकलासे भी अधिक सौम्य, आवरण-रहित सूर्यको
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३४५
किरणोंसे भी अधिक तेजवाले, इन्द्रोंके समूहसे भी अधिक रूपवान्, मेरु पर्वत से भी अधिक दृढ़तावाले तथा निरन्तर आत्म-बलमें अजित, शारीरिक बलमें भी अजित और तप-संयममें भी अजित, ऐसे श्री अजितजिनकी मैं स्तुति करता हूँ ।। १५-१६ ॥
मूल
( दूसरे सन्दानितकद्वारा श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) सोम - गुणेहिं पावइ न तं नव - सरय-ससी, अ - गुणेहिं पावड़ न तं नव - सरय - रवी । रूव - गुणेहिं पावइ न तं तिअस - गण - वई, सार- गुणेहिं पावइ न तं धरणि - घर - वई ॥ १७ ॥
तित्थवर - पवत्तयं तम-रय - रहियं, धीर - जण - धुयच्चियं - चुय - कलि-कलुसं । संति - सुह - पवत्तयं तिगरण - पयओ, संतिमहं महामुणि सरणमुवणमे ||१८||
शब्दार्थ
सोम - गुणेहिं - आह्लादकता आदि । तं - जिनकी । गुणों
पावइ न प्राप्त नहीं हो सकता,
बराबरी नहीं कर सकता ।
- खिज्जिययं ॥
— ललिययं ॥
नव-सरय-ससी-नवीन ऋतुका पूर्णचन्द्र । सरय - शरद् ऋतु । ससी - चन्द्र ।
शरद्
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३४६
तेथ - गुणेहिं तेज आदि गुणोंसे । पावइ न-बराबरी नहीं कर
सकता ।
तं - जिनकी ।
शरद्
नव-सरय- रवी - नवीन ऋतुका पूर्ण किरणोंसे प्रकाशित
होनेवाला सूर्य ।
।
रवी - सूर्य रूव-गुणेह-रूप आदि गुणोंसे । पावइ न - बराबरी नहीं कर
सकता ।
तं - जिनकी ।
तिअस-गण-वई - इन्द्र |
तिअस- देव |
वई - स्वामी । सार-गुणेहिं दृढ़ता आदि गुणोंसे ।
गण - समूह |
पावइ न- बराबरी नहीं कर सकता । तं - जिनकी ।
धरणि-धर - वई - मेरु पर्वत । तित्थवर - पवत्तयं श्रेष्ठ तीर्थ के
प्रवर्त्तक । तित्थ - तीर्थ । पवत्तय- प्रवर्तक ||
तम - रय- रहियं - मोहनीय आदि कर्मोसे रहित ।
मोहनीय |
रय - रजस्, कर्म । रहिय
प्राज्ञ
रहित । धीर-जण थुयच्चियं पुरुषोंद्वारा स्तुति और पूजित । धीर-प्राज्ञ | जण - पुरुष । थुयच्चिय-स्तुत और पूजित ।
तम - अन्धकार,
चुय - कलि - कलुस - कलहको कालिमासे रहित ।
चुय-रहित । कलि-कलंह | कलुस - कालापन |
संति - सुह - पवत्तयं - शान्ति और शुभ (सुख) को फैलानेवाले । संति - शान्ति ।
पवत्तय- फैलानेवाला ।
तिगरण - पयओ-तीन
-
सुह-शुभ ।
संति - श्री शान्तिनाथके |
अहं - मैं |
महामुणि महामुनिके ।
|
प्रयत्नवान्, मन, वचन, कायाके प्रणिधानपूर्वक तिगरण - मन, वचन और काया ।
पयअ - प्रयत्नशील ।
करणोंसे
और
सरणं उवणमे- शरणमें जाता हूँ, शरणको अङ्गीकृत करता हूँ ।
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अर्थ- सङ्कलना
शरद्ऋतुका पूर्णचन्द्र आह्लादकता आदि गुणोंसे जिनकी बरा - बरी नहीं कर सकता, शरदऋतुका पूर्ण किरणोंसे प्रकाशित होनेवाला सूर्य तेज आदि गुणोंसे जिनकी बराबरी नहीं कर सकता, इन्द्र रूप आदि गुणोंसे जिनकी बराबरी नहीं कर सकता, मेरु पर्वत दृढ़ता आदि गुणोंसे जिनकी बराबरी नहीं कर सकता, जो श्रेष्ठ तीर्थ के प्रवर्तक हैं, मोहनीय आदि कर्मोंसे रहित हैं, प्राज्ञ पुरुषोंसे स्तुत और पूजित हैं, जो कलहको कालिमासे रहित हैं, जो शान्ति और शुभ (सुख) के फैलानेवाले हैं, ऐसे महामुनि श्री शान्तिनाथको शरणको मैं मन, वचन और कायाके प्रणिधान पूर्वक अङ्गीकार करता हूँ ।। १७-१८ ।
मूल
道
३४७
( विशेषकद्वारा श्री अजितनाथकी स्तुति ) विणओणय - सिर- रइअंजलि - रिसिगण - संधुयं थिमियं,
विबुहाहिव - धणवड़ - नरवइ - थुय - महियच्चित्रं बहुसो ।
अइरुग्गय - सरय - दिवायर - समहिय - सप्पभं तवसा,
गयणंगण - वियरण - समुइय - चारण-वंदिय सिरसा ||१९||
अभयं अणहं, अरयं अरुयं । अजियं अजियं, परओ पणमे
¡
असुर - गरुल - परिवंदियं, किन्नरोरग-नमंसियं । देव - कोडि - सय - संधुयं, समण - संघ- परिवंदियं ॥ २० ॥
- सुमुहं ॥
―
- किसलयमाला ||
॥ २१ ॥
- विज्जुविलसियं ॥
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३४८
शब्दार्थविणओणय - सिर - रइअंजलि अइर-अचिर, तत्काल । उग्गय
-रिसिगण-संथुयं - भक्तिसे उदित हुआ। सरय-शरद् नमे हुए मस्तकपर दोनों हाथ ऋतु। दिवायर-सूर्य । जोड़े हुए ऐसे ऋषियोंके समहिय-बहुत अधिक । समूहसे अच्छी प्रकार स्तुति सप्पभ-प्रभाववाला, कान्ति किये गये।
वाला। विणय-भक्ति । ओणय-नमा हुआ तवसा-तपसे ।
रइअंजलि-दोनों हाथ जोड़े | गयणंगण - वियरण - समुइयहुए। रिसि-ऋषि । गण- चारण-वंदियं - आकाशमें समूह । संथुय-स्तुति किये विचरण करते करते एकत्रित गये ।
हुए-चारणमुनियोंसे वन्दित । थिमियं-स्थिर, निश्चलता-पूर्वक । गयणंगण-आकाश । वियरणविबुहाहिव-धणवइ - नरवइ- विचरण करते हुए। समु
थुय - महियच्चियं - इन्द्र, इय-एकत्रित । चारणकुबेरादि लोकपाल देवों और चारणमुनि । वंदिय-वन्दित। चक्रवर्तियोंद्वारा स्तुत, वन्दित । सिरसा-मस्तकसे । और पूजित ।
असुर - गरुल - परिवंदियंविबुहाहिव-इन्द्र । धणवइ-कुबेर,
असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि नरवइ-चक्रवर्ती । थुय-स्तुत, भवनपति देवताओंसे उत्कृष्ट स्तुति किये गये। महिय- प्रणाम किये हुये। च्चिय-वन्दित और पूजित।
असुर-असुरकुमार । गरुलबहुसो-अनेक बार।
सुपर्णकुमार । परिवंदियअइरुग्गय - सरय- दिवायर
उत्कृष्ट प्रणाम किये हुए। समहिय- सप्पभं - तत्काल | किन्नरोरग - नमंसियं- किन्नर उदित हुए शरद्ऋतुके सूर्यसे | और महोरग आदि व्यन्तरदेवोंबहुत अधिक कान्तिवाले। से पूजित ।
.
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३४९
किन्नर-व्यन्तर जातिके एक प्रधान चतुर्विध सङ्घसे विधि
प्रकारके देव । उरग-महो- पूर्वक वन्दित । रग। ये भी एक प्रकारके समण-श्रमण। व्यन्तरदेव ही हैं । नमंसिय- अभयं-भय-रहित । नमस्कार किये हुए, पूजित।
अणहं-पाप-रहित देव- कोडि - सय संथुयं-शत- अरयं-कर्म-रहित । कोटि ( एक अरब ) देवोंद्वारा
अरुयं-रोग-रहित । अच्छी प्रकार स्तुति किये | अजियं-किसीसे पराजित नहीं हुए।
होनेवाले । देव-वैमानिक देव । कोडि- अजियं-श्रीअजितनाथको । करोड़। सय-सौ । संथय | पयओ-मन, वचन और कायाके -स्तुति किये हुए।
प्रणिधान-पूर्वक । समण-संघ-परिवंदियं - श्रमण- | पणमे-प्रणाम करता हूँ।
अर्थ-सङ्कलना
निश्चलता-पूर्वक भक्तिसे नमे हुए तथा मस्तकपर दोनों हाथ जोड़े हुए ऐसे ऋषियोंके समूहसे अच्छी तरह स्तुति किये गये; इन्द्रकुबेरादि लोकपालदेव और चक्रवर्तियोंसे अनेक बार स्तुत, वन्दित और पूजित; तपसे तत्काल उदित हुए शरद्ऋतुके सूर्यसे भी अत्यधिक कान्तिवाले;-आकाशमें विचरण करते करते एकत्रित हुए चारणमुनियोंसे मस्तकद्वारा वन्दित, असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि भवनपति देवोंद्वारा उत्कृष्ट प्रणाम किये हुए, किन्नर और महोरग आदि व्यन्तर देवोंसे पूजित; शत-कोटि ( एक अरब ) वैमानिक देवोंसे स्तुति किये हुए, श्रमण-प्रधान चतुर्विध सङ्घद्वारा विधि-पूर्वक वन्दित, भय-रहित, पाप-रहित, कर्म-रहित, रोग-रहित और किसीसे भी पराजित नहीं होनेवाले देवाधिदेव श्रीअजितनाथको मैं
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३५० मन, वचन और कायाके प्रणिधान—पूर्वक प्रणाम करता हूँ ॥ १९-२०-२१ ।। मूल
( दूसरे विशेषकद्वारा श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) आगया वर-विमाण-दिव्व-कणग-रह-तुरय
पहकर-सएहिं हुलियं, ससंभमोयरण- खुभिय-लुलिय-चल-कुंडलंगय-तिरीड
सोहंत-मउलि-माला ॥२२॥
-वेड्ढो ( वेढो ) ॥ जं सुर--संघा सासुर-संघा वेर-विउत्ता भत्ति-सुजुत्ता, आयर-भूसिय-संभम-पिडिय-सुट्ठ-सुविम्हिय-सव्व-बलोधा । उत्तम-कंचण--रयण--परूविय--भासुर--भूसण--भासुरियंगा, गाय--समोणय-भत्ति-वसागय-पंजलि -- पेसिय -- सीस
- पणामा ।।२३।।
-रयणमाला ॥ वंदिऊण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं । पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पमइया सभवणाई तो गया ।।
[२४]x
-खित्तयं ॥ . x[ .. ] कोष्ठकमें प्रदर्शित क्रमाङ्क गाथाके प्रचलित-क्रमका सूचन करते हैं। ..
...
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तं महामुणिमहं पि पंजली, राग-दोस-भय-मोह-वजियं । देव-दाणव-नरिंद-वंदियं,संतिमुत्तमं महातवं नमे।२४।[२५]
--खित्तयं ॥
शब्दार्थ
आगया-आये हुए।
खुभिय-क्षोभको प्राप्त। लुलियवर-विमाण-दिव्व-कणग- डोलते हुए। चल-चञ्चल ।
रह-तुरह-पहकर - सरहिं कुंडलंगय - कुण्डल - अङ्गद, -सैंकड़ों श्रेष्ठ विमान, सैंकड़ों कुण्डल-कानमें पहननेके आदिव्य मनोहर सुवर्णमय रथ भूषण । अङ्गद-भुजबन्ध ।
और सैंकड़ों घोड़ोंके समूहसे । तिरिड-मुकुट । सोहंतवर-श्रेष्ठ । विमाण विमान । शोभित, सुन्दर ।. मउलिदिव्य-दिव्य । कणग-सुवर्ण। मस्तक । माला-माला । रह-रथ । तुरय-घोड़ा। | जं-जो।
पहकर-समूह । सअ-सैंकड़ों। सुर-संघा-सुरोंके सङ्घ । हुलियं-शीघ्र।
सासुर-संघा - असुरोंके सङ्घ ससंभमोयरण- खुभिय - लुलिय।
सहित । . . चल-कुडलंगय-तिरीड- वेर-विउत्ता-वैरवृत्तिसे मक्त । सोहंत - मउलि - माला - वैर-वैमनस्य, वैर । विउत्तवेगपूर्वक नीचे उतरनेके कारण
मुक्त। क्षोभको प्राप्त हुए, डोलते भत्ति-सुजुत्ता-पूर्ण भक्तिसे और चञ्चल ऐसे कुण्डल, भुज- युक्त, पूर्ण भक्तिवाले । बंध, मुकुट तथा मस्तकपर | आयर भूसिय-संभम-पिडियसुन्दर मालाएँ धारण करनेवाले। सुछ - सुविम्हिय-सव्व - ससंभम-वेगपूर्वक । ओयरण- बलोघा-सम्मानकी भावनासे नीचे उतरनेकी क्रिया । । युक्त, शीघ्रतासे एकत्रित हुए,
ता
साद
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३५२
अत्यन्त आश्चर्यान्वित और सकल परिवार से क्
सम्मान की भा
आयर-आदर, वना । भूसिय- अलङ्कृत, युक्त, संभम - शीघ्रतापूर्वक । पिंडिय - एकत्रित । सुट्ठअच्छी तरह अत्यन्त । सुविम्हि - आश्चर्यान्वित । सव्व- सर्व, सकल । बलसैन्य, परिवार । ओध - समूह | उत्तम - कंचन - रयण -परूविय
।
-
भासुर-भूसण- भासुरियंगा - - उत्तम जातिके सुवर्ण और रत्नोंसे बने हुए तेजस्वी अलङ्कारोंसे देदीप्यमान अङ्गवाले | कंचन - सुवर्ण । रयण - रत्न |
|
परूविय बने हुए | भासुरतेजस्वी | भूसण - अलङ्कार | भासुरियंगा - देदीप्यमान अङ्ग
गाय- समोणय-भत्ति - वसागयपंजलि - पेसिय-सीस पणामा - - शरीरद्वारा सम्यग् प्रकारसे नमे हुए, भक्तिके वशीभूत
होकर आये हुए अञ्जलिपूर्वक
नमस्कार करते हुए ।
तथा मस्तक से
गाय - गात्र, शरीर । समोणयअच्छी तरह नमे हुए । भक्ति-भक्ति ।
वस - काबू,
वश ।
आगय-आये हुए | पंजलि -अञ्जलि-पूर्वक । पेसिय
किया हुआ । सीस - मस्तक । पणाम, - प्रणाम, नमस्कार ।
वंदिऊण-वन्दन कर । थोऊण - स्तुति कर ।
तो - बादमें । जिणं-जिनको ।
तिगुणमेव - वस्तुतः तीनबार । य-और ।
पुणो- पुनः 1 पयाहिणं- प्रदक्षिणा देकर । पण मऊण - प्रणाम कर । य-और ।
जिणं-जिनको ।
सुरासुरा - सुर और असुर । पमुइया - प्रमुदित, हर्षित होकर | सभवणाई - अपने स्थानको । तो- तदनन्तर ।
गया-गये ।
तं - उन ।
महामुणि- महामुनिको । अहं पि- मैं भी । पंजली - अञ्जलि - पूर्वक |
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३५३
राग - दोस - भय - मोह - दाणव-दानव । नरिंद-नरेन्द्र ।
वज्जियं-राग, द्वेष, भय और वंदिय-वन्दित। भोहसे रहित ।
संति-श्रीशान्तिनाथको । देव - दाणव-नरिंद - वंदियं - उत्तम-उत्तम, श्रेष्ठ ।
देवेन्द्र, दानवेन्द्र और नरेन्द्रोंसे । महातवं-महान् तपस्वीको । वन्दित ।
नमे-नमस्कार करता हूँ।
अर्थ-सडुलना
सैकड़ों श्रेष्ठ विमान, सैकड़ों दिव्य-मनोहर सुवर्णमय रथ और सैकड़ों घोड़ोंसे समूहके जो शीघ्र आये हुए हैं और वेग-पूर्वक नीचे उतरनेके कारण जिनके कानके कुण्डल,भुजबन्ध और मुकुट क्षोभको प्राप्त होकर डोल रहे हैं और चञ्चल बने हैं; तथा जो ( परस्पर) वैर-वृत्तिसे मुक्त और पूर्ण भक्तिवाले हैं; जो शीघ्रतासे एकत्रित हुए हैं और बहुत आश्चर्यान्वित हैं तथा सकल-सैन्य परिवारसे युक्त हैं; जिनके अङ्ग उत्तम जातिके सुवर्ण और रत्नोंसे बने हुए तेजस्वी अलङ्कारोंसे देदीप्यमान हैं; जिनके गात्र भक्तिभावसे नमे हुए हैं तथा दोनों हाथ मस्तकपर जोड़कर अञ्जलि-पूर्वक प्रणाम कर रहे हैं, ऐसे सुर और असुरोंके सङ्घ जो जिनेश्वर प्रभुको वन्दन कर, स्तुति कर, वस्तुतः तीन बार प्रदक्षिणा-पूर्वक नमनकर अत्यन्त हर्षपूर्वक अपने भवनोंमें वापस लौटते हैं, उन राग, द्वेष, भय और मोहसे रहित और देवेन्द्र, दानवेन्द्र एवं नरेन्द्रोंसे वन्दित श्रेष्ठ महान् तपस्वी और महामुनि श्रीशान्तिनाथ भगवान्को मैं भी अञ्जलिपूर्वक नमस्कार करता हूँ॥ २२-२३-२४ ॥
प्र-२३
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मूल
३५४
( कलापकद्वारा श्री अजितनाथको स्तुति )
अंबरंतर - विआरणिआहिं, ललिय - हंस - बहु - गामिणिआहिं । पीण - सोणि- थण - सालिणिआहिं,
सकल-कमल-दल-लोअणिआहिं ।। २५ ।। [ २६ ]
-दीवयं ॥
पीण- निरंतर - थणभर - विणमिय - गाय - लयाहिं, मणि - कंचन - पसिटिल - मेहल - सोहिय - सोणि- तडाहिं । वर-खिखिणि-नेउर-सतिलय - वलय-विभूसणिआहिं, रइकर - चउर - मणोहर - सुंदर - दंसणिआहिं ॥ २६॥ [२७]
-चित्तक्खरा ||
देव - सुंदरीहिं पाय - वंदिआहिं वंदिया य जस्स ते सुविक्कमा कमा
अप्पणी निडालएहिं मंडणोडण - पगार एहिं
केहि केहि वि ?
अवंग - तिलय - पत्तलेह - नामएहिं चिल्लएहिं संगयंगाहिं भत्ति - संनिविट्ठ - वंदनागयाहिँ हुंति ते ( य ) वंदिया पुणो पुणो ||२७|| [ २८ ] - नारायओ ( २ ) ||
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३५५ तमहं जिणचंदं, अजियं जिय-मोहं । धुय-सव्व-किलेसं. पयओ पणमामि ।। २८ ।। [२९]
नंदिययं ॥
-
शब्दार्थअंबरंतर - विआरणिआहिं - सकल-कलासे युक्त, विकसित । आकाशके मध्यमें विचरण कर
कमल-दल-कमलपत्र । नेवाली।
__ लोअणिआ-नयनोंवाली। अंबर-आकाश। अंतर-मध्य- पीण-निरंतर - थणभर-विण
भाग । विआरणिआ-विच- मिय - गाय - लयाहिं-पुष्ट रण करनेवालो।
और अन्तर-रहित स्तनोंके ललिय-हंस-वहु- गामिणिआहिं भारसे अधिक झुकी हुई
-मनोहर हंसीको तरह सुन्दर गात्र लतावाली। गतिसे चलनेवाली।
पीण-पुष्ट । निरंतर-अन्तरललिय-मनोहर ।हंस-बहु-हंसी। रहित । थण-स्तन । भारगामिणिआ-चलनेवाली ।
भार। विणमिअ-अधिक पीण-सोणि-थण-सालिणिआहिं झुकी हुई। गाय-लया
पुष्ट नितम्ब और भरावदार गात्रलता। ___ स्तनोंसे शोभित । मणि-कंचण - पसिढिल-मेहलपोण-भरावदार, पुष्ट । सोणि
सोहिय - सोणि-तडाहिं - नितम्ब, कटिके नोचेका
रत्न और सुवर्णकी झूलती भाग । थण-स्तन । सालि
हुई मेखलाओंसे शोभायमान णिआ-शोभित।
नितम्ब प्रदेशवाली। सकल - कमल-दल- लोअणि- मणि-रत्ल । कंचण-सुवर्ण ।
आहिं - कलामय विकसित पसिढिल-प्रशिथिल । मेहलकमलपत्रके समान नयनोंवाली। मेखला, कटिका आभूषण ।
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३५६ सोहिय-शोभायमान । सोणि । जस्स-जिनका ।
-तड-नितम्ब-प्रदेश। ते वे। वर-खिखिणि-नेउर-सतिलय- सुविक्कमा-बहुत पराक्रमवाले,
वलय-विभूसणिआहिं-उत्तम सम्यग् पराक्रमवाले । प्रकारकी करधनीवाले नूपुर
कमा-चरण, दोनों चरण । और टिपकियोंवाले कङ्कण
अप्पणो-अपने । आदि अनेक प्रकारके आभूषणों
निडालरहि-ललाटोंसे । को धारण करनेवाली।
मंडणोड्डण-प्पगारएहि-शृङ्गारवर-श्रेष्ठ, उत्तम । खिखिणि
के बड़े प्रकारोंसे । किङ्किणी, घूघरियाँ । नेउर
मंडण-शृङ्गार । उड्डण-बड़ा । --नूपुर । सतिलय-बिन्दी
प्पगारअ-प्रकार ।। अथवा टिपकियोंवाले। वलय !
केहि केहि वि-किन्हीं, किन्हीं,
विविध । -कङ्कण । विभूसणिआअनेक प्रकारके आभषणों- अवंग-तिलय-पत्तलेह-नामको धारण करनेवाली।
अपाङ्ग-तिलक और पत्रलेखा रइकर-चउर-मणोहर -सुन्दर नामक, आँखोंमें कज्जल,
-दंसणिआहि-प्रीति उत्पन्न ललाटपर तिलक और स्तनकरनेवाली, चतुरोंके मनको
मण्डलपर पत्रलेखा। हरण करनेवाली. और सुन्दर
अवंग-नत्रका अन्तिम भाग । दर्शनवाली।
तिलय-चन्दन आदि पदार्थोंरईकर-प्रीतिकर। चउर- द्वारा ललाटपर किया जाने
चतुर। मणोहर-मनोहर । वाला एक प्रकारका चिह्न, दंसणिआ-दर्शनवाली।
टोका, बिन्दी आदि । पत्तदेव-सुदरीहिं-देवाङ्गनाओंसे । लेह-कपोल तथा स्तनपाय-वंदियाहि-चरणोंको नमन मण्डलपर कस्तूरी आदि करनेके लिये तत्पर ।
सुगन्धित पदार्थोसे बनायी वंदिया-वन्दित हैं।
जानेवाली आकृतियाँ । य-और।
नामअ-नामवाली।
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३५७ चिल्लएहि-देदीप्यमान । वंदिया-बन्दित । संगयंगयाहि-प्रमाणोपेत अङ्गवाली पुणो पुणो-बार-बार । अथवा नाट्य करनेके लिये
तं-उनको। सज्जित ।
अहं-मैं। संगय-सुन्दर, प्रमाणोपेत ।
जिणचन्द-जिनचन्द्रको, जिने- अंगया-अङ्गवाली।
श्वरको। भत्ति - संनिविट्ठ - वंदणाग - याहिं-भक्तिपर्वक वन्दन करने
अजियं-श्रीअजितनाथको । के लिये आयो हुई।
जियमोहं-जिन्होंने मोहको जीत भत्ति-भक्ति। संनिविट्ठ-व्याप्त, |
लिया है उनको, मोहको सर्वथा पूर्ण । वंदण-वन्दन । आ
जीतनेवालेको। गया-आयी हुई।
धुय-सव्व-किलेसं-सर्व क्लेशोंका हुति-होते हैं।
नाश करनेवालेको। ते-उन दोनों।
पयओ-प्रणिधानपूर्वक । ( य-और )
पणमामि नमस्कार करता हूँ ! अर्थ-सङ्कलना
आकाशमें विचरण करनेवाली, मनोहर हंसी जैसी सुन्दर गतिसे चलनेवालो, पुष्ट नितम्ब और भरावदार स्तनोंसे शोभित, कलायुक्तविकसित कमलपत्रके समान नयनोंवाली, पुष्ट और अन्तर-रहित स्तनोंके भारसे अधिक झुकी हुई गात्रलताओंवाली, रत्न और सुवर्णकी झूलती हुई मेखलाओंसे शोभायमान नितम्ब-प्रदेशवाली, उत्तम प्रकारके करधनीवाले नूपुर और टिपकीवाले कङ्कण आदि विविध आभूषण धारण करनेवाली, प्रीति उत्पन्न करनेवाली, चतुरोंके मनका हरण करनेवाली, सुन्दर दर्शनवाली, जिन-चरणोंको नमन करनेके लिये तत्पर, आँखमें कज्जल, ललाटपर तिलक और स्तन-मण्डलपर
-
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३५८
पत्रलेखा तथा विविध प्रकारके बड़े आभूषणोंवाली, देदीप्यमान, प्रमाणोपेत अङ्गवाली अथवा विविध नाटय करनेके लिये सज्जित तथा भक्ति-पूर्ण वन्दन करनेको आयी हुई देवाङ्गनाओंने अपने ललाटोंसे जिनके सम्यक् पराक्रमवाले चरणोंको वन्दन किया है तथा बार-बार वन्दन किया है, ऐसे मोहको सर्वथा जीतनेवाले, सर्व क्लेशोंका नाश करनेवाले जिनेश्वर श्रीअजितनाथको मन, वचन और कायाके प्रणिधान-पूर्वक मैं नमस्कार करता हूँ॥२५-२६२७-२८ ।।
मूल
( दूसरे कलापकद्वारा श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) थुय-चंदियस्सा, रिसि-गण-देव-गणेहिं । तो देव-वहुहिं, पयओ-पणमियअस्सा ॥ २९ ॥
--माङ्गलिका ॥
जस्स-जगुत्तम-सासण-अस्सा, भत्ति-वसागय-पिंडियआहिं । देव-वरच्छरसा-बहुआहिं, सुर-वर-रइगुण-पंडियाहिं ॥ ३० ॥ [ ३० ]
-भासुरयं ॥ वंस-सद्द-तंति-ताल-मेलिए तिउक्खराभिराम-सद्द-मी सएकए [अ सुइ-समाणणे अ सुद्ध-सज्ज-गीय-पाय
जाल-घंटिआहिं।
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३५९
वलय- मेहला - कलाव - नेउरा भिराम - सह - मीसए - कए -अ, देव - नट्टिआहिं हाव-भाव - विब्भम - पगार एहिं नच्चिऊण अंगहारएहिं ॥ ३१ ॥
( - नारायओ ( ३ ) ॥ )
वंदिया य जस्स ते सुविकमा कमा, तयं तिलोय - सव्व - [ सत्त ] -संतिकारयं । पसंत - सव्व - पाव -- दोसमेस हं, नमामि संतिमुत्तमं जिणं ।। ३२ ।। [ ३१ ]
शब्दार्थ
B
थुय दियस्सा - स्तुत और वन्दित । रिसि - गण - देव - गणेहिं - ऋषि और देवताओंके समूहसे । रिसि - गण - ऋषियों का समूह ।
देवगण-देवताओंका समूह ।
जस्स
-
तो- बादमें ।
देव - बहि-देवाङ्गनाओंसे ।
पयओ - प्रणिधानपूर्वक | पण मियअस्सा • प्रणाम
-
जाते हैं ।
www
जगुत्तम - सासणअस्सा
जिनका जगत् में शासन है ।
किये
उत्तम
- ( अ ) नारायओ ( ४ ) ॥
जस्स - जिनका | जगुत्तम-जगत्में उत्तम । सासण - शासन | भत्ति - वसागय - पिंडयआहिंभक्तिवश एकत्र हुई | भक्ति-भक्ति । वसागय -वशी
भूत होकर आयी हुई । पिंडियआ - एकत्र हुई । देव-वरच्छरसा - बहुआ हिं- स्व
र्गकी अनेक सुन्दरियाँ ।
देव - विमानवासी देव । वरच्छरसा-श्रेष्ठ अप्सराएँ, स्वर्ग
की सुन्दरियाँ ।
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३६०
सुर-वर-रइगुण - पंडियआहिं-। सुद्ध-दोष-रहित । सज्ज-प्रकृष्ट
देवोंको उत्तम प्रकारको प्रीति । गुणवाला ।गीय-गीत। पाय उत्पन्न करने में कुशल ।
-जाल-पायजेब, पाँवका रइ-प्रीति । पंडियआ-कुशल । एक प्रकारका आभषण । वंस-सह-तंति-ताल - मेलिए- घंटिआ-धुंघरू। वंशी आदिके शब्दमें वीणा | वलय - मेहला - कलाव--नेउ--
और ताल आदिके स्वरको राभिराम-सह-मीसए कएमिलाती हुई।
कङ्कण, मेखला, कलाप और वंस-वंशी । सद्द-शब्द । तंति- झाँझरके मनोहर शब्दोंका
वीणा । मेलिअ--मिलाना। मिश्रण करतो। तिउक्खराभिराम - सद्द - मी- वलय-कङ्कण । मेहला-मेखला।
सए-कए - आनद्ध वाद्योंके कलाव-कलाप । नेउर-नूपुर, नादका मिश्रण करती ।
झाँझर। अभिराम-मनोहर । तिउक्खर-मृदङ्ग, पणव और
सद्द-शब्द । मीसए कएदर्दुरक नामके चमड़ेके मढ़े
मिश्रण करती। हुए वाद्य। अभिराम-प्रिय।
अ-और। सद्द-शब्द । मीसअ-कअमिश्रण करना।
देव-नट्टिआहि-देवनतिकाओंसे । [ अ-और । ]
देवलोकमें नृत्य-नाटय आदिका सुइ-समाणणे अ- और श्रुति
कार्य करनेवाली देवनतिका योंको समान करती हुई।
कहलाती है।
| हाव-भाव - विभम - पगारसुइ-स्वरका सूक्ष्म भेद । समाणण-सममें लानेको क्रिया ।
एहि-हाव, भाव और विभ्रमशुद्ध-सज्ज-गोय-पाय - जाल
के प्रकारोंसे । घंटिआहि-दोष-रहित प्रकृष्ट
हाव--मुखसे की जानेवाली चेष्टा । गुणवाले गीत गाती तथा पाद- भाव-मानसिक भावोंसे जाल - पायजेबकी घुघरू दिखायी जानेवाली चेष्टा । बजाती।
विन्भम-नेत्रके प्रान्तभागसे
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३६१
दिखाया जानेवाला विकार प्राणियोंको शान्ति करनेवाले। विशेष ।
तिलोय-तीन लोक । सव्व-सर्व । नच्चिऊण अंगहारएहि - अङ्ग
सत्त-प्राणी । संति-कारयहारोंसे नृत्य करके ।।
शान्ति करनेवाले। नच्चिऊण-नृत्य करके । अंगहारअ-अङ्गहार । शरीरके पसंत - सव्व-पाव - दोसं-जो अङ्गोपाङ्गोंसे विविध अभि
सर्व पाप और दोषों-रोगोंसे नय करनेको अङ्गहार
रहित हैं। कहते हैं।
पसंत-प्रशान्त, रहित ।
पाव-पाप । दोस-दोष, वंदिया-बन्दित ।
रोग। य-और। जस्स-जिनके ।
एस हं-यह मैं । ते-बे ( दोनों)।
नमामि-नमन करता हूँ, नमसुविकमा कमा-उत्तम पराक्रम
स्कार करता हूँ। शाली चरण । तयं-उन ।
संति-श्रीशान्तिनाथको। तिलोय- सव्व-( सत्त)- संति- उत्तम-उत्तम । ___कारयं-तीनों लोकके सर्व । जिणं-जिन भगवान् ।
अर्थ-सडुलना
देवोंको उत्तम प्रकारकी प्रीति उत्पन्न करने में कुशल ऐसी स्वर्गकी सुन्दरियाँ भक्तिवश एकत्रित होती हैं। उनमेंसे कुछ वंशी आदि सुषिर वाद्य बजाती हैं, कुछ ताल आदि घनवाद्य बजाती हैं और कुछ नृत्य करती जाती हैं और पाँवमें पहने हुए पायजेबके धुंघरुओंके शब्दको कङ्कण, मेखला-कलाप और नूपुरकी ध्वनिमें मिलाती जाती हैं, उस समय जिनके मुक्ति देने योग्य, जगत्में उत्तम शासन करनेवाले तथा सुन्दर पराक्रमशाली चरण पहले ऋषि और देवताओंके समूहसे स्तुत
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३६२ हैं-वन्दित हैं, बादमें देवियोंद्वारा प्रणिधानपूर्वक प्रणाम किये जाते हैं और तत्पश्चात् हाव, भाव, विभ्रम और अङ्गहार करती हुई देवर्तिकाओंसे वन्दन किये जाते हैं, ऐसे तीनों लोकके सर्व जीवोंको शान्ति करनेवाले, सर्व पाप और दोषसे रहित उत्तम जिन भगवान् श्रीशान्तिनाथको मैं नमस्कार करता हूँ॥ २९-३०-३१-३२॥
मूल
( विशेषकद्वारा श्रोअजितनाथ और शान्तिनाथकी स्तुति ) छत्त-चामर -पडाग- जूअ-जव- मंडिआ, झयवर-मगर--तुरय-सिरिवच्छ-सुलंछणा । दीव - समुद्द- मंदर- दिसागय- सोहिया, सत्थिअ--वसह-सीह-रह-चक्क- वरंकिया ॥३३॥[३२]
-ललिययं ॥ सहाव-लट्ठा सम-प्पइट्ठा, अदोस-दुट्ठा गुणेहिं जिट्ठा । पसाय-सिट्टा तवेण पुट्ठा, सिरीहिं इट्टा रिसीहिं जुट्ठा
॥ ३४ ॥ [३३]
-वाणवासिआ ॥ ते तवेण धुय-सव्व-पावया, सवलोअ-हिय-मूल-पावया । संथुया अजिय-संति-पायया, हुतु मे सिव-सुहाण-दायया।
३५ ॥ [३४] -अपरांतिआ ॥
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३६३
शब्दार्थछत्त - चामर - पडाग - जूअ- चक्रके चिह्नवाले ।
जव-मंडिआ-छत्र, चामर, सत्थिअ-स्वस्तिक । वसहपताका, स्तम्भ और जव
बैल । सीह-सिंह। रहद्वारा शोभित ।
रथ। चक्क-चक्र । वरछत्त-छत्र। चामर-चँवर । श्रेष्ठ । अंकिय-चिह्नवाले। पडाग - पताका, ध्वजा।।
| सहाव-लट्ठा-स्वरूपसे सुन्दर । जव-यूप, स्तम्भ विशेष । । जव-यव नामक धान्यकी
सहाव-स्वरूप। लट्ठ-सुन्दर । आकृति । मंडिअ-शोभित । सम-प्पइट्ठा-समभावमें स्थिर झयवर - मगर- तुरय-सिरि- सम-समभाव । प्पइट्ठ-स्थिर ।
वच्छ-सुलंछणा-श्रेष्ठ ध्वज, | अदोस-दुट्ठा-दोष रहित । मगर ( घड़ियाल ), अश्व और । गुणेहिं जिटटा-गुणोंसे अत्यन्त श्रीवत्सरूप सुन्दर लाञ्छनवाले। महान् । झयवर-श्रेष्ठ ध्वज। मगर- पसाय- सिट्ठा- कृपा करने में घड़ियाल । तुरय-अश्व ।।
उत्तम। सिरिवच्छ-श्रीवत्स । सूल
पसाय-कृपा । सिट्ठ-उत्तम । क्षणा-सुन्दर लाञ्छनवाले। | तवेण पुछा-तपके द्वारा पुष्ट । दीव- समुद्द- मंदर- दिसागय- तव-तप । पुट्ट-पुष्ट । सोहिया-द्वीप, समुद्र, मन्दर
सिरीहिं इठा-लक्ष्मोसे पूजित । पर्वत और ऐरावत हाथीके रिसोहिं जुट्ठा-ऋषियोंसे सेवित। लाञ्छनसे सुशोभित । ते-वे। दीव-द्वीप समुद्द-समुद्र । तवेण-तपके द्वारा।
धुय-सव्व-पावया-सर्व पापोंको गय-दिशाओंके हाथी, ऐरा
दूर करनेवाले। वतादि। सोहिय-शोभित ।
धुय-दूर करना। सत्थिअ - वसह -- सीह- रह - सव्व - लोअ - हिय - मूल -
चक्क- वरंकिया- स्वस्तिक, पावया-समग्र प्राणि-समूहको बैल, सिंह, रथ और श्रेष्ठ ! हितका मार्ग दिखानेवाले ।
मदर
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३६४
सव्व-समग्र । लोअ-प्राणो। अजिय-संति-पायया-पूज्य श्रीहिय-कल्याण, हित । मूल- अजितनाथ और श्रीशान्तिनाथ। पावय-प्राप्त करानेवाले. हुतु-हा ।
मे-मुझे। मार्ग दिखानेवाले।
सिब-सुहाण-मोक्ष सुखके । संथुआ-अच्छी प्रकार स्तुत । दायया-देनेवाले ।
अर्थ-सङ्कलना--
जो छत्र, चँवर, पताका, स्तम्भ, यव, श्रेष्ठ ध्वज, मकर (घड़ियाल), अश्व, श्रीवत्स, द्वीप, समुद्र, मन्दर पर्वत और ऐरावत हाथी आदिके शुभ लक्षणोंसे शोभित हो रहे हैं, जो स्वरूपसे सुन्दर, समभावमें स्थिर, दोष-रहित, गुण-श्रेष्ठ, बहुत तप करनेवाले, लक्ष्मीसे पूजित, ऋषियोंसे सेवित, तपके द्वारा सर्व पापोंको दूर करनेवाले और समग्र प्राणि-समहको हितका मार्ग दिखानेवाले हैं, वे अच्छी तरह स्तुत, पूज्य श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथ मुझ मोक्षसुखके देनेवाले हों ।। ३३-३४-३५ ।।
मूल
( दूसरे विशेषकद्वारा उपसंहार ) एवं तव-बल-विउलं, थुयं मए अजिय-संति-जिण-जुअलं। ववगय-कम्म-रय-मलं, गई गयं सासयं विउलं॥३६/३५]
-गाहा ॥ . तं बहु-गुण-प्पसायं, मुक्ख-सुहेण परमेण अविसायं । नासेउ मे विसायं, कुणउ अपरिसाविअ-पसायं ॥३७॥[३६]
-~-गाहा ॥
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तं मोएउ अ नंदि, पावेउ अ नंदिसेणमभिनंदि । परिसा वि अ नंदि, मम य दिसउ संजमे नंदि॥३८॥[३७]
-गाहा ॥ शब्दार्थएवं-इस प्रकार।
मे-मेरे। तव-बल - विउलं - तपोबलसे विसायं-क्लेशको। महान् ।
कुणउ-करो। थुयं-स्तुत ।
अपरिसाविअ- पसायं - कर्मका मए--मेरेद्वारा।
आस्रव दूर करनेवाला प्रसाद । अजिय-संति-जिण – जुअलं- तं-वह ( युगल)।
श्रीअजितनाथ और श्रीशांति- । मोएउ-हर्षप्रदान करे। नाथका युगल ।
अ-और। ववगय-कम्म- रय-मलं-कर्म- नंदि-नन्दिको, सङ्गीतविशारदोंको ।
रूपी रज और मलसे रहित । पावेउ-प्राप्त कराये । ववगय-रहित । कम्म-कर्म ।
नंदिसेणं-नन्दिषेणको । रय-रज । मल-मल ।
अभिनंदि-अति आनन्द । गई गयं-गतिको प्राप्त । सासयं-शाश्वत ।
परिसा वि-परिषद्को भी । विउलं-विशाल ।
अ-और। त-उन ।
सुह-नदि-सुख और समृद्धि । बहु-गुण-प्पसायं-अनेक गुणोंसे
मम-मुझे। युक्त।
य-और। मुक्ख-सुहेण-मोक्षसुखसे ।
दिसउ-प्रदान करो। परमेण-परम । अविसायं-क्लेश रहित ।
संजमे-संयममें। नासेउ-नष्ट करो।
नंदि-वृद्धि।
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अर्थ- सङ्कलना
तपोबल से महान्, कर्मरूपी रज और मलसे रहित, शाश्वत और पवित्र गतिको प्राप्त श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथके युगलकी मैंने इस प्रकार स्तुति की; अतः अनेक गुणोंसे युक्त और परम-मोक्षसुखके कारण सकल क्लेशोंसे रहित ( श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथका युगल ) मेरे विषादका नाश करे, और यह युगल इस स्तोत्रका अच्छी तरह पाठ करनेवालोंको हर्ष प्रदान करे, इस स्तोत्रके रचयिता श्रीनन्दिषेणको अति आनन्द प्राप्त कराये और इसके सुननेवालों को भी सुख तथा समृद्धि देवे; तथा अन्तिम अभिलाषा यह है कि मेरे ( नन्दिषेणके) संयममें वृद्धि करे ।। ३६-३७-३८ ।।
मूल
३६६
( स्तवकी महिमा दिखलानेवाली अन्यकृत गाथाएँ ) [ गाहा ] पक्खिअ - चाउम्मासिअ - संवच्छरिए अवस्स - भणियव्वो । सोअव्वो सव्वेहिं, उवसग्ग-निवारणो एसो ||३९|| [३८]
शब्दार्थ
पक्खिअ - चाउम्मासिअ संवच्छरिए - पाक्षिक, चातुमसिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में
पक्खिअ - पाक्षिक । चाउम्मासिअ - चातुर्मासिक | संवच्छरिअ -- सांवत्सरिक ।
अवस्स - अवश्य । भणियव्वो-पढ़ना चाहिये ।
सोअव्व-सुनना चाहिए । सह- सबको । उवसग्ग-निवारणो
निवारण करनेवाला | एसो - यह ।
उपसर्गका
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अर्थ- सङ्कलना
उपसर्गका निवारण करनेवाला यह ( अजित - शान्ति - स्तव ) पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में अवश्य पढ़ना और सबको सुनना चाहिये ।। ३९ ।।
३६७
मूल
जो पढइ जो अनिसुणइ, उभओ कालं पि अजिय - संति - थयं । न हु हुंति तस्स रोगा, पुव्बुप्पन्ना वि नासंति ॥४०॥[३९]
शब्दार्थ
जो-जो !
पढइ-पढ़ता है ।
जो-जो । अ-और
निसुणइ - नित्य सुनता है । उभओ कालं पि-प्रात:काल
और सायङ्काल |
अजिय - संति - थयं - अजितशान्ति - स्तवको |
न हु हुति - होते ही नहीं ।
तस्स - उसको ।
रोगा - रोग ।
पुवपन्ना - पूर्वोत्पन्न ।
विभी ।
नासंति- नष्ट होते हैं ।
अर्थ-सङ्कलना
" यह अजित - शान्ति -- स्तव” जो मनुष्य प्रातः काल और सायङ्काल पढ़ता है अथवा दूसरोंके मुखसे नित्य सुनता है, उसको रोग होते ही नहीं और पूर्वोत्पन्न हों, वे भी नष्ट हो जाते हैं ॥ ४० ॥ मूल
जड़ इच्छह परम-पयं, अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे । तो तेलुक्कुद्धरणे, जिण-वयणे आयरं कुणही ||४१ || [४०]
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३६८
शब्दार्थजइ-यदि ।
भुवणे-जगत् में। इच्छह-तुम चाहते हो।
तो-तो। परम-पयं-परम-पदको।
तेलुक्कुद्धरणे-तीनों लोकका उद्धार
करनेवाले। अहवा-अथवा ।
जिण-नयणे-जिन-वचनके प्रति । कित्ति-कीर्तिको।
आयरं-आदर। सुवित्थडं-अत्यन्त विशाल ।
| कुणह-करो। अर्थ-सङ्कलना__ यदि परम पदको चाहते हो अथवा इस जगत्में अत्यन्त विशाल कीर्तिको प्राप्त करना चाहते हो तो तीनों लोकका उद्धार करनेवाले जिनवचन के प्रति आदर करो ।। ४१ ।। सूत्र-परिचय
स्वसमय और परसमयके जानकार, मन्त्र और विद्याका परिपूर्ण रहस्य पहचाननेवाले, अध्यात्म रसका उत्कृष्ट पान करनेवाले और काव्यकलामें अत्यन्त कुशल ऐसे त्यागी-विरागी महर्षि नन्दिषेण एक समय श्रीशत्रुञ्जय गिरिराजकी यात्राके लिये पधारे थे। और वहाँके गगनचुम्बी भव्य जिनप्रासादोंमें स्थित जिनप्रतिमाओंके दर्शन कर कृतकृत्य हुए । तदनन्तर वे एक ऐसे रमणीय स्थानमें आये जहाँ द्वितीय तीर्थङ्कर श्रीअजितनाथ और सोलहवें तीर्थङ्कर श्रीशान्तिनाथके मनोहर चैत्य विराजित थे। वहाँ इन दोनों तीर्थङ्करोंकी साथ स्तुति करनेसे अजित-शान्ति-स्तवकी रचना हुई।
___ इस स्तवका गुम्फन संवादी है, वह अधोदर्शित तालिकासे समझ सकेंगे :गाथा १ से ३
मङ्गलादि। , ४ से ६ विशेषक श्रीअजित--शान्ति--संयुक्त स्तुति ।
मुक्तक श्रीअजितनाथकी स्तुति ।
,
७ वीं
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८वों
१३वीं
मुक्तक श्रीशान्तिनाथकी स्तुति । ९-१० सन्दानितक श्रीअजितनाथकी स्तुति । ११-१२
श्रीशान्तिनाथकी स्तुति । मुक्तक श्रीअजितनाथकी स्तुति । १४वीं
श्रीशान्तिनाथकी स्तुति । सन्दानितक श्रीअजितनाथकी स्तुति । १७-१८
श्रीशान्तिनाथकी स्तुति । १९-२०-२१ विशेषक श्रीअजितनाथकी स्तुति । २२-२३-२४
श्रीशान्तिनाथकी स्तुति । २५ से २८ कलापक श्रीअजितनाथकी स्तुति । २९ से ३२
श्रीशान्तिनाथकी स्तुति । ३३-३४-३५ विशेषक
श्रीअजित-शान्ति-संयुक्तस्तुति , ३६-३७-३८ ,, उपसंहार ,, ३९-४०-४१ गाथा अन्यकृत ] इस स्तवमें नीचे लिखे अनुसार २८ छन्द x प्रयुक्त हुए हैं :१ गाहा ( गाथा-आर्या ) १, २, ३६, ३७, ३८, ३९, ४०, ४१ । २ सिलोगो ( श्लोक ) ३। ३ मागहिआ ( मागधिका ) ४, ६ । ४ आलिंगणयं ( आलिङ्गनकम् ) ५ । ५ संगययं ( सङ्गतकम् ) ७ । ६ सोवाणयं ( सोपानकम् ) ८ । ७ वेड्ढओ-वेढो ( वेष्टकः ) ९, ११, १२ । ८ रासालुद्धओ ( रासालुब्धकः ) १० । ९ रासाणंदिययं ( रासानन्दितकम् ) १२ ।
x इन छन्दोंके स्वरूपको विशेष चर्चाके लिये देखो प्रवोधटीका भा. ३ पृष्ठ ४६४।
प्र-२४
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३७०
१० चित्तलेहा ( चित्रलेखा ) १३ । ११ नारायओ १-२-३-४ ( नाराचकः ) १४, २७, ३१, ३२ । १२ कुसुमलया ( कुसुमलता ) १५ । १३ भुअगपरिरिंगियं ( भुजगपरिरिङ्गितम् ) १६ । १४ खिज्जिययं ( खिद्यतकम् ) १७ । १५ ललिययं (१) ( ललितकम् ) १८ । १६ किसलयमाला ( किसलयमाला ) १९ । १७ सुमुहं ( सुमुखम् ) २० । १८ विज्जुविलसियं ( विद्युद्विलसितम् ) २१ । १९ रयणमाला ( रत्नमाला ) २३ । २० खित्तयं ( क्षिप्तकम् ) २४ । २१ दोवयं ( दीपकम् ) २५ । २२ चित्तक्खरा ( चित्राक्षरा) २६ । २३ नं दिययं ( नन्दितकम् ) २८ । २४ .... ( माङ्गलिका ) २९ । २५ भासुरयं ( भासुरकम् ) ३० । २६ ललियय ( . ) ( ललितकम् ) ३३ । २७ वाणवासिआ ( वानवासिका ) ३४ । २८ अपरांतिआ ( अपरान्तिका ) ३५ ।
यह स्तव भक्तिरससे परिपूर्ण है और इसको विविध राग-रागिनियोंमें गानेसे हृदयका प्रत्येक तार झनझना उठता है ।
यह स्तव पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके प्रसङ्गपर स्तवनके अधिकारमें बोला जाता है।
-
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५६ बृहच्छान्तिः
[ बड़ी शान्ति ] मूल[ १ मङ्गलाचरण]
[ मन्दाक्रान्ता] भो भो भव्याः ! शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमेतद्, ये यात्रायां त्रिभुवनगुरोराहता भक्तिभाजः । तेषां शान्तिर्भवतु भवतामहंदादि-प्रभावादारोग्य-श्री-धृति-मति-करी क्लेश-विध्वंसहेतुः॥१॥
शब्दार्थ
भोः भोः-हे ! हे !
आर्हताः-श्रावक । भव्याः !-भव्यजनो !
भक्तिभाजः-भक्तिवाले । शृणुत-सुनिये।
तेषां-उनके। वचनं-वचन।
भवतु-हो, प्राप्त हो। प्रस्तुतं-प्रासङ्गिक।
भवताम्-आप श्रीमानोंको ।
अहंदादि - प्रभावात् - अर्हत् सर्वम्-सब।
आदिके प्रभावसे । एतद्-यह।
- अहंदादि-अर्हत् आदि । प्रभाये-जो ।
__ वात्-प्रभावसे । यात्रायां-यात्रामें, रथयात्रामें। | आरोग्य-श्री-धति-मति-करीत्रिभुवन- गुरोः- त्रिभुवनके आरोग्य, लक्ष्मी, चित्तकी स्वगुरुकी, जिनेश्वरकी।
स्थता और बुद्धिको देनेवाली ।
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३७२
क्लेश-विध्वंस - हेतुः - पीड़ाका । ___ नाश करने में कारणभूत ।
क्लेश-पीड़ा। विध्वंस-नाश । हेतु-कारणभूत।
-
अर्थ-सङ्कलना-- . हे हे भव्यजनो! आप सब मेरा यह प्रासङ्गिक वचन सुनिये। जो श्रावक जिनेश्वरकी रथयात्रामें भक्तिवाले हैं, उन आप श्रीमानोंको अर्हद् आदिके प्रभावसे आरोग्य, लक्ष्मी, चित्तकी स्वस्थता और बुद्धिको देनेवाली सब क्लेश-पीडाका नाश करने में कारणभूत ऐसी शान्ति प्राप्त हो ॥ १॥
मूल
[ २ पीठिका ]
भो भो भव्यलोकाः ! इह हि भरतैरावत-विदेह-सम्भवानां समस्त-तीर्थकृतां जन्मन्यासन-प्रकम्पानन्तरमवधिना विज्ञाय, सौधर्माधिपतिः, सुघोषा-घण्टा-चालनानन्तरं, सकलसुरासुरेन्द्रैः सह समागत्य, सविनयमहेंद्-भट्टारक गृहीत्वा, गत्वा कनकाद्रिशृङ्गे, विहित-जन्माभिषेकः शान्तिमुद्घोषयति यथा, ततोऽहं कृतानुकारमिति कृत्वा “महाजनो येन गतः स पन्थाः" इति भव्यजनैः सह समेत्य, स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय शान्तिमुद्घोषयामि, तत्पूजा-यात्रास्नात्रादि-महोत्सवानन्तरमिति कृत्वा कणं दत्त्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा ॥२॥
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३७३
शब्दार्थभोः भोः भव्यलोकाः !-हे । सकल-सुरासुरेन्द्रैः सह-सब सुरेन्द्र भव्यजनो!
___और असुरेन्द्रोंके साथ। इह हि-इसी जगत्में, इसी ढाई | समागत्य-आकर । द्वीपमें ।
सविनयम्-विनयपूर्वक । भरतैरावत-विदेह- सम्भवानां- |
अर्हद्भट्टारकं-पूज्य अरिहन्त
देवको। भरत, ऐरावत और महाविदेह
गृहीत्वा-हाथमें ग्रहण करके । क्षेत्र में प्रादुर्भूत ।
गत्वा-जाकर । समस्त-तीर्थकृता-सर्व तीर्थ
कनकादि-शृङ - मेरु - पर्वतके ङ्करोंके ।
शिखरपर। समस्त -सर्व । तीर्थ कृत- विहित-जन्म-अभिषेकः - जिसने तीर्थङ्कर।
। जन्माभिषेक किया है ! जन्मनि-जन्मपर, जन्मके समय- | शान्तिम् उद्घोषयति-शान्तिकी पर।
। उद्घोषणा करता है । आसन-प्रकम्पानन्तरं- आसनका | यथा-जैसे। प्रकम्प होनेके पश्चात्, सिंहा
ततः-इसलिये। सन कम्पित होनेके पश्चात् ।
अहं-मैं।
कृतानुकारमिति कृत्वा – किये अवधिना-अवधिज्ञानसे ।
हुएका अनुकरण करना ऐसा विज्ञाय-जानकर ।
मानकर । सौधर्माधिपतिः-सौधर्मेन्द्र ।
कृत-किया हुआ। अनुकारसुघोषा-घण्टा - चालनानन्तरं
अनुकरण। इति-ऐसा। सुघोषा नामक घण्टा बजानेके कृत्वा-करके, मानकर । बाद ।
'महाजनो येन गतः स पन्थाः ' सुघोषा-घण्टा-सुघोषा नामक इति-महाजन जिस मार्गसे
देवलोकका घण्टा । चालन- जाय, वही मार्ग' ऐसा बजाना । अनन्तर-बाद । मानकर ।
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. ३७४
भव्यजनैः सह-भव्यजनोंके साथ । | पूजा-यात्रा - स्नानादि - महोसमेत्य-आकर।
त्सवान्तरमिति कृत्वा - स्नानपीठे-स्नात्र पीठपर।
पूजा-महोत्सव (रथ ) यात्रास्नात्रं-स्नात्र ।
महोत्सव, स्नात्र-यात्रा महोविधाय-करके।
त्सव आदिको पूर्णाहुति करके । शान्तिम्-शान्तिकी।
कणं दत्त्वा-कान देकर ।
निशम्यतां निशम्यतां-सुनिये उद्घोषयामि - उद्घोषणा
सुनिये। करता हूँ।
स्वाहा-स्वाहा । ततः-तो।
यह पद शान्तिकर्मका पल्लव है।
अर्थ-सङ्कलना
. हे भव्यजनो! इसी ढाई द्वीपमें भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न सर्व तीर्थङ्करोंके जन्मके समयपर अपना आसन कम्पित होनेसे सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञानसे ( तीर्थङ्करका जन्म हुआ ) जानकर, सुघोषा घण्टा बजवाकर ( सूचना देते हैं, फिर ) सुरेन्द्र और असुरेन्द्र साथ आकर विनय-पूर्वक श्रीअरिहन्त भगवान्को हाथमें ग्रहणकर मेरुपर्वतके शिखरपर जाकर जन्माभिषेक करनेके पश्चात् जैसे शान्तिकी उद्घोषणा करते हैं, वैसे ही मैं ( भी ) किये हुएका अनुकरण करना चाहिये ऐसा मानकर 'महाजन जिस मार्गसे जाय, वही मार्ग,' ऐसा मानकर भव्यजनोंके साथ आकर, स्नात्र पोठपर स्नात्र करके, शान्तिको उद्घोषणा करता हूँ, अतः आप सब पूजा-महोत्सव, ( रथ ) यात्रा-महोत्सव, स्नात्र-महोत्सव आदिकी पूर्णाहुति करके कान देकर सुनिये ! सुनिये ! स्वाहा ॥२॥
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३७५
मूल[ ३ शान्तिपाठ ]
(१) ॐपुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां प्रीयन्तां, भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनस्त्रिलोकनाथास्त्रिलोकमहितास्त्रिलोकपूज्यास्त्रिलोकेश्वरास्त्रिलोकोद्योतकराः ॥३॥
शब्दार्थ
ॐॐकार परमतत्त्वकी विशिष्ट भगवन्तः-भगवान् ।
संज्ञा, प्रणवबीज । | अर्हन्तः-अरिहन्त। एक अक्षर के रूपमें यह परम- | सर्वज्ञाः -सर्वज्ञ । तत्त्वका वाचक है और | सर्वदर्शिनः-सर्वदर्शी । पृथक् पृथक् करें तो पञ्च- । त्रिलोकनाथाः-त्रिलोकके नाथ ।
परमेष्ठीका वाचक हैं ।x त्रिलोक - महिताः - त्रिलोकसे पुण्याहं पुण्याह-आजका दिन | पूजित !
पवित्र है, यह अवसर त्रिलोक - पूज्याः - त्रिलोकके माङ्गलिक है।
पूज्य। पुण्य-पवित्र । अहन्-दिन । त्रिलोकेश्वराः-त्रिलोकके ईश्वर । प्रीयन्तां प्रीयन्तां-प्रसन्न हों ! त्रिलोकोद्योतकराः- त्रिलोकमें प्रसन्न हों।
उद्द्योत करनेवाले। अर्थ-सङ्कलना___ॐ आजका दिन पवित्र है, आजका अवसर माङ्गलिक है। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रिलोकके नाथ, त्रिलोकसे पूजित, त्रिलोकके पूज्य, त्रिलोकके ईश्वर, त्रिलोकमें उद्द्योत करनेवाले अरिहन्त भगवान् प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ॥ ३ ॥ x ॐकारक विशेष विवेचनके लिये देखो प्रबोधटीका भाग २
रा, पृ. ४६८ प्रबोधटीका भाग ३ रा, पृ. ५८४ ।
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३७६
मूल
ॐ ऋषभ-अजित-सम्भव-अभिनन्दन-सुमति-पद्मप्रभ-सुपार्श्व-चन्द्रप्रभ-सुविधि-शीतल-श्रेयांस - वासुपूज्यविमल-अनन्त-धर्म-शान्ति-कुन्थु-अर- मल्लि-मुनिसुव्रत -नमि-नेमि-पाव-वर्द्धमानान्ता जिनाः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा ॥४॥ शब्दार्थ
स्पष्ट है। अर्थ-सङ्कलना_____ॐ ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दनस्वामी, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यस्वामी, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतस्वामी, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमानस्वामी जिनमें अन्तिम हैं, ऐसे चौबीस शान्त जिन हमें शान्ति प्रदान करनेवाले हों । स्वाहा ॥४॥
मूल
(२) ॐ मुनयो मुनिप्रवरा रिपुविजय-दुर्भिक्ष-कान्तारेषु दुर्गमार्गेषु रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा ॥६॥ शब्दार्थॐ-ॐ।
| रिपुविजय-दुभिक्ष-कान्तारेषुमुनयो मुनिप्रवराः - मुनियोंमें शत्रुओंद्वारा किये गये विजयश्रेष्ठ ऐसे मुनि।
___ में, दुष्कालमें (प्राण धारण
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३७७
करनेके प्रसङ्गमें),गहन अटवीमें। रक्षन्तु-रक्षण करें।
(प्रवास करनेके प्रसङ्गमें)। व:-तुम्हारा । दुर्गमार्गेषु-विकट मार्गोका उल्ल- नित्यं-नित्य । ङ्घन करते समय ।
स्वाहा-स्वाहा । अर्थ-सङ्कलना
ॐ शत्रुओंद्वारा किये गये विजय-प्रसङ्गमें दुष्कालमें ( प्राण धारण करनेके प्रसङ्गमें ), गहन-अटवीमें (प्रवास करनेके प्रसङ्गमें) तथा विकट मार्गका उल्लङ्घन करते समय मुनियोंमें श्रेष्ठ ऐसे मुनि तुम्हारा नित्य रक्षण करें। स्वाहा ।। ५ ।। मूल
- (३) ॐ श्री-ही-धृति-मति-कीर्ति-कान्ति-बुद्धिलक्ष्मी-मेधा-विद्या-साधन-प्रवेश-निवेशनेषु सुगृहीतनामानो जयन्तु ते जिनेन्द्राः ॥ ५॥ शब्दार्थ
ॐ-ॐ।
सुगृहीत-नामानः-अच्छी तरह श्री-ही-धति- मति-कोति- उच्चारण किये गये नामवाले,
कान्ति बुद्धि लक्ष्मी- मेधा - जिनके नामोंका आदरपूर्वक विद्या- साधन- प्रवेश-नि- उच्चारण किया जाता है। वेशनेषु-श्रो, ह्री, धृति, मति, जयन्तु-जयको प्राप्त हों, सान्निध्य कोति, कान्ति, बुद्धि, लक्ष्मी और
करनेवाले हों। मेधा इन नौ स्वरूपवाली सरस्वतीकी साधनामें योगके प्रवेश- तव । में तथा मन्त्र-जपके निवेशनमें । जिनेन्द्राः -जिनवर ।
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३७८
अर्थ- सङ्कलना
ॐ श्री, ह्री, धृति, मति, कीर्ति, कान्ति, बुद्धि, लक्ष्मी और मेधा इन नौ स्वरूपवाली सरस्वती की साधना में, योगके प्रवेशमें तथा मंत्रजपके निवेशन में जिनके नामोंका आदर-पूर्वक उच्चारण किया जाता है, वे जिनवर जयको प्राप्त हों - सान्निध्य करनेवाले हों ।। ६ ।।
मूल
(४) रोहिणी - प्रज्ञप्ति - वज्रशृङ्खला - वज्राङ्कुशी - अप्रतिचक्रा - पुरुषदत्ता - काली - महाकाली - गौरी - गान्धारी - सर्वास्त्रमहाज्वाला - मानवी - वैरोट्या - अच्छुप्ता - मानसी - महामानसी - षोडशविद्या देव्यो रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा ॥ ७ ॥ शब्दार्थ
स्पष्ट है ।
अर्थ- सङ्कलना
ॐ रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृङ्खला, वज्राङ्कुशी, अप्रतिचक्रा, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गान्धारी, सर्वास्त्रमहाज्वाला, मानवो, वैरोट्या, अच्छुप्ता, मानसी और महामानसी ये सोलह विद्यादेवियाँ तुम्हारा रक्षण करें ।
मूल
(५) ॐ आचार्योपाध्याय - प्रभृति चातुर्वर्णस्य श्रीश्रमण - सङ्घस्य शान्तिर्भवतु तुष्टिर्भवतु पुष्टिर्भवतु ॥ ८ ॥
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३७९
शब्दार्थॐ-ॐ।
। शान्तिः शान्ति । आचार्योपाध्याय - प्रभृति ~ | भवतु-हो ।
चातुर्वर्णस्य-आचार्य, उपा- तुष्टिः-तुष्टि ।
ध्याय आदि चार प्रकारके। भवतु-हो । श्रीश्रमण - सङ्घस्य - श्रीश्रमण पृष्टि:-पुष्टि (पोषण, वृद्धि) । सङ्घके लिये।
| भवतु-हो। अर्थ-सङ्कलना. ॐ आचार्य; उपाध्याय आदि चार प्रकारके श्रीश्रमण-सङ्घके लिये शान्ति हो, तुष्टि हो, पुष्टि हो ॥ ८॥ मूल
(६) ॐ ग्रहाश्चन्द्र-सूर्याङ्गारक-बुध-बृहस्पति- शुक्र --शनैश्चर--राहु-केतु--सहिताः सलोकपालाः सोम-यमवरुण--कुबेर-वासवादित्य-स्कन्द-विनायकोपेता ये चान्येऽपि ग्राम-नगर-क्षेत्र-देवताऽऽदयस्ते सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्ताम् अक्षीण-कोश-कोष्ठागारा नरपतयश्च भवन्तु स्वाहा ॥९॥ शब्दार्थ
! सलोकपाला:-लोकपाल सहित । ग्रहा:-ग्रह।
सोम - यम - बरुण - कुबेर - चन्द्र – सूर्याङ्गारक- बुध- बृह
वासवादित्य - स्कन्द - स्पति-शुक्र-शनैश्चर-राहु -केतु-सहिताः-चन्द्र, सूर्य,
विनायकोपेताः-सोम, यम, मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र, शनै
वरुण, कुबेर, इन्द्र, सूर्य, कार्तिश्चर, राहु और केतु सहित । केय और विनायक सहित ।
مرة
|
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ये जो । च - और ।
अन्ये अपि - दूसरे भी । ग्राम- नगर - क्षेत्र- देवतादयःग्रामदेवता, नगरदेवता, क्षेत्र
देवता आदि ।
ते–वे । सर्वे-स
- सब ।
amanes
३८०
-
अर्थ- सङ्कलना
ॐ चन्द्र, सूर्य, मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु आदि ग्रह; लोकपाल --- सोम, यम, वरुण, (और) कुबेर, तथा, इन्द्र, सूर्य, कार्तिकेय, विनायक आदि देव एवं ग्रामदेवता, नगरदेवता, क्षेत्रदेवता आदि दूसरे भी जो देव हों, वे सब प्रसन्न हों, प्रसन्न हों और राजा अक्षय कोश और कोठारवाले हों । स्वाहा ॥ ९ ॥ मूल
ॐ ॐ ।
कलत
-
मित्र- भ्रातृ पुत्र - सुहृत् - स्वजन -सम्बन्धि बन्धु - वर्ग सहिताः - पुत्र
-
7
--
प्रीयन्तां प्रीयन्ताम् - प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । अक्षीण कोश - कोष्ठागारा:अक्षय कोश और कोठारवाले ।
-
(७) ॐ पुत्र - मित्र - भ्रातृ - कलत्र - सुहृत् - स्वजन - सम्बन्धि-बन्धुवर्ग-सहिता नित्यं चामोद -- प्रमोद - कारिणः
( भवन्तु स्वाहा ) ॥१०॥
शब्दार्थ
नरपतय:- राजा ।
च - और |
भवन्तु हों ।
स्वाहा - स्वाहा ।
मित्र, भाई, स्त्री, हितैषी,
स्नेहीजन तथा
स्वजातीय,
सम्बन्धी परिवारवाले ।
नित्यं नित्य ।
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३८१
सुखी।
च-और। आमोद - प्रमोद - कारिणः- ।
आनन्द - प्रमोद करनेवाले- । स्वाहा-स्वाहा । अर्थ-सङ्कलना
ॐ आप पुत्र (पुत्री), मित्र, भाई (बहिन), स्त्री, हितैषीं, स्वजातोय, स्नेहोजन और सम्बन्धी परिवारवालोंके सहित आनन्द-प्रमोद करनेवाले हों-सुखी हों ॥१०॥ मूल
(८) अस्मिंश्च भूमण्डले, आयतन-निवासि-साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविकाणां रोगोपसर्ग-व्याधि - दुःखदुर्भिक्ष-दौर्मनस्योपशमनाय शान्तिर्भवतु ॥११॥ शब्दार्थअस्मिन्-इस ।
रहे हुए साधु, साध्वी, श्रावक च-और।
और श्राविकाओंके । भूमण्डले-भूमण्डलपर ।
रोगोपसर्ग - व्याधि - दुःखभू-अनुष्ठान भूमिका मध्यभाग।
दुभिक्ष - दौर्मनस्योपशममण्डल - उसके आसपासको
नाय-रोग, उपसर्ग, व्याधि, भूमि । स्नात्रविधि करते समय जिस भूमिकी मर्यादा
दुःख, दुष्काल और विषादके बाँधी हो, उसको भूमण्डल
उपशमनद्वारा। कहते हैं।
शान्तिः-शान्ति । आयतन - निवासि - साधु- । शान्ति-अरिष्ट अथवा कषायोसाध्वी - श्रावक - श्रावि
दयका उपशमरूप । काणा-अपने अपने स्थानमें | भवतु-हो ।
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| موقت
३८२ अर्थ-सङ्कलना
और इस भूमण्डलपर अपने अपने स्थानपर रहे हुए साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओंके रोग, उपसर्ग, व्याधि, दुःख, दुष्काल और विषादके उपशमनद्वारा शान्ति हो ।। ११ ॥ मूल
(९) ॐ तुष्टि-पुष्टि-ऋद्धि-वृद्धि-माङ्गल्योत्सवाः सदा (भवन्तु) प्रादुर्भूतानि पापानि शाम्यन्तु, (शाम्यन्तु) दुरितानि, शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा ॥१२॥ शब्दार्थ
पापानि-पापकर्म । तुष्टि - पुष्टि - ऋद्धि - वृद्धि - शाम्यन्तु-शान्त हों, नष्ट हों।
माङ्गल्योत्सवाः-तुष्टि, पुष्टि, ( शाम्यन्तु-शान्त हों। ) ऋद्धि, वृद्धि, माङ्गल्य और | दुरितानि-भय, कठिनाइयाँ । अभ्युदय।
शत्रवः-शत्रुवर्ग । सदा-सदा।
पराङ्मुखाः-विमुख । (भवन्तु-हों।) प्रादुर्भूतानि - प्रादुर्भूत, उत्पन्न भवन्तु-हों। हुए।
| स्वाहा-स्वाहा। अर्थ-सङ्कलना
ॐ आपको सदा तुष्टि हो, पुष्टि हो, ऋद्धि मिले, वृद्धि मिले, माङ्गल्यको प्राप्ति हो और आपका निरन्तर अभ्युदय हो। आपके प्रादुर्भत पापकर्म नष्ट हों, भय-कठिनाइयाँ शान्त हों तथा आपका शत्रुवर्ग विमुख बने । स्वाहा ।। १२ ।।
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३८३ मूल[४. श्रीशान्तिनाथ-स्तुतिः ]
[अनुष्टुप् ] (१) श्रीमते शान्तिनाथाय, नमः शान्तिविधायिने ।
त्रैलोक्यस्यामराधीश-मुकुटाभ्यर्चिता ये ॥१३॥
शब्दार्थश्रीमते-श्रीमान्, पूज्य । । अमराधीश - मुकुटाभ्यचिता - शान्तिनाथाय - श्रीशान्तिनाथ ज्रये - देवेन्द्रोंके मुकुटोंसे भगवान्को।
पूजित चरणवालेको। नमः-नमस्कार हो ।
जिनके चरण देवेन्द्रोंके मुकुटोंसे शान्तिविधायिने - शान्ति करने | पूजित हैं उनको। वाले।
अमराधीश-देवेन्द्र । मुकुट । त्रैलोक्यस्य - तीन लोकके अभ्यचिताङ्घि - पूजित प्राणियोंको।
चरणवाले। अर्थ-सङ्कलना
तीन लोकके प्राणियोंको शान्ति करनेवाले और देवेन्द्रोंके मुकुटोंसे पूजित चरणवाले, पूज्य श्रीशान्तिनाथ भगवान्को नमस्कार हो ।। १३ ॥
(२) शान्तिः शान्तिकरः श्रीमान्, शान्ति दिशतु मे गुरुः ।
शान्तिरेव सदा तेषां, येषां शान्तिर्गृहे गृहे ॥१४॥
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३८४
शब्दार्थशान्तिः-श्रीशान्तिनाथ भगवान् । गुरु:-जगद्गुरु, जगत्को धर्मका शान्तिकरः - जगत्में शान्ति उपदश करनवाल । करनेवाले।
शान्तिः-शान्ति । श्रीमान् – ज्ञानादिक लक्ष्मीवाले,
एव-ही।
सदा-सदा। पूज्य ।
तेषां-उनके। शान्ति-शान्ति ।
येषां-जिनके । दिशतु-प्रदान करें।
शान्तिः-श्रीशान्तिनाथ । मे-मुझे।
। गृहे गृहे-घर घरमें। अर्थ-सङ्कलना
जगत्में शान्ति करनेवाले, जगत्को धर्मका उपदेश देनेवाले; पूज्य शान्तिनाथ भगवान् मुझे शान्ति प्रदान करें। जिनके घर घरमें श्रोशान्तिनाथकी पूजा होती है उनके (यहाँ) सदा शान्ति ही होती है ॥ १४ ॥
मूल
[ गाथा ] (३) उन्मृष्ट-रिष्ट-दुष्ट-ग्रह-गति-दुःस्वप्न-दुनिमित्तादि।
सम्पादित-हित-सम्पन्नाम-ग्रहणं जयति शान्तेः॥१५॥ शब्दार्थ
उन्मृष्ट - रिष्ट - दुष्ट – ग्रह
गति-दुःस्वप्न - दुनिमित्तादि - जिन्होंने उपद्रव, ग्रहों के दुष्ट प्रभाव, दुष्ट स्वप्न, दुष्ट ।
अङ्गस्फुरणरूप अपशकुन आदि निमित्तोंका नाश किया है, ऐसा। उन्मृष्ट-नाश किया है जिसने ।
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३८५
रिष्ट-उपद्रव। दुष्ट-ग्रह- को प्राप्त करानेवाला।
गति-ग्रहोंका बुरा असर । नाम-ग्रहणं-नामोच्चारण । सम्पादित-हित-सम्पत् - जिसके- जयति-जयको प्राप्त होता है ।
द्वारा आत्महित और सम्पत्ति- । शान्तेः-श्रीशान्तिनाथ भगवान्का । अर्थ-सङ्कलना
उपद्रव, ग्रहोंकी दुष्टगति, दु:स्वप्न, दुष्ट अङ्गस्फुरण और दुष्ट निमित्तादिका नाश करनेवाला तथा आत्महित और सम्पत्तिको प्राप्त करानेवाला श्रीशान्तिनाथ भगवानका नामोच्चारण जयको प्राप्त होता है ।। १५ ॥
[५ शान्ति-व्याहरणम् ]
[ गाथा ] (१) श्रीसङ्घ-जगज्जनपद-राजाधिप-राज-सनिवेशानाम् ।
गोष्ठिक-पुरमुख्यानां, व्याहरणैाहरेच्छान्तिम् ॥१६॥
शब्दार्थ
श्रीसंघ- जगज्जनपद-राजाधिप | कालमें विद्वन्मण्डलीको गोष्ठीके
-राज-सन्निवेशानाम् - श्री- रूपमें पहचाननेकी रीति सङ्घ, जगत्के जनपद, महा- प्रचलित थी । पुरमुख्य-नगरके राजा और राजाओंके निवास- प्रधान कार्यकर्ता, अग्रगण्य स्थानोंके ।
नागरिक । गोष्ठिक-पुरमुख्यानां- विद्वन्मण्ड- व्याहरणैः-नामोच्चारण - पूर्वक,
लीके सभ्य तथा अग्रगण्य नाम लेकर । नागरिकोंके।
व्याहरेत्-वोलनी चाहिये। गोष्ठिक-गोष्ठोके सभ्य । प्राचीन- शान्तिम-शान्ति । प्र-२५
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३८६
अर्थ-सङ्कलना
श्रीसङ्घ, जगत्के जनपद, महाराजा और राजाओंके निवासस्थान, विद्वन्मण्डलीके सभ्य तथा अग्रगण्य नागरिकोंके नाम लेकर शान्ति बोलनी चाहिये ।। १६ ।। मूल(२) श्रीश्रमणसङ्घस्य शान्तिर्भवतु ।
श्रीजनपदानां शान्तिर्भवतु । श्रीराजाधिपानां शान्तिर्भवतु । श्रीराजसन्निवेशानां शान्तिर्भवतु । श्रीगोष्ठिकानां शान्तिर्भवतु । श्रीपौरमुख्यानां शान्तिर्भवतु । श्रीपौरजनस्य शान्तिर्भवतु । श्रीब्रह्मलोकस्य शान्तिर्भवतु ॥१७॥
शब्दार्थ
स्पष्ट है।
अर्थ-सङ्कलना
श्रीश्रमणसङ्घके लिये शान्ति हो। श्रीजनपदों ( देशों ) के लिये शान्ति हो । श्रीराजाधिपो ( महाराजाओं) के लिये शान्ति हो । श्रीराजाओंके निवासस्थानोंके लिये शान्ति हो। श्रीगोष्ठिकोंके-विद्वन्मण्डलीके सभ्योंके लिये शान्ति हो। श्रीअग्रगण्य नागरिकोंके लिये शान्ति हो।
___
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३८७
श्रीनगरजनोंके लिये शान्ति हो ।
श्रीब्रह्मलोके लिये शान्ति हो । ॥ १७ ॥
मूल
[ ६ आहुति - त्रयम् ]
ॐ स्वाहा ॐ स्वाहा ॐ श्रीपार्श्वनाथाय ॥ १८ ॥
शब्दार्थ
स्पष्ट है ।
अर्थ-सङ्कलना
ॐ स्वाहा,
ॐ स्वाहा,
मूल
[ ७ विधि-पाठ ]
एषा शान्तिः प्रतिष्ठा - यात्रा - स्नात्राद्यवसानेषु शान्तिकलशं गृहीत्वा कुङ्कुम-चन्दन- कर्पूरागुरु- धूप - वास - कुसुमाञ्जलि - समेतः स्नात्र - चतुष्किकायां श्रीसङ्घसमेतः शुचिशुचि - वपुः पुष्प - वस्त्र - चन्दनाभरणालङ्कृतः पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमिति । ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
एषा - यह ।
शान्तिः शान्तिपाठ ।
ॐ श्रीपार्श्वनाथाय स्वाहा ।। १८ ।।
प्रतिष्ठा - यात्रा - स्नात्राद्यवसा नेषु प्रतिष्ठा, यात्रा स्नात्र आदि उत्सव के अन्तमें ।
और
शान्ति-कलशं - शान्ति कलश | गृहीत्वा -
- धारण करके ।
कुङ्कुम - चन्दन - कपूरागुरुधूप - वास- कुसुमाञ्जलिसमेतः - केसर, चन्दन, '
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कपूर, अगरका धूप, बास, और कुसुमाञ्जलि" लेकर । स्नात्र - चतुष्किकाया - स्नात्र बो
के मण्डप |
३८८
श्री संघसमेतः - श्री सङ्घके साथ । श्रीसङ्घ–श्रावक-श्राविकाओं
का समुदाय |
शुचि - शुचि - वपुः - बाह्य अभ्यन्तर मलसे रहित ।
अर्थ-सङ्कलना
और
पुष्प - वस्त्र
:- श्वेतवस्त्र, ङ्कृतःआभरणोंसे अलङ्कृत होकर ।
पुष्प - श्वेत |
पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा - फूलोंके हारको गले में धारण करके । शान्ति- पानीयं शान्तिकलशका
जल ।
मस्तके
चन्दनाभरणाल
चन्दन और
दातव्यम् लगाना चाहिये । इति- इस प्रकार |
यह शान्तिपाठ, जिनबिम्बको प्रतिष्ठा, रथयात्रा और स्नात्र आदि महोत्सव के अन्त में ( बोलना, इसकी विधि इस प्रकार है कि :-) केसर-चन्दन, कपूर, अगरका धूप, वास और कुसुमाञ्जलि - अञ्जलिमें विविधरंगोंके पुष्प रखकर, बाँये हाथमें शान्ति - कलश ग्रहण करके ( तथा उसपर दाँया हाथ ढककर ) श्रीसङ्घके साथ स्नात्र मण्डपमें खड़ा रहे। वह बाह्य- अभ्यन्तर मलसे रहित होना चाहिये तथा श्वेतवस्त्र, चन्दन, और आभरणोंसे अलङ्कृत होना चाहिये । फूलों का हार गले में धारण करके शान्तिकी उद्घोषणा करे और उद्घोषणा के पश्चात् शान्ति - कलशका जल देवे, जिसको ( अपने तथा अन्यके ) मस्तक पर लगाना चाहिये ॥ १९ ॥
मस्तकपर
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________________
मूल
[ ८ प्रास्ताविक - पद्यानि ]
(१)
[ उपजाति ] नृत्यन्ति नृत्यं मणि - पुष्प - वर्षं, सृजन्ति गायन्ति च मङ्गलानि । स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मन्त्रान्, कल्याणभाजो हि जिनाभिषेके ||२०||
शब्दार्थ
नृत्यन्ति नृत्यं - विविध प्रकारके नृत्य करते हैं ।
मणि
- पुष्प - वर्षं पुष्पों की वर्षा ।
३८९
सृजन्ति - करते हैं । गायन्ति गाते हैं ।
च - और ।
रत्न और
मङ्गलानि - मङ्गल, माङ्गलिक । अष्टमङ्गलमें आठ आकृतियोंका आलेखन भी होता है - वह
इस प्रकार : - ( १ ) स्वस्तिक, ( २ ) श्रीवत्स, (३) नन्द्यावर्त्त
(४) वर्धमानक, (५) भद्रा -
सन, (६) कला, (७)
मत्स्य - युगल और (८) दर्पण) स्तोत्राणि - स्तोत्र । गोत्राणि - गोत्र, और वंशावलि |
तीर्थङ्करके गोत्र
पठन्ति - बोलते हैं ।
मन्त्रान्-मन्त्रोंको ।
कल्याणभाजः - पुण्यशाली । हि वस्तुत: ।
जिनाभिषेके - जिनाभिषेकके सममें, स्नात्रक्रिया के प्रसङ्गपर |
अर्थ- सङ्कलना -
पुण्यशाली जन जिनेश्वरकी स्नात्रक्रिया के प्रसङ्गपर विविध प्रकार के नृत्य करते हैं, रत्न और पुष्पोंकी वर्षा करते हैं, (अष्टमङ्गलादिका आलेखन करते हैं तथा ) माङ्गलिक-स्तोत्र गाते हैं और तीर्थङ्करके गोत्र, वंशावलि एवं मन्त्र बोलते हैं ।। २० ।।
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३९०
मूल
[ गाथा ] (२) शिवमस्तु सर्वजगतः, पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥२१॥ शब्दार्थशिवम्-कल्याण ।
दोषाः--व्याधि, दुःख, दौर्मनस्यादि। अस्तु-हो।
प्रयान्तु नाशं-नष्ट हों। सर्व-जगतः-अखिल विश्वका ।।
सर्वत्र सर्वत्र । पर-हित-निरताः- परोपकार में तत्पर ।
सुखी-सुख भोगनेवाले। भवन्तु-हों।
भवतु-हों। भूतगणाः-प्राणी।
| लोकः-मनुष्यजाति, मनुष्य । अर्थ-सङ्कलना
अखिल विश्वका कल्याण हो, प्राणी परोपकारमें तत्पर बनें; व्याधि-दुःख-दौर्मनस्य आदि नष्ट हों और सर्वत्र मनुष्य सुख भोगनेवाले हों ।। २१ ॥
मूल
(३) अहं तित्थयर-माया, सिवादेवी तुम्ह नयर-निवासिनी। अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवसमं सिवं भवतु स्वाहा।।२२।। शब्दार्थअहं-मैं।
श्रीअरिष्टनेमि तीर्थङ्करकी माता तित्थयर-माया-तीर्थङ्करकी माता। का नाम शिवादेवी है। सिवादेवी-शिवादेवी।
तुम्ह-तुम्हारे।
-
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३९१
नयर - निवासिनी - नगरकी । असिवोवसमं - उपद्रवका नाश रहनेवाली।
करनेवाला। अम्ह-हमारा।
सिवं-कल्याण । सिवं-श्रेय।
भवतु-हो। तुम्ह-तुम्हारा। सिवं-कल्याण ।
स्वाहा-स्वाहा । अर्थ-सङ्कलना____ मैं श्रीअरिष्टनेमि तीर्थङ्करकी माता शिवादेवी तुम्हारे नगरकी रहनेवाली हूँ-नगरमें रहती हूँ। अतः हमारा और तुम्हारा श्रेय हो, तथा उपद्रवोंका नाश करनेवाला कल्याण हो ॥ २२॥ मूल
[ अनुष्टुप् ] (४) उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्न-वल्लयः ।
मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥२३॥ शब्दार्थ
पूर्ववत् । अर्थ-सङ्कलना___ श्रीजिनेश्वरदेवका पूजन करनेसे समस्त प्रकारके उपसर्ग नष्ट हो जाते हैं, विघ्नरूपी लताएँ कट जाती हैं और मन प्रसन्नताको प्राप्त होता है ।। २३ ॥ मूल(५) सर्व-मङ्गल-माङ्गल्यं, सर्व-कल्याण-कारणम् ।
प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥
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३९२
शब्दार्थ
पूर्ववत् । अर्थ-सङ्कलना
सर्व मङ्गलोंमें मङ्गलरूप, सर्व कल्याणोंका कारणरूप और सर्व धर्मोंमें श्रेष्ठ ऐसा जैन शासन (प्रवचन) सदा विजयी हो रहा है ॥२४ ।। सूत्र-परिचय___महर्षि नन्दिषेण कृत 'अजित-शान्ति-स्तव' अपनी मङ्गलमय रचनाके कारण उपसर्ग-निवारक और रोग-विनाशक माना जाता है; श्रीमानदेवसूरिकृत 'शान्ति-स्तव' अपनी मन्त्रमय रचनाके कारण सलिलादिभयविनाशी और शान्त्यादिकर माना जाता है; और वादिवेताल श्रीशान्तिसूरि कृत यह शान्तिपाठ जो सामान्यतया 'बृहच्छान्ति' अथवा 'वृद्धशान्ति ( बड़ी शान्ति ) के नामसे पहचाना जाता है, यह इसके अन्तर्गत शान्तिमन्त्रोंके कारण शान्तिकर, तुष्टिकर और पुष्टिकर माना जाता है ।
यह सूत्र जिनविम्बकी प्रतिष्ठा, रथयात्रा एवं स्नात्रके अन्तमें बोला जाता है तथा पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके प्रसङ्गपर शान्तिस्तव ( लघुशान्ति ) के स्थानपर बोला जाता है ।
५७ संतिनाह-सम्मद्दिट्ठिय-रक्खा
['संतिकरं-स्तवन']
[ गाहा ] संतिकरं संतिजिणं, जग-सरणं जय-सिरीइ दायारं । समरामि भत्त-पालग-निव्वाणी-गरुड-कय-सेवं ॥१॥
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३९३
s
-
म
aa
शब्दार्थसंतिकर-शान्ति करनेवालेको। भत्त-पालग-निव्वाणो - गरुड़संतिजिणं-श्रीशान्तिनाथ भग- कय-सेवं-भक्तजनोंके पालक, वान्को।
निर्वाणीदेवी तथा गरुड-यक्षजग-सरणं - जगत्के जीवोंके द्वारा सेवित । शरणरूप।
भत्त-भक्त। पालग-पालन करजप-सिरीइ-जय और थोके ।। नेवाले। निव्वाणी-निर्वाणीदायार-दातारको, देनेवालेको ।
देवी। गरुड-गरुड़ नामका समरामि-स्मरण करता हूँ, ध्यान यक्ष । कय-कृत । सेवधरता हूँ।
सेवा । अर्थ-सङ्कलना____ जो शान्ति करनेवाले हैं, जगत्के जीवोंके लिए शरणरूप हैं, जय और श्रीके देनेवाले हैं तथा भक्तजनोंका पालन करनेवाले,निर्वाणीदेवी और गरुड़-यक्षद्वारा सेवित हैं, ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान्का. मैं स्मरण करता हूँ, ध्यान करता हूँ॥१॥ मल-- ॐ सनमो विप्पोसहि-पत्ताणं संतिसामि-पायाणं । झौं स्वाहा मंतेणं सव्वासिव-दुरिय-हरणाणं ॥२॥ ॐ संति-नमुक्कागे, खेलोसहिमाइ-लद्धि-पत्ताणं ।। सौ ही नमो य सव्वोसहि-पत्ताणं च देह सिरिं ॥३॥ शब्दार्थॐ सनमो-ॐ नमः सहित । । विगुड्-विष्ठा । जिस लब्धि के विप्पोसहि-पत्ताणं-विग्रुडोषधि
प्रभावसे विष्ठा सुगन्धित नामकी लधि प्राप्त करनेवा- होती है, उस लब्धिको लोंको।
विपुडोषधि-लब्धि कहते हैं।
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३९४
संति-सामि-पायाणं-पूज्य श्री- खेल-कफ । ओसहि ओषधि । शान्तिनाथ भगवान्को।
___ लद्धि-लब्धि । पत्त-प्राप्त । ___ सामि-स्वामि । पाय-पूज्य ।
| सौ ही नमो-'सौं ह्रीं नमः 'यह झौं स्वाहा मंतेणं-'झौं स्वाहा'
मन्त्र । -वाले मन्त्रसे। सव्वासिव-दुरिय-हरणाणं- सव्वोसहि-पत्ताणं-सौषधि ना
सर्व उपद्रव और पापका हरण मक लब्धि प्राप्त करनेवालोंको। करनेवालोंको।
जिसके शरीरके सर्व-पदार्थ असिव-उपद्रव । दुरिय-पाप । ओषधिरूप हों उसे सर्वौषधिॐ संति- नमुकारो- श्रीशान्ति- लब्धिमान् कहते हैं।
नाथ भगवान्को ॐपूर्वक किया हुआ नमस्कार । ।
च-और। खेलोसहिमाइ-लद्धि-पत्ताणं
देइ-देते हैं। श्लेष्मौषधि आदि लब्धि प्राप्त करनेवालोंको।
| सिरि-श्रीको।
अर्थ-सङ्कलना-~
वि डोषधि, श्लेष्मौषधि, सौषधि आदि लब्धियाँ प्राप्त करनेवाले सर्व उपद्रव और पापका हरण करनेवाले, ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान्को 'ॐ नमः', झौं स्वाहा' तथा 'सौं ही नमः' ऐसे मन्त्राक्षर-पूर्वक नमस्कार हो; ऐसा श्रीशान्तिनाथ भगवान्को किया हुआ नमस्कार जय और श्रीको देता है ॥ २-३ ॥
मूल
वाणी-तिहुयण-सामिणी-सिरिदेवी-जक्खराय-गणिपिडगा | गह-दिसिपाल-सुरिंदा, सया वि रक्खंतु जिणभत्ते ॥४।।
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शब्दार्थवाणी-तिहुयण-सामिणि-सिरि-! जक्खराय यक्षराय। गणि
देवी-जक्खराय-गणिपि-। पिडग-गणिपिटक। डगा-सरस्वती देवी, त्रिभुवन- गह-दिसिपाल - सुरिदा – ग्रह, स्वामिनी देवी, श्रीदेवी और दिक्पाल और देवेन्द्र । यक्षराज गणिपिटक।
सया-सदा । वाणी-सरस्वती देवी। तिहुयण- वि-ही। सामिणी-त्रिभुवन-स्वामिनी रक्खंतु-रक्षा करें।
देवी। सिरिदेवी-श्रीदेवी। जिणभत्ते -जिन-भक्तोंकी। अर्थ-सङ्कलना
सरस्वती, त्रिभुवनस्वामिनी,श्रीदेवी, यक्षराज गणिपिटक, ग्रह, दिक्पाल एवं देवेन्द्र सदा ही जिनभक्तोंकी रक्षा करें ॥४॥
मूल
रक्खंतु ममं रोहिणि-पन्नत्तो वज्जसिंखला य सया । वज्जंकुसि-चक्केसरि-नरदत्ता-कालि-महकाली ॥५॥ गोरी तह गंधारी, महजाला माणवी य वइरुट्टा । अच्छुत्ता माणसिआ, महमाणसिया उ देवीओ ॥ ६ ॥ शब्दार्थरक्खंतु-रक्षण करें। | वज्जंकुसि-चपकेसरि-नरदत्ताममं-मुझे, मेरा।
कालि-महकाली-वज्राङ्कुशी, रोहिणि-पन्नत्ती - रोहिणी और चक्र श्वरी, नरदत्ता, काली प्रज्ञप्ति ।
और महाकाली। वजसिंखला-वज्रशृङ्खला । गोरी-गौरी। य-और।
तह-तथा । सया-सदा ।
| गंधारी-गान्धारी।
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३९६
महजाला-महाज्वाला ।
माणसिआ-मानसी। माणवी-मानवी।
महमाणसिआ-महामानसो । य-और।
उ-और । वैरोटया-वैरोट्या । अच्छुत्ता-अच्छुप्ता ।
देवीओ-देवियाँ, विद्यादेवियाँ । अर्थ-सङ्कलना
रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृङ्खला, वज्राङ्कुशी, चक्रेश्वरी, नरदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गान्धारी, महाज्वाला, मानवी, वैरोटया; अच्छुप्ता, मानसी, महामानसी ये सोलह विद्यादेवियाँ मेरा रक्षण करें ।। ५-६ ॥
जक्खा गोमुह-महजक्ख-तिमुह-जक्खेस-तुबरू कुसुमो । मायंग-विजय-अजिआ, बंभो मणुओ सुरकुमारो ॥७॥ छम्मुह पयाल किन्नर, गरुढो गंधव्य तह य जक्खिदो । कूबर-वरुणो भिउडी, गोमेहो पास-मायंगा ॥ ८ ॥ शब्दार्थजक्खा -यक्ष ।
सुरकुमारो-सुरकुमार । गोमुह - महजक्ख – तिमुह – |
छम्मुह-षण्मुख । जक्खेस तुंबरू-गोमुख, महा- | यक्ष, त्रिमुख, यक्षेश और । किन्नर-किन्नर । तुंबरु ।
गरुडो-गरुड । कुसुमो-कुसुम। मायंग-विजय- अजिआ-मातङ्ग,
गंधव-गन्धर्व । विजय और अजित ।
तह य-वैसे ही। बंभो-ब्रह्मयक्ष।
जक्खिदो-यक्षेन्द्र। मणुओ-मनुज ।
कूबर-कुबेर ।
पाल।
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३९७
वरुणो-वरुण ।
| गोमेहो-गोमेध । भिउडी-भृकुटि ।
| पास-मायंगा-पाव और मातङ्ग। अर्थ-सङ्कलना___गोमुख, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश, तुम्बरु, कुसुम, मातङ्ग, विजय, अजित, ब्रह्म, मनुज, सुरकुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नर, गरुड, गन्धर्व, यक्षेन्द्र, कुबेर, वरुण, भकूटि, गोमेध, पार्श्व और मातङ्ग ये चौबीस यक्ष ।। ७-८॥
देवीओ चक्केसरि-अजिआ-दुरिआरि–कालि-महकाली । अच्चुअ-संता-जाला, सुतारयासोय-सिरिवच्छा ॥९॥ चंडा विजयंकुसि-पन्नइत्ति-निव्वाणि-अच्चुआ धरणी । वइरुट्ट-छुत्त-गंधारि-अंब-पउमावई-सिद्धा ॥१०॥ इय तित्थ-रक्खण-रया, अन्ने वि सुरा सुरीउ चउहा वि । वंतर-जोइणि-पमुहा, कुणंतु रक्खं सया अम्हं ॥११॥ शब्दार्थदेवीओ-देवियाँ ।
विजयंकुसि-पन्नइत्ति-निव्वाणिचक्केसरि-अजिआ-दुरिआरि- अच्चुआ-विजया, अङ्कुशी,
कालि-महकाली-चक्र श्वरी, प्रज्ञप्ति ( पन्नगी ), निर्वाणी अजिता, दुरितारि, कालो,
और अच्युता। महाकाली।
धरणी-धारिणी। अच्चुअ-संता-जाला-सुतारया
वइरुट्ट-छुत्त - गंधारी - अंबसोय-सिरिवच्छा - अच्युता,
पउमावई-सिद्धा - वैरोटया, शान्ता, ज्वाला, सुतारका,
अच्छुप्ता, गन्धारी, अम्बा, अशोका, श्रीवत्सा।
पद्मावती और सिद्धायिका । चंडा-चण्डा।
| इय-इस प्रकार ।
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.३९८
तित्थ-रक्खण-रया-तीर्थका रक्षण | वि-भी। करने में तत्पर।
वंतर-जोइणि - पमुहा-व्यन्तर, तित्थ-तीर्थ । रक्खण-रक्षण । ।
योगिनी आदि। रया-तत्पर ।
वंतर - व्यन्तर । जोइणिअन्ने-दूसरे।
योगिनी । पमुहा-आदि । वि-भी।
कुणंतु-करें। सुरा-देव।
रक्खं-रक्षा। सुरीउ-देवियाँ ।
सया-सदा। चउहा-चार प्रकारके।
| अम्हं-हमारी। रण. अर्थ-सङ्कलना___ चक्रेश्वरी, अजिता, दुरितारि, काली, महाकाली, अच्युता, शान्ता, ज्वाला, सुतारका, अशोका, श्रीवत्सा, चण्डा, विजया, अङ्कुशी, प्रज्ञप्ति (पन्नगी), निर्वाणी, अच्युता (बला), धारिणी, वैरोटया, अच्छुप्ता, गान्धारी, अम्बा, पद्मावती और सिद्धायिका ये शासनदेवियाँ तथा भगवान्के शासनका रक्षण करनेमें तत्पर ऐसे अन्य चारों प्रकारकी देव-देवियाँ तथा व्यन्तर, योगिनी आदि दूसरे भी हमारी रक्षा करें ॥९-१०-११ ।। मूलएवं सुदिहि-सुरगण-सहिओ संघस्स संति-जिणचन्दो । मज्झ वि करेउ रक्खं, मुणिसुंदरसूरि-थुय-महिमा ॥१२।।
शब्दार्थ
एवं-इस प्रकार ।
सुदिट्ठि-सम्यग्दृष्टि । सुरगणसुदिट्टि-सुरगण - सहिओ-सम्य- देवोंका समूह। सहिअ-सहित ।
ग्दृष्टि-देवोंके समूह सहित। । संघस्स-श्रीसङ्घकी।
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३९९
संति - जिणचंदो- श्रीशान्तिनाथ | रक्खं-रक्षा। जिनेश्वर ।
मुणि-सुन्दरसुरि-थुय-महिमामज्झ वि-मेरी भी।
श्रीमुनिसुन्दरसूरिने जिनकी महिकरेउ-करें।
माकी स्तुति की है ऐसे । अर्थ-सङ्कलना
इस प्रकार श्रीमुनिसुन्दरसूरिने जिनकी महिमाकी स्तुति की है, ऐसे श्रीशान्तिनाथ जिनेश्वर सम्यग्दृष्टि देवोंके समूह सहित श्रीसंघकी और मेरी भी रक्षा करें।॥ १२ ॥
मूल
-
-
इय 'संतिनाह-सम्मदिट्ठिय-रक्खं' सरइ तिकालं जो । सव्वोवद्दव-रहिओ, स लहइ सुह-संपयं परमं ॥१३॥ शब्दार्थइय-इस प्रकार।
जो-जो। संतिनाह-सम्मद्दिठ्ठिय - रक्खं- सवोवद्दव-रहिओ-सर्व उपद्रवोंसे ... शान्तिनाथ-सम्यग्दृष्टिक-रक्षा | रहित । (स्तोत्र) का।
स-वह। सरइ-स्मरण करता है । लहइ-प्राप्त करता है। तिकालं-तीनों काल, प्रातः काल, | सुह-संपयं-सुख सम्पदाको ।
मध्याह्न और सायङ्काल । | परमं-उत्कृष्ट । अर्थ-सङ्कलना
इस प्रकार 'शान्तिनाथ-सम्यग्दृष्टिक-रक्षा' (स्तोत्र) का जो तीनों काल स्मरण करता है, वह सर्व उपद्रवोंसे रहित होकर उत्कृष्ट सुख-सम्पदाको प्राप्त करता है ।।१३।।
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४००
मूल[तवगच्छ-गयण-दिणयर-जुगवर-सिरिसोमसुंदरगुरूणं । सुपसाय-लद्ध-गणहर-विज्जासिद्धि भणइ सीसो ॥१४॥]
शब्दार्थ
तवगच्छ-गयण-दिणयर-जुग- सुपसाय-लद्ध-गणहर-विज्जा
वर-सिरिसोमसुन्दरगुरूणं- सिद्धि-सुप्रसादसे जिन्होंने तपागच्छरूपी आकाशमें सूर्य- गणधर विद्याकी (सूरिमन्त्रकी) समान युगप्रधान श्रीसोमसुन्दर सिद्धि प्राप्त की है, ऐसे । गुरुके ।
सुपसाय-सुप्रसाद । लद्ध-लब्ध।
गणहर-विज्जा-गणधर विद्या तवगच्छ-तपागच्छ । गयण
सूरिमन्त्र । सिद्धि-सिद्धि । गगन । दिणयर-सूर्य । जुग- | भणइ-पढ़ता है।
वर-युगप्रधान। सीसो-शिष्य । अर्थ-सङ्कलना
तपागच्छरूपी आकाशमें सूर्य-समान ऐसे युगप्रधान श्रीसोमसुन्दर-गुरुके सुप्रसादसे जिन्होंने गणधर विद्या (सूरमन्त्र)की सिद्धि की है, ऐसे उनके शिष्य (श्रीमुनिसुन्दरसूरि) ने यह स्तोत्र बनाया है ॥१४॥ सूत्र-परिचय
सहस्रावधानी श्रीमुनिसुन्दरसूरिद्वारा रचित इस स्तवनके प्रयोगसे सिरोही राज्यमें उत्पन्न टिड्डियोंका उपद्रव शान्त हुआ था, अतः ये नित्य स्मरण करने योग्य माना जाता है और प्रचलित नव स्मरणमें इसका स्थान तीसरा है । इस स्तवनका मूल नाम इसकी तेरहवीं गाथाके अनुसार 'संतिनाह-सम्मद्दिट्ठिय-रवखा' है, परन्तु इसके प्रथम शब्दसे 'संतिकरं' स्तवनके नामसे प्रसिद्ध है।
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*नवस्मरणानि
( ४--अथ चतुर्थं तिजयपहुत्तस्मरणम् ) तिजयपहुत्तपयासय-अट्टमहापाडिहेरजुत्ताणं, समयक्खित्तठिआणं, सरेमि चक्कं जिणंदाणं ॥१॥ पणवीसा य असीआ, पनरस पन्नास जिणवरसमूहो । नासेउ सयलदुरिअं, भविआणं भत्तिजुत्ताणं ॥२॥ वीसा पणयाला वि य, तीसा पन्नत्तरी जिणवरिंदा गहभूअरक्खसाइणिघोरुवसग्गंपणासंतु ॥३॥ सत्तरि पणतीसा वि य, सट्ठी पंचेव जिणगणो एसो। वाहिजलजलणहरिकरिचोरारिमहाभयं हरउ ॥४॥ पणपन्ना य दसेव य, पन्नट्ठी तह य चेव चालीसा । रक्खंतु मे सरीरं, देवासुरपणमिआ सिद्धा ॥६॥ ॐ हरहुँहः सरसुंसः, हरहुँहः तह य चेव सरसुंसः । आलिहियनामगभं, चक्कं किर सव्वओभद्द ॥६॥ ॐ रोहिणी पन्नत्ती, वज्जसिंखला तह य वज्जअंकुसिआ । चक्केसरि नरदत्ता, कालि महाकालि तह गोरी ॥७॥ गंधारी महजाला, माणवी वइरुट्ट तह य अच्छुत्ता। माणसि महमाणसिआ, विज्जादेवीओ रक्खंतु॥८॥ पंचदसकम्मभूमिसु, उप्पन्नं सत्तरि जिणाण सयं । विविहर
* प्रथम द्वितीय तथा तृतीय स्मरण के लिये देखो क्रमशः पृष्ठ १, ६१ तथा ३६१ ।
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४०२ यणाइवन्नोवसोहिअंहरउ दुरिआई॥९॥ चउतीसअइसयजुआ, अट्ठमहापाडिहेरकयसोहा । तित्थयरा गयमोहा, झाएअव्वा पयत्तेणं ॥१०॥ ॐ वरकणयसंखविदुम-मरगयघणसन्निहं विगयमोहं । सत्तरिसयं जिणाणं, सव्वामरपूइअं वंदे ॥११॥ स्वाहा । ॐ भवणवइवाणवंतरजोइसवासी विमाणवासी अ । जे के वि दुट्ठदेवा, ते सव्वे उवसमंतु मम ॥१२॥ स्वाहा । चंदणकप्पूरेणं, फलए लिहिऊण खालिअं पीअं। एगंतराइगहभूअसाइणिमुग्गं पणासेइ ॥१३॥ इअ सत्तरिसयजंतं, सम्म मंतं दुवारि पडिलिहिअं। दुरिआरिविजयवंतं, निब्भंतं निचमच्चेह ॥१४॥
( ५-अथ पंचमं नमिऊण स्मरणम् )
नमिऊण पणयसुरगणचूडामणिकिरणरंजिअं मुणिणो। चलणजुअलं महाभयपणासणं संथवं वुच्छं ॥१॥ सडियकरचरणनहमुह-निवुड्डनासा विवन्नलायन्ना । कुट्ठमहारोगानलफुलिंगनिदड्डसव्वंगा ॥२॥ ते तुह चलणाराहणसलिलंजलिसेयबुड्डिउच्छाहा। वणदवदड्ढा गिरिपायवव्व पत्ता पुणो लच्छि ॥३॥ दुव्वायखुभियजलनिहिउब्भडकल्लोल भीसणारावे। संभंतभयविसंठुल-निज्जामयमुक्कवावारे ॥४॥ अविदलियजाणवत्ता, खणेण पावंति इच्छिअं कुलं । पास
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४०३
जिणचलणजुअलं, निच्चं चिअ जे णमंति नरा ॥५॥ खरपवणुद्धअवणदवजालावलिमिलियसयलदुमगहणे। डझंतमुद्धमयवहुभीसणरवभीसणम्मि वणे ॥६।। जगगुरुणो कमजुअलं, निव्वाविअसयलतिहुअणाभो। जे संभरंति मणुआ, न कुणइ जलणो भयं तेसिं ||७|| विलसंतभोगभीसणफुरिआरुणनयणतरलजीहालं। उग्गभुअंगनवजलयसत्थहं भीसणायारं ॥८॥ मन्नंति कीडसरिसं, दूरपरिच्छूढविसमविसवेगा । तुह नामक्खरफुडसिद्धमंतगुरुआ नरा लोए ।।९।। अडवीसु भिल्लतक्करपुलिंदसद्लसद्दभीमासु । भयविहुरखुन्नकायर ऊल्लूरियपहिअसत्थासु ॥१०॥ अविलुत्तविहवसारा, तुह नाह ! पणाममत्तवावारा । ववगयविग्घा सिग्छ पत्ता हियइच्छियं ठाणं ॥११।। पज्जलिआनलनयणं, दूरवियारियमुहं महाकायं । णहकुलिसघायविअलिअ-गइंदकुंभत्थलाभोअं ।।१२।। पणयससंभमपत्थिवनहमणिमाणिक्कपडिअपडिमस्स। तुह वयणपहरणधरा, सीहं कुद्धपि न गणंति ॥१३॥ ससिधवलदंतमुसलं, दीहकरुल्लालवुढिउच्छाहं । महुपिंगनयणजुअलं, ससलिलनवजलहरारावं ॥१४॥ भीमं महागइंद, अच्चासन्नं पि ते न वि गणंति । जे तुम्ह चलणजुअलं, मुणिवइ ! तुंगं समल्लीणा ॥१५॥ समरंमि तिक्खखग्गाभिघायपव्विद्धउद्धयकबंधे। कुंतविणिभिन्नकरिकलह-मुक्कसिक्कारपउरंमि ॥१६॥ निज्जियदप्पुर्धररिउ-नरिंदनिवहा
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४०४
भडा जसं धवलं । पावंति पावपसमिण!, पासजिण ! तुह प्पभावेण ||१७|| रोगजलजलणविसहरचोरारिमइंदगयरणभयाइं । पासजिणनामसंकित्तणेण, पसमंति सव्वाइं ॥१८॥ एवं महाभयहरं, पासजिणिंदस्स संथवमुआरं । भवियजणागंदयरं, कल्लाणपरंपरनिहाणं ।।१९।। रायभयजक्खरक्खसकुसुमिणदुस्सउणरिक्खपीडासु । संझासु दोसु पंथे, उवसग्गे तह य रयणीसु ।।२०॥ जो पढइ जो अ निसुणइ, ताणं कइणो य माणतुंगस्स । पासो पावं पसमेउ, सयलभुवणच्चिय चलणो ॥२१॥ उवसग्गंते कमठासुरम्मि, झाणाओ जो न संचलिओ। सुरनरकिन्नरजुवइहि, सथुओ जयउ पासजिणो ।।२२।। एअस्स मज्झयारे, अट्ठारसअक्खरेहि जो मंतो। जो जाणइ सो झायइ, परमपयत्थं फुडं पासं ॥२३॥ पासह समरण जो कुणइ, संतुहिअएण । अठुत्तरसयवाहिभय नासइ तस्स दूरेण ।।२४।।
(६-अथ षष्ठं अजितशान्तिस्मरणम् )
अजिअं जियसव्वभयं, संतिं च पसंतसव्वगयपावं । जयगुरु संतिगुणकरे. दो वि जिणवरे पणिवयामि ॥ १ ॥ गाहा ॥ ववगयमंगुलभावे, ते हं विउलतवनिम्मलसहावे । निरुवममहप्पभावे, थोसामि सुदिवसब्भावे ॥२॥ गाहा ॥
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४०५
सव्वदुक्खप्पसंतीणं- सव्यपावप्पसंतीणं । सया अजियसंतीणं, नमो अजियसंतीणं ॥३॥ सिलोगो॥ अजियजिण ! सुहप्पवत्तणं, तव पुरिसुत्तम ! नामकित्तणं । तह य धिइमइप्पवतणं, तव य जिणुत्तम ! संति ! कित्तणं ॥४॥ मागहिआ॥ किरिआविहिसंचिअकम्मकिलेसविमुक्खयरं, अजियं निचियं च गुणेहिं महामुणिसिद्धिगयं । अजियस्स य संतिमहामणिणो वि य संतिकरं, सययं मम निव्वुइकारणयं च नमंसणयं ॥५॥ आलिंगणयं ॥ पुरिसा ! जइ दुक्खवारणं, जइ य विमग्गह सुक्खकारणं । अजियं संतिं च भावओ, अभयकरे सरणं पवाहा ॥६॥ मागहिआ ॥ अरइरइतिमिरविरहियमुवरयजरमरणं, सुरअसुरगस्लभुयगवइपययपणिवइयं । अजियमहमवि य सुनयनयनिउणमभयकर, सरणमुवसरिअ भुविदिविजमहियं सययमुवणमे ॥७॥ संगययं ॥ तं च जिणुत्तममुत्तमनित्तमसत्तधरं, अजवमद्दवखंतिविमुत्तिसमाहिनिहिं । संतिकरं पणमामि दमुत्तमतित्थयरं, संतिमुणी मम संतिसमाहिवरं दिसउ ॥८॥ सोवाणयं ।। सावत्थिपुव्वपत्थिवं च वरहत्थिमत्थयपसत्थवित्थिन्नसंथिअं थिरसरिच्छवच्छं मयगललीलायमाणवरगंधहत्थिपत्थाणपत्थियं संथवारिहं । हत्थिहत्थवाहूं धंतकणगस्वगनिरुवहयपिंजरं पवरलक्खणोवचिअसोमचारु रूवं, सुइसुहमणाभिरामपरमरमणिज्जवरदेवदुंदुहिनिनायमहुरयरसुहगिरं ॥९॥ वेड्ढओ ॥ अजियं जियारिगणं,
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४०६ जियसव्वभयं भवोहरिउं । पणमामि अहं पयओ, पावं पसमेउ मे भयवं !॥१०॥ रासालद्धओ ॥ कुरुजणवयहत्थिणाउरनरीसरो य पढमं तओ महाचकवट्टिभोए महप्पभावो, जो बावत्तरिपुरवरसहस्सवरनगरनिगमजणवयवई बत्तीसारायवरसहस्साणुयायमग्गो। चउदसवररयणनवमहानिहिचउसद्धिसहस्सपवरजुवईण सुन्दरवई, चुलसीहयगयरहसयसहस्ससामी छन्नवइगामकोडिसामी य आसी जो भारहमि भयवं ॥११॥ वेड्डओ। तं संतिं संतिकरं, संतिण्णं सव्वभया। संति थुणामि जिणं, संतिं विहेउ मे ॥१२॥ रासाणंदिययं ॥ इक्खाग ! विदेह ! नरीसर! नरवसहा! मुणिवसहा !, नवसारयससिसकलाणण ! विगयतमा ! विहुअरया!। अजि ! उत्तमतेअगुणेहिं महामुणि! अमियबला! विउलकुला! पणमामि ते भवभयमरण! जगसरणा ! मम सरणं ॥१३।। चित्तलेहा ।। देवदाणविंदचंदसूरवंद ! हतुह ! जि? ! परमलगुरूव ! धंतरुप्पपट्टसेयसुद्धनिद्धधवलदंतपंति ! संति ! सत्तिकित्तिमुत्तिजुत्तिगुत्तिपवर! दित्ततेअवंदधेय ! सव्वलोअभावियप्पभाव ! णेय ! पइस मे समाहिं ॥१४॥ नारायओ। विमलससिकलाइरेअसोमं, वितिमिरसूरकराइरेअते । तिअसवइगणाइरेअरूवं, धरणिधरप्पवराइरेअसारं ॥१५।। कुसुमलया । सत्ते अ सया अजियं, सारीरे अ बले अजियं । तवसंजमे अ अजियं, एस थुणामि जिणं अजियं ।।१६।। भुअगपरिरिंगिअं । सोमगुणेहिं पावइ
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न तं नवसरयससी, तेअगुणेहिं पावइ न तं नवसरयरवी । रूवगुणेहिं पावइ न तं तिअसगणवई, सारगुणेहिं पावइ न तं धरणिधरवई ॥ १७ ॥ खिज्जिययं ।। तित्थवरपवत्तयं तमरयरहियं, धीरजणथुयच्चियं चुयकलिकलुसं । संतिसुहपवत्तयं तिगरणपयओ, संतिमहं महामुणिं सरणमुवणमे ॥१८॥ ललिययं ॥ विणओणयसिररइअंजलिरिसिगणसंथअं थिमियं, विबुहाहिवधणवइनरवइथुयमहियच्चियं बहुसो। अइरुग्गयसरयदिवायरसमहियसप्पमं तवसा, गयणंगणवियरणसमुइयचारणवंदियं सिरसा ॥१९॥ किसलयमाला ॥ असुरगरुलपरिवंदियं, किन्नरोरगणमंसि। देवकोडिसयसंथुयं, समणसंघपरिवंदियं ॥२०॥ सुमुहं ॥ अभयं अणहं, अरयं अरुयं । अजियं अजियं, पयओ पणमे ॥२१॥ विज्जुविलसिअं ॥ आगया वरविमाणदिव्वकणगरहतुरयपहकरसएहिं हुलियं । ससंभमोयरण खुभियलुलियचलकुडलंगयतिरीडसोहंतमउलिमाला ।। २२ ॥ वेड्ढओ ।। जं सुरसंघा सासुरसंघा वेरविउत्ता भत्तिसुजुत्ता, आयरभूसिअसंभमपिंडिअसुट्ठसुविम्हिअसबबलोघा । उत्तमकंचणरयणपरूवियभासुरभूसणभासुरियंगा, गायसमोणयभत्तिवसागयपंजलिपेसियसीसपणामा ॥२३॥रयणमाला ॥ वंदिऊण थोऊण तो जिणं तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं । पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पमुइया सभवणाई तो गया ॥२४॥ खित्तयं ।। तं महामुणि
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महं पि पंजली, रागदोसभयमोहवज्जियं । देवदाणवनरिंदवंदियं, संतिमुत्तमं महातवं नमे ।।२५।। खित्तयं ।। अंबरंतरविआरणिआहिं, ललियहंसबहुगामिणिआहिं । पीणसोणिथणसालिणिआहिं, सकलकमलदललोअणिआहिं ॥२६।। दीवयं ॥पीणनिरंतरथणभरविणमियगायलयाहिं, मणिकंचणपसिढिलमेहलसोहिअसोणितडाहिं । वरखिंखिणिणेउरसतिलयवलयविभूसणिआहिं, रइकरचउरमणोहरसुंदरदंसणिआहिं ॥२७॥ चिचक्खरा ॥ देवसुंदरीहिं पायवंदिआहिं वंदिया य जस्स ते सुविक्कमा कमा, अप्पणो निडालएहिं मंडणोड्डणपगारएहिं केहि केहिं वि ? अवंगतिलयपत्तलेहनामएहिं चिल्लएहिं संगयंगयाहिं, भत्तिसंनिविट्ठवंदणागयाहिं हुति ते वंदिया पुणो पुणो ॥२८॥ नारायओ ॥ तमहं जिणचंदं, अजियं जियमोहं । धुयसव्वकिलेसं, पयओ पणमामि ॥२९।। नंदिययं ।। थुयवंदियस्सा रिसिगणदेवगणेहिं, तो देववहुहिं पयओ पणमिअस्सा । जस्सजगुत्तमसासणअस्सा भतिवसागयपिंडिअयाहिं । देववरच्छरसाबहुआहि, सुखररइगुणपंडियआहिं ॥३०॥ भासुरयं ।। वंससद्दतंतितालमेलिए तिउक्खराभिरामसद्दमीसए कए अ, सुइसमाणणे अ सुद्धसज्जगीयपायजालघंटिआहिं । बलयमेहलाकलावनेउराभिरामसद्दमीसए कए अ, देवनट्टिआहिं हावभावविब्भमप्पगारएहिं नच्चिऊण अंगहारएहिं वंदिया य जस्स
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ते सुविक्कमा कमा, तयं तिलोय-सव्व-सत्त-संतिकारयं पसंत-सव्व-पाव-दोस-मेस हं नमामि संतिमुत्तमं जिणं ॥३१।। नारायओ ॥ छत्त-चामर-पडाग-जूअ-जव-मंडिया, झयवर-मगर-तुरय-सिरिवच्छ-सलछणा । दीव-समुद्द-मंदरे दिसागय-सोहिया, सत्थिअ-वसह सीह-रह-चक्क-वरंकिया ॥ ३२॥ ललिअयं ।। सहाव-लट्ठा सम-प्पइट्ठा, अदोस-दुट्ठा गुणेहिं जिट्ठा । पसाय-सिट्टा तवेण पुट्ठा, सिरीहिं इट्ठा रिसीहिं जुट्ठा ।। ३३ ।। वाणवासिया ।। ते तवेण धुअ-सव्वपावया, सव्व-लोअ-हिअ-मूल-पावया । संथुआ अजिअ-संति पायया, हुतु मे सिव-सहाण-दायया ॥३४॥ अपरांतिका ।। एवं तव-वल-विउलं, थुअं मए अजिअ-संति-जिन-जुअलं । ववगय-कम्म-रय-मलं, गई गयं सासयं विउलं ॥३५॥ गाहा ॥ तं बहु-गुण-प्पसायं मुक्ख-सुहेण परमेण अविसायं । नासेउ मे विसायं, कुणउ अ परिसा वि अ पसायं ॥३६॥ गाहा ॥ तं मोएउ अ नंदि, पावेउ नंदिसेणममिनंदि। परिसा वि अ सुहनंदि, मम व दिसउ संजमे नंदि ॥३७॥ गाहा ॥ पक्खिअ-चाउम्मासिअ-संवच्छरिए अवस्स-मणिअव्यो । सोअव्वो सव्वेहिं, उवसग्ग-निवारणो एसो ॥३८॥ गाहा ।। जो पडइ जो अ निसुणइ, उभओ कालं पि अजिअसंति-थयं । न हु हुंति तस्स रोगा, पुन्बु पन्ना वि नासंति ॥ ३९॥ गाहा ॥ जइ इच्छह परम-पयं, अहवा कित्ति सुवि
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स्थडं भुवणे । ता तेलुक्कुद्धरणे, जिण-वयणे आयरं कुणह ॥ ४० ॥ गाहा ॥
(७-अथ सप्तमं भक्तामरस्तोत्र स्मरणं ) भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-मुद्योतकं दलित-पापतमो-वितानम् । सम्यक प्रणम्य जिन-पाद-युगंयुगादावालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ।। १ ॥ यः संस्तुतः सकल-वाङ्मय-तत्त्व-बोधा-दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथैः। स्तोत्रजंगत्रितय-चित्त-हरेरुदारः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथम जिनेन्द्रम् ॥ २ ॥ बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ !, स्तोतुं समुद्यत-मतिविंगत-त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-विम्ब-मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ वक्त गुणान् गुण-समुद्र ! शशांक-कांतान् , कस्ते क्षमः सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया । कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्र को वा तरीतुमलमम्बु-निधिं भुजाभ्याम् ॥४॥ सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश! कतु स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्याऽऽत्म-वीर्य-मविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान् माम् । यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारु-चूत-कलिका-निकरैक-हेतु ॥६॥ त्वत्संस्तवेन भव-संतति-सन्निवद्धं, पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर-भाजाम् ! आक्रांत-लोकमलि-नीलमशेषमाशु,
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४११ सूर्यांशु-भिन्नमिव शावरमन्धकारम् ॥ ७ ॥ मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु मुक्ता-फल-द्युतिमुपैति ननूद-बिंदुः ।। ८ । आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हंति । दूरे सहस्र-किरणः कुरुते प्रभैव. पद्माकरेषु जलजानि विकाश-भांजि ॥२॥ नात्यद्भुतं भुवन-भूषण ! भूतनाथ !, भूतैर्गुणैर्भुवि-भवंतमभिष्टुवंतः । तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किं वा, ? भूत्याश्रितं य इह नात्म-समं करोति ॥१०॥ दृष्ट्वा भवंतमनिमेष-विलोकनीयं, नान्यत्र तोष-मुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिंधोः, क्षारं जलं जलनिधेरशितु क इच्छेत् ? ॥११ ।। यैः शांत-राग--रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत !। तावंत एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ।।१२॥ वक्त्रं क ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि, निःशेषनिर्जित-जगत्रितयोपमानम् !। बिम्ब कलंक-मलिनं क निशाकरस्य !, यद्वासरे भवति पांडु-पलाश-कल्पम् ॥१३॥ संपूर्णमंडल-शशांक-कला-कलाप-शुभ्रा गुणास्त्रि-भुवनं तवलंघयंति। ये संश्रितास्त्रि-जगदीश्वर ! नाथमेकं, कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥ १४ ॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ? । कल्पान्त
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काल मरुता चलिताचलेन, किं मंदरादि-शिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ निधूम-वर्त्तिरपवर्जित-तैल-पूरः, कृत्स्नं जगस्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि । गम्यो न जातु मरुतांचलिता-चलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ नास्तं कदाचिदपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगंति । नांभोधरो-दर-निरुद्ध-महा-प्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमासि मुनींद्र लोके ॥ १७॥ नित्योदयं दलितमोहमहांधकारं गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प-कांति, विद्योतय-ज्जगद-पूर्व-शशांक-बिंबम् ॥१८॥ किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेंदु-दलितेषु तमस्सु नाथ ? । निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके, कार्य कियज्जलधरैर्जल-भार-ननैः? ॥१९॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु । तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणा-कुलेऽपि ॥ २०॥ मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवांतरेऽपि ॥ २१ ॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिम्, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥२२॥ त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांस-मादित्य-वर्णममलं तमसः पर
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स्तात् । त्वामेव सम्यगपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिव-पदस्य मुनींद्र ! पंथाः ॥ २३ ॥ त्वामव्ययं विभुमचिंत्यम-संख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंग-केतुम् । योगीश्वरं विदित-योगमनेकमेक, ज्ञान-स्वरूपममलं प्रवदंति संतः ।२४। बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि-बोधात् , त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् । धाताऽसि धीर ! शिव-मार्ग-विधेर्विधानात्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ।। २५ ।। तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ ! तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-भूषणाय ! तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय ।। २६ ।। को विस्मयोऽत्र ? यदि नाम गुणैरशेष-स्त्वं संश्रितो निरवकातशया मुनीश ! । दोषैरुपात्त-विबुधाश्रय-जात-गः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि. ॥ २७ ॥ उच्चैरशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूखमाभाति रूपममलं भवतो नितांतम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं, बिंबं रवेरिव पयोधर-पार्श्व-वति ॥ २८ ॥ सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकाबदातम् । विवं वियद्विलसदंशु-लता-वितानं, तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्र-रश्मेः ॥ २९॥ कुंदावदात-चल-चामर-चारुशोभं,विभ्राजते तव वपुः कल-धौतकान्तम् । उद्यच्छशांकशुचि-निर्झर-वारि-धार-मुच्चैस्तटं सुर-गिरेरिख शात-कौंभम् ॥ ३० ॥ छत्र-त्रयं तव विभाति शशांक-कांत-मुच्चैः स्थितं
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स्थगित-भानु-कर प्रतापम् । मुक्ता-फल-प्रकरजालविवृद्धशोभ, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ उन्निद्र-हेम-नवपंकज-पुंज-कांति, पर्यल्लसन्नख-मयूख-शिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेद्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति ॥ ३२ ॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जनेंद्र ! धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य । यादृक्प्रभा-दिन-कृतः प्रहतांधकारा, तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि ॥३३॥ श्च्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूल-मत्त-भ्रमद्-भ्रमर- नादविवृद्ध-कोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धत-मापतंतं, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥ ३४ ॥ भिन्नेभ-कुंभ-गलदुज्ज्वलशोणिताक्त-मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमि-भागः। बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥ ३५ ॥ कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्निकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वल-मुत्फुलिंगम् । विश्वं जिघत्सुमिव संमुखमापतंतं, त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥ ३६ । रक्तक्षणं समद-कोकिल-कंठ-नीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतंतम् । आक्रामति क्रम-युगेन निरस्त-शंक-स्त्वन्नाम-नाग-दमनी हदि यस्य पुसः ॥ ३७॥ वल्गरा रंग-गज-गर्जित-भीम-नादमाजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् । उद्य-दिवाकर-मयूखशिखापविद्धं, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥ ३८ ॥ कुंताग्रभिन्नगज शोणित-बारिवाह, बेगावतार-तरणातुर-योध
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भीमे । युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षा-स्त्वत्पाद-पंकजवनायिणो लभंते ॥ ३९ ॥ अंभो-निधौ क्षुभित-भीषण-नक्रचक्र-पाठीन-पीठ-भयदोल्वण-वाडवाग्नौ। रंगत्तरंग-शिखरस्थित-यान-पात्रास्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्व्रजंति॥४०॥ उद्भत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः , शोच्यां दशामुपगतश्च्युत-जीविताशाः। त्वत्पाद-पङ्कजरजोऽमृत-दिग्ध-देहा, मा भवन्ति मकर-ध्वजतुल्यरूपाः ॥४१॥ आपाद-कण्ठमुरुशृङ्खल-वेष्टिताङ्गा, गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जङ्घाः । त्वन्नाम-मन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगतबंध-भया भवंति ॥४२॥ मत्त-द्विपेंद्र-मृगराज-दवानलाहि, -संग्रामवारिधि-महोदर-बंधनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४३ ॥ स्तोत्रस्रजं तव जिनेंद्र! गुणैर्निबद्धां भक्त्या मया रुचिर-वर्णविचित्र-पुष्पाम् ! धत्ते जनो य इह कंठ-गतामजस्रं, तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ।। ४४ ॥
(८-अथ श्री अष्टमं कल्याणमन्दिर-स्तोत्रम् ) ___ कल्याण-मंदिरमुदारमवद्य-भेदि, भीता-भय-प्रदमनिंदितमंघ्रि-पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेष-जंतु,-पोतायमानममभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ यस्य स्वयं सुर-गुरुर्गरिमांबुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय-धूम-केतो-स्तस्याहमेष किल संस्तवनं-करिष्ये
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॥ २ ॥ युग्मम् ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं-स्वरूपमस्मादृशाः कथमधीश ? भवत्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवांधो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्म-रश्मेः ? ॥३॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मयो, नूनं गुणान् गणयितुं न तव समेत । कल्पांत वान्त पयसः प्रकटो ऽपि यस्मान्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ? ॥ ४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कतु स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज-बाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियांबुराशेः ? ॥५॥ ये योगिनामपि न यांति गणास्तवेश !। वक्तं कथं भवति तेषु ममावकाशः ? । जाता तदेवम-समीक्षितकारितेयं जल्पंति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥ ६॥ आस्तामचिंत्य-महिमा जिन ! संतवस्ते, नामाऽपि पाति भवतो भवतो जगंति । तीव्रातपोपहतपांथ-जनान्निदाघे, प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥ ७ ॥ हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवंति, जंतोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म-बंधाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्य-भाग-मभ्यागते वन-शिखंडिनि चंदनस्य ॥८॥ मच्यत एव मनुजाः सहसा जिनेंद्र रौद्र्रुपद्रव-शतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरित-तेजसि दृष्ट-मात्रे, चौरिवाशु पशवः प्रपलायमानः ॥ ९॥ त्वं तारको जिन ! कथं भविनां ?
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४१७ त एव, त्वामुद्वहति हृदयेन यदुत्तरंतः यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नूनमंतर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ यस्मिन् हर-प्रभृतयोऽपि हत-प्रभावाः, सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुत-भुजः पयसाथ येन, पीतं न किं तदपि दुर्धर-बाडवेन ॥ ११ ॥ स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नास्त्वां जन्तवः कथमहो! हृदये दधानाः । जन्मोदधि लघु तरत्यांत-लाघवेन ? चित्यो न हत महता यदि वा प्रभावः ॥१२॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथम निरस्तो, ध्वस्तास्तदा बत कथं किल कर्म-चौराः ? ॥ प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिराऽपि लोके नील-द्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी ? ॥१३॥ त्वां योगिनो जिन ! सदा वरमात्मरूप-मन्वेषयंति हृदयांबुज-कोश देशे। पूतस्य निर्मल-रुचेयेदि वा किमन्य-दक्षस्य संभवि पदं ननु कर्णिकायाः ॥१४॥ ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय वरमात्म-दशां ब्रजन्ति । तीव्रानलादुपल-भावमयास्य लोके, चामी-करत्वमचिरादिव धातु-भेदाः ॥ १५ ॥ अंतः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, · भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् ? । एतत्स्व-रूपमथ मध्य-विवर्तिनो हि, यद्विग्रहं प्रशंमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेद-बुद्धया, ध्यातो जिनेंद्र ! भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचित्यमानं, किं नाम नो विष-विकारमपा
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करोति १ ||१७|| त्वामेव वीत - तमसं पर - वादिनोऽपि, नूनं विभो ! हरि-हरादि- धिया प्रपन्नाः । किं काच- कामलिभिरीश ! सितोऽपि शंखो, नो गृह्यते विविध-वर्ण- विपर्ययेण ? ॥ १८ ॥ धर्मोपदेश - समये स - विधानुभावा - दास्तां जनो भवति ते तरुरण्यशोकः । अभ्युद्गते दिन पतौ स - महीरुहोऽपि किं वा विबोधमुपयाति न जीव-लोकः ? ||१९|| चित्र विभो ! कथमवाङ्मुख-वृन्तमेव, विष्वक् पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः ? । त्वद्गोचरे सु-मनसां यदि वा मुनीश ! गच्छन्ति नूनमध एव हि बंधनानि ||२०|| स्थाने गभीर - हृदयोदधि-संभवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परम- संमद-संग - भाजो, भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ॥२१॥ स्वामिन् ! सु-दूरमवनम्य समुत्पतन्तो, मन्ये वदन्ति शुचयः सुर-चामरौघाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्व-गतयः खलु शुद्ध भावाः || २२ || श्यामं गभीर - गिरमुज्ज्वल- हेम - रत्न - सिंहासन - स्थमिह भव्य - शिखंडिनस्त्वाम् । आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै - श्चामी - कराद्रि - शिरसीव नवांबु-वाहम् ||२३|| उद्गच्छता तव शितिद्युति-मंडलेन, लुप्त-च्छद च्छविरशोक-तरुर्वभूव । सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीत - राग !' नीरागतां व्रजति को न चेतनोऽपि ॥ २४ ॥ भो भोः ! प्रमादमवधूय भजध्वमेन - मागत्य निर्वृति - पुरीं प्रति सार्थ - वाहम् । एतन्निवेदयति देव !
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जगन्त्रयाय, मन्ये नदन्नभि-नभः सुर-दुन्दुभिस्ते ॥ २५ ॥ उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ ! तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः । मुक्ता-कलाप-कलितोच्छ्वसितात-पत्र-व्याजास्त्रिधा धृत-तनुध्र वमभ्युपेतः ॥ २६ ॥ स्वेन प्रपूरित-जगस्त्रय-पिंडितेन, कांति-प्रताप-यशसामिव संचयेन । माणिक्यहेम-रजत-प्रविनिर्मितेन, साल-त्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥ २७ ॥ दिव्य-स्रजो जिन ! नमस्त्रि-दशाधिपानामुत्सृज्य रत्न-रचितानपि मौलि-बंधान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सु-मनसो न रमन्त एव ॥ २८॥ त्वं नाथ ! जन्म-जलधेर्विपराङ्मुखोऽपि, यत्तारयस्यसु-मतो निजपृष्ठ-लग्नान् । युक्तं हि पार्थिव-निपस्य सतस्तवैव, चित्रं विभो । यदसि कर्म-विपाकशून्यः ॥२९ ॥ विश्वेश्वरोऽपि जन-पालक ! दुर्गतस्त्वं, कि वाऽक्षर-प्रकृतिरप्य-लिपिस्त्वमोश ! । अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव, ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व-विकाश-हेतुः ॥ ३० ॥ प्राग्भार-संभृतनभांसि रजांसि रोषा-दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाथ ! हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥ यद् गर्जदूर्जित-घनौघमदभ्र-भीमं, भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसल-घोर-धारम्। दैत्येन मुक्तमथ दुस्तर-बारि दध्र, तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारि-कृत्यम् ॥ ३२ ॥ ध्वस्तोर्ध्व-केशविकृता-कृति-मज़-मुड-प्रालंब-भृद्भय-द्वक्त्र-विनियंदग्निः ।
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४२० प्रेत-व्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः, सोऽस्या-भवत्प्रतिभवं भव-दुःख-हेतुः ॥३३॥ धन्यास्त एव भवताधिप ! ये त्रिसन्ध्य-माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्य-कृत्याः। भक्त्योल्लसत्पुलक-पक्ष्मल-देह-देशाः, पाद-द्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाजः ॥३४॥ अस्मिन्न-पार-भर-वारि-निधौ मुनीश !, मन्ये नमे श्रवण-गोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तब गोत्र-पवित्रमन्त्रे, किं वा विपद्विष-धरी सविधं समेति ? ॥३५॥ जन्मांतरेपि नव पाद युगंन देव, ! मन्ये मया महितमीहित-दानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥ ३६ ॥ नूनं न मोह-तिमिरा-वृतलोचनेन, पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनाः प्रोद्यत्प्रबंध-गतयः कथमन्यथैते ? ॥ ३७ ॥ आकर्णितोऽपि, महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबांधव ! दुःख-पात्रं, यस्माक्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥ त्वं नाथ ! दुःखि-जन-वत्सल ! हे शरण्य !; कारुण्य-पुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य ! । भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय, दुःखांकुरोदलन-तत्परतां विधेहि ॥३९।। निःसंख्य-सार शरणं शरणं शरण्य-मासाद्य सादित-रिपु प्रथितावदातम् । त्वत्पाद-पंकजमपि प्रणिधान-वंध्यो, वध्योऽस्मि चेद्भवन-पावन ! हा हतोऽस्मि ॥४०॥ देवेन्द्र-वन्ध !
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४२१
विदिताखिल-वस्तु-सार !, संसार-तारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ ! । त्रायस्व देव ! करुणा-हद ! मां पुनीहि, सीदंतमद्य भयदव्यसनांबु-राशेः ॥४१॥ यद्यस्ति नाथ ! भवदंघ्रि-सरोरूहाणां, भक्तेः फलं किमपि संतति-संचितायाः। तन्मे त्वदेक-शरणस्य शरण्य ! भूयाः, स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ।। ४२ ।। इत्थं समाहित-धियो विधिवज्जिनेंद्र !, सांद्रोल्लसत्पुलक-कंचुकिताङ्गभागाः। त्वद्विब-निर्मल-मुखांबुज-बद्ध-लक्ष्या, ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्याः ॥ ४३ ॥ जन-नयन-कुमुद-चंद्र ! प्रभास्वराः स्वर्ग-संपदो भुक्त्वा । ते विगलित-मल-निचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ युग्मम् ॥ ४४ ॥
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५८ पाक्षिकादि-अतिचार
मूल
नाणम्मि दंसणम्मिअ, चरणम्मि तवम्मि तह य वीरियम्मि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ॥ १ ॥
ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार ये पंचविध आचारमांहि * जे कोइ अतिचार पक्ष दिवसमांहि सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुओ होय, ते सविहु मने, वचने, कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं ॥१॥
तत्र ज्ञानाचारे आठ अतिचारकाले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिण्हवणे । वंजण-अत्थ-तदुभये, अट्ठविहो नाणमायारो ॥१॥
ज्ञान काल-वेलाए भण्यो-गुण्यो नहीं, अकाले भण्यो, विनयहीन, बहुमान-हीन, योग-उपधान-हीन, अनेरा कन्हे भणी अनेरो गुरु कह्यो।
देव-गुरु-वांदणे, पडिक्कमणे; सज्झाय करतां, भणतां-गुणतां कूडो अक्षर काने मात्राए अधिको-ओछो भण्यो, सूत्र कूडु कहय', अर्थ कूडो कहयो, तदुभय कूडां कहयां, भणीने विसार्यां।
साधु-तणे धर्मे काजो अणउद्धर्ये; दांडो अणपडिलेहे, वसति
* यहां अनेरो' ऐसा अधिक पाठ देखने में आता है, किन्तु वह अर्थकी दृष्टिसे सङ्गत नहीं है।
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४२३ अणशोधे, अणपवेसे, असज्झाय-अणो (ण)ज्झाय-मांहे श्रीदशवैकालिक-प्रमुख सिद्धांत भण्यो-गुण्यो, श्रावक-तणे धर्मे स्थविरावली, पडिक्कमण, उपदेशमाला-प्रमुख सिद्धांत भण्यो-गुण्यो; काल-वेलाए काजो अणउद्धर्ये पढयो।
ज्ञानोपगरण पाटी, पोथी, ठवणी, कवली, नोकारवाली, सांपडा, सांपडी, दस्तरी, वही ओलिया-प्रमुख प्रत्ये पग लाग्यो, थूके करो अक्षर मांज्यो, ओशीसे धर्यो, कन्हे छतां आहार-नीहार कीधो।
ज्ञान-द्रव्य भक्षतां उपेक्षा कोधी, प्रज्ञापराधे विणास्यो, विणसतो उवेख्यो, छतो शक्तिए सार-संभाल न कोधी।
ज्ञानवंत प्रत्ये द्वष-मत्सर चिंतव्यो, अवज्ञा-आशातना कीधी, कोई प्रत्ये भणतां-गणतां अंतराय कीधो, आपणा जाणपणा-तणो गर्व चितव्यो, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, ए पंचविध ज्ञान-तणी असद्दहणा कोधी ।
कोई तोतडो, बोबडो [ देखी ] हस्यो, वितयों, अन्यथा प्ररूपणा कीधी। ___ ज्ञानाचार-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि सूक्ष्म, बादर जाणतां, अजाणतां हुओ होय, ते सविहु मने, वचने, कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं ।। १ ।।
दर्शनाचारे आठ अतिचारनिस्संकिय निकंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ । उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ ॥ १ ॥
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४२४
देव-गुरु-धर्म-तणे विषे निःशंकपणुन कीधु', तथा एकान्त निश्चय न कोधो, धर्म-सम्बन्धीयां फलतणे विषे निःसन्देह बुद्धि धरी नहीं, साधु-साध्वीनां मल-मलिन गात्र देखी दुगंछा नीपजावी, कुचारित्रीया देखो चारित्रीया ऊपर अभाव हुओ, मिथ्यात्वी-तणी पूजा-प्रभावना देखी मूढ़दृष्टिपणु कीधु।
तथा संघमाहे गुणवंत-तणी अनुपबृंहणा कोधी; अस्थिरीकरण, अवात्सल्य, अप्रोति, अभक्ति नीपजावी, अबहुमान कीधु। __ तथा देवद्रव्य, गुरुद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारणद्रव्य, भक्षित, उपेक्षित, प्रज्ञापराधे विणास्यां, विणसतां उवेख्यां, छती शक्तिए सारसंभाल न कोथो; तथा सार्मिक साथे कलह-कर्म-बंध कीधो।
अधोती, अष्टपड मुखकोश-पाखे देव-पूजा कोधी; बिब-प्रत्ये वासकूपी, धूपधाणु, कलश-तणो ठबको लाग्यो, बिंब हाथ-थको पाड्य, ऊसास-नीसास लाग्यो ।
देहरे उपाश्रये मल-श्लेष्मादिक लोह्यं , देहरामांहे हास्य, खेल, केलि, कुतूहल, आहार-नीहार कोधां, पान, सोपारी, निवेदीयां खाधां।
ठवणायरिय हाथ-थकी पाड्या, पडिलेहवा विसार्या । जिन-भवने चोराशी आशातना, गुरु-गुरुणी प्रत्ये तेत्रीस आशातना कीधी, गुरु-वचन 'तह त्ति' करी पडिवज्युं नहीं।
दर्शनाचार-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांइि० ॥१॥
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चारित्राचारे आठ अतिचारएणिहाण-जोग-जुत्तो, पंचहि समिईहिं तीहिं गुत्तोहिं । एस चरित्तायारो, अट्ठाविहो होइ नायव्वो ॥ १॥
ई-समिति ते अणजोये होड्या, भाषा-समिति ते सावध वचन बोल्या, एषणा-समिति ते तृण, डगल, अन्नपाणो, असूजतु लोधु, आदान-भंडमत्त-निक्खेवणा-समिति ते आसन, शयन, उपकरण, मातरं प्रमुख अणपुंजी जीवाकुल भूमिकाए मूक्यु, लोधु, पारिष्ठापनिका-समिति ते मलमूत्र, श्लेष्मादिक अणपुंजो जीवाकुल भूमिकाए परठव्यु ।
मनो-गुप्ति-मनमां आर्त-रौद्रध्यान ध्यायां, वचन-गुप्तिसावद्य वचन बोल्यां; काय-गुप्ति-शरीर अणपडिलेडं हलाव्यु, अणपुंजे बेठा। ___ ए अष्ट प्रवचन-माता साधु-तणे धर्म सदैव अने श्रावक-तणे धर्म सामायिक पोसह लीधे रूडी पेरे पाल्यां नहीं, खंडणा-विराधना हुई।
चारित्राचार-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ॥ १॥ __विशेषतः श्रावक-तणे धर्मे श्रीसम्यक्त्व-मूल बार व्रत [ तेमां ] सम्यक्त्व-तणा पांच अतिचार
'संकाकखविगिच्छा.' ॥ प्र-२७
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४२६
शंका- श्रीअरिहंत तणां बल, अतिशय, ज्ञानलक्ष्मी, गांभीर्यादिक गुण, शाश्वती प्रतिमा, चारित्रीयानां चारित्र, श्रीजिनवचन- तणो संदेह कीधो !
आशंका - ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, क्षेत्रपाल, गोगो, आसपाल, पादर- देवता, गोत्र - देवता, ग्रह - पूजा, विनायक, हनुमंत, सुग्रीव, वालीनाह इत्येवमादिक देश, नगर, ग्राम, गोत्र, नगरी, जूजूआ देव - देहराना प्रभाव देखी, रोग- आतंक - कष्ट आव्ये इहलोक परलोकार्थे पूज्या - मान्या, प्रसिद्ध विनायक जीराउलाने मान्युं, इच्छ्यं, बौद्ध, सांख्यादिक, संन्यासी, भरडा, भगत, लिंगिया, जोगिया, जोगी, दरवेश, अनेरा दर्शनीया - तणो कष्ट, मंत्र, चमत्कार देखी परमार्थं जाण्या बिना भूलाया, मोह्या, कुशास्त्र शीख्या, सांभल्या ।
श्राद्ध, संवत्सरी, होली, बलेव, माही - पूनम, अजा-पडवो, प्रेतबीज, गौरी - त्रीज, विनायक - चोथ, नाग पंचमी, झीलणा-छट्ठी, शील ( शीतला ) - सातमी, ध्रुव - आठमी, नौली नवमी, अहवादशमी, व्रत - अग्यारशी, वच्छ-बारशी, धन-तेरशी, अनंत - चउ - दशी, अमावास्या आदित्यवार, उत्तरायण नैवेद्य कीधां ।
"
नवोदक, याग, भोग, उतारणां कोधां, कराव्यां, अनुमोद्यां, पीपले पाणी घाल्यां-घलाव्यां, घर-बाहिर - क्षेत्र - खले कूवे, तलावे, नदीए, हे, वाविए, कुंडे, पुण्यहेतु स्नान कीधां, कराव्यां, अनुमोद्या, दान दीघां, ग्रहण, शनैश्चर, माहमासे नवरात्रि न्हाया, अजाणतां थाप्यां, अनेराई व्रत - व्रतोलां कोधां-कराव्यां ।
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विचिकित्सा-धर्म-संबंधीया फलतणे विषे संदेह कीधो, जिन अरिहंत, धर्मना आगर, विश्वोपकार सागर, मोक्षमार्गना दातार, इस्या गुण भणी न मन्या, न पूज्या, महासती महात्मानी इहलोक परलोक संबंधीया भोग-वांछित पूजा कीधी।
रोग, आतंक, कष्ट आव्ये खीण वचन भोग मान्या, महात्माना भात, पाणी, मल, शोभा-तणी निंदा कोधी, कुचारित्रीया देखी चारित्रोया उपर कुभाव हुओ, मिथ्यात्वी-तणी पूजा-प्रभावना देखी प्रशंसा कीधी, प्रीति मांडी, दाक्षिण्य-लगे तेहनो धर्म मान्यो, कीधो। श्रीसम्यकत्व-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्षदिवसमाहि० ।। १॥
पहेले स्थूल प्राणातिपात-विरमण-व्रते पांच अतिचारवह-बंध-छविच्छेए० ॥
द्विपद, चतुष्पद प्रत्ये रीस-वशे गाढो घाव घाल्यो, गाढे बंधने बांध्यो, अधिक भार घाल्यो, निलांछन-कर्म कीधा, चारा-पाणो-तणी वेलाए सार-संभाल न कीधी, लेहणे-देहणे किणही प्रत्ये लंघाव्यो, तेणे भूख्ये आपणे जम्या, कन्हे रही मराव्यो, बंदीखाने घलाव्यो। ___ सल्यां घान्य तडके नांख्यां, दलाव्यां, भरडाव्यां, शोधी न वावर्यां; इंधण-छाणां अणशोध्यांबाळ्यां, तेमांहि साप, विंछी, खजूरा, सरवला, मांकड, जूआ, गोंगोडा साहतां मुआ, दुहव्या, रूडे स्थानके न मूक्या; कोडी-मकोडोनां इंडां विछोह्यां, लीख फोडी, उद्देही,कीडी, मंकोडो, घीमेल, कातरा, चूडेल, पतंगीयां, देडकां, अलसीयां, ईयल, कुंतां, डांस, मसा, बगतरा, माखी, तीड-प्रमुख जीव विणट्ठा; माला
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४२८ हलावतां, चलावतां, पंखी, चकला, काग-तणां इंडां फोड्यां । __अनेरा एकेन्द्रियादिक, जीव विणास्या, चाप्या, दुहव्या, काइ हलावतां, चलावतां, पाणी छांटतां, अनेरा कांइ काम-काज करतां निर्वसपणुं कीg, जीव-रक्षा रूडो न काधी, संखारो सूकव्यो, रूड्डु गलगुं न कोg, अणगल पाणी वावगुं, रूडी जयणा न काधी, अणगल पाणीए झील्या, लूगडां धोयां, खाटला तडके नाख्या, झाटक्या, जीवाकुल भूमि लिपी, वाशो गार राखो, दलणे, खांडणे, लिंपणे रूडी जयणा न कोधी, आठम, चउदसना नियम भांग्या, धूणी करावी ।
पहेले स्थूल-प्राणातिपात-विरमण व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि ॥ १।। बीजे स्थूल-मृषावाद-विरमण व्रते पांच अतिचारसहसा-रहस्स-दारे ॥
सहसात्कारे कुणह प्रत्ये अजुगतुं आल-अभ्याख्यान दीg, स्वदारा-मंत्रभेद कीधो, अनेरा कुणहनो मंत्र, आलोच, मर्म प्रकाश्यो, कुणहने अनर्थ पाडवा कूडी बुद्धि दीधी, कूडो लेख लख्यो, कूडी साख भरी, थापण-मोसो कीधा । ___ कन्या, गौ, ढोर, भूमि-संबंधी लेहणे-देहणे व्यवसाये वाद- .. वढवाड करतां मोटकुं जूठं बोल्या, हाथ-पगतणो गाली दीधी, कडकडा मोड्या, मर्मवचन बोल्या।
बीजे स्थूल-मृषावाद-विरमण व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ॥२॥
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४२९ त्रीजे स्थूल-अदत्तादान-विरमण व्रते पांच अतिचार
तेनाहडप्पओगे०॥ 'घर-बाहिर क्षेत्र खले पराई वस्तु अणमोकली लोधी, वापरो, चोराई वस्तु वहोरी, चोर-धाड-प्रत्ये संकेत कीधो, तेहने संबल दीg, तेहनी वस्तु लोधी, विरुद्ध राज्यातिक्रम कोधो, नवा, पुराणा, सरस, विरस, सजीव, निर्जीव वस्तुना भेल-संभेल कीधा, कूडे काटले, तोले, माने, मापे, वहोर्या, दाण-चोरी कीधी, कुणहने लेखे वरांस्यो, साटे लांच लीधी, कूडो करहो काढयो, विश्वासघात कीधो, पर-वंचना क्रीधो, पासंग कूडां कोधां, दांडी चडावी, लहके-त्रहके कूडां काटलां, मान, मापां कीधां। ___ माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र वंची कुणहिने दोधुं, जुदी गांठ कीधी, थापण ओळवी, कुणहिने लेखे-पलेखे भूलव्यु, पडी वस्तु ओळवो लीधी।
त्रीजे स्थूल-अदत्तादान-विरमण व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ॥ ३ ॥
चोथे स्वदारासंतोष-परस्त्रीगमन-विरमण व्रते पांच अतिचारअपरिग्गहिया-इत्तर० ॥
अपरिगृहीता-गमन, इत्वर-परिगृहीता-गमन कीधं, विधवा, वेश्या, परस्त्री, कुलांगना, स्वदारा शोक (क्य)-तणे विषे दृष्टि-विपयास कीधो, सराग वचन बोल्यां, आठम चोदश अनेरी पर्वतिथिना लई भांग्या, घरघरणां कोधा कराव्यां, वर-बहू वखाण्यां, कुविकल्प
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४३० चिंतव्यो, अनंग-क्रीडा कीधी, स्त्रीनां अंगोपांग नीरख्यां, पराया विवाह जोड्या, ढींगला-ढोंगली परणाव्या, काम-भोग तणे विषे तीव्र अभिलाष कीधो। ____ अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, सुहणे-स्वप्नांतरे हुआ, कुस्वप्न लाध्यां, नट, विट, स्त्रीशुं हांसुं कीर्छ ।
चोथे स्वदारा-संतोष व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ॥ ४ ॥
पांचमे परिग्रह-परिमाण-व्रते-पांच अतिचार
धण-धन्न-खित्त-वत्थू० ॥
धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रूप्य, सुवर्ण, कुप्य, द्विपद, चतुष्पद ए नवविध परिग्रह-तणा नियम उपरांत वृद्धि देखी मूर्छा-लगे संक्षेप न कीधो, माता, पिता, पुत्र, स्त्री-तणे लेखे कीधो, परिग्रह-परिमाण लीधुं नहीं, लइने पढीयुं नही, पढवू विसायुं, अलीधु मेल्यु, नियम विसर्या ।
पांचमे परिग्रह-परिमाण-व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि ॥ ५॥
छट्टे दिक-परिमाण-व्रते पांच अतिचारगमणस्स य परिमाणे० ॥ ऊर्ध्वदिशि, अधोदिशि, तिर्यग्-दिशिए जवा आववा-तण नियम लई भाग्या, अनाभोगे विस्मृति लगे अधिक भूमि गया, पाठवणी
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४३१ आघो-पाछी मोकली, वहाण-व्यवसाय कीधो, वर्षाकाले गामतरूं कीधु, भूमिका एकगमा संक्षेपी, बीजी गमा वधारी। __ छटे दिक्-परिमाण-व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ॥६॥
सातमे भोगोपभोग-विरमण-व्रते भोजन आश्री पांच अतिचार अने कर्म-हुंती पंदर अतिचार, एवं वीश अतिचार
सचित्ते पडिबद्धे०॥
सचित्त-नियम लीधे अधिक सचित्त लीधुं; अपक्वाहार, दुष्पक्वाहार, तुच्छौषधि-तणुं भक्षण कीg,ओळा, उंबी, पोंक, पापडी खाधां ।
सचित्त-दव्वे-विगई-वाणहँ-तंबोल-वत्थं-कुसुमेसु । वाहण-सयण-विलेवण' -बभ-दिसिन्हाण-भत्तेसु ॥
ए चौद नियम दिनगत रात्रिगत लीधा नहीं, लइने भांग्या, बावीश अभक्ष्य, बत्रोश अनन्तकायमांहि आदु, मूला, गाजर, पिंड, पिंडालु, कचूरो, सुरण, कुंळि आंबली, गलो, वाघरडां खाधां ।
वासी कठोळ, पोली रोटली, त्रण दिवसनुं ओदन लीधुं; मधु, महुडां, माखण, माटी, वेंगण, पीलु, पीचु, पंपोटा, विष, हिम, करहा, घोलवडां, अजाण्यां फल, टिंबरू, गुंदां, महोर, अथाj, आंबलबोर, कांचु मीठु, तिल, खसखस, कोठिंबडां खाधां, रात्रि-भोजन कीधां, लगभग-वेलाए वाळ कीg, दिवस विण ऊगे शीराव्या। __ तथा कर्मतः पन्नर कर्मादान-इंगाल-कम्मे, वण-कम्मे, साडीकम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे, ए पांच कर्म; दंत-वाणिज्जे, लक्ख
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४३२
वाणिज्जे, रस-वाणिज्जे, केस-वाणिज्जे, विस-वाणिज्जे, ए पांच वाणिज्य; जन्त - पिल्लणकम्मे, निल्लंडण कम्मे, दवग्गि-दावणया, सरदह-तलाय - सोसणया, असई-पोसणया; ए पांच कर्म, पांच वाणिज्य, पांच सामान्य; एवं पन्नर कर्मादान बहु सावद्य - महारंभ, रांगण-लिहालो कराव्या, ईंट - निभाडा पकाव्या, धाणी, चणा, पक्वान्न करी वेच्या, वाशी माखण तवाव्यां, तिल वहोर्यां, फागण मास उपरांत राख्या, दीदो कीधो, अंगीठा कराव्या, खान, बिलाडा, सूडा, सालही पोष्या ।
अनेरा जे कांई बहु-सावद्य खरकर्मादिक, समाचर्या, वाशी गार राखी, लिंपणे-गुंपणे महारंभ कीधो, अणशोध्या चूला संघक्या, घो. तेल, गोल, छाश-तणां भाजन उघाडां मूक्यां, तेमांहि माखी, कुंती, उंदर, गीरोली पडो, कीडी चडी तेनी जयणा न कीधी ।
सातमे भोगोपभोग-विरमण - व्रत- विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष - दिवसमांहि० ॥ ७ ॥
आठमे अनर्थदंड - विरमण-व्रते पांच अतिचार
कंदप्पे कुक्कुइ० ||
कंदर्प - लगे विट- चेष्टा, हास्य, खेल, [ केलि ] कुतूहल कीधां, पुरुष-स्त्रीना हाव-भाव, रूप, श्रृंगार, विषय-रस वखाण्या, राजकथा, भक्त-कथा, देश - कथा, स्त्री - कथा कीधी, पराई तांत कीधी, तथा पैशुन्यपणं की, आर्त - रौद्र ध्यान ध्यायां ।
खांडां कटार, कोश, कुहाडा, रथ, ऊखल, मुसल, अग्नि,
१ मूलमें 'बहुरंगिणो लिहला आंगरणि' ऐसा पाठ है ।
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४३३ घरंटी, निशाह ( सार ), दातरडां प्रमुख, अधिकरण, मेली-दाक्षिण्यंलगे माग्यां आप्यां, पापोपदेश दोधो, अष्टमी, चतुर्दशीए खांडवादलवा-तणा नियम भांग्यां, मुखरपणा-लगे असंबद्ध वाक्य बोल्या, प्रमादाचरण सेव्यां। ___ अंघोले, न्हाणे, दातणे, पग-धोअणे, खेल, पाणी, तेल छांटयां, झीलणे झोल्या, जुवटे रम्या, हिंचोले हिंच्या,नाटक-प्रेक्षणक जोयां,कण, कुवस्तु, ढोर लेवराव्यां, कर्कश वचन बोल्या; आक्रोश कीधा, अबोला लोधा, करकडा मोडया, मच्छर धर्यो, संभेडा लगाड्या, भाप दोधा। ___ भंसा, सांढ, हुडु, कूकडा, श्वानादिक झूझार्या, झूझता जोया, खादीलगे अदेखाइ चितवी, माटी, मीठं, कण, कपाशिया, काज विण चाप्या, ते पर बेठा, आलो वनस्पति खुंदी, सूई-शस्त्रादिक नीपजाव्या, घणी निद्रा कोधी, राग-द्वेष लगे एकने ऋद्धि-परिवार वांछी; एकने मृत्यु-हानि-वांछी। ___ आठमे अनर्थदण्ड-विरमण-व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ॥ ८ ॥
नवमे सामायिक-व्रते पांच अतिचार-- तिविहे दुप्पणिहाणे०॥
सामायिक लीधे मने आहट्ट-दोहट्ट चितव्यु, सावद्य वचन बोल्या, शरीर अणपडिलेडं हलाव्यु,छती वेलाए सामायिक नलीg, सामायिक लई उघाडे मुखे बोल्या, उंघ आवी, वात-विकथा घर तणी चिंता कीधी, वीज दोवा-तणी उज्जेही हुई; कण, कपाशीया, माटी,मीठं,
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४३४ खडो, धावडी, अरणेट्टो, पाषाण प्रमुख चाप्या; पाणी, नोल, फूलो, सेवाल, हरियकाय, बीज काय इत्यादिक आभड्यां, स्त्री-तिर्यंच-तणा निरंतर परंपर संघट्ट हुआ, मुहपत्तिओ संघट्टी, सामायिक अणपूग्यु पायुं, पारदुं विसायं । ___ नवमे सामायिक-व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्षदिवसमांहि० ॥ ९॥
दशमे देशावकाशिक-व्रते पांच अतिचारआणवणे पेसवणे० ॥
आणवण-प्पयोगे, पेसवण-प्पयोगे, सद्दाणुवाई, रुवाणुवाई, बहिया-पुग्गल-पक्खेवे, नियमित-भूमिकामांहि वाहेरथी कांइ अणाव्यु, आपण कन्हे थकी बाहेर कांई मोकल्यु, अथवा रूप देखाडी, कांकरो नाखी, साद करी आपणपणुं छतुं जणाव्युं ।
दशमे देशावकाशिक-व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ॥ १० ॥
अग्यारमे पौषधोपवास-व्रते पांच अतिचारसंथारुचारविही० ॥
अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय, सिज्जा-संथारए, अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहिय, उच्चार-पासवण-भूमि पोसह लीधे संथारा-तणो भूमि न पुंजी।
बाहिरलां लहुडां वडां स्थंडिल दिवसे शोध्यां नहीं, पडिलेह्यां . नहीं,मातरूं अणपुंज्युं हलाव्यु, अणपुंजी भूमिकाए परठव्यु, परठवतां,
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'अणुजाणह जस्सुग्गहो' न कह्यो, परठव्यां पुंठे वार त्रण 'वीसिरे वोसिरे' न कह्यो।
पोसहशालामांहि पेसतां 'निसोहि' निसरतां 'आवस्सहि' वार त्रण भणी नहीं।
पुढवी, अप्, तेउ, वाउ, वनस्पति, त्रसकाय-तणा संघट्ट, परिताप, उपद्रव हुआ।
संथारा-पोरिसी-तणो विधि भणवो विसार्यो, पोरिसी-मांहि उंघ्या, अविधे संथारो पार्यो, पारणादिक-तणी चिंता कोधी, कालवेलाए देव न वांद्या, पडिक्कमणुं न कीg, पोसह असूरो लीधो, सवेरो पार्यो, पर्वतिथे पोसह लीधो नहीं।
अग्यारमे पौषधोपवास-व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ।। ११ ।।
बारमे अतिथि संविभाग-व्रते पांच अतिचारसचित्ते निक्खिवणे० ॥
सचित्त वस्तु हेठ उपर छतां महात्मा महासती प्रत्ये असूझतुं दान दीधं, देवानी बुद्धे असूझतुं फेडी सूझतुं कीg, परायुं फेडी आपणुं कीg, अणदेवानी बुद्धे सूझतुं फेडो असूझंतुं कीg, आपणुं फेडी पराजु कीधुं, वहोरवा वेला टली रह्या, असूर करी महात्मा तेडया, मत्सर धरी दान दीधुं, गुणवत आव्ये भक्ति न साचवी, छती शक्ते साहम्मिवच्छल्ल ( सार्मि-वात्सल्य ) न कोg, अनेरां धर्मक्षेत्र सीदातां छती शक्तिए उद्धर्या नहीं, दीन, क्षीण प्रत्ये अनुकंपादान न दोधुं ।
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४३६
बारमे अतिथि संविभाग- व्रत - विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार
पक्ष - दिवसमांहि० ॥ १२ ॥
संलेखणा तणा पांच अतिचार
इह लोए परलोए० |
इहलोगासंस- प्पओगे, परलोगासंस-प्पओगे, जो विआ संस- प्पओगे; मरणासंस-प्पओगे, कामभागासंस - प्पओगे |
इह लोके धर्मना प्रभाव लगे राज ऋद्धि, सुख, सौभाग्य, परिवार वांछ्या, परलोके देव, देवेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्तीतणी पदवी वांछी, सुख आव्ये जीवितव्य वांछ्युं, दुःख आव्ये मरण वांछ्युं, काम भोगतणी वांछा कीधी ।
संलेखणा विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष दिवसमांहि० ।। १३ ।।
तपाचार बार भेद छ बाह्य, छ अभ्यन्तर
अण सण मृणोअरिआ ० ॥
अणसण भणी उपवास - विशेष पर्वतिथे छती शक्तिए कीधो नहीं, ऊणोदरी व्रत ते कोलिआ पांच सात ऊणा रह्या नहीं, वृत्तिसंक्षेप ते द्रव्य भणी सर्व वस्तुनो संक्षेप कीधो नहीं, रस-त्याग ते विषयत्याग न कीधो, काय-क्लेश लोचादिक कष्ट सह्यां नहीं, संलीनता अंगोपांग संकोची राख्यां नहीं, पच्चक्खाण भांग्यां, पाटलो डगडगतो फेड्यो नहीं, गंठसो, पोरिसी, पुरिमड्ढ, एकासणुं, बेआसणुं, नीवि, आंबिलप्रमुख पच्चक्खाण पारवु विसायुं, बेसतां नवकार न भ ( ग ) ण्यो, उठतां पच्चक्खाण करवु विसायुं, गंठसीयुं, भाग्यं नीवि आंबिल उपवासादि तप करी काचुं पाणी पीधुं, वमन हुआ ।
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४३७
बाह्यतप-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि ॥ १४ ॥
अभ्यंतर तपपायच्छित्त विणओ० ॥
मन-शुद्ध गुरु-कन्हे आलोअण लोधी नहीं; गुरु-दत्त प्रायश्चित्ततप लेखा शुद्धे पहुँचाड्यो नहीं, देव, गुरु, संघ, सा हम्मी प्रत्ये विनय साचव्यो नहीं; बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी-प्रमुखनुं वेयावच्च न कोळू, वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा-लक्षण पंचविध स्वाध्याय न कीधो, धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्यायां, आर्तध्यान, रौद्रध्यान ध्यायां, कर्मक्षय-निमित्ते लोगस्स दश-वीशनो काउस्सग्ग न कोधो।
अभ्यंतर तप-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमाहि० ॥ १५ ॥ वीर्याचारना त्रण अतिचार
अणिग्रहिअ-बल-वीरिओ० ॥ . पढवे, गुणवे, विनय, वेयावच्च, देव-पूजा, सामायिक, पोसह, दान, शील, तप, भावनादिक धर्म-कृत्यने विषे मन, वचन, कायातणुं छतु वीर्य गोपव्यु।
रूडां पंचांग खमासमण न दीधां, वांदणा-आवर्तविधि साचव्या नहीं, अन्यचित्त निरादर पणे बेठा, उतावळ देव-वंदन पडिक्कमणुं कोर्छ ।
वीर्याचार-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि ॥१६॥
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नाणाइ-अट्ट पइवय, सम्मसंलेहण-पण-पन्नर-कम्मेसु । बारस-तप-वीरिअ-तिगं, चउवीस-सयं अइआरा ॥ पडिसिद्धाणं करणे०॥
प्रतिषेध अभक्ष्य, अनंतकाय, बहुबीज-भक्षण, महारंभ-परिग्रहादिक कोधां, जीवाजीवादिक सूक्ष्म-विचार सद्दह्या नहीं, आपणी कुमति लगे उत्सूत्र-प्ररूपणा कोधी । __ तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति, अरति, पर-परिवाद, माया-मृषावाद, मिथ्यात्वशल्य ए अढार पाप-स्थान कीधां, कराव्यां अनुमोद्यां होय । ___ दिनकृत्य, प्रतिक्रमण, विनय, वेयावच्च न कीधां, अनेरुं जं कांइ वीतरागनी आज्ञा-विरुद्ध कीg कराव्यु, अनुमोद्यु होय ।
ए चिहुं प्रकारमाहे अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि सूक्ष्म-बादर जाणता-अजाणतां हुओ होय, ते सविहु मने, वचने कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं ॥ १७ ।।
एवकारे श्रावकतणे धर्मे श्रीसम्यक्त्व-मूल बार व्रत एकसो चोवीश अतिचारमांहि जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि सूक्ष्म-बादर जाणतां अजाणतां हुओ होय, ते सविहु मने, वचने, कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं ॥
॥ इति अतिचार ।।
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४३९
शब्दार्थ
इस सूत्रमें जो शब्द नवीन | अणशोध्ये-शोधन किये बिना,
तथा कठिन हैं, उनके उसके अन्तर्गत अशुद्धिमय
.. अर्थ यहाँ दिये जाते हैं। पदार्थको दूर किये बिना। नाम्म-भणिओ० ॥ इस / अणपवेसे -- योगोद्वहनादि क्रिया
गाथाके अर्थ के लिये देखो सूत्र द्वारा सिद्धान्त पढ़ने में प्रवेश २८ गाथा १ ।
किये बिना। सविहु-सब ही।
असज्झाय-अण्णो ( ण ) ज्झायकाले विणए-नाणमायारो ॥
माहे-अस्वाध्याय और अनइस गाथाके अर्थके लिये देखो
ध्यायके समय में। सूत्र २८ गाथा २।
जो संयोग पढ़नेके लिये अयोग्य काल-वेलाए-पढनेके समय ।
हो, वह अस्वाध्याय कहभण्यो गुण्यो नहीं-पढ़ा नहीं
लाता है और जो दिन और पढ़े हुएकी पुनरावृत्ति भी पढ़ने के लिये अयोग्य हो नहीं की।
वह अनध्याय - दिवस कूडो-झूठा, असत्य ।
कहलाता है। तदुभय-सूत्र और अर्थ ।
| प्रमुख-इत्यादि, वगैरा। काजो-कचरा, निरर्थक वस्तु । ।
पहले काजो उद्धरना चाहिये, देश्य कज्जल शब्दसे बना
फिर दण्ड यथाविधि पडिहुआ है।
लेहना चाहिये, तदनन्तर अणउद्धर्ये-निकाले बिना।
वसतिका बराबर शोधन दांडो-साधुके रखने योग्य दण्ड । करना चाहिये और क्रियाअणपडिलेहे - पडिलेहण किये पूर्वक स्वाध्यायमें प्रवेश बिना।
करना चाहिये। यदि अवसति-उपाश्रयके चारों ओर सौ
स्वाध्यायका काल हो अथवा सौ कदम दूर तकका स्थान। । अनध्यायका दिन हो, तो
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४४०
उस समय सूत्र पढ़ने से दोष लगता है । साधु धर्म में दशवैकालिक
जैसे
आदि सूत्रों के पढ़नेका नियम है वैसे ही श्रावकधर्ममे भी स्थविरावलि आदि सूत्रोंके
पढ़नेका नियम है | विधिका पालन न किया जाय
तो दोष लगे ।
ज्ञानोपगरण- ज्ञान के
ज्ञानके साधन |
पाटी - लकड़ीकी पट्टी |
पोथी - हस्तलिखित ग्रन्थ अथवा
उपकरण,
पट्टी |
मांज्यो- -साफ किया, मिटाया । ओशीसे धर्यो - मस्तक के नीचे
नीचे
तकिया दिया । मूलमें 'सीसह ataउं' ऐसा पाठ है !
।
कन्हें पास में । नीहार - मल विसर्जन । प्रज्ञापराधे विणास्यो - मन्द बुद्धिके
कारण नष्ट किया ।
विणसतो उवेख्यो कोई नष्ट
करता हो, तो भी उपेक्षा
की हो ।
कोधी - अश्रद्धा की हो, श्रद्धा न रखी हो ।
तोतडो- तुतलाता हुआ बोला । रुकते - रुकते अक्षर बोलने को तोतड़ा - तोतला कहते हैं । बोबडो - अस्पष्ट गुनगुनाकर बोला । कवली-बाँसकी सलाइयोंका पुस्तक हस्यो - हँस-हँस कर बोला ।
पुस्तक ।
ठवली - स्थापनिका ।
वित- मिथ्या तर्क किया हो ।
अन्यथा प्ररूपणा कीधी - शास्त्र के
पर लपेटनेका साधन । पाठान्तर कमली शब्द है । दस्तरी - छुट्टे कागज रखने के लिये पुट्टेका साधन, सम्पुटिका । वही - कोरे कागजों की किताब, वही, चोपड़े । ओळियु-लिखे हुए कागजोंका
टिप्पण अथवा रेखा खींचनेकी
असद्दहणा
-
मूल भावका त्याग कर दूसरी तरह प्रतिपादन किया हो । विषइयो - विषयक, सम्बन्धी । अनेरो - अन्य ।
निःसंकिय.... अट्ठ || इस गाथा - के अर्थ के लिये देखो सूत्र २८
गाथा ३ ।
संबंधीया-सम्बन्धी ।
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४४१
मल-मलिन-मैलसे युक्त, मलिन ।। भक्षण होता हो तो उसको दुगंछा नीपजावी-जुगुप्सा को। रोकनेका अपना उत्तरदायित्व कुचारित्रीया - कुत्सित चारित्र- पूरा न किया हो। वाले ।
अधोती-धोती बिना । चारिजीया-चारित्रवाले, चारि- | अष्टपड--मुखकोश - पाखे - आठ वशील।
पड़वाले मुखकोश बिना। अभाव-हुओ-अप्रीति हुई। बिंब प्रत्ये-बिम्ब के प्रति, मूर्तिअनुपबृहणा कीधी-उपबृंहणा
न की, समर्थन न किया हो। वासपी-वासक्षेप रखनेका पात्र । अस्थिरीकरण - स्थिरीकरण न धपधाणु-धूपदानी।
किया हो, धर्मीको गिरते देख । केलि-क्रीडा ।
धर्म मार्गमें स्थिर न किया हो। निवेदियां-नैवेद्य । देव-द्रव्य-देव-निमित्तका द्रव्य, , ठवणायरिय-स्थापनाचार्य । देवके लिये कल्पित द्रव्य ।
पाडवज्यु नहीं-अङ्गीकार नहीं गुरु-द्रव्य-गुरु - निमित्तका द्रव्य, किया।
गुरुके लिये कल्पित द्रव्य । पणिहाण जोग-जुत्तो नायव्वो॥ ज्ञान-द्रव्य-श्रुतज्ञानके निमित्तका इस गाथाके अर्थके लिये देखो द्रव्य ।
सूत्र २८, गाथा ४ । साधारण-द्रव्य--जो द्रव्य जिन- ईर्या -- समिति - ईर्या - समिति
विम्ब, जिन-चैत्य, जिनागम, ! सम्बन्धी अतिचार । साधु, साध्वी श्रावक और अन्य समिति और गुप्तियोंके श्राविका इन सातों क्षेत्र में जहाँ नाम आये वहाँ भी वापरने योग्य हो; वह साधा- ऐसा ही अर्थ समझना। रण द्रव्य ।
डगल-अचित्त मिट्टोके ढेले भक्षित-उपेक्षित - भक्षण करते आदि ।
समय उपेक्षा की हो। जीवाकुल -- भूमिकाए - जीवसे किसी के द्वारा उक्त द्रव्यका । व्याप्त भूमिपर। प्र० २९
जहा
___
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४४२
विशेषतः-खास कर ।
| विनायक-गणेश, गणपति । ज्ञानाचार, दर्शनाचार और | हनुमंत-हनुमान।
चारित्राचार इन तीन आ- | सुग्रीव-प्रसिद्ध राम-सेवक । चारोंका पालन प्रथम | वालोनाह-एक क्षेत्रपालका नाम सामान्य रीतिसे किया, | है । ( आबू तीर्थकी स्थापनामें कारण कि इन तीनों अति- मन्त्रीश्वर विमलके कार्य में चारोंकी बात साधु और जिसने विघ्न किया, और बादश्रावकोंके लिये प्रायः समान में वश हुआ।) ही लागू होती है। अब जूजूआ-पृथक् पृथक् । श्रावकके योग्य अतिचारका आतंक-सन्ताप, रोग, भय । वर्णन करनेका आरम्भ होने- सिद्ध-लोकमें 'सिद्ध' के रूपमें से विशेषतः ऐसा शब्द | प्रसिद्ध ।
प्रयोग किया है। जीराउला-मिथ्यात्वी देव (तीर्थ) संका-कंख-विगिच्छा । इस विशेष । गाथाके अर्थके लिये देखो सूत्र | भरडा-एक प्रकारके साधु । ३२ गाथा ६ ।
[ शिव भक्तोंकी एक जाति । क्षेत्रपाल-लौकिक देव जो कुछ
जिसकी मूढताके सम्बन्धमें क्षेत्रोंकी रक्षा करते हैं ।
'भरटक-द्वात्रिंशिका' आदि
में कथाएँ हैं ] गोगो-नागदेव । आसपाल-आशा-दिशाके पालने- J+
भगत-देवीको मानने वाले अथवा
लोकमें इस नामसे प्रसिद्ध वाले इन्द्रादिक दिक्पाल देव ।
व्यक्ति । पादर-देवता-गाँव-पादरके देव
पाठान्तरमे 'भगवंत' शब्द है।
लिंगिया-साधुका वेष धारण गोत्र-देवता-गोत्रके देव-देवी।। करनेवाले ! ग्रह-पूजा-ग्रहोंकी शान्तिके लिये | जोगिया-जोगीके नामसे प्रसिद्ध को जानेवाली पूजा।
साधु।
देवी।
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जोगी - योगकी साधना करनेवाले । दरवेश - मुसलमान फकीर ।
पाठान्तर में 'दूरवेश' शब्द है ।
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भूलाव्या- भुलाया । संवच्छास) रो - मरे हुए की वार्षिक तिथिके दिन ब्राह्मण आदिको
भोजन कराना | माही - पूनम - माघमास की पूर्णिमा । इस दिन विशिष्ट विधिसे स्नान किया जाता है । अजा-पडवो - ( आजो
- आश्विन मासके
प्रतिपदाका दिन ।
जिस दिन आज अर्थात् माता
पडवो )
पक्षकी
शुक्ल
महका श्राद्ध किया जाता है । प्रेतबीज - कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी द्वितीया, जो यमद्वितीया भी कहलाती है । गौरी - त्रीज - चैत्र शुक्ल तृतीया जब पुत्रकी इच्छावाली स्त्रियाँ गौरीव्रत करती है । विनायक - चोथ - भाद्रपद
शुक्ला चतुर्थीका दिन, जब विनायक अर्थात् गणपतिकी मुख्य पूजा होती है, उसको गणपति चोथ भी कहते हैं ।
नाग पंचमी - श्रावण शुक्ला पञ्चमी का दिन जब कि नाग - सर्पकी खास तौर पर पूजा की जाती है । कुछ श्रावण कृष्णा पञ्चमी को भी नागपञ्चमी कहते हैं । झोलणा-छट्ठी - श्रावण कृष्णा षष्ठी, जिसे राँधन छठ भी कहते हैं । शील-सातमी- -श्रावण
शुक्ला
( कृष्णा ) सप्तमीका दिन, जब कि ठण्डा भोजन किया जाता है, तथा शीतलादेवीकी पूजा की जाती है । कुछ प्रान्तों में चैत्र कृष्णा सप्तमीको भो यह पर्व मनाते हैं । ध्र व आठमी - भाद्रपद
शुक्लाअष्टमी, जिस दिन स्त्रियाँ गौरीपूजा आदि करती हैं । नौली - नोमी - ( नकुल- नवमी ) - श्रावण शुक्ला नवमीका दिन । अहवा - दशमी - अथवा ( अधवा )
दशमी । व्रत - अग्यारसी - एकादशी के व्रत । वच्छ-बारसी - आश्विन
कृष्णा
द्वादशी |
धन - तेरसी - आश्विन कृष्णा त्रयोदशीका दिन ।
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करना।
जिस दिन धन ( रुपयों ) को ईस्या-ऐसे । स्नान करा कर उसको पूजा | भोग-वांछित-भोगकी इच्छासे । की जाती है।
खीण-वचन - दीनतापूर्ण वचन अनन्त-चउदसी-भाद्रपद शुक्ला | बोलकर। ___ चतुर्दशीका दिन । दाक्षिण्य-लगे-दाक्षिण्यसे, विवेक आदित्यवार-रविवार, ग्रह पीड़ादि
। से, लोक-लज्जाके कारण। . दूर करने के लिये कुछ रविवारों- वह - बंध - छविच्छेए० । इस को एकाशन अथवा उपवास
गाथाके अर्थके लिये देखो सूत्र
३२, गाथा १. !
गाढो घाव घाल्यो-गहरा घाव उत्तरायण - मकर - सङ्क्रान्तिका |
किया हो, बहुत पीटा हो । दिन मानना। नबोलवाया पानी आये तावडे-धूपमें ।
तब उसकी खुशी में मनाया खराकानखजूरा। जानेवाला पर्व ।
सरवला-जन्तुविशेष ।
साहतां-पकड़ते हुए। याग-यज्ञ कराना।
विणछा-नष्ट हुए हों। भोग-ठाकुरजीको भोग-नैवेद्य धरना।
निध्वंसपणु-निर्दयता। उतारणां कीधां-उतार कराया।
| झोल्या-नहाये। ग्रहण--सूर्य – ग्रहण अथवा चन्द्र
| सहसा रहस्सदारे० ।। इस गाथाग्रहणका दिन ।
के अर्थ के लिये देखो सूत्र ३२, शनैश्चर-शनिवारका दिन ( शनि- |
गाथा १ । वारका व्रत करना )।
। कूणह प्रत्ये-किसीके प्रति । अजाणतां थाप्यां-अजान मनुष्यों
मंत्र-मन्त्रणा, विचार-विमर्श । द्वारा स्थापित।
आलोच-आलोचना-विचारणा। अनेराइ-दूसरे भी।
अनर्थ पाडवा-कष्टमें डालना। व्रत-व्रतोलां-छोटे-बड़े व्रत । थापण मोसोकोधो - धरोहरके आगर-खान, जत्था-समूह ।। बारेमें झूठ बोला हो ।
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कडकडा मोडया - तिरस्कार | शोक्यतणे विषे-सौतके सम्बन्धमें। कडाके किये ।
दृष्टि-विपर्यास कीधो - अनुचित तेनाहडप्पओगे० ॥ इस गाथा के दृष्टि डाली। अर्थके लिये देखो सूत्र ३२
घरघरणां-नाता-गन्धर्व विवाह । गाथा १४ ।
सुहणे-स्वप्नमें । अणमोकली - मालिकके भेजे
नट-नृत्य करनेवाला, वेष बनानेबिना।
वाला ( बहुरूपिया )। वहोरी-खरीद की। संबल-कलेवा, मार्ग में खाने योग्य विट - वेश्याका अनुचर, यार, सामान ।
कामुक। विरुद्ध - राज्यातिक्रम कीधो- हासु कोधु-हँसी की।
राज्यके नियमसे विरुद्ध वर्तन | धण-धन्न-खित्त-वत्थू० ॥ इस किया।
गाथाके अर्थ के लिये देखो सूत्र लेखे वरांस्यो - लेखेमें ठगा, ३२, गाथा १८ ।
हिसाबमें खोटा गिनाया। मर्छा लगे-मूर्छा आनेसे, माह सांटे लांच लोधी-अदला-बदली | होनेसे। ___करने में रिश्वत ली। गमणस्स य परिमाणे० ॥ इस कूडो करहो काढयो-झूठा बटाव गाथाके अर्थ के लिये देखो सूत्र - ( कटौती ) लिया ।
___३२, गाथा १९ । पासंग कूडां कोधां-झूठा धड़ा | किया।
पाठवणी-प्रस्थानके लिये रखनेकीपासंग-अर्थात् वजन करनेके
भेजनेकी वस्तु। लिये एक ओर रखा जाने- | एकगमा-एक ओर ।
वाला माप, धड़ा। हती-सम्बन्धी । अपरिग्गहिया इत्तर० ॥ इस | सचित्ते-पडिबद्ध०॥-इस गाथा
गाथाके अर्थके लिये देखो सूत्र | के अर्थके लिये देखो सूत्र ३२, ३२, गाथा १६ ।
गाथा २१ ।
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ओला-सिके हुए हरे चने, । महोर-आम आदिको मञ्जरी । होले।
। आँवल बोर-बड़े बेर । उंबी-गेहूँ, बाजरी, जव आदि
लगभग वेला-सूर्य अस्त होनेके धान्यके सिके हुए इंडिये।
समय । पोंक-जुवार, बाजरी आदिके कच्चे
वालू-साँझका भोजन। धान्यको सेक कर या भूनकर निकाले हुए कण ।
शीराव्या-कलेवा किया, प्रातः
कालका नाश्ता किया। पापडी-वालकी फलो, वालोरकी
रांगण-रङ्गका काम कराया। फली।
लिहाला कराव्या- कोलसे सचित्त-दव्व-विगई० ॥ इस
बनवाये। गाथाके अर्थ के लिये देखो सूत्र ३२, गाथा २८ का अर्थ |
दलीदो कीधो-तिल, गुड और
धानी एक साथ कूट कर खाद्य विस्तार ।
सामग्री बनायी। वाघरडां-सर्वथा नरम ककड़ी। अंगीठा-सिगड़ी, भट्ठी, चूल्हा वासी-एक दिन पूर्व बनाया | आदि । हुआ, बासी।
| सालही-वनके तोता-मैना । अधिक समय रहनेसे बिगड़ा |
| खरकर्मादिक-बहुत उग्र हिंसा हुआ पर्युषित अन्न । वासित शब्दसे बासी शब्द
हो ऐसे कार्य । बना है। यह विशेषण- संध्र क्या-फूंक कर जलाया। कठोल, पूरणपूरी और रोटी | कदप्पे कुक्कुश्ए०-इस गाथाके इन तीनोंको उद्देश करके अर्थके लिए देखो सूत्र ३२, कहा गया है।
__ गाथा २६ । ओदन-राँधे हुए चावल।
कंदर्प लगे-काम-वासनासे । करहा-ओले, बरसातो बर्फ के | विटचेष्टा-अधम कोटिकी शृङ्गार
चेष्टा।
टुकड़े।
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क
४४७ तांत-निन्दा (दूसरेकी पञ्चायत)। आहट्ट दोहट्ट-आर्त-रौद्र प्रकार
चिकना तार ताँत कहलाता | का। चाहे जैसा अनुचित । है। उसी परसे जो बात खूब
उज्जोही-प्रकाश । बार-बार छान-बीन कर फिर कही जाय, उसे भी ताँत ।
| आभड्यां-स्पर्श किया। कहते हैं।
अणपूग्यू-पूर्ण हुये बिना। निसाह (र)-चटनी आदि पीसने
आणवणे पेसवणे०॥-इस गाथाकी शिला।
के अर्थके लिये देखो सूत्र ३२, दाक्षिण्य लगे - दाक्षिण्यसे, गाथा २८ । लज्जासे।
छतुं-प्रकट। अंघोले-सामान्य स्नान करनेसे । संथारुच्चारविहि० ॥ इस गाथान्हाणे-विधि-पूर्वक स्नान करनेसे । के अर्थ के लिये देखो सूत्र ३२, दांतणे-दतौन - दन्तधावन करते गाथा २९ । समय।
बाहिरला-बाहरके । पग धोवणे-पाँव धोनेके समय ।।
लहुडा वडा स्थण्डिल-लघु नीति खेल-ताक साफ करते समय ।
। और बड़ी नीति मलमूत्र ) झोलणे झोल्या-तालाबमें नहाये।
.. करनेकी भूमि । संभेडा लगाड्या-परस्पर झगड़ा
'अणुजाणह जस्सुग्गहो'-जिनके ___ करवाया।
अवग्रहमें जगह हो, वे मुझे हुडु--भेड़।
उपयोगमें लेनेकी आज्ञा दें। झंझार्या-लड़ाये।
वोसिरे-त्याग करता हूँ। खादी लगे-हार जानेसे । | पोरिसीमांहि - रात्रिके पहले आली-गोली।
__ प्रहरमें। तिविहे दुप्पणिहाणे० ॥-इस असूरो लोधो-विलम्बसे ग्रहण
गाथाके अर्थके लिये देखो किया ।। सूत्र ३२, गाथा २७ । । सवेरो-जल्दी, समयसे पूर्व ।
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४४८
सचित्ते निक्खिवणे०॥ इस | निरादरपणे-आदर विना, बहु
गाथाके अर्थके लिये देखो सूत्र | मान विना । ३२ गाथा ३० ।
नाणाइ-अट्ट-ज्ञानादिक आठ । बुद्ध-बुद्धिसे ।
अर्थात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार टली-दूसरे काम पर गया (निवृत्त | और चारित्राचार इन प्रत्येकके हुआ।
आठ आठ, कुल चौबीस । क्षीण-दुःखी।
पइवय-प्रतिव्रत, प्रत्येक व्रतके, अनुकंपा-दान-दयाकी भावनासे स्थूल- प्राणातिपात - विरमण प्रेरित होकर दान देना।
आदि बारह व्रतोंके । इए लोए परलोए० ॥ इस गाथा- सम्म-संलेहण - सम्यक्त्व तथा
के अर्थके लिये देखो सूत्र ३२, . संलेखनाके । गाथा ३३ ।
पण-पाँच अणसणमणोअरिआ० ॥ इस बारह व्रत, सम्यक्त्व और
गाथाके अर्थके लिये देखो सूत्र संलेखना, इन प्रत्येकके पाँच २८, गाथा ६।
पाँच, इस तरह कुल सत्तर । फेड्यो नहि-रोका नहीं। पन्नर कम्मेमु-पन्द्रह कर्मादानके काचं पाणी-तीन उफान नहि
पन्द्रह। आया हुआ गरम पानी अथवा
बारस-तव-बारह प्रकारके तपके अचित्त नहीं किया हुआ पानी।
बारह ।
वीरिअतिगं-वीर्याचारके तीन । पायच्छित्तविणओ० ।। इस
चउवीस-सयं- अइआरा - इस गाथाके अर्थके लिये देखो सूत्र
प्रकार सब मिलाकर एकसौ २८, गाथा ७ ।
चौबीस अतिचार । लेखां शुद्ध-पूरी गिनतीपूर्वक।
२४+७०+१५+१२+३=१२४ । अणिगहिअ- बल -- वीरिओ०- प्रतिषेध-निषिद्ध किये हुए।
इस गाथाके अर्थके लिये देखो | कुमति लगे-मिथ्या बुद्धिसे । सूत्र २८, गाथा ८। | चिहुँ-चार।
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४४९ अर्थ-सङ्कलना
स्पष्ट है। सूत्र-परिचय
इस सूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व, बारह व्रत, संलेखना तफर और वीर्य के अतिचारोंका विस्तारसे वर्णन किया है।
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हिन्दी पाक्षिक-अतिचार नाणम्मि दंसणम्मि अ, चरणम्मितवम्मितह य वीरियम्मि।
आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ॥१॥ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार, इन पांचों आचारों में जो कोई अतिचार पक्ष, दिवस में* सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ।
तत्र ज्ञानाचार के आठ अतिचार"काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिण्हवणे । वंजण-अत्थ-तदुभये अट्ठ-विहो नाणमायारो" ॥२॥
ज्ञान नियमित समय में पढ़ा नहीं। अकाल समय में पढ़ा। विनय रहित, बहुमान रहित योगोपधानरहित पढ़ा। ज्ञान जिस से पढ़ा उससे अतिरिक्त को गुरु माना या कहा । देववंदन, गुरुवंदन करते हुए तथा प्रतिक्रमण, सज्झाय पढ़ते या गुणते अशुद्ध अक्षर कहा । काना, मात्रा न्यूनाधिक कही, सूत्र असत्य कहा।
*चउमासी प्रतिक्रमण में इन पांचों आचारों में जो कोई अतिचार चउमासीअ दिवस से सूक्ष्म आदि, संवच्छरीअ प्रतिक्रमण में इन पांचों आचारों में जो कोई अतिचार संवच्छरीअ दिवस में सूक्ष्म आदि पढ़ना चाहिये ।
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अर्थ अशुद्ध किया । अथवा सूत्र और अर्थ दोनों असत्य कहे । पढ़कर भूला । असज्झाय के समय में थविरावली, प्रतिक्रमण, उपदेशमाला आदि सिद्धांत पढ़ा। अपवित्र स्थान में पढ़ा या बिना साफ की हुई घृणित ( खराब ) भूमि पर रखा । ज्ञान के उपकरण तख्ती, पोथी, ठवणी, कवली, माला, पुस्तक रखने की रील, काग़ज़, कलम, दवात, आदि के पैर लगा, थूक लगा, अथवा थूक से अक्षर मिटाया, ज्ञान के उपकरण को मस्तक के नीचे रखा, अथवा पास में लिए हुए आहार, निहार किया, ज्ञान- द्रव्य भक्षण करने वाले की उपेक्षा की, ज्ञान- द्रव्य की सार-संभाल न की, उल्टा नुकसान किया, ज्ञानवान के ऊपर द्वेष किया, ईर्ष्या की, तथा अवज्ञा, आसातना की, किसी के पढ़नेगुणने में विघ्न डाला, अपने जानपने का मान किया । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान, इन पांचों ज्ञानों में श्रद्धा न की । गूंगे, तातले की हँसी की । ज्ञान में कुतर्क किया, ज्ञान के विपरीत प्ररूपणा की । इत्यादि ज्ञानाचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ।
दर्शनाचार के आठ अतिचार
" निस्संकिय निक्कखिय, निव्विडिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ ।
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उववह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥३॥
देव गुरु-धर्म में निःशंक न हुआ । एकांत निश्चय न किया। धर्मसंबंधी फल में संदेह किया । साधु-साध्वी की जुगुप्सा-निंदा की । मिथ्यात्वियों की पूजा प्रभावना देख कर मूढ़दृष्टि पना किया। कुचारित्री को देख कर चारित्रवान पर भी अश्रद्धा की। संघ में गुणवान् को प्रशंसा न की। धर्म से पतित होते हुए जीव को स्थिर न किया । साधर्मी का हित न चाहा । भक्ति न की । अपमान किया। देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारण द्रव्य की हानि होते हुए उपेक्षा की। शक्ति होने पर भी भली प्रकार सार-संभाल न की। साधर्मी से कलह-क्लेश करके कर्मबंधन किया । मुखकोश बांधे विना वीतराग देव की पूजा की। धूपदानी, खसकूची, कलश आदिक से प्रतिमा जी को ठपका लगाया, जिन बिंब हाथ से गिरा । श्वासोच्छवास लेते हुए आसातना हुई। जिन मन्दिर तथा पौषधशाला में थूका, तथा मल-श्लेष्म किया, हँसी मस्करी की, कुतूहल किया। जिनमन्दिर संबंधी चौरासी आसातनाओं में से और गुरु महाराज संबंधी तैंतीस आसातनाओं में से कोई आसातना हुई हो ! स्थापनाचार्य हाथ से गिरे हों या उन की पडिलेहणा न की हो । गुरु के वचन को मान न दिया हो, इत्यादि दर्शनाचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या वादर
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जानते, अजानते लगा हो वह सब मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
चारित्राचार के आठ अतिचार“पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समईहिं तीहि गुत्तीहि । एस चरित्तायारो, अट्ठ विहो होइ नायव्वो" ॥४॥
ईया-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदानभंडमत्त-निक्षेपणा-समिति और पारिष्ठा-पनिका-समिति. मनोगुप्ति, वचन-गुप्ति और काया-गुप्ति, ये आठ प्रवचन-माता सामायिक पौषधादिक में अच्छी तरह पाली नहीं। चारित्राचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते आजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
विशेषतः श्रावक-धर्म संबंधी श्री-सम्यक्त्व मूल बारह व्रत । सम्यक्त्व के पाँच अतिचार—"संका कंख विगिच्छा" शंका :-श्री अरिहंत प्रभु के बल अतिशय ज्ञान, लक्ष्मी, गांभीर्यादि-गुण शाश्वती-प्रतिमा चरित्रवान् के चारित्र में तथा जिनेश्वर देव के वचन में संदेह किया। आकांक्षा :ब्रह्मा, विष्णु, महेश, क्षेत्रपाल, गरुड, गूगा, दिक्पाल, गोत्रदेवता, नव-ग्रह पूजा, गणेश, हनुमान, सुग्रीव, वाली, माता मसानी, आदिक तथा देश, नगर, ग्राम, गोत्र के अलग अलग देवादिकों का प्रभाव देखकर, शरीर में रोगांतिक
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कष्टादि आने पर इहलोक परलोक के लिए पूजा मानता की। बौद्ध, सांख्यादिक संन्यासी, भगत, लिंगिये जोगी, फकीर, पीर इत्यादि अन्य दर्शनियों के मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र के चमत्कार देखकर परमार्थ जाने बिना मोहित हुआ। कुशास्त्र पढ़ा, सुना । श्राद्ध, संवत्सरी, होली, राखडी पूनम (राखी) अजा-एकम, प्रेत दूज, गौरी ताज, गणेश चौथ, नागपंचमी स्कंद षष्ठ, झीलणा छठ, शील सप्तमी, दुर्गाष्टमी, रामनौमी, विजया-दशमी, एकादशी-व्रत, वामन-द्वादशी, वत्सद्वादशी, धन-तेरस, अनंत-चौदस, शिव-रात्री, काली-चौदस, अमावस्या, आदित्यवार, उत्तरायण याग-भोगादि किये, कराये, करते हुए को भला माना। पीपल में पानी डाला, डलवाया । कुआँ, तालाब, नदो, द्रह, बावड़ी, समुद्र, कुड ऊपर पुण्य निमित्त स्नान तथा दान किया, कराया, या अनुमोदन किया । ग्रहण, शनिश्चर, माघ मास, नवरात्रि का स्नान किया। नवरात्रि व्रत किया । अज्ञानियों के माने हुए व्रतादि किये, कराये । वितिंगिच्छा:-धर्म संबंधी फल में सदेह किया। जिन वीतराग अरिहंत भगवान् धर्म के आगार विश्वोपकार-सागर, मोक्षमार्ग दातार इत्यादि गुणयुक्त जान कर पूजा न की। इस-लोक परलोक सम्बन्धी भोग-वांछा के लिए पूजा की । रोगांतिक कष्ट के आने पर क्षीण वचन बोला । मानता मानी। महात्मा, महासती के आहार पानी
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आदि की निंदा की। मिथ्यादृष्टि की पूजा-प्रभावना देख कर प्रशंसा तथा प्रीति की । दाक्षिण्यता से उसका धर्म माना । मिथ्यात्व को धर्म कहा। इत्यादि श्री-सम्यक्त्व व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुकडं।
पहले स्थूल-प्राणातिपात-विरमण-व्रत के पाँच अतिचार--"वह बंध छविच्छेए" द्विपद, चतुष्पद आदि जीव को क्रोध-वश ताडन किया, घाव लगाया, जकड़ कर बांधा। अधिक बोझ लादा। निर्वांछन-कर्म, नासिका छिदवायी, कर्ण छेदन करवाया, खस्सी किया । दाना घास पानी की समय पर सार-संभाल न की, लेन देन में किसी बदले किसी को भूखा रखा, पास खड़ा होकर मरवाया, कैद करवाया। सड़े हुए धान को बिना सोधे काम में लिया, तथा अनाज बिना शोधे पिसवाया, धूप में सुखाया। पानी यतना से न छाना । इंधन, लकड़ी, उपले, गोहे आदि विना देखे जलाये उनमें सर्प, बिच्छू, कानखजूरा, कीड़ी, मकौड़ी, सरोला, मांकड, जुआ, गिंगोड़ा आदि जीदों का नाश हुआ । किसी जीव को दबाया, दुःख दिया । दुःखी जीव को अच्छी जगह पर न रखा। चूंटी ( कोड़ी) मकोड़ी के अंडे नाश किये लीख, फोडा, दीमक, कीड़ी, मकोड़ी, घीमेल, कातरा,
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चूडेल, पतंगिआ, देडका, अलसियां, ईअल, कूदा, डांस, मसा, मगतरां, माखी, टिड्डी प्रमुख जीव का नाश किया । चील, काग, कबूतर आदि के रहने की जगह का नाश किया। घौंसले तोड़े । चलते फिरते या अन्य कुछ काम काज करते निर्दयपना किया। भली प्रकार जीव रक्षा न की। बिना छाने पानी से स्नानादि काम-काज किया, कपड़े धोये । यतना-पूर्वक काम-काज न किया । चारपाई, खटोला, पीढ़ा, पीढ़ी आदि धूप में रखे । डंडे आदि से झटकाये । जीवाकुल (जीव संसक्त) जमीन को लीपा । दलते. कूटते, लीपते या अन्य कुछ काम-काज करते यतना न की । अष्टमी, चौदस, आदि तिथि का नियम तोड़ा। धूनी करवाई, इत्यादि पहले स्थूल-प्राणातिपात-विरमण-व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या वादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं । __दूसरे स्थूल-मृषावाद-विरमण-व्रत के पाँच अतिचार"सहसा रहस्सदारे" सहसाकार-विना विचारे एक दम किसी को अयोग्य आल कलंक दिया। स्व-स्त्री सम्बन्धी गुप्त बात प्रगट की, अथवा अन्य किसी का मंत्र-भेद, मर्म प्रकट किया । किसी को दुःखी करने के लिए खोटी सलाह दी, झूठा लेख लिखा, झूठी साक्षी दी। अमानत ते खयानत की । किसी की धरोहर रखी हुई वस्तु वापिस न दी। कन्या,
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४५७ गौ, भूमि सम्बन्धी लेन-देन में लड़ते-झगड़ते, वाद-विवाद में मोटा झूठ बोला । हाथ-पैर आदि को गाली दी । मर्म वचन बोला। इत्यादि दसरे स्थल-मृषावाद-विरमण-व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
तीसरे स्थूल-अदत्तादान-विरमण-व्रत के पाँच अतिचार"तेनाहडप्पओगे.” घर, बाहिर, खेत, खला में, बिना मालिक के भेजे वस्तु ग्रहण की, अथवा आज्ञा बिना अपने काम में ली । चोरी की वस्तु ली। चोर को सहायता दी । राज्य-विरुद्ध कर्म किया। अच्छी, बुरी, सजीव, निर्जीव नई पुरानी वस्तु का मेल संमेल किया। जकात की चोरी की, लेते देते तराजू की डंडी चढ़ाई। अथवा देते हुए कमती दिया, लेते हुए अधिक लिया, रिश्वत खाई । विश्वास-घात किया, ठगी की, हिसाब-किताब में किसी को धोखा दिया। माता, पिता, पुत्र, मित्र, स्त्री आदिकों के साथ ठगी कर किसी को दिया, अथवा पूजी अलहदा रखी। अमानत रखी हुई वस्तु से इन्कार किया। पड़ी हुई चीज उठाई, इत्यादि तीसरे स्थूल अदत्तादान विरमण-व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
प्र० ३०
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४५८ चौथे स्वदारा-संतोष-परस्त्री-गमन-विरमण-व्रत के पाँच अतिचार- "अप्परिगहिया इत्तर" परस्त्री गमन किया । अविवाहिता, कुमारी, विधवा, वेश्यादिक से गमन किया। अनंगक्रीड़ा की। काम आदि की विशेष जागृति की अभिलाषा से सराग वचन कहा। अष्टमी, चौदस आदि पर्वतिथि का नियम तोड़ा । स्त्री के अंगोपांग देखे, तीत्र अभिलाषा की। कुविकल्प चिंतन किया । पराये नाते जोड़े । गुड्डेगुड्डियों (ढींगला ढींगली) का विवाह किया या कराया । अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, स्वप्न, स्वप्नांतर हुआ । कुस्वप्न आया । स्त्री, नट, विट, भांड, वेश्यादिक से हास्य किया। स्वस्त्री में सन्तोष न किया, इत्यादि चौथे स्वदारासंतोष-परस्त्री-गमन-विरमण-व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
पांचवें स्थूल-परिग्रह-परिमाण-व्रत के पांच अतिचार"धण-धन्न-खित्त-वत्थू०" धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, सोना चांदी. बर्तन आदि द्विपद-दास, दासी.-चतुष्पद-गो. बैल, घोड़ा आदि, नव प्रकार के परिग्रह का नियम न लिया, लेकर बढ़ाया । अथवा अधिक देखकर मूर्छा-वश माता, पिता, पुत्र, स्त्री के नाम किया। परिग्रह का परिमाण नहीं किया । करके भुलाया । याद न किया। इत्यादि पांचवें
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४५९ स्थूल-परिग्रह-परिमाण-व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते. अजानते लगा हो. वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ।
छट्टे दिक-परिमाण-व्रत के पांच अतिचार-"गमणस्स उ परिमाणे." ऊर्ध्व-दिशि, अधो-दिशि, तिर्यग्-दिशि जानेआने के नियमित परिमाण उपरांत भूल से गया। नियम तोड़ा । परिमाण उपरांत सांसारिक कार्य के लिये अन्य देश से वस्तु मँगवाई । अपने पास से वहाँ मेजी । नौका-जहाज़ आदि द्वारा व्यापार किया । वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम में गया । एक दिशा से परिमाण को कम दिशा में अधिक गया। इत्यादि छठे दिक्-परिमाण व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं । ___ सातवें भोगोपभोग-व्रत के भोजन आश्रित पाँच अतिचार और कर्म आश्रित पंद्रह अतिचार-"सच्चित्ते पडिबद्धे." सचित्त, खान-पान की वस्तु नियम से अधिक स्वीकार की। सचित्त से मिली हुई वस्तु खाई । तुच्छ औषधि का भक्षण किया। अपक्क आहार, दुपक्क आहार किया । कोमल इमली, बूँट,* भुट्टे, फलियां आदि वस्तु खाई। सचित्त१- दव्वर
* हरे चने ।
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विगई,३-वाणह४-तंबोल५-वत्थ६-कुसुमेसु। बाहण८-सयण९विलेवण१०-बंभ११-दिसि१२-णहाण१३-भत्तेसु१४ ॥ १ ॥ ये चौदह नियम लिये नहीं, ले कर भुलाये। बड़,१ पीपल,२ पिलंखण३ कलुबर,४ गूलर,५ ये पाँच फल, मदिरा,६ मांस,७ शहद,८ मक्खन९ ये चार महाविगई, बरफ,१० ओले११ कच्ची मिट्टी, (विष)१२ रात्रि-भोजन,१३ बहु-बीजाफल,१४ अचार,१५ घोलवडे, १६ द्विदल,१७ बेंगण,१८ तुच्छफल, १९ अजाना-फल,२० चलित-रस,२१ अनंतकाय,२२ ये बाईस अभक्ष्य । सूरन-जिमीकंद, कच्ची-हलदी, सतावरी, कच्चा नरकचूर, अदरक, कुवांरपाठा, थोर, गिलोय, लसुन, गाजर, गठा-प्याज, गोंगलू, कोमल-फल-फूल-पत्र, थेगी, हरा मोत्था, अमृत वेल, मूली, पदबहेडा, आलू, कचालू, रताल, पिंडाल, आदि अनंतकाय का भक्षण किया । दिवस अस्त होने पर भोजन किया । सूर्योदय से पहले भोजन किया। तथा कर्मतः पंद्रह-कर्मादान :-इंगाल-कम्मे, वणकम्मे, साडि-कम्मे, आडी-कम्मे फोडी-कम्मे, ये पांच कर्म । दंत-वाणिज्ज, लक्ख-वाणिज, रस-वाणिज, केस-वाणिज, विस-वाणिज, ये पांच वाणिज्ज । जंत पिल्लण-कम्म, निल्लंछनकम्म, दवग्गिदावणिया, सर-दह-तलाय-सोसणया, असइ पोसणया ये पाँच सामान्य, कुल पंद्रह कर्मादान महा आरम्भ किये कराये करते हुए को अच्छा समझा । श्वान बिल्ली आदि पोषे पाले महासावध पापकारी कठोर काम किया। इत्यादि सातवें
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४६१ . भोगोपभोग व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं।
आठवें अनर्थदंड के पांच अतिचार-"कंदप्पे कुक्कुइए." कंदर्पः-कामाधीन होकर नट, विट वेश्या आदि से हास्य खेल क्रीडा कुतूहल किया। स्त्री पुरुष के हाव-भाव, रूप, शृंगार संबंधी वार्ता की। विषय-रस-पोषक कथा की, स्त्रीकथा, देश-कथा, भक्त-कथा, राज-कथा, ये चार विकथाएँ की । पराई भांजगढ़ की। किसी की चुगलखोरी की । आर्त्तध्यान, रौद्र-ध्यान ध्याया। खांडा, अटार, कशि, कुल्हाड़ी, रथ, ऊखल,मूसल, अग्नि, चक्की आदि वस्तुएँ दाक्षिण्यता-वश किसी को मांगी दीं। पापोपदेश दिया । अष्टमी चतुर्दशी के दिन दलने-पीसने आदि का नियम तोड़ा। मूर्खता से असंबद्ध वाक्य बोला । प्रमादाचरण सेवन किया । घी, तैल, दूध, दही, गुड़, छाछ आदि का भाजन खुला रखा, उसमें जीवादि का नाश हुआ । बासी मक्खन रखा और तपाया। नहाते-धोते दातुन करते जीव आकुलित मोरी में पानी डाला। झूले में झूला । जुआ खेला । नाटक आदि देखा । ढोर (डंगर) खरीदवाये । कर्कश बचन कहा । किचकिची ली। ताडना-तर्जना की । मत्सरता धारण की । शाप दिया । भैंसा, साँढ, मेंढा, मुरगा, कुत्ते, आदि लड़वाये या इनकी लड़ाई
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४६२ देखी । ऋद्धिमान् की ऋद्धि देख ईर्षा की । मिट्टी, नमक, धान, बिनोले बिना कारण मसले । हरी वनस्पति बूंदी। शस्त्रादि बनवाये । रागद्वेष के वश से एक का भला चाहा एक का बुरा चाहा । मृत्यु की वांछा की। मैना. तोते, कबूतर, बटेर, चकोर आदि पक्षियों को पिंजरे में डाला । इत्यादि आठवें अनर्थ-दंड-विरमण-ब्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥ . नवमें सामायिक व्रत के पांच अतिचार-"तिविहे दुप्पणिहाणे०" सामायिक में संकल्प विकल्प किया। चित्त स्थिर न रखा । सावध वचन बोला । प्रमार्जन किये विना शरीर हिलाया, इधर उधर किया । शक्ति होने पर भी सामायिक न किया । सामायिक में खुले मुंह बोला । नींद ली । विकथा की । घर संबंधी विचार किया। दीपक या बिजली का प्रकाश शरीर पर पड़ा । सचित्त वस्तु का संघट्टन हुआ। स्त्री तियच आदि का निरंतर परस्पर संघट्टन हुआ । मुहपत्ति संघट्टी । सामायिक अधूरा पारा, बिना पारे उठा। इत्यादि नवमें सामायिक व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
दसवें देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचार-"आणवणे
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४६३ पेसवणे० आणवण-प्पओगे, पेसवण-प्पओगे, सदाणुवाई, रूवाणुवाई बहिया-पुग्गल-पक्खेवे । नियमित भूमि में बाहिर से वस्तु मंगवाई । अपने पास से अन्यत्र भिजवाई । खुंखारा आदि शब्द करके, रूप दिखाके या कंकर आदि फेंक कर अपना होना मालूम कराया। इत्यादि दसवें देशावकाशिक व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
ग्यारहवें पौषधोपवास व्रत के पांच अतिचार 'संथारुच्चार विही .' अप्पडिलेहिअ, दुप्पडि-लेहिअ, सिज्जासंथारए । अप्पडिलेहिय दुप्पडि-लेहिय उच्चार पासवण भूमि । पौषध लेकर सोने की जगह बिना पूजे-प्रमाजें सोया । स्थंडिल आदि की भूमि भली प्रकार शोधी नहीं । लघु-नीति बड़ी-नीति करने या परठने के समय "अणुजाणाह जस्सुग्गहो" न कहा। परठे बाद तीन बार 'वोसिरे' न कहा । जिनमंदिर और उपाश्रय में प्रवेश करते हुए 'निसीहि' और बाहिर निकलते हुए 'आवस्सही' तीन बार न कही । वस्त्र आदि उवधि की पडिलेहणा न की। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय का संघट्टन हुआ। संथारा पोरिसी पढ़नी भुलाई। बिना संथारे ज़मीन पर सोया। पोरिसी में नींद ली, पारना आदि की चिंता की। समय पर,
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देववंदन न किया, प्रतिक्रमण न किया। पौषध देरी से लिया और जल्दी पारा, पर्व-तिथि को पोसह न लिया। इत्यादि ग्यारहवें पौषध व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
बारहवें अतिथि-संविभाग व्रत के पाँच अतिचार'सचित्ते निक्खिवणे०' सचित्त वस्तु के संघट्टे वाला अकल्पनीय आहार पानी साधु-साध्वी को दिया। देने की इच्छा से सदोष वस्तु को निर्दोष कही। देने की इच्छा से पराई वस्तु को अपनी कही । न देने की इच्छा से निर्दोष वस्तु को सदोष कही । न देने की इच्छा से अपनी वस्तु को पराई कहा । गोचरी के समय इधर-उधर हो गया । गोचरी का समय टाला । वेवक्त साधु महाराज से प्रार्थना की । आये हुए गुणवान् की भक्ति न की । शक्ति के होते हुए स्वामीवात्सल्य न किया। अन्य किसी धर्मक्षेत्र को पड़ता देख कर मदद न की। दीन-दुखी पर अनुकंपा न की । इत्यादि बारहवें अतिथि-संविभाग-व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
संतोषणा के पांच अतिचार- "इहलोए परलोए०" इहलोगासंसप्पओगे परलोगा-संसप्पओगे । जीविआसंसप्पओगे।
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मरणासं-सप्पओगे । कामभोगासंसप्पओगे । धर्म के प्रभाव से इह लोक संबंधी राजऋद्धि भोगादि की वांछा की । परलोक में देव. देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदवी की इच्छा की । सुखी अवस्था में जीने की इच्छा की । दुःख आने पर मरने की वांछा की । इत्यादि संलेखणा-व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
तपाचार के बारह भेद-छः बाह्य छःआभ्यंतर। "अणसणमूणोअरिया०" अनशनः-शक्ति के होते हुए पर्वतिथि को उपवास आदि तप न किया । ऊनोदरी:-दो चार ग्रास कम न खाये । वृत्तिसंक्षेपः-द्रव्य-खाने की वस्तुओं का संक्षेप न किया । रस-विगय त्याग न किया । कायक्लेश-लोच आदि । कष्ट न किया। संलीनता-अंगोपांग का संकोच न किया । पञ्चक्खाण तोड़ा । भोजन करते समय एकासणा, आयंबिल, प्रमुख में चौकी, पटड़ा, अखला आदि हिलता ठीक न किया। पञ्चक्खाणा पारना भुलाया, बैठते नवकार न पढ़ा । उठते पञ्चक्खाण न किया। निवि, आयंबिल, उपवास आदि तप में कच्चा पानी पीया । वमन हुआ । इत्यादि बाह्य तप संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से. मिच्छामि दुक्कडं ॥
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४६६ आभ्यंतर तप-"पायछित्तं विणओ०" शुद्ध अंतःकरण पूर्वक गुरु महाराज से आलोचना न ली। गुरु की दी हुई आलोचना संपूर्ण न की। देव, गुरु, संघ, साधर्मी का विनय न किया। बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी आदि की वेयावच्च (सेवा) न की। वाचना, पृच्छना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा रूप पांच प्रकार का स्वाध्याय न किया। धर्म-ध्यान, शुक्लध्यान ध्याया नहीं । आर्त्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान ध्याया। दुःखक्षय, कर्म-क्षय निमित्त दस बीस लोगस्स का काउस्सग्ग न किया । इत्यादि आभ्यंतर (भीतरी) तप संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
वीर्याचार के तीन अतिचार-'अणिगृहिअबल-विरिओ०' पढ़ते, गुणते, विनय वेयावच्च, देवपूजा, सामायिक, पौषध, दान, शील, तप, भावनादिक धर्म-कृत्य में, मन, वचन, काया का बल-वीर्य पराक्रम फोरा नहीं । विधिपूर्वक पंचांग खमासमण न दिया । द्वादशावते वंदन की विधि भली प्रकार न की । अन्य चित्त निरादर से बैठा । देव वंदन, प्रतिक्रमण में जल्दी की, इत्यादि वीर्याचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
"नाणाई अट्ठ पइवय, समसंलेहण पण पन्नर कम्मेसु ।
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बारस तब विरिअ तिगं, चउव्वीसं सय अइयारा ॥"
"पडिसिद्धाणं करणे०" प्रतिषेध-अभक्ष्य अनंतकाय बहुबीज भक्षण, महारंभ, परिग्रहादि किया । देवपूजन आदि षट्कर्म, सामायिकादि छह आवश्यक, विनयादिक, अरिहंत की भक्ति प्रमुख करणीय कार्य किये नहीं । जीवाजीवादि सूक्ष्म विचार की सद्दहणा न की । अपनी कुमति से उत्सुत्र प्ररूपणा की तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, माया-मृषावाद, मिथ्यात्व-शल्य, ये अठारह पाप-स्थान किये, कराये, अनुमोदे । दिनकृत्य प्रति-क्रमण, विनय, वैयावृत्य न किया । और भी जो कुछ वीतराग की आज्ञा से विरुद्ध किया, कराया या अनुमोदन किया। इन चार प्रकार के अतिचारों में जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
एवंकारे श्रावकधर्म सम्यक्त्व मूल बारह व्रत संबंधी एक सौ चौबीस अतिचारों में से जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
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उपयोगी विषयोंका सङ्ग्रह
[१]
मुहपत्तीके पचास बोल
मुहपत्ती पsिहण के सम्बन्ध में अधोलिखित पचास बोल विचारे
जाते हैं:
सूत्र, अर्थ, तत्त्व करी सहहूँ ।
सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय परिहरू ।
कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग परिहरू । सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, आदरूँ ।
कुदेव, कुगुरु, कुधर्मं परिहरू ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरू ।
ज्ञान - विराधना, दर्शन - विराधना, चारित्र - विराधना परिहरू । ३ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति आदरू ।
मनो-दण्ड, वचन - दण्ड, काय - दण्ड- परिहरू ।
हास्य, रति, अरति परिहरू ।
भय, शोक, जुगुप्सा परिहरू ।
कृष्ण - लेश्या, नील- लेश्या, कापोत- लेश्या परिहरू ।
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४६९ रसगारव, ऋद्धिगारव, सातागारव परिहरू । मायाशल्य, नियाणशल्य, मिथ्यात्वशल्य परिहरू। क्रोध, मान परिहरू। माया, लोभ परिहरू। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकायकी रक्षा करू । वायुकाय, वनस्पतिकाय त्रसकायकी जयणा करूँ।
سه له لم لم له له زه
वृद्धसम्प्रदायके अनुसार ये 'बोल' मनमें बोले जाते हैं और इनका अर्थ विचारा जाता है । इसमें 'उपादेय' और 'हेय' वस्तुओंका विवेक अत्यन्त बुद्धिमानीसे किया गया जैसे कि--प्रवचन यह तीर्थस्वरूप है, इसलिए प्रथम इसके अङ्गरूप 'सूत्र और अर्थको तत्त्वपूर्वक श्रद्धा करनी' अर्थात् सूत्र और अर्थ दोनोंका तत्त्वरूप-सत्यरूप मानकर उसमें श्रद्धा रखनी चाहिये और उस श्रद्धामें अन्तरायरूप “सम्यक्त्व-मोहनीय, मिश्र-मोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय" ये तीन प्रकारके मोहनीय कर्म होनेसे इनका त्याग करनेकी भावना करनी चाहिये। मोहनीय कर्ममें भी राग मुख्यरूपेण परिहरणीय है। उसमें प्रथम 'कामराग, फिर स्नेहराग और अन्तमें दृष्टिरागको छोड़ना चाहिये; क्योंकि उक्त प्रकारका राग दूर हुए बिना सुदेव, सुगुरु और सुधर्मका आदर नहीं हो सकता। यहाँ सुदेव, सुगुरु और सुधर्मकी महत्ताका विचार कर उनका आदर
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करनेकी भावना करनी चाहिये । तथा कुदेव, कुगुरु और कुधर्मको परिहरनेका दृढ़ सङ्कल्प करना चाहिये। यदि इतना हो तो ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी आराधना जिसका कि दूसरा नाम 'सामायिक' है, उसको साधना यथार्थरूपमें हो सके। ऐसी आराधना करनेके लिये 'ज्ञान-विराधना, दर्शन-विराधना और चारित्र-विराधनाका परिहरण आवश्यक है। संक्षेपमें 'मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति' आदरणीय अर्थात् उपादेय है और 'मनोदण्ड, वचनदण्ड एवं कायदण्ड' परिहरणीय हैं।
इस प्रकार 'उपादेय' और 'हेय' के सम्बन्धमें भावना करके फिर जो वस्तुएँ खास तौरपर त्याज्य हैं तथा जिनके बारेमें यतना करने खास आवश्यकता है, उसका विचार 'शरीरकी पडिलेहणा' के प्रसङ्गपर करना चाहिये, जो इस प्रकार है। ___ 'हास्य, रति, अरति परिहरू', तथा “भय, शोक, जुगुप्सा परिहरू' अर्थात् हास्यादि षट्क जो चारित्र मोहनीय-कषायप्रकृतिसे उत्पन्न होता है, उसका त्याग करू; जिससे मेरा चारित्र सर्वांशमें निर्मल बने ।
"कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या परिहरू क्योंकि इन तीनों लेश्याओं में अशुभ अध्यवसाओंकी प्रधानता है और उसका फल आध्यात्मिक पतन है।
"रसगारव, ऋद्धिगारव और सातागारव परिहरूँ" क्योंकि इसका फल भी साधनामें विक्षेप और आध्यात्मिक पतन है।
इसके साथ "मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यात्वशल्य भी
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परिहरूं" क्यों कि ये धर्मकरणीके अमल्य फलका नाश करनेवाले हैं।
इन सबका उपसंहार करते हुए मैं ऐसी भावना रखता हूं कि 'क्रोध और मान तथा माया और लोभ; परिहरू" जो कि क्रमशः राग और द्वेषके स्वरूप हैं। और सामायिक साधनाको सफल बनानेवाली जो मैत्री-भावना है, उसको मैं यथाशक्य प्रयोगमें लाकर 'पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय' इन छ: कायोंके जीवोंकी यतना करूं।' यदि इतना करूं तो यह मुहपत्तीरूपी साधुताका प्रतीक जो मैंने हाथमें लिया है, वह सफल हुआ गिना जाय । ____ मुहपत्ती तथा अङ्गको प्रतिलेखना करते समय ये बोल नीचे लिखे अनुसार बोलने चाहिये :
मुहपत्ति पडिलेहते समय विचारने योग्य बोल:
( १ ) प्रथम घुटनोंके बल बैठो, दोनों हाथ दोनों पाँवोंके बीच में रखो, मुहपत्तीकी घड़ी खोलो, दोनों हाथोंसे उसके दोनों कोने पकड़ो और मुहपत्तीके सामने दृष्टि रखो। फिर मनमें बोलो कि ( नीचे जो बड़े अक्षर दिये हैं वे मनमें बोलने के हैं और उनका अर्थ विचारना चाहिये )।
[ इस समय मुहपत्तीके एक भागकी प्रतिलेखना होती है अर्थात उसके एक ओरके भागका बराबर निरीक्षण किया जाता है।]
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४७२
सूत्र
[ इस समय मुहपत्तोके एक भागको प्रतिलेखना होती है अर्थात् उसके एक ओरके भागका बराबर निरीक्षण किया जाता है। ] - २. फिर उसको बाँये हाथपर रखकर बाँये हाथमें पकड़ा हुआ कोना दाँये हाथमें पकड़ो और दाँये हाथमें पकड़ा हुआ कोना बाँये हाथमें पकड़कर फिर सामने लाकर मनमें बोलो कि :
अर्थ, तत्त्व करी सद्दहु। [ सूत्र और अर्थ दोनोंको तत्त्वरूप अर्थात् सत्यस्वरूप समझू और उसकी प्रतीति करके उसपर श्रद्धा करूं । उस समय मुहपत्तीके दूसरे भागकी प्रतिलेखना होती है अर्थात् मुहपत्तीके दूसरे भागका बराबर निरीक्षण किया जाता है। ]
३. फिर मुहपत्तोका बाँये हाथकी ओरका भाग तीन बार हिलाओ, उस समय मनमें धीरेसे बोलो कि :सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय परिहरू।
[ दर्शनमोहनीय-कर्मकी तीन प्रकृतियाँ दूर करने योग्य हैं, अर्थात् मुहपत्ती यहाँ तीन बार हिलायी जाती है।]
४. फिर बाँये हाथपर मुहपत्ती रख, पलटकर, दाँये हाथकी ओरका भाग तीन बार हिलाओ। उस समय मनमें बोलो कि :
कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग परिहरू। [ तीनों प्रकारके राग दूर करने योग्य हैं अर्थात् मुहपत्ती यहाँ तीन बार हिलायी जाती है।]
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४७३
५. मुहपत्तीका मध्य भाग बाँये हाथपर डालकर बीचका आवरण पक कर उसे दुहरी करो । [ यहाँसे मुहपत्तीका समेटना आरम्भ होता है । ]
६. फिर दांये हाथकी चार अँगुलियोंके तीनों मध्यभागमें मुहपत्तीको भरो ।
७. फिर बाँये हाथकी हथेलीका स्पर्श न हो इस तरह तीन बार कोनी तक लाओ और प्रत्येक बार बोलो कि
सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरू ।
[ सुदेव, सुगुरु और सुधर्म सम्बन्धी श्रद्धा अपने में प्रविष्ट हो ऐसी इच्छा है । अतः मुहपत्तीको अँगुलियोंके अग्रभागसे अन्दर लाने की क्रिया की जाती है । इसमें पहली बार मुहपत्ती प्रायः अँगुलीके मूल तक लानी चाहिये और उस समय 'सुदेव' बोलना चाहिये | फिर दूसरी बार मुहपत्तीको हथेली के मध्यभाग तक लानी चाहिये और उस समय 'सुगुरु' बोलना चाहिये । तथा तीसरी बारमें मुहपत्ती हाथकी कोनी तक लानी चाहिये और उस समय 'सुधर्म आदरु' । इतने शब्द बोलने चाहिये । ]
८. अब ऊपरकी रीतिसे विपरीत मुहपत्तीको तीन बार कोनीसे अँगुली अगले पर्व तक ले जाओ और कुछ निकाल देते हो उस तरह से बोलो कि
कुदेव, कुगुर, कुधर्म, परिहरू ।
[ यह एक प्रकारकी प्रमार्जन - विधि हुई । इसलिये इसकी क्रिया भी ऐसी ही रखी गयी है । ]
प्र - ३१
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४७४ ९. इसी प्रकार तीन बार हथेलीसे कोनी तक मुहपत्तोको ऊपर रखकर अन्दर लो और बोलो कि :
ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरू। - [इन तीनों वस्तुओंको अपने भीतर लेनेके लिए इनका व्यापक न्यास किया जाता है। ]
१०. अब ऊपरकी क्रियासे विपरीत तीन बार कोनीसे हाथकी अँगुली तक मुहपत्ती ले जाओ और बोलो किज्ञान-विराधना, दर्शन-विराधना, चारित्र-विराधना परिहरू।
[ये तीन वस्तुएं बाहर निकालने की हैं, तदर्थ उसका घिसकर प्रमार्जन किया जाता है।] ११. अब मुहपत्तीको तीन बार अन्दर लो और बोलो कि
___ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति आदरूं। [ इन तीनों वस्तुओंको अपने भीतर लेने के लिए इनका व्यापक न्यास किया जाता है।]
१२. अब तीन बार मुहपत्तीको कोनीसे हाथकी अँगुली तक ले जाओ और बोलो कि
मनो-दण्ड, वचन-दण्ड, काय-दण्ड परिहरू। [ये तीनों वस्तुएँ बाहर निकालनेको हैं इसलिए इनका प्रमाजन किया जाता है।]
शरीरका पडिलेहण करते समय विचारनेके २५ बोल ।
[ इन बोलोंके समय अभ्यन्तर प्रमार्जन करना आवश्यक होनेसे हर समय प्रमार्जनको क्रिया की जाती है।]
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४७५ १. अब अंगुलीमें भरी हुई मुहपत्ती प्रदक्षिणाकारसे अर्थात् दाँये हाथपर दोनों तरफ तथा नोचे इस तरह तीन बार प्रमार्जन करो और बोलो कि
हास्य, रति, अरति परिहरू। २. इसी प्रकार बाँये हाथकी अंगुलियोंके मध्यमें मुहपत्ती रखकर दाँये हाथमें प्रदक्षिणाकारसे बीचमें और दोनों तरफ प्रमार्जन करो और मनमें बोलो कि
__भय, शोक, जुगुप्सा परिहरू। ३. फिर अँगलीके मध्य भागसे मुहपत्तो निकालकर दुहरी ही लेकर, मुहपत्तीके दोनों भाग दोनों हाथोंसे पकड़कर मस्तकपर बीचमें और दाँये-बाँये दोनों भागोंपर तीन बार प्रमार्जना करते हुए अनुक्रमसे मनमें बोलो कि
___ कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या परिहरू। ___ ४. फिर बीचमें और दाँये-बाँये दोनों भागोंमें तीन बार मुखपर प्रमार्जना करो और मनमें बोलो कि
___ रसगारव, ऋद्धिगारव, सातागारव परिहरू
५. ऐसे ही बीचमें और दाँये-बाँये दोनों भागोंमें छातीपर तीन बार प्रमार्जना करो और क्रमशः मनमें बोलो कि
मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यात्वशल्य परिहरू । ६. अब मुहपत्ती दोनों हाथमें चौड़ी पकड़कर दाँये कन्धेपर प्रमार्जना करो और बोलो कि
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क्रोध परिहरू। ७. इसी प्रकार मुहपत्ती बाँये हाथमें रखकर बाँये कन्धेपर प्रमार्जन करो और बोलो कि
मान परिहरू। ८. इसी तरह मुहपत्ती बाँये हाथमें रखकर दाँयो कोखमें प्रमाजना करो और बोलो कि
माया परिहरू।। ___९. फिर मुहपत्ती दाँये हाथमें पकड़कर बाँयो कोखमें प्रमार्जन करते हुए बोलो कि
__ लोभ परिहरू। १०. फिर दाँये पैरके बीच में और दोनों भागोंमें चरवलेसे तोन बार प्रमार्जना करते हुए बोलो कि
पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकायकी रक्षा करूं। ११. इसी प्रकार बाँये पैरके बीचमें और दोनों भागोंमें प्रमार्जना करते हुए बोलो किवायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकायकी जयणा करूँ।
सूचना (१) 'मुहपत्तीका पडिलेहण' वस्तुतः अनुभवो व्यक्ति के पाससे सीखना चाहिये । यहाँ तो दिग्दर्शन मात्र कराया है।
(२) दसवें नियममें दाँया पैर बतयाया है, वहाँ बाँया पैर और ग्यारहवें नियममें बाँया पैर बतलाया है, वहाँ दाँया पैर, ऐसा विधिभेद अन्य ग्रन्थों में मिलता है।
(३) साध्वीजी को छातीकी ३ और कन्धे तथा कोखको ४
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प्रमार्जना मिलकर कुल ७ नहीं होती और शेष १८ होती हैं। स्त्रियोंको मस्तककी तीन भी नहीं होता हैं अतः कुल १५ होती है।
ध्यान रहे कि मुहपत्ती पडिलेहणकी इस विधिका सामायिक करते समय तथा पूर्ण करते समय बराबर उपयोग हो ।
[२] प्रतिक्रमण सम्बन्धी उपयोगी सूचनाएँ
१-समय दैवसिक प्रतिक्रमण दिनके अन्तिम भागमें अर्थात् सूर्यास्त समय में करना चाहिये । शास्त्रोंमें कहा है कि
"अद्ध निवुड्ढे बिबे, सुत्तं कड्ढन्ति गोयत्था।
इय वयण-पमाणेणं, देवसियावस्सए कालो॥" सूर्यबिम्बका अर्धभाग अस्त हो तब गीतार्थ प्रतिक्रमण-सूत्र कहते हैं । इस वचन-प्रमाणसे देवसिक-प्रतिक्रमणका समय जानना। तात्पर्य यह है कि प्रतिक्रमण सूर्यास्तके समय करना चाहिये । __शास्त्रमें 'उभओ-कालमावस्सयं करेइ' ऐसा जो पाठ आता है, वह भी प्रतिक्रमण सन्ध्या-समयमें करनेका सूचन करता है। __ अपवाद-मार्गमें दैवसिक-प्रतिक्रमण दिनके तीसरे प्रहरसे मध्यरात्रि होनेसे पूर्व तक हो सकता है और योगशास्त्रवृत्तिके अभिप्रायानुसार मध्याह्नसे अर्धरात्रि पर्यन्त हो सकता है ।
रात्रिक-प्रतिक्रमण मध्यरात्रिसे मध्याह्न तक हो सकता हैकहा है कि:
'उग्घाडपोरिसिं जा, राइअमावस्सयस्स चुन्नीए। ववहाराभि-पाया, भणंति जाव पुरिमड्ढ॥'
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४७८ - आवश्यक चूणिके अभिप्रायसे रात्रिक-प्रतिक्रमणं उग्घाडपोरिसी तक अर्थात् सूत्र-पोरिसी पूर्ण होने तक और व्यवहार-- सूत्रके अभिप्रायसे मध्याह्न तक कर सकते हैं। .
पाक्षिक-प्रतिक्रमण पक्षके अन्त में अर्थात् चतुर्दशीके दिन किया जाता है । चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण चातुर्मासके अन्तमें अर्थात् कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी, फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी और आषाढ़ शुक्ला चतुदशीके दिन किया जाता है तथा सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण संवत्सरके अन्तमें अर्थात् भाद्रपद शुक्ला चतुर्थीके दिन किया जाता है ।
२-स्थान गुरु महाराजका योग हो तो प्रतिक्रमण उनके साथ करना, अन्यथा उपाश्रयमें या अपने घरपर करना । आ. चू. में कहा है कि- "असइ-साह-चेइयाणं पोसहसालाए वा सगिहे वा सामाइयं वा आवस्सयं वा करेइ ।" साधु और चैत्यका योग न हो तो श्रावक पोषधशालामें अथवा अपने घरपर भी सामायिक अथवा आवश्यक ( प्रतिक्रमण ) करे।” चिरन्तनाचार्यकृत प्रतिक्रमणविधिकी गाथामें कहा है कि
"पंचविहायार-विसुद्धि-हेउमिह साहु सावो वा वि । पडिक्कमणं सह गुरुणा, गुरु-विरहे कुणइ इक्को वि साधु और श्रावक पाँच प्रकारके आचारकी विशुद्धिके लिए गुरुके साथ प्रतिक्रमण करे और वैसा योग न हो तो अकेला भी करे।” ( परन्तु उस समय गुरुकी स्थापना अवश्य करे । स्थापनाचार्यकी विधि पहले बतला चुके हैं।)
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३-शुद्धि शुद्धिपूर्वक को हुई क्रिया अत्यन्त फलदायक होती है, इसलिए प्रतिक्रमण करनेवालेको शरीर, वस्त्र, और उपकरणकी शुद्धिका ध्यान रखना चाहिये।
४-भूमि-प्रमार्जन प्रतिक्रमणके लिए कटासन बिछानेसे पूर्व चरवलेसे भूमिका प्रमार्जन करना चाहिये।
५-अधिकार प्रतिक्रमण साधु और श्रावकको प्रातः और सायं नियमित करना चाहिये । उसमें जो श्रावक व्रतधारी न हो उसको भी प्रतिक्रमण करना चाहिये, क्योंकि वह तृतीय वैद्यकी ओषधिके समान अत्यन्त हितकारी है। एक राजाके पास तीन वैद्य आये । उनमें पहले वैद्यके पास ऐसा रसायन था कि जो व्याधि हो तो उसको मिटा दे और न हो तो नवीन रोग उत्पन्न कर दे । दूसरे वैद्यके पास ऐसी ओषधि थी कि जिससे व्याधि हो तो मिट जाय और न हो तो नयो उत्पन्न न करे और तीसरे वैद्यके पास ऐसी औषधि थी कि जिससे व्याधि हो तो मिट जाय और न हो तो सर्व अंगोंको पुष्टिकर भविष्यमें होनेवाले रोगोंको भी रोक दे। इसी प्रकार प्रतिक्रमण भी अतिचार लगे हों तो उनको शुद्धि करता है और न लगे हों तो चारित्रधर्मकी पुष्टि करता है। १. उपकरणोंके बारेमें देखो-प्रबोधटीका भाग १ ला, परिशिष्ट पाँचवाँ । २. प्रतिक्रमणका परमार्थ समझने के लिए देखो-"प्रबोधटोका" भाग-२, परिशिष्ट तीसरा, 'प्रतिक्रमण अथवा पापमोचनको पवित्र क्रिया' ।
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६- प्रकीर्ण सूचना
प्रतिक्रमण समुदायके साथ बैठकर करना हो, तब अपनेसे बड़ोंका यथोचित विनय करना, शान्ति और शिष्टता का पालन करना तथा अपनेको आदेश मिला हो उस सूत्रके बोलनेमें सावधान रहना ।
सूत्र संहिता - पूर्वक बोलना और उस समय अर्थका भी ध्यान रखना ।
जहाँ-जहाँ जिस-जिस प्रकारकी मुद्राएँ करनेके लिये कहा हो, वहाँ-वहाँ उस-उस प्रकारकी मुद्राएँ करनी ।
प्रतिक्रमणको विधिके हेतुओंको बराबर समझकर उनके अनुसार लक्ष्य रखकर वर्तन करनेका प्रयत्न करना ।
आन्तरिक उल्लास - पूर्वक किया हुआ प्रतिक्रमण कर्मके कठिन बन्धनको शीघ्र काट डालता है, यह लक्ष्य में रखना चाहिये । रात्रिका प्रतिक्रमण अत्यन्त मन्द स्वरसे करना । सङ्केत
खमा० प्रणि० = खमासमण बोलकर प्रणिपात करके । इच्छा : इच्छाकारेण संदिसह भगवान् !
=
[ ३ ] दैवसिक प्रतिक्रमणकी विधि
( १ ) सामायिक
प्रथम सामायिक लेना ।
(२) दिवस - चरिम - प्रत्याख्यान
फिर पानी पिया हो तो खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० मुह
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पत्ती पडिलेहूं ?' ऐसा कहकर मुहपत्ती पडिलेहनेकी आज्ञा माँगनी
और आज्ञा मिलनेपर 'इच्छं' कहकर मुहपत्तीकी पडिलेहणा करनी। ___ यदि आहार किया हो तो मुहपत्तीका पडिलेहण करनेके पश्चात् दो बार 'सुगुरु-वंदण' सुत्त बोलकर द्वादशावत वन्दन करना। दूसरी बार सूत्र बोलते समय 'आवस्सियाए' यह पद नहीं कहना।
फिर अवग्रहमें खड़े रहकर ' इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पच्चक्खाणनो आदेश देशोजी' ऐसा कहना अर्थात् उस समय गुरु हों तो वे अथवा ज्येष्ठ व्यक्ति हों तो वे 'दिवस-चरिमं' का पाठ बोलकर पच्चक्खाण कराएँ ।
यदि वैसा योग न हो तो स्वयं ही 'दिवस-चरिमं' पाठ बोलकर कर यथाशक्ति पच्चक्खाण करे और अवग्रहसे बाहर निकले।
(३) चैत्यवन्दनानि
तदनन्तर खमा० प्रणि० करके — इच्छा० चेइयवंदणं करेमि ?' ऐसा कहकर गुरुके समक्ष चैत्यवन्दन करनेकी आज्ञा माँगनी । गुरु कहें-'करेह' तब 'इच्छं' कहकर ज्येष्ठ व्यक्ति अथवा स्वयं नीचे लिखे अनुसार पाठ बोलकर चैत्यवन्दन करे।
प्रथम योगमुद्रासे मङ्गलरूप आद्य स्तुति ( चैत्यवन्दन ) करनी। फिर 'जं किंचि' सूत्र तथा 'नमो त्थु णं' सूत्रके पाठ क्रमशः बोलकर खड़े होकर 'अरिहंत चेइआणं' सूत्र तथा 'अन्नत्थ' सूत्रके पाठ बोलने । बादमें एक नमस्कारका कायोत्सर्ग करना और उसको
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यथाविधि पूर्णकर 'नवोऽर्हत्०' का पाठ बोलकर 'कल्लाणकंद' थुइकी प्रथम गाथा बोलनो।'
फिर 'लोगस्स०' सूत्रका पाठ बोलकर, 'सव्वलोए अरिहन्तचेइआणं करेमि काउस्सग्गं' सूत्र कहकर, 'अन्नत्थ०' सूत्र बोलकर; एक नमस्कारका काउस्सग्ग करके 'कल्लाणकंद' थुइकी दूसरी गाथा बोलनी।
तदनन्तर 'पुक्खरवरदोवड्ढे' सूत्र बोलकर 'सुअस्स भगवओ करेमि काउसग्गं, वंदणवत्तियाए' व 'अन्नत्थ०' सूत्र कहकर, एक नमस्कारका काउस्सग्ग कर, उसे पूर्णकर 'कल्लाणकंद' थुइकी तीसरी गाथा बोलनी। ___ बादमें 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र कहकर 'वेयावच्चगराणं' सूत्र कहकर; फिर 'अन्नथ' सूत्र कहकर एक नमस्कारका काउसग्ग करके तथा उसे पूर्ण करके 'नमोऽहत्०' कहकर 'कल्लाणकंद' थुइकी चौथी गाथा बोलनी। ___ फिर योगमुद्रासे बैठकर 'नमो त्थु णं' सूत्रका पाठ बोलना तथा 'भगवदादिवंदन' सूत्रका पाठ बोलकर चार खमा० प्रणि० करके भगवान्, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओंके लिये 'थोभ वंदन' करना। फिर 'इच्छकारी समस्त श्रावकको वन्दन करता हूँ ऐसे कहना।
(४) प्रतिक्रमणको स्थापना फिर 'इच्छा० देवसिअ-पडिक्कमणे ठाउं ?' ऐसा कहकर प्रति
१. यहाँ दूसरी भी थोय बोल सकते हैं ।
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क्रमणकी स्थापनाके सम्बन्धमें आज्ञा माँगनी और गुरु 'ठाएह' ऐसा कहें, तब ‘इच्छं' कहकर दाहिना हाथ चरवलेपर अथवा कटासनपर रखकर तथा मस्तक नीचा झुकाकर 'सव्वस्स वि' सूत्र बोलना। ( ५ ) प्रथम और द्वितीय आवश्यक ( सामायिक और चतुर्विशति-स्तव ) __फिरे खड़े होकर 'करेमि भंते' सूत्र तथा 'अइआरालोअण' सूत्र अर्थात् ‘इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, जो मे देवसिओ' सूत्र 'तस्स उत्तरी' सूत्र तथा 'अन्नत्थं' सत्र बोलकर 'अइयार-वियारण-गाहा' ( अतिचार विचार करनेकी गाथाओं) का काउस्सग्ग करना। यहाँ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, तथा वीर्याचार में लगे हुए अतिचारोंका चिन्तन करके वे अतिचार याद रखने चाहिए। ये गाथाएं नहीं आती हों तो आठ नमस्कारका काउस्सग्ग करना चाहिए। यह काउस्सग्ग पूर्ण करके 'लोगस्स' सूत्र प्रकट रीतिसे बोलना।
(६ ) तीसरा आवश्यक ( गुरु-वन्दन ) ___ इसके पश्चात् बैठकर तीसरे आवश्यककी मुहपत्ती पडिलेहना और द्वादशावर्त्त-वन्दन करना। उसमें दूसरी बार सूत्र बोलकर अवग्रहसे बाहर नहीं निकलना। . (७) चौथा आवश्यक ( प्रतिक्रमण )
फिर 'इच्छा देवसिअं आलोउं' कहकर देवसिक अतिचारोंकी आलोचना करनेकी अनुज्ञा माँगनी । गुरु कहें-'आलोएह' तब 'इच्छं' कहकर 'अइआरालोअण' -सुत्तका पाठ बोलना ।
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४८४
बादमें 'सात लाख' और 'अठारह पापस्थानक 'का पाठ बोलना।
इसके पश्चात् 'सव्वस्स वि देवसिअ दुच्चितिअ, दुब्भासिअ, दुच्चिट्ठिअ इच्छा०' कहना और ( गुरु कहें-'पडिक्कमेह' तब बोलना कि ) 'इच्छं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं' फिर वीरासनसे बैठना और न आताहोतोदाँया घुटना ऊँचा रखना। फिर एक नमस्कार, 'करेमि भंते' सूत्र तथा 'अइआरालोअण' सुत्तके पाठ-पूर्वक 'सावग -पडिक्कमण'-सुत्त ( 'वंदित्तु' सूत्र ) बोलना। उसमें 'तस्स धम्मस्स केवलि-पन्नत्तस्स अब्भुट्टिओ मि' यह पद बोलते हुए खड़ा होना और अवग्रहसे बाहर निकलकर सूत्र पूरा करना।
फिर द्वादशावत वन्दन करना। उसमें दूसरे वन्दनके समय अवग्रहमें खड़े हों, तब 'इच्छा० अब्भुट्टिओ मि अभितर देवसिअं खामेउं ?' कहकर गुरुको खमानेको आज्ञा माँगनी। गुरु कहें'खामेह' तब 'इच्छं' कहकर 'खामेमि देवसिअं' कहकर दाहिना हाथ० चरवलेपर रखकर 'जं किंचि अपत्तिअं' आदि पाठ बोलकर गुरुको खमाना।
फिर अवग्रहसे बाहर निकलकर द्वादशावत-वन्दन करना और दूसरी बारका पाठ पूरा हो तब वहीं खड़े रहकर 'आयरिय-उवज्झाए' सूत्र बोलना और अवग्रहसे बाहर निकलना ।
(८) पाँचवाँ आवश्यक ( कायोत्सर्ग ) तदनन्तर 'करेमि भंते' सूत्र 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जोमे
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देवसिओ०' सूत्र 'तस्स उत्तरो' सूत्र तथा 'अन्नत्थ' सूत्र बोलकर दो लोगस्सका अथवा आठ नमस्कारका काउस्सग्ग करना।
बादमें काउस्सग्ग पूर्णकर 'लोगस्स' तथा 'सव्वलोए अरिहंतचेइआणं का पाठ बोलना और एक लोगस्स अथवा चार नमस्कारका काउस्सग्ग करना।
फिर वह काउस्सग्ग पूर्णकर 'पुक्खरवर-दीवड्ढे' सूत्र बोलकर 'सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदण०' कहकर, एक लोगस्स अथवा चार नमस्कारका काउस्सग्ग करना।
यह काउस्सग्ग पूर्ण करके 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र बोलना।
'फिर 'सुअदेवयाए करेमि काउस्सग्गं' तथा 'तस्स उत्तरी' व 'अन्नत्थ०' सूत्र बोलकर एक नमस्कारका कायोत्सर्ग करना और वह पूरा करके 'नमोऽर्हत्०' कहकर पुरुषको 'सुअदेवया' को थोय ( स्तुति ) बोलनी और स्त्रीको 'कमलदल०' स्तुति बोलनी चाहिये।
तदनन्तर 'खित्तदेवयाए करेमि काउस्सग्गं' तथा 'काउस्सग्ग' सुत्त कहकर एक नमस्कारका काउस्सग्ग पूर्ण करके, 'नमोर्हत्०' कहकर, पुरुषको 'जीसे खित्ते साहू की थोय बोलनी और स्त्रीको यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य'की थोय बोलनी चाहिये।
(९) छट्ठा आवश्यक ( प्रत्याख्यान ) इसके बाद नवकार गिनकर, बैठकर मुहपत्ती पडिलेहनी, तथा द्वादशावर्त-वन्दन करना और अवग्रहमें खड़े-खड़े ही 'सामायिक, चउवीसत्थओ, वंदण, पडिक्कमण, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण किया है', ऐसा बोलना।
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(१०) स्तुति मङ्गल
बादमें 'इच्छामो अणुर्साट्ठ' ऐसा कहकर, बैठकर, 'नमो खमासभणाणं, नमोऽर्हत्०' इत्यादि पाठ कहकर 'वर्धमान स्तुति' अर्थात् 'नमोsस्तु वर्धमानाय' सूत्र बोलना । यहाँ स्त्रीको 'संसार- दावानल० ' स्तुतिकी तीन गाथाएँ बोलनी चाहिये ।
फिर 'नमोत्थु णं' सूत्र बोलकर स्तवन कहना । यह स्तवन पूर्वाचार्य द्वारा रचित तथा कमसे कम पाँच गाथाओं का होना चाहिए । इसके अनन्तर 'सप्तति - शत - जिनवन्दन' ( 'वरकनक - 'स्तुति ) बोलकर पहले की तरह भगवान् आदि चारको चार खमा० प्रणि० द्वारा थोभवंदन करना ।
फिर दाहिना हाथ चरवलेपर अथवा भूमि पर रखकर 'अड्ढाई - ज्जेसु' सूत्र कहना ।
( ११ ) प्रायश्चित्त - विशुद्धिका कायोत्सर्ग
फिर खड़े होकर 'इच्छा० देवसिअ - पायच्छित्त-विसोहणत्थं काउस्सग्गं करूँ ?” ऐसा बोलकर काउस्सग्गकी आज्ञा माँगनी और वह मिले तब 'इच्छं' कहकर 'देवसिय पार्याच्छत्त-विसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गं' तथा 'तस्स उत्तरी०' व 'अन्नत्थ० ' सूत्र कहकर, चार 'लोगस्स' अथवा सोलह नमस्कारका काउस्सग्ग पूर्णकर, प्रकट 'लोगस्स' बोलना ।
( १२ ) सज्झाय ( स्वाध्याय )
इसके पश्चात् खमा० प्रणि० द्वारा वन्दन करके 'इच्छा० सज्झाय संदिसाहुं ?" इस प्रकार कहकर सज्झायका आदेश माँगना । तथा यह
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आदेश मिलने पर 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि कहकर 'इच्छा० सज्झाय करू?' ऐसी इच्छा प्रकट करनी और उनकी अनुज्ञा मिलनेपर 'इच्छं' कहकर, बैठकर, एक नमस्कार गिनकर गुरु अथवा उनके आदेशसे किसी भी साधुको और साधुको अनुपस्थितिमें स्वयंको सज्झाय बोलनी चाहिये।
(१३) दुःख-क्षय तथा कर्म-क्षयका कायोत्सर्ग फिर एक नमस्कार गिनकर खड़े होकर खमा० प्रणि० कहकर 'इच्छा० दुक्खखय-कम्मखय-निमित्तं करेमि काउस्सगं ?' ऐसा कहकर आज्ञा मिलनेपर 'इच्छं' कहकर 'तस्स-उत्तरी' व 'अन्नत्थ०' सूत्र बोलना और सम्पूर्ण चार 'लोगस्स' का अथवा सोलह नमस्कार का काउस्सग्ग कर, 'नमोहत्' कहकर 'शान्तिस्तव ( लघु-शान्ति )' बोलना । अन्य सब काउस्सग्गमें रहकर उसका श्रवण करें। फिर काउस्सग्ग पूरा करके, 'लोगस्स' बोलकर, खमा० प्रणि० करके अविधि-आशातनाके बारेमें 'मिच्छामि दुक्कडं' कहना ।
(१४ ) सामायिक पारनेकी विधि खमा० प्रणि० करके 'इरियावहो' सूत्र 'तस्स उत्तरी०' सूत्र तथा 'अन्नत्थ०' सूत्र बोलकर एक 'लोगस्स' अथवा चार नमस्कारका काउस्सग्ग कर, पूर्णकर, 'लोगस्स' का पाठ बोलना।
फिर बैठकर 'चउक्कसाय' सूत्र 'जं किंचि' सूत्र 'नमो त्थु णं' सूत्र, 'जावंति चेइयाई' सूत्र बोलकर, खमा० प्रणि० करके, 'जावंत के वि साहू' सूत्र, नमोऽहत्' सूत्र तथा 'उवसग्गहरं' का पाठ बोलकर दोनों हाथ मस्तकपर जोड़ कर 'जय वीयराय' सूत्र बोलना।
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फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० सामायिक पारूं ?' ऐसा कहकर सामायिक पारनेका आदेश माँगना और गुरु कहें ' पुणो वि कायन्वं" तब यथाशक्ति कहकर 'इच्छा० सामायिक पायें, ऐसा कहना और गुरु कहें कि - ' आयारो न मोत्तव्वो" तब तह त्ति' कह कर सामायिक पारनेकी विधिके अनुसार 'सामाइय-पारणगाहा' ( सामाइयवय - जुत्तो' ) तक सर्व कहना । फिर स्थापना स्थापी हो तो वह उठा लेनेके लिये उत्थापनी मुद्रासे ( दाहिना हाथ सीधा रखकर ) एक नमस्कार गिनना । इति ।
[ ४ ] रात्रिक प्रतिक्रमणकी विधि
( १ ) सामायिक
सामायिक लेना ।
(२) कुस्वप्न - दुःस्वप्खके निमित्त काउस्सग्ग
फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० कुसुमिण - दुसुमिण - उड्डावणियं राइअ - पायच्छित्त - विसोहणत्थं काउस्सग्गं करूं ?' कहकर काउस्सग्गकी आज्ञा मांगनी और आज्ञा मिलनेपर 'इच्छं' कहकर 'कुसुममिण - दुसुमिण - उड्डावणियं राइअ - पायच्छित्त-विसोहणत्थं करेमि काउस्सगं' ऐसा कहना | बादमें 'काउस्सगं' सुत्त बोलकर उस रात्रि में काम - भोगादिकके दुःस्वप्न आये हों, तो 'सागरवर -
५. फिरसे भी ( सामायिक ) करने योग्य है ।
२. ( सामायिक ) का आचार छोड़ने जैसा नहीं है ।
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गंभीरा' तक और अन्य दुःस्वप्न आये हों या न आये हों तो भी 'चंदेसु निम्मलयरा' तक चार 'लोगस्स' का अथवा सोलह नमस्कारका काउस्सग्ग करके, पार कर, प्रकट 'लोगस्स' कहना।
(३) चैत्यवन्दनादि फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० चेइयवंदणं करेमि' ऐसा कहकर चैत्यवन्दन करनेकी आज्ञा माँगनी और आज्ञा मिलने पर 'इच्छं' कहकर बैठकर 'जगचिंतामणि' सुत्त, 'जं किंचि' सुत्त आदि 'जय वीयराय' सूत्र तक बोलना ।
फिर 'भगवदादि-वन्दन' सूत्र बोलकर चार खमा० प्रणि० करके भगवान्, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुकोथोभवंदन करना।
(४) सज्झाय-स्वाध्याय फिर खड़े होकर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० सज्झाय संदिसाहुं ?' कहकर सज्झाय करनेका आदेश माँगना और वह मिलने पर 'इच्छं' कहकर, एक खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० सज्झाय करूँ ?' ऐसी इच्छा प्रकट करनी और अनुज्ञा मिलनेपर 'इच्छं' कहकर, बैठकर, एक नमस्कार गिनकर 'भरहेसर०' की सज्झाय बोलनी और बादमें एक नमस्कार गिनना।
(५) रात्रिक प्रतिक्रमणकी स्थापना इसके पश्चात् 'इच्छकार सुहराइ सुखतप०' का पाठ बोलना। फिर 'इच्छा० राइअ-पडिक्कमणे ठाउं ?' ऐसा कहकर प्रतिक्रमणकी स्थापना करनेकी आज्ञा मांगनी और आज्ञा मिलनेपर 'इच्छं' कहकर,
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दाहिना हाथ चरवले पर अथवा कटासणाके ऊपर रखकर 'सव्वस्स वि राइअ-दुच्चितिय०' का पाठ बोलना।
(६) देव-वन्दन फिर 'नमो त्थु णं' सूत्रका पाठ बोलना।
(७) पहला और दूसरा आवश्यक
( सामायिक और चतुर्विंशति-स्तव ) तदनन्तर खड़े होकर 'करेमि भंते' सूत्र, 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, जो मे राइयो०' 'तस्स उत्तरी०' सूत्र और 'अन्नत्थ०' सूत्र बोलकर एक 'लोगस्स' अथवा चार नमस्कार का काउस्सग्ग करना ।
फिर 'लोगस्स, सव्वलोए अरिहंत-चेइआणं० तथा काउस्सग्ग' -सुत्तके पाठ बोलकर एक लोगस्स अथवा चार नमस्कारका काउस्सग्ग करना। ___ फिर 'पुक्खरवर-दीवड्ढे०, सुअस्स भगवओ, वंदण०, अन्नत्थ०'. कहकर काउस्सग्गमें 'अइयार-वियारण-गाहा' विचारनी। ये गाथाएँ न याद हों तो आठ नमस्कारका काउस्सग्ग करना। फिर 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र बोलना।
(८) तीसरा आवश्यक ( वन्दन ) फिर बैठ कर तीसरे आवश्यककी मुहपत्ती पडिलेहनी और खड़े होकर द्वादशावर्त्त-वन्दन करना।
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(९) चौथा आवश्यक ( प्रतिक्रमण) फिर 'इच्छा० राइअं आलोउं ?' ऐसा कह कर रात्रिमें हुए पापोंकी आलोचना करनेकी अनुज्ञा माँगनी और वह मिलनेपर 'इच्छं' कहकर, 'आलोएमि जो मे राइओ०' पाठ बोलना।
फिर 'सात लाख,' 'अढार पापस्थानक' और 'सव्वस्स वि राइअ०' का पाठ बोलना।
___ फिर वोरासनसे बैठ कर अथवा वह नहीं आता हो तो दाँया घुटना खड़ा रखकर 'नमस्कार,' 'करेमि भंते !,' 'इच्छामि पडिक्कमि जो मे राइओ०' बोलकर 'सावग-पडिक्कमण'-सुत्त ( 'वंदित्तु' सूत्र ) बोलना । उसमें ४३ वी गाथामें 'अभुठ्ठिओ मि' पद कहते हुए खड़े होकर सूत्र पूरा करना।
फिर द्वादशावत-वन्दन करना और अवग्रहमें खड़े रहकर, आदेश माँग करके 'अब्भुट्ठिओ०' सूत्र बोलकर गुरुको खमाना और अवग्रहसे बाहर निकलकर पुनः द्वादशावत-वन्दन करना। तत्पश्चात् 'आयरिय-उवज्झाए' सूत्र बोलना। फिर अवग्रहसे बाहर निकलना।
(१०) पाँचवाँ आवश्यक ( कायोत्सर्ग) तदनन्तर 'करेमि भंते' सूत्र, 'इच्छामि ठामि०', 'तस्स उत्तरी' सूत्र, 'अन्नत्थ' सूत्र बोलकर तपका चिन्तन करना और वह नहीं आता हो तो सोलह नमस्कारका काउस्सग्ग कर, उसे पूर्ण कर 'लोगस्स' का पाठ बोलना।
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(११) छठा आवश्यक (प्रत्याख्यान )
इसके बाद बैठकर छठे आवश्यककी मुहपत्ती पडिलेहनी और द्वादशावत-वन्दन करना तथा अवग्रहमें रहकर ही 'सकलतीर्थवन्दना' सूत्र बोलना। फिर पच्चक्खाणका आदेश लेकर यथाशक्ति पच्चक्खाण करके, दैवसिक प्रतिक्रमणकी तरह छ: आवश्यक करना।
११२) मङ्गल स्तुति फिर 'इच्छामो अणुसद्धिं ऐसा कहकर, बैठकर 'नमो खमासमणाणं' 'नमोऽर्हत्' इत्यादि पाठ कहकर 'विशाल-लोचनदलं' सूत्र बोलना।
(१३) देव-वन्दन फिर 'नमो त्थु णं' सूत्र कह कर खड़े होकर 'अरिहंत चेइआणं' सूत्र और 'अन्नत्थ' सूत्र कह कर, एक नमस्कारका काउस्सग्ग करके, पार कर, 'नमोहत्' कह कर 'कल्लाणकंदं' थुइकी पहली गाथा बोलनी, और चौथो गाथा तककी सम्पूर्ण विधि दैवसिक प्रतिक्रमणकी तरह करनी।
फिर बैठ कर 'नमो त्थु णं' सूत्रका पाठ बोलकर चार खमा० प्रणि० पूर्वक भगवान् आदि चारको थोभवंदन करना।
फिर दाहिना हाथ चरवला अथवा कटासणा के ऊपर रखकर 'अड्ढाइज्जेसु' सूत्र बोलना।
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४९३ (१४) श्रीसीमन्धर स्वामीका चैत्यवन्दन फिर दोनों घुटने भूमिपर रखकर ईशान कोणकी ओर बैठ कर अथवा दिशाका मनमें चिन्तन कर खमा० प्रणि० करके श्रीसोमन्धर स्वामीका चैत्यवन्दन तथा स्तवन बोलकर सब विधि थोय-पर्यन्त करनी। उसमें ‘अरिहंत चेइआणं' सूत्रसे खड़ा होना।
(१५) श्रीसिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन इसो प्रकार खमा० प्रणि० करके श्रीसिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन श्रीसिद्धाचलजीकी दिशाके सम्मुख अथवा उस दिशाको मनमें कल्पना करके स्थापनाजी सम्मुख करना । उसमें चैत्यवन्दन, स्तवन और स्तुति श्रीसिद्धाचलजोको कहनो ।
(१६) सामायिक पारना फिर सामायिक पारनेकी विधिके अनुसार सामायिक पारना। इति ।
पाक्षिक प्रतिक्रमणकी विधि
(१) प्रथम दैवसिक प्रतिक्रमणमें 'सावग-पडिक्कमण-सुत्त' बोलने तककी जो विधि है, वह करनी। परन्तु उसमें चैत्यवन्दन 'सकलार्हत्- स्तोत्र' का करना और स्तुति 'स्नातस्या' की बोलनी ।
(२) फिर खमा० प्रणि० करके 'देवसिअ आलोइअ पडिक्कंता
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इच्छा० पक्खि-मुहपत्ती पडिलेहुँ ?' ऐसा कहकर पाक्षिक प्रतिक्रमणको मुहपत्ती पडिलेहनेका आदेश माँगना और वह मिलने पर 'इच्छं' कहकर मुहपत्ती पडिलेहनी । फिर द्वादशावर्त्त-वन्दन करना। इसके बाद 'इच्छा० अब्भुट्टिओ हं संबुद्धा खामणेणं अभितर पक्खिअं खामेउं ?' ऐसे कहना० गुरु कहें-'खामेह' तब 'इच्छं खामेमि पक्खिअं, एक ( अंतो ) पक्खस्स पन्नरस राइआणं, पन्नरस दिवसाणं जं किंचि अपत्तिअं.' आदि पाठ बोलना।
(३) फिर 'इच्छा० पक्खि आलोऊ ?' कहकर पाक्षिक आलोचनाका आदेश माँगना और गुरु कहें-'आलोएह' तब 'इच्छं' कह पक्खी ( पाक्षिक ) अतिचार बोलना । ( मण्डली में एक बोले
और अन्य उसका चिन्तन करें । अतिचार न आता हो तो 'सावगपडिक्कमण-सुत्त' बोलना।)
(४) फिर 'सव्वस्स वि पक्खिअ दुच्चितिअ, दुब्भासिअ, दुच्चिटिअ इच्छाकारेण संदिसह भगवान् ! इच्छं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' ऐसा कहना।
(५) बादमें 'इच्छकारी भगवन् ! पसायकरी पक्खि-तप प्रसाद करनाजी' ऐसा कहना। तब गुरु अथवा कोई बड़ा व्यक्ति इस प्रकार कहे :-'पक्खी लेखे एक उपवास, दो आयंबिल, तीन निव्वी, चार एकाशन, आठ बियाशन, या दो हजार सज्झाय, यथाशक्ति तप करके पहुँचाना।' इस समय तप पूर्ण किया तो 'पइटिओ' कहना और यदि ऐसा तप निकटमें ही कर देना हो तो 'तह त्ति'
कहना।
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(६) फिर द्वादशावत-वन्दन करना और 'इच्छा० अब्भुट्ठिओ हं पत्तेअ-खामणेणं अभितर-पक्खिअं, खामेडं ? बोलकर आज्ञा एक (अंतो) पक्खस्स मिल जानेपर 'इच्छं' कहकर 'खामेमि पक्खिअं, एक ( अंतो ) पक्खस्स पन्नरस-राइ-दिअहाणं जं किंचि अपत्तिअं.' आदि पाठ बोलकर द्वादशावत-वन्दन करना ।
(७) फिर 'देवसिअ आलोइअ पडिक्कंता इच्छा० पक्खिअं पडिक्कमावेह ?' कहकर आदेश माँगना और गुरु कहें-‘सम्म पडिक्कमेह' फिर 'इच्छं' कहकर 'करेमि भन्ते' सूत्र तथा 'इच्छामि पडिककमिउं जो मे पक्खिओ.' आदि पाठ बोलना ! फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० पक्खि-सूत्र कढू' ऐसा कहकर साधु हो तो 'पक्खिसूत्र' कहें और साधु न हो तो श्रावक खड़े होकर तीन नमस्कारपूर्वक 'सावग-पडिक्कमण-सुत्त' ( वंदित्तु-सूत्र ) कहें।
(८) फिर 'सुय-देवया' की थोय कहनी।
- (९) इसके पश्चात् नीचे बैठकर दाँया घुटना खड़ा रखकर, एक नमस्कार 'करेमि भन्ते' सूत्र तथा 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे पक्खिओ०' बोलकर 'सावग-पडिक्कमण-सुत्त' कहना।
(१०) फिर 'करेमि भन्ते' सूत्र, 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे पक्खिओ०' 'तस्स उत्तरी' सूत्र, 'अन्नत्थ' सूत्र, बोलकर बारह 'लोगस्स' का काउस्सग्ग करना। ये लोगस्स 'चंदेसु निम्मलयरा' तक गिनना अथवा अड़तालीस नमस्कारका काउस्सग्ग करके
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पारना। बादमें 'लोगस्स' सूत्रका पाठ बोलना और मुहपत्तीका पडिलेहण करके द्वादशावर्त्त-वन्दन करना। ___ (११) फिर 'इच्छा० अब्भुट्टिओ हं संमत्त-खामणेणं अभितर पक्खिअं खामेउं ?' ऐसा कहकर गुरुको आज्ञा मिलनेपर ‘इच्छं' बोलकर, 'खामेमि पक्खिअं एक ( अंतो ) पक्खस्स, पन्नरस दिवसाणं, पन्नरस राइआणं जं किंचि अपत्तिअं०' आदि पाठ बोलकर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा०' पक्खिअ-खामणां खामुं ?' ऐसा कहकर चार खामणां खामना। मुनिराज हों तो खामणां कहना और मुनिराज न हों तो, खमा० प्रणि० करके 'इच्छामि खमासमणो !' कहकर दाहिना हाथ उपधिपर रखकर, एक नमस्कार, कह 'सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' कहना । केवल तीसरे खामणां के अन्तमें 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' कहना। फिर 'पक्खि समत्तं, देवसि पडिक्कमामि' ऐसा कहना ।
(१२) फिर दैवसिक प्रतिक्रमणमें 'सावग-पडिक्कमण-सुत्त' कहने के बाद द्वादशावत-वन्दन किया जाता है, वहाँसे सामायिक पारसे तककी सब विधि करनी। किन्तु 'सुयदेवया' को थोयके स्थानपर भुवनदेवताका काउस्सग्ग करना, और ज्ञानादि० थोय कहनी। तथा क्षेत्रदेवताके काउस्सग्गमें 'यस्याः क्षेत्र' स्तुति बोलनी । स्तवनमें 'अजिय-संति-थओ' बोलना । सज्झायके स्थानपर 'नमस्कार', 'उवसग्गहरं' स्तोत्र तथा 'संसार-दावानल' स्तुतिकी चार गाथाएँ बोलनी। उसमें चौथी स्तुतिके अन्तिम तीन चरण सकल सङ्क एक साथ उच्च स्वरसे कहें और 'शान्ति-स्तव ( लघु शान्ति )' के स्थानपर 'बृहच्छान्ति' कहनो।
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[६] चातुर्मासिक-प्रतिक्रमणकी विधि चातुर्मासिक-प्रतिक्रमणको विधि पाक्षिक-प्रतिक्रमणके जैसी ही है परन्तु उसमें विशेषता इतनी है कि बारह लोगस्सके काउस्सग्गके स्थानपर बीस लोगस्सका अथवा अस्सी नमस्कारका काउस्सग्ग करना। 'पक्खी' के स्थानपर 'चउमासी' शब्द बोलना और तपकी जगह 'छट्टेणं दो उपवास, चार आयंबिल, छ: निव्वी, आठ एकाशन, सोलह बियाशन, चार हजार सज्झाय', ऐसा कहना।
[७] सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी विधि सांवत्सरिक प्रतिक्रमणको विधि भी हरतरहसे पाक्षिक प्रतिक्रमणकी विधिके अनुसार ही है, परन्तु इसमें विशेषता इतनी है कि बारह लोगस्सके काउस्सग्गके। स्थानपर चालिस लोगस्स और एक नमस्कारका अथवा एकसौ साठ नमस्कारका काउस्सग्ग करना, 'पक्खो' के स्थानपर 'संवत्सरी' शब्द बोलना और तपके स्थानपर ''अट्ठमभत्तं' तीन उपवास, छ: आयंबिल, नौ निव्वी, बारह एकाशन, चौबीस बियाशन और छः हजार सज्झाय' ऐसा कहना।
[८] छींक आवे तो करनेकी विधि पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में जो अतिचारसे पूर्व छींक आवे तो चैत्यवन्दनसे फिर आरम्भ करना चाहिये और दुक्ख-खय कम्म-खयके काउस्सग्गसे पूर्व छींकका काउस्सग्ग
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करना चाहिये तथा माङ्गलिकके लिये श्रोसकलचन्द्रजी उपाध्यायरचित 'सत्तरभेदी पूजा' पढ़नी चाहिये । अतिचारके पश्चात् छींक आवे तो केवल छींकका काउस्सग्ग करना और ऊपर कहे अनुसार 'सत्तरभेदी पूजा' पढ़नी, ऐसा सम्प्रदाय है ।
छींक के काउसकी विधि
इरियाही पक्किमण करके लोगस्स० 'इच्छा० क्षुद्रापद्रव - ओहडावणत्थं काउस्सग्गं करूँ ? गुरु कहें- 'करेह' तब 'इच्छं' कहकर क्षुद्रोपद्रव० 'अन्नत्थ' सूत्र कहकर, चार लोगस्सका 'सगरवर - गंभीरा' तकका अथवा सोलह नमस्कारका काउस्सग्ग करना और नीचे लिखी हुई थोय ( स्तुति ) कहनी |
*
" सर्वे यक्षम्बिकाद्या ये वैयावृत्यकरा जिने । क्षुद्रोपद्रव - सङ्घातं, ते द्रुतं द्रावयन्तु नः || ३ || "
फिर 'लोगस्स' सूत्र कहकर प्रतिक्रमणको आगेकी विधि करनी । [ ९ ] पच्चक्खाण पारनेकी विधि
१. प्रथम इरियावही पडिक्कमण करके 'जगचितामणि' का चैत्य वन्दन कर 'जय - वीयराय' सूत्र तकके सब पाठ कहने, फिर 'मन्नह जिणार्ण' की सज्झाय कहकर मुहपत्ती पडिलेहनी ।
२. फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० पच्चक्खाण पारूँ ?' 'यथाशक्ति' कहकर फिर खमा० 'इच्छा० पच्चाक्खाण पायें' 'तह
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त्ति' कहकर दहिना हाथ कटासणा अथवा चरवले पर रखकर, एक नमस्कार गिनकर जो पच्चक्खाण किया हो, उसका नाम बोलकर पारना । वह इस प्रकार
"उग्गए सूरे नमुकार-सहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं, गंठिसहिअं, मुट्ठि-सहिअं पच्चक्खाण कयु, चडविहार, आयंबिल, निवि, एगासण, बियासण, पञ्चक्खाण कयु, तिविहार पच्चक्खाण फासिअं, पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, किट्टि आराहिअं, जं च न आराहि तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।" अन्त में एक नमस्कार गिनना।
[१०]
पोषध-विधि (१) पोषधके प्रकार:-पोषधके मुख्य चार प्रकार हैं-(१) आहार-पोषध, (२) शरीर-सत्कार-पोषध, (३) ब्रह्मचर्य-पोषध और (४) अव्यापार-पोषध । इन चारों प्रकारोंके देश और सर्वसे दो दो भेद हैं, परन्तु वर्तमान सामाचारीमें आहार-पोषध देश और सर्वसे किया जाता है । शेष अन्य तीनों पोषध सर्वसे किये जाते हैं। तिविहार उपवास, आयंबिल, निव्वी तथा एकाशन करना वह देश-आहारपोषध है और चोविहार उपवास करना वह सर्व आहार-पोषध है। - (२) पोषधमें प्रतिक्रमणादिः-पोषध करनेकी इच्छावाले को
१. पोषध के अर्थ आदिके लिये देखो प्रबोध-टीका, भाग २ रा, सूत्र ३२ की गाथा २९ ।
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य तथा अभयदेवसूरि आदिने 'पोषध' शब्दको शुद्ध मानकर उसका व्यवहार किया है ।
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प्रभात में जल्दी उठकर रात्रिक-प्रतिक्रमण करना । फिर उपाश्रयमें आकर गुरुके समक्ष पोषध उच्चरना । वर्तमान सामाचारी इस प्रकार है, परन्तु मुख्य रूप से प्रातः पोषध लेकर फिर प्रतिक्रमण करना चाहिये । इस प्रतिक्रमण में 'जीवहिंसा-आलोयणा' सुत्त ('सात लाख ' ) और 'अट्ठारस पाव ठाणाणि' सूत्र के बदले में 'गमणागमणे' सूत्र कहना ( जो आगे दिया हुआ है ) । और 'साहु - वंदण - सुत्त' ( अड्ढाइज्जेसु' सूत्र ) से पूर्व 'बहुवेल' का आदेश लेना । फिर चार खमा० प्रणि० द्वारा आचार्यादिको वन्दन करके 'साहू - वंदण' सुत्त ( अड्ढाइज्जेसु' सूत्र ) कहना और प्रतिक्रमण पूर्ण करना। फिर खमा० प्रणि० पूर्वक इरियावहियं करके खमा० प्रणि० पूर्वक आदेश माँगना । 'इच्छा० पडिलेहण करूँ ?' फिर 'इच्छं' कहकर पाँच वस्तु पडिलेहनी - मुहपत्तो, चरवला, कटासणा, कंदोरा और धोती । फिर इरिया० कहकर बाकी के वस्त्र पडिलेहने । उसके बाद देववन्दन करना |
(३) फिर उपाश्रय में आकर पोषधके लिए गुरु- सम्मुख नीचे लिखी अनुसार विधि करनी : - ( इसमें प्रतिक्रमणके साथ में पडिलेहण करनेवालको निम्न प्रकारसे विधि तो करना, किन्तु वस्त्र नहीं पडिलेहने; क्यों कि उनको पडिलेहणा प्रथम की हुई है | )
(१) खमा० प्रणि० करके, 'इरियावही' पडिक्कमी, तस्स उत्तरी, सूत्र तथा 'अन्नत्थ' सूत्र बोलकर, काउस्सग्ग करना । उसमें 'चउवीसत्थय' सुत्त ( 'लोगस्स' सूत्र ) का स्मरण करके काउस्सग्ग पूर्ण प्रतिक्रमण में इस
१ रात्रिक - पोषधमें भी दूसरे दिन प्रातः कालके प्रकार विधि करना ।
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५०१ कर वह सूत्र प्रकट बोलना (२) फिर 'इच्छा० पोसह-मुहपत्ती पडिलेहुं ?' ऐसी कहकर मुहपत्ती पडिलेहनेकी आज्ञा माँगनी । गुरु कहें 'पडिलेहेह' तब 'इच्छं' कहकर बैठकर मुहपत्ती पडिलेहनी। (३) फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा-पोसह संदिसाहु ?' ऐसा कहकर
आज्ञा माँगनी। गुरु कहें-'संदिसामि' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि० करके कहना कि 'इच्छा० पोसह ठाउं ?' गुरु कहें-'ठाएह' तब 'इच्छं' कहकर खड़े-खड़े एक नमस्कार गिनना । (४) फिर इच्छ-कारी भगवन् ! पसाय करी पोसह दंडक उच्चरावोजी' ऐसे कहकर गुरु महाराजके पास या किसी पूज्य व्यक्तिके पास अथवा वैसा योग न हो तो स्वयंको 'पोसह लेनेका' सूत्र ( क्रमाङ्क ४४ ) बोलना। (५) फिर सामायिक मुहपत्ती पडिलेहणके आदेशसे लेकर तीन नमस्कार गिनकर सज्झाय करने तक सामायिक लेनेकी सारी विधि करनी । उसमें विशेषता इतनी है कि 'जाव नियम' के स्थान पर 'जाव पोसह' कहना। (६) फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा. बहुवेल संदिसाहुं ?' कहना । गुरु कहें-'संदिसामि' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि• करके 'इच्छा. बहुवेल करूँगा' ऐसा कहना। गुरु कहें-'करना' तब 'इच्छं' कहना । (७) खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० पडिलेहण करूँ ?' इस तरह कहना । गुरु कहें-'करेह तब 'इच्छं' कहकर, पाँच वस्तुका पडिलेहण करना । उसमें मुहपत्तीका ५० बोलसे, चरवलाका १० बोलसे, कटासणका २५ बोलसे, सूतकी मेखलाका ( कंदोरेका } १० बोलसे और धोतोका २५ बोलसे पडिलेहण करना। (८) फिर पडिलेहना की हुई धोती पहनकर,
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५०२
कंदोरा बाँध कर, इरियावही प्रतिक्रमण करके खमा० प्रणि० 'इच्छा० पडिलेहणा पडिलेहावोजी' ऐसा कहना। गुरु कहें-'पडिलेहादेमि' तब ‘इच्छं' कहना । (९) फिर स्थापनाचार्यजी की पडिलेहणा करके (स्थापित हो तो पुनः स्थापित करके अथवा बड़े व्यक्तिके उत्तरीय वस्त्रका प्रतिलेखना करके ) खमा० प्रणि० 'इच्छा० उपधि-मुहपत्ती पडिलेहुं ?' ऐसा कहना । गुरु कहें-'पडिलेहेह' तब ‘इच्छं' कहकर मुहपत्तीकी पडिलेहणा करनी। (१०) फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० उपधि संदिसाहुं ?' ऐसा कहना। गुरु कहें-'संदिसावेपि' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० उपधि पडिलेहुं ?' ऐसा कहना । गुरु कहें-पडिलेहेह' तब 'इच्छं' कहकर शेष वस्त्रोंकी पडिलेहना करनी । (११) फिर एक आदमीको दण्डासन याच लेना चाहिये' और उसकी पडिलेहना करके, इरियावही पडिक्कमण करके काजा२ लेना चाहिये। फिर उसे शुद्ध कर, जीव-जन्तु मृत या जीवित हो तो उसकी तपास कर दंडासन द्वारा प्रमार्जन करते हुए निरवद्य भूमिका पर जाकर 'अणुजाणह जस्सुग्गहो' कहकर काजा परठवना और तीनबार 'वोसिरे' कहना। (१२) फिर मूल स्थान पर आकर सबके साथ देव-वन्दन और सज्झाय करना।
१. वस्तु याचनेका अर्थ अन्य गृहस्थोंसे ‘यह वस्तु हम वापरते हैं। ऐसा आदेश लेनेका है। __२ काजामें सचित्त-एकेन्द्रिय ( अनाज तथा हरी वनस्पति ) तथा कलेवर निकले तो गुरुसे आलोयणा लेनी । त्रसजीव निकले तो यतना करनी।
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५०३ (४) देव-वन्दनकी विधि इस प्रकार जाननी
(१) प्रथम खमा० प्रणि० करके इरियावहो पडिक्कमण कर, 'लोगस्स' कहकर उत्तरासन डालकर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० चेइयवंदणं करेमि' ऐसे कहना । बादमें 'इच्छं' कहकर चैत्य-वन्दन, 'तित्थ-वंदण-सुत्त' ( जं किंचि' सूत्रः) 'सक्कत्थय-सुत्त' ( 'नमो त्थु णं' सूत्र ) और 'पणिहाण-मुत्त' ( 'जय-वीयराय' सूत्र ) 'आभवमखंडा' तक कहकर खमा० प्रणि० करके चैत्यवन्दन करके, 'सक्कत्थय सुत्त' कहकर चार थोय ( स्तुतियाँ ) बोलने तककी सब विधि करनी । (२) फिर 'सक्कत्थय-सुत्त' आदि बोलकर दूसरी बार चार स्तुतियाँ बोलनी। (३) फिर 'सक्कथय-सुत्त' तथा 'सव्वचेइय-वंदण-सुत्त' ( 'जावंति चेइआई' ) और 'सव्व-साहू-वंदणसुत्त' ('जावंत के वि साहू') का पाठ बोलकर स्तवन बोलकर 'पणिहास-सुत्त' का पाठ 'आभवमखंडा' तक बोलना । (४) फिर खमा० प्रणि० करके 'चैत्य-वन्दन,' 'तित्थ-वंदण-सुत्त' ( 'जं किंचि' सूत्र) 'सक्कथय-सुत्त' बोलकर 'पणिहाण-सुत्त' पूरा बोलना । इसके पश्चात् विधि करते हुए अविधि हुई हो उसका आत्माको 'मिच्छा मि दुक्कडं' द्वारा दण्ड देकर प्राभातिक देव-वन्दनके अन्तमें सज्झाय कहनी। ( मध्याह्न तथा सायङ्कालको नहीं कहनी।)
(५) सज्झायकी विधि इस प्रकार जाननी-प्रथम खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० सज्झाय करू ?' ऐसा कहना । गुरु कहें'करेह' तब 'इच्छं' कहकर नमस्कार गिनकर पैरोंपर बैठकर एक व्यक्ति 'सड्ढ-निच्चकिच्च-सज्झाओ'। ('मन्नह जिणाणं' की सज्झाय सूत्र-४५ ) बोले।
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५०४
(६) छः घड़ी दिन चढ़नेके बाद पोरिसी पढ़ानी। वह इस प्रकार-खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० बहु-पडिपुन्ना पोरिसी ? ऐसा कहना। गुरु कहें 'तह त्ति' तब 'इच्छं' कहना। फिर खमा० प्रणि० करके इरियावही पडिक्कमण कर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० पडिलेहण करूँ ?' ऐसा कहना। गुरु कहें 'करेह' तब इच्छं' कहना और मुहपत्ती पडिलेहनी।
(७) गुरु हों तो उनके समक्ष राइय-मुहपत्ती पडिलेहनी । वह इस प्रकारः-प्रथम खमा० प्रणि० करके इरियावही पडिक्कमण कर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० राइय-मुहपत्तो पडिलेहुं ?' ऐसा कहना । गुरु कहें-'पडिलेहेह' तब 'इच्छं' कह कर मुहपत्ती पडिलेहनी। फिर द्वादशावर्त-वन्दन करना। बादमें 'इच्छा. राइअं आलोउं ? इस प्रकार कहना। गुरु कहें-'आलोएह' तब 'इच्छं' कहकर 'आलोएमि, जो मे राइओ अइआरो' तथा सव्वस्स वि राइअ०' कहकर पदस्थ हों तो उनको द्वादशावत-वन्दन करना और पदस्थ न हों तो एक ही खमाल प्रणि० करना। फिर 'इच्छकार सुहराइ०' कहकर खमा० प्रणि० करके 'गुरु-खामणा-सुत्त' ( 'अब्भुट्टिओ हं' सूत्र ) द्वारा गुरुको खमाना। फिर द्वादशातवन्दन करके 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पच्चक्खाणका आदेश देनाजी' ऐसा कहकर पच्चक्खाण लेना। यहाँ चोविहार या तिविहार उपवास अथवा पुरिमड्ढ आयंबिल या एकाशनका पच्च
१. जिन्होंने गुरुके साथ रात्रिक-प्रतिक्रमण न किया हो उनके लिये यह विधि है।
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५०५
खाण करना चाहिये। खास कारण हो तो गुरु की आज्ञासे साड्ढपोरिसी-आयंबिल-एकाशनका पच्चक्खाण भी कर सकते हैं।
(८) फिर सर्व मुनिराजोंको दो बार खमा० प्रणिपात करके, इच्छकार तथा 'गुरुखामणा-सुत्त' का पाठ बोलकर वन्दन करना।
(९) फिर लघुशङ्का करनी हो ( मातरा करनी हो ) तो कुण्डी, पूंजणो और अचित्त जलकी याचना करनी । तथा मातरीया पहनकर पूंजणी द्वारा कुण्डी पूंजकर, उसमें लघुशङ्का करके परठवनेके स्थानपर जाना । वहाँ कुण्डी नीचे रखकर निर्जीव भूमि देखकर 'अणुजाणह जस्सुग्गहो' कहकर मूत्र परठवना। परठवनके बाद फिरसे कुण्डी नीचे रखकर तीन बार 'वोसिरे' कहकर कुण्डी मूल स्थानपर रखकर, अचित्त जलसे हाथ धोकर वस्त्र बदलकर स्थापनाचार्यके सम्मुख आना और खमा० प्रणि० करके इरियावही पडिक्कमण करना । यहाँ इतना याद रखना कि जब जब पोषधशाला अथवा उपाश्रयके बाहर जानेका प्रसङ्ग आये तब तीन बार 'आवस्सही' कहना और अन्दर प्रवेश करते समय तीन बार 'निसीहि' कहना।
(१०) पोसह लेनेके पश्चात् जिनमंदिरमें दर्शन करने जाना चाहिये । उसको विधि इस प्रकार है-कटासण बाँये कन्धेपर डालकर उत्तरासन करके चरवला बाँयो कोखमें और मुहपत्ती दाँये हाथमें रखकर ईर्यासमिति शोधते हुए मुख्य जिनमन्दिरमें जाना। वहाँ तीन बार 'निसोहि' कहकर मन्दिरके प्रथमद्वारमें प्रवेश करना और मूलनायकजीके सम्मुख जाकर दूरसे प्रणाम करके तीन प्रदक्षिणा प्र-३३
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५०६
देनी । फिर दूसरी बार 'निसीही' बोलकर रङ्गमण्डपमें प्रवेश करके, दर्शन - स्तुति करके, खमा० प्रणि० करके, इरियावही पडिक्कमण करना । फिर मन्दिर सौ हाथसे अधिक दूर हो तो 'गमणागमणे' आलोचना और तीन बार खमा० प्रणि० करके 'निसीहि' कहकर चैत्यवन्दन करना । वह पूर्ण होनेपर जिनमन्दिरसे बाहर निकलते समय तीन बार 'आवस्सही' कहकर उपाश्रयमें आना । वहाँ तीन बार 'निसोहि' कहकर प्रवेश करना और सौ हाथसे अधिक जाना हुआ हो, तो इरियावही पडिक्कमण करना तथा 'गमणागमणे' 'आलोचना ।"
(११) यदि चातुर्मास हो तो मध्याह्न के देव - वन्दन से पहले दूसरी बारका काजा लेना चाहिये । उसके लिये एक व्यक्तिको इरियावही पडिक्कमण करके काजाको लेना चाहिये और उसे शुद्ध करके योग्य स्थान पर परठवना चाहिये । ( तदनन्तर इरियावही पडिक्कमण नहीं करना) | फिर मध्याह्नका देववन्दन करना । उसकी विधि पूर्ववत् जाननी । फिर जिसको पानीका उपयोग करना हो अथवा आयंबिल, एकाशन करने जाना हो उसको पच्चक्खाण पूर्ण करना चाहिये | ( पच्चक्खाण पूर्ण करने की विधि अन्यत्र दी हुई है | )
( १२ पानी पीना हो उसको घड़ा तथा कटोरी ( ग्लास )
१. जव सौ हाथसे अधिक जाना हुआ हो, अथवा कुछ भी परठवना हो तब इरियावही पडिक्कमण करना और 'गमणागमणे' आलोचना ।
२. वापरनेके पात्र अक्षरोंसे अङ्कित नहीं होने चाहिये, क्यों कि अक्षर पर होठ लगने से अथवा झूठे पानीका स्पर्श होनेसे ज्ञानावरणीय कर्म बँधता है ।
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५०७
याचकर उसका पडिलेहण करके उसमें याचा हुआ अचित्त जल कटासणपर बैठकर पीना और पानी पीनेका पात्र पोंछकर रखना । पानावाला पात्र खुला नहीं रखना ।
(१३) यदि आयंबिल, निव्वी अथवा एकाशन करनेके लिये अपने घर जाना हो तो इर्यासमिति शोधते हुए जाना और घरमें प्रवेश करते हुए जयणा - मंगल' बोलकर आसन ( कटासण ) डालकर, बैठकर, स्थापनाचार्य स्थापित कर, इरियावही पडिक्कमण करना | फिर खमा० प्रणि० करके 'गमणागमणे' आलोचना | फिर काजा लेकर परठनकर इरियावही करके, पटिया तथा थाली आदि बरतन याचकर उसका प्रमार्जन कर, फिर आहार याचकर संभव हो तो अतिथि - संविभाग करके, निश्चल आसनपर बैठकर मौनपूर्वक आहार करना । यथा सम्भव आहार प्रणोत ( रस - कसवाला ) नहीं होना चाहिये, और 'चब-चब' आवाज हो ऐसा नहीं होना चाहिये । ली हुई वस्तुमेंसे कोई भी वस्तु जँठी नहीं छोड़नी और परोसनेवाला 'वापरो' ऐसा कहे, फिर वापरना । जिसको घर नहीं जाना हो, वह पोषधशाला में पूर्व प्रेरित पुत्रादिद्वारा लाया हुआ आहार कर सकता है, किन्तु साधुकी तरह बहोरनेके लिये नहीं जा सकता । इसके लिये प्रथम स्थानका प्रमार्जन करना और उसपर कटासन बिछाना । फिर पात्र आदिका प्रमार्जन कर, स्थापना स्थापितकर इरियावही पडिक्कमण करके निश्चल आसनपर बैठकर मौनपूर्वक आहार करना ।
विशिष्ठ प्रकार के कारण बिना मोदकादि स्वादिष्ट वस्तु तथा लवङ्ग ताम्बूल आदि मुखवास वापरना नहीं ।
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५०८ फिर मुख-शुद्धि करके तिविहारका पच्चक्खाण करना और नमस्कार गिनकर उठना तथा काजा लेकर परठवना । बादमें पोषध, शालामें आकर स्थापनाजीके सम्मुख इरियावही पडिक्कमण करके चैत्यवन्दन करना ! उसमें 'जगचिंतामणि' सुत्त बोलना और 'पणिहाणसुत्त' ( 'जय वीयराय' )-तककी सब विधि करनी।
(१४) इसके बाद स्वाध्याय और ध्यानमें प्रवृत्त होना।
(१५) तीसरे प्रहरके बाद मुनिराजने स्थापनाचार्यका पडिलेहण किया हो तो उनके समक्ष ( दूसरी बारका ) पडिलेहण करना । वह इस प्रकार
__(१) प्रथम खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० बहुपडिपुन्ना पोरिसी ?' ऐसे कहना। तब गुरु कहें-तह त्ति' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि० करके इरियावही पडिक्कमण करना । (२) फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० गमणागमणे आलोऊँ ?' ऐसा कहना। गुरु कहें'आलोएह' तब 'इच्छं' कहकर 'गमणागमणे' आलोवना । (३) फिर खमा० प्राणि० करके इच्छा० पडिलेहण करूँ ?' गुरु कहें'करेह' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि० करके कहना कि 'इच्छा. पोसहसाला प्रमाणू ?' गुरु कहें-'पमज्जेह' तब 'इच्छं' कहकर उपवासवालेको मुहपत्ती, कटासणा और चरवला ये तीनों और आयंबिल-एकाशनवालेको इन तीनोंके अतिरिक्त कंदोरा और धोती इस प्रकार पाँचकी पडिलेहणा करनी। ( ४ ) फिर खमा० प्रणि० करके इरियावही' पडिक्कमण कर (उपवासवालेको इरियावही पडिक्कमण
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५०९
नहीं करना।) और खमा० प्रणि० करके 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पडिलेहणा पडिलेहावोजी!' ऐसे कहकर बड़े व्यक्तिका उत्तरीयवस्त्र पडिलेहना । ( ५ ) फिर खमा० प्रणि० करके कहना कि 'इच्छा० उपाधि-मुहपत्ती पडिलेहुं ? गुरु कहें-'पडिलेहेह' तब ‘इच्छे' कह कर मुहपत्तीकी पडिलेहणा करनी । (६) फिर खमा० प्रणि. करके इच्छा० सज्झाय करूँ ?' ऐसा कहकर सज्झायका आदेश माँगना । गुरु कहें-'करेह' तब घुटनोंपर बैठकर, एक नमस्कार गिन, 'मन्नहजिणाणं' की सज्झाय बोलनी । (७) फिर भोजन किया हो उसको 'द्वादशावत-वन्दन' करके और अन्यको खमा० देकर पाणहारका पच्चक्खाण करना। प्रातः तिविहार उपवासका पच्चक्खाण लिया हो और पानी नहीं पिया हो तो इस समय चउविहारका पच्चक्खाण करना और चउविहार उपवासवाले को 'पारिढावणिया' आगार रहितका 'सूरे उग्गए' चोविहारका पच्चक्खाण करना और कारण हो तो गुरुको आज्ञासे 'मुट्ठि-सहियं' का पच्चक्खाण करना। (८) फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० उपधि संदिसाहु ?' ऐसा कहना और गुरु कहें-'संदिसावेमि' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि० करके फिर कहना कि 'इच्छा० उपधि पडिलेहउं ?' गुरु कहें-'पडिलेहेह' तब 'इच्छं' कहकर प्रथम पडिलेहनसे अवशिष्ट वस्त्रोंकी पडिलेहणा करनी। उसमें रात्रि-पोषध करनेवालेको प्रथम कमलीका पडिलेहण करना
और फिर सर्व उपधि ( वस्त्रादि ) लेकर खड़ा होना। (९) फिर दंडासण याचकर काजा लेनेके नियमानुसार काजा लेना। ( 'मुट्ठिसहियं' का पच्चक्खाण करनेवालेको पानी वापरना हो तो नमस्कार
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५१०
गिनकर पच्चक्खाण पारके वापरना । फिर सबको देव - वन्दन
करना चाहिये ।
(१६) पोसह पारने से पूर्व याचे हुए दंडासन, कुण्डी, पानी आदि गृहस्थको फिर सँभला देने ।
(१७) फिर यथावसर दैवसिक अथवा पाक्षिकादि प्रतिक्रमण करना । उसमें प्रथम सिर्फ इरियावही पडिक्कमण करना और फिर खमा० प्रणि० करके चैत्य - वन्दन करना । 'जीवहिंसा - आलोयण' सुत्त ( 'सात लाख' सूत्र ) तथा 'अट्ठारस - पावठाणाणि' ( 'अठारह-पापस्थानक' ) सूत्रके बदले में 'गमणागमण' आलोचना और 'सामाइय - सुत्त' ( 'करेमि भंते' सूत्र ) ' जाव-नियम' के स्थान पर 'जाव - पोसहं' कहना |
(१८) प्रतिक्रमण करनेके पश्चात् सामायिक पूरा करनेके बदले चार प्रहरके पोसहवाले पोसह पारें । उसकी विधि इस प्रकार है
O
मा० प्रणि० करके इरियावही पडिक्कमण कर 'चउवकसायसुत्त' से 'जय वीयराय' सूत्र तक कहना । फिर खमा० प्रणि० - करके 'इच्छा मुहपत्ती पडिलेहुं ? ऐसा कहना और गुरु कहें - 'पडिले हेह' तब 'इच्छं' कहकर मुहपत्ती पडिलेहनी । बादनं खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० पोसह पारू ? ऐसे कहना | गुरु कहें 'पुणो वि कायव्वो' तब 'यथाशक्ति' कहना । इसके बाद खमा० प्रणि० करके 'इच्छा • पोसह पार्यो' ऐसा कहना | गुरु कहें - ' आयारो न मोत्तव्त्रो' तब 'तह त्ति' कहकर चरवले पर हाथ रखकर एक नमस्कार
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५११
बोलकर 'पोसह पारनेका सूत्र' ('सागरचंदो कामों') बोलना। फिर सामायिक पारनेकी विधिके अनुसार सामायिक पारना। __ (१९) रात्रि-पोषध करनेकी इच्छावालेका कमसे-कम एकाशन किया हुआ होना ही चाहिये; उसको चूनेका पानी, कुण्डल, रुई, दण्डासण याच लेने चाहिये और कामली तथा संथारिया साथ रखना चाहिये। पहले पडिलेहण, देव-वन्दन किया हुआ हो तो बादमें पोषध लेनेकी विधिके अनुसार, पोषध तथा सामायिक लेकर सब आदेश माँगे ।' और उस समय केवल मुहपत्तीका ही पडिलेहण करना । परन्तु पोषध उच्चारणके बाद पडिलेहण तथा देव-वन्दन किया जाय वह अधिक योग्य है।
(२०) जिसने प्रातः आठ प्रहरका ही पोषध लिया हो वह सायङ्कालीन देव-वन्दनके पश्चात् कुण्डल जाँच ले, अर्थात् रुईके दो फोहे दोनों कानोंमें रखे। यदि उनको खो दे तो आलोयणा लगती है। फिर दण्डासण तथा रात्रिके लिये चूना डाला हुआ अचित्त पानी याचकर रख ले तथा सौ हाथ वसति देख आये जिसमें रात्रिको मातरा आदि परठव सके। बादमें खमा० प्रणि० करके इरियावही कहकर 'इच्छा० स्थंडिल पडिलेहुं ?' ऐसा कहकर आदेश माँगे । गुरु कहें 'पडिलेहेह' तब 'इच्छं' कहकर चौबीस मांडला करे । इन मांडलोंको मनमें धारणा की जाती है वह इस प्रकार:___प्रथम संथारेकी जगहके पास छ: मांडले करना.
१. नवीन पोषध लेनेवालेको 'बहुपडिपुन्ना पोरिसी' का आदेश नहीं माँगना परन्तु पोषधशालाके प्रमार्जनका आदेश माँगना चाहिये ।
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५१२
(१) आघाडे' आसन्ने उच्चारे पासवणे अणहियासे। (२) आघाडे आसन्ने पासवणे अणहियासे । (३) आघाडे मज्झे उच्चारे पासवणे अणहियासे । (४) आघाडे मज्झे पासवणे अणहियासे । (५) आघाडे दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे । (६) आघाडे दूरे पासवणे अणहियासे ।
दूसरे छ: मांडले उपाश्रयके अन्दर ऊपरके अनुसार ही कहने, किन्तु वहाँ 'अणहियासे' के स्थानपर 'अहियासे" कहना।
तीसरे छ: मांडले उपाश्रयके द्वारके बाहर अथवा समीपमें रहकर करने तथा चौथे छ: मांडले उपाश्रयसे करीन-सौ हाथ दूर रहकर करने । उन बारह मांडलोंमें आघाडेके स्थानपर अणाघाडे शब्द बोलना। शेष शब्द ऊपर लिखे अनुसार कहने ! ये मांडलेवाली जगह पहलेसे ही देख लेनी और मांडला स्थापनाजीके पास रहकर बोलते समय उस-उस स्थानपर दृष्टिका उपयोग करना । इस प्रकार चौबीस मांडला करने के बाद इरियावही पडिक्कमण करके चैत्यवन्दन-पूर्वक प्रतिक्रमण करना।
(२१) रात्रि-पोषधवाला प्रहर रात्रि-पर्यन्त स्वाध्याय करे । फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० बहुपडिपुन्ना-पोरिसी ?' ऐसा
१ खास कठिनाईके समय । २ पासमें । ३ बड़ी नीतिके प्रसंगमें । ४ लघुनीतिके प्रसंगमें । ५ असह्य होनेपर । ६ मध्यमें । ७ दूर । ८ सह्य होनेपर । ९ खास कठिनाई न हो उस समय ।
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५१३ बोले। गुरु कहे 'तह त्ति' तब खमा० प्रणि• करके इरियावहीपडिक्कमण करे। फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० बहुपडिपुन्ना पोरिसी राइय-संथारे ठाऊ मि) ?' ऐसा कहे। गुरु कहे 'ठाओ' तब 'पणिहाण-सुत्त' तकके पाठ बोल कर चैत्यवन्दन करे। उसमें चैत्य-वन्दनके अधिकार में 'पासनाह-जिण थुई' ('चउक्कसाय-सूत्र') बोले। फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० संथारा-विधि भणवा मुहपत्ती पडिलेहं ?' ऐसा कह कर आदेश माँगे और गुरु कहें 'पडिलेहेह' तब 'इच्छं' कहकर मुहपत्तीका पडिलेहण करे और 'निसीहि निसीहि निसोहि, नमो खमासमणाणं गोयमाईणं महामुणीणं' इतना पाठ 'नमस्कार' तथा 'सामाइय-सुत्त' तीन बार कहे। फिर 'संथारापोरिसी' पढ़ावें। उसमें 'अरिहंतो मह देवो' यह गाथा तीन बार बोले । बादमें सात नमस्कार गिनकर शेष गाथाएं बोले ।
(२२) इस प्रकार 'संथारा-पोरिसी' कह लेने के बाद स्वाध्यायध्यान करे और जब निद्रा-पोड़ित होवे तब लघुशङ्काकी बाधा दूरकर इरिया० 'गमणागमणे' करके दिनमें पडिलेही हुई भूमि पर संथारा करे। वह इस प्रकार:-'प्रथम भूमि पडिलेहकर संथारिया बिछाये । उसके ऊपर उत्तरपट ( चादर ) बिछाये, मुहपत्ती कमरमें लगा दे, कटासना, चरवला दाँयी ओर रखे और मातरिया पहनकर बाँयी करवटसे तकिया रख कर सोये।'
(२२) रात्रिमें चलना पड़े तो दंडासणसे पडिलेहते हुए चलेबीचमें जागे तो बाधा टालकर इरिया० करके कम से कम तीन गाथाका स्वाध्याय करके सोये।
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५१४ (२४) पिछली रातमें जागकर नमस्कारका स्मरणकर भावना करके, मातरेकी बाधा दूर करे। फिर इरियावही पडिक्कमण कर 'कुसुमिण दुसुमिण' का काउस्सग्ग करके चैत्य० स्वाध्याय करके प्रतिक्रमणके अवसरपर रात्रिक प्रतिक्रमण करे ।
(२५ फिर स्थापनाचार्यजीका पडि० होनेके पश्चात् पूर्वोक्त विधिसे पडिलेहण करे और इरिया० पूर्वक काजाको लेकर पूर्वोक्त विधिसे देव-वन्दन तथा सज्झाय करे। ___ (२६) फिर इरियावही पडिक्कमण कर 'इच्छा० मुहपत्ती पडिलेहूं ?' वहाँसे पोसह पारनेकी विधिमें बताये अनुसार 'सामाइयवय-जुत्तो' कहने तककी सारी विधि करके पोसह पारे और अविधि हुई हो उसका ‘मिच्छा मि दुक्कडं' दे।
गमणागमणे ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदानभंड-मत्तनिक्खेवणा-समिति, पारिष्ठापनिका-समिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, ये पाँच समिति, तीन गुप्ति; आठ प्रवचन-माता श्रावकके धर्ममें सामायिक पोसह लेकर उसका अच्छी तरह पालन नहीं किया और खण्डन-विराधना हुई हों, ते सविहूं मन, वचन कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं । इति ।
[११] सामायिक लेनेकी विधिके हेतु योग और अध्यात्मका विषय अतिसूक्ष्म होनेसे तथा प्रायः वह
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मानसिक होनेसे ऐसे प्रसङ्ग अनेक बार आते हैं कि जब साधक संशय अथवा खेदके विषम जाल में फंस जाता है । ऐसे प्रसङ्गपर सद्गुरुके अतिरिक्त कौन संशयका निवारण करे? कौन खेदको दूर करे ? इन्द्रभूति गौतमके संशय श्रीवीरप्रभुने दूर किये थे, अतः सद्गुरुका सान्निध्य सामायिक जैसे योगानुष्ठानके लिये अत्यन्त आवश्यक है।
शरीर, वस्त्र और उपकरणकी शुद्धिपूर्वक सामायिककी साधना करनेको तत्पर हुआ साधक भूमिका प्रमार्जन करके सद्गुरुके सान्निध्यमें सामायिकका अनुष्ठान करे।
जिस साधकको सद्गुरुका योग नहीं मिले वह गुरुके विनयको सुरक्षित रखनेके लिये उनकी स्थापना करके काम चलाये । ऐसो स्थापना करने के लिए बाजठ आदि उच्च आसनपर अक्ष, वराटक, धार्मिक-पुस्तक अथवा जपमाला आदि रखकर उसमें गुरुपदकी भावना की जाती है । तदर्थ 'स्थापना-मुद्रा' से दाहिना हाथ उसके सम्मुख रखकर तथा बाँये हाथमें मुहपत्ती धारणकर उसको मुखके आगे रखकर प्रथम मङ्गलके रूपमें नमस्कार-मन्त्रका पाठ बोला जाता है । बादमें 'पंचिदियसुत्तं' (गुरु-स्थापना-सूत्र ) बोला जाता है। इस प्रकार आचार्यपदकी स्थापना होने पर सामने रखी हुई वस्तुएँ विधिवत् ‘स्थापनाचार्य' माने जाते हैं और उसके पश्चात् जो जो आदेश या अनुज्ञाए लनी हों, वे सब उनके पाससे ली जाती हैं। 'गुरुमहाराजके स्थापनाचार्य' हों तो यह विधि करनेको आवश्यकता नहीं, परन्तु 'स्थापनाचार्य' इस प्रकार रखे हुए होने चाहिये
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कि उनके और साधकके बीच क्रिया करते समय किसी का आना जाना न हो।
सूत्रकी रचनामें बहुश्रुतोंने यथाशक्य रहस्य लूंसकर भरा है; अतः उसका पाठ करते समय वह शुद्ध रीतिसे बोला जाय और साथ ही साथ उसके अर्थ तथा भावका भी चिन्तन हो यह आवश्यक है । नमस्कार-मन्त्र सामायिकका अङ्ग है। जिन्होंने सामायिकको शोध को, सामायिककी प्ररूपणा की वे अर्हन्त भगवन्त इसमें प्रथम स्थान पर विराजित हैं। सामायिकका अन्तिम साध्य सिद्धावस्था है, अतः सिद्ध भगवन्त इसमें द्वितीय स्थानमें विराजित हैं। बादमें तीन स्थान सामायिककी उत्कृष्ट साधना करनेवाले आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंको प्राप्त हैं। इन सबकी महत्ता सामायिकको साधनाके रूपमें ही है। ___ मङ्गलरूप 'नमस्कार-सूत्र' बोलनेके बाद 'पंचिदिय-सुत्त' बोला जाता है । उसमें गुरु-गुणका स्मरण है। ऐसे गुणवाले गुरुके सान्निध्यमें बैठकर मैं सामायिकरूपी आध्यात्मिक अनुष्ठान कर रहा हूँ, इस विचारसे साधकको महद् अंशमें सान्त्वना मिलती है । गुरुओंके लिये यह सूत्र मार्गदर्शक है और साधकोंके लिये यह सूत्र आलम्बनरूप है। ___ इतनी विधि करनेके अनन्तर खड़े होकर गुरुको वन्दन करनेके हेतुसे 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए' इतने पद बोले जाते हैं। बादमें चरवलेसे भूमिको प्रमार्जित कर नीचे नमते हुए, मस्तक तथा दोनों हाथ ( अञ्जलिपूर्वक ) और दोनों जानु
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(घुटने ) इस तरह पाँचों अङ्ग एकत्रित करके, भूमिका स्पर्श करते हुए ‘मत्थएण वंदामि' ये पद बोले जाते हैं। वन्दनकी क्रियामें यह पञ्चाङ्ग-प्रणिपात मध्यम प्रकारका वन्दन कहा जाता है।
गुरुको इस प्रकार वन्दन करने के बाद पुनः खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि ?' इन शब्दोंसे ईपिथिकी प्रतिक्रमणका आदेश माँगा जाता है। यह 'लघुप्रतिक्रमण' है अथवा प्रतिक्रमणकी बृहद् भावनाका प्रतीकरूप है, इससे उसकी सकारण योजना की गयी है । जो साधक समभावकी साधना करनेको तत्पर हुआ हो, उसको पाप-प्रवृत्तिके प्रति अनासक्ति होनी ही चाहिये और उस तरहकी छोटीसे-छोटी प्रवृत्तिके लिये भी पश्चात्ताप करने को भावना होनी चाहिये। इस आशयसे प्रथम गमनागमनमें हुई जीवहिंसाका पश्चात्ताप करके उसके सम्बन्धमें हुए दुष्कृतकी क्षमा याचना की जाती है । 'मिच्छा मि दुक्कडं' यह प्रतिक्रमणकी भावनाका बीज है। ये शब्द बोलते समय हृदयमें कँपकँपी होनी चाहिये । कि 'हाय । हाय ! मैंने दुष्टने क्या किया?' यह नहीं भूलना चाहिये कि-भावनाशून्य मिथ्या दुष्कृत यह वाणीकी विडम्बना है या असत्य प्रलाप है।
मिथ्या-दुष्कृतका उत्तरीकरण कायोत्सर्गद्वारा होता है अर्थात् 'तस्स उत्तरी' सूत्र और 'कायोत्सर्ग' सूत्र बोलकर एक छोटीसी कायोत्सर्गकी क्रिया २५ श्वासोच्छ्वास प्रमाणकी की जाती है। साधकको यह कायोत्सर्गकी क्रिया स्पष्टतया समझ लेनी आवश्यक है। इस
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स्थलपर वह प्रतीकरूपमें आयोजित है, परन्तु साधनाके समयमें उसका यथार्थ उपयोग करना उचित है। "कायाको स्थानसे स्थिर करके, वाणीको मौनसे स्थिर करके और मनको ध्यानसे स्थिर करके बहिर्भावमें विचरते हुए आत्माका विसर्जन करना" यह उसकी प्रतिज्ञा है। यह कायोत्सर्ग किया जाय तो उत्तरीकरणका मुख्य हेतु सिद्ध हो । कायोत्सर्गके समय स्मरण किये जानेवाले 'लोगस्स' सूत्रके पद अवश्य ही गम्भीर अध्ययन-मनन माँगते हैं। उत्तरोत्तर अभ्याससे उक्त चिन्तन सहज सम्भव है। तदनन्तर प्रकटरूपमें बोले जानेवाले 'लोगस्स' सूत्र अर्थात् 'चउवीसत्थय' सूत्रका पाठ स्तुति-मंगलरूप है । पश्चात्ताप और प्रायश्चित्तसे कुछ निर्बल बना हुआ हृदय अर्हत् और सिद्ध भगवन्तोंके कीर्तनसे पुनः बलवान् बनता है और सत्प्रवृत्तिरूप आराधनामें उत्साहवान् होता है।
इस क्रियाके पूर्ण होनेके बाद 'मुहपत्ती-पडिलेहण' ( मुखवस्त्रिका -प्रतिलेखन) की क्रिया आरम्भ होती है। प्रत्येक क्रिया गुरु-वन्दन
और गुरु-आदेशसे करने योग्य होनेसे, यहाँ गुरुको खमासमण प्रणिपातकी क्रियापूर्वक वन्दन किया जाता है और मुहपत्ती पडिलेहनेके लिये 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक-मुहपत्ती पडिलेहेउं ?' इन शब्दोंसे आज्ञा माँगी जाती है। गुरु उपस्थित हों तो वे कहते हैं 'पडिलेहेह' अर्थात् 'प्रतिलेखना करो!' साधक उस आदेशको शिरोधार्य करते हुए कहता है कि 'इच्छ'-'मैं इसी प्रकार चाहता हूँ।' फिर वह मुहपत्तीकी पडिलेहणा करता है।
यह विधि पूर्ण होनेके पश्चात् खमासमण प्रणिपातकी क्रिया द्वारा
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गुरु-वन्दन करके सामायिकमें प्रवेश करनेको आज्ञा माँगी जाती है, उसमें प्रथम 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहुँ' इन शब्दोंद्वारा सामायिक करनेकी इच्छा प्रकट कर उसके लिये गुरुका आदेश लेनेकी भावना प्रदर्शित की जाती है, और जब गुरु 'संदिसह' शब्दसे तत्सम्बन्धी आज्ञा दें, तब उसको शिरोधार्य करनेके लिये 'इच्छ' बोलकर पुनः खमासमण प्रणिपातकी क्रियाद्वारा वन्दन कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक ठाउं?' इन शब्दोंसे 'सामायिक'में स्थिर होनेका आदेश माँगा जाता है। गुरुकी ओरसे 'ठाएह' शब्दद्वारा आदेश मिल जानेपर 'इच्छ' कहकर खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार-मन्त्रके पाठको एक बार गणनापूर्वक - 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करो सामायिक-दंडक उच्चरावोजी' ऐसी विनति की जाती है। इस विनतिसे गुरु 'सामाइय-सुत्तं' अर्थात् 'करेमि भंते' सूत्रका पाठ बोलते हैं। गुरु यदि सूत्र बोलें तो उस समय साधकको दोनों हाथ जोड़कर कुछ मस्तक झुकाकर शान्तिसे श्रवण करना चाहिये और मध्यम स्वरमें बोलना चाहिये, यानि गुरु प्रतिज्ञा लिवाते हैं और साधक प्रतिज्ञा लेता है।
'प्राण जाय पर प्रतिज्ञा न जाय' यह भावना साधकको दृढ़ रीतिसे हृदय में धारण करनो चाहिये, क्योंकि साधनाकी सफलताका सर्व आधार उसके निर्वाह अथवा पालन पर निर्भर है। प्रत्येक धार्मिक क्रिया अथवा आध्यात्मिक अनुष्ठान प्रतिज्ञापूर्वक किया जाता है, उसका कारण यह है कि साधकको उसके साध्यका बराबर ध्यान रहे और उससे सम्बन्धित उसका पुरुषार्थ अस्खलित गतिसे चालू रहे।
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'सामायिककी साधना' करनेके लिए ऊपर कहे अनुसार प्रतिज्ञा ग्रहण करने के बाद स्थिर आसनपर बैठने के लिए आज्ञा मांगी जाती है। तदर्थ खमासमण प्रणिपातको क्रिया करके 'इच्छा० सन्दिसह भगवन् ! बेसणे संदिसाहुं ?' अर्थात् हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं बैठनेकी अनुमति माँगता हूँ, इस प्रकार कहा जाता है । गुरु हों तो वे 'संदिसह' कहते हैं, नहीं तो उनकी अनुमति मिली हुई मानकर 'इच्छं' कहकर पुन: खमासमणद्वारा 'इच्छा० संदिसह भगवन् ! बेसणे ठाउं ?' अर्थात् हे भगवन् ! आपकी इच्छा हो तो मैं बैठकपर स्थिर होऊँ ? ऐसा आदेश माँगा जाता है। गुरु हों तो वे 'ठाएह' कहते हैं। नहीं तो उनकी अनुमति मिलो हुई मानकर 'इच्छ” कहने में आता है। 'इच्छ' पदका व्यवहार सर्वत्र इस प्रकार समझ लेना चाहिये।
अब 'सामायिक' में स्वाध्यायादि क्रिया मुख्य होनेसे उसका आदेश माँगने के लिये खमासमण प्रणिपातकी क्रियापूर्वक 'इच्छा० संदिसह भगवन् ! सज्झाय ( स्वाध्याय ) संदिसाहुं ?' इस प्रकार बोला जाता है। गुरु हों तो वे 'संदिसह' कहते हैं और आज्ञाका स्वीकार ‘इच्छ' पदद्वारा करके पुनः खमासमण प्रणिपातकी क्रियापूर्वक 'इच्छा० संदिसह भगवन् ! सज्झाय करूँ ?' इन शब्दोंसे 'स्वाध्याय'का निश्चित आदेश लिया जाता है। यहाँ स्वाध्याय शब्दसे सूत्रकी वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा तथा मन्त्रजप और ध्यान अभिप्रेत है। गुरु इस प्रकारके स्वाध्यायका आदेश देते हैं, अतः 'इच्छ" कहकर मङ्गलरूप तीन नमस्कार गिनकर 'सामायि.
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'ककी साधना' आरम्भ की जाती है, जो इस समयसे लेकर बराबर दो घड़ी तक अर्थात् ४८ मिनिट पर्यन्त एकसरीखी चाल रखनी चाहिये !
जितने क्षण समभाव में जाँय वह 'सामायिक' है । फिर भी उसको व्रतकी कोटि में लाने के लिये एक 'सामायिक साधना' का समय एक मुहूर्त अर्थात् दो पड़ी जितना ( ४८ मिनिट) निश्चित किया गया है ।
[१२]
सामायिक पारनेकी विधिके हेतु
'सामायिककी साधना' करनेवालेका जीवन- परिवर्तन हो जाता है, वास्तविकरूपमें वह परिवर्तन करनेके लिए ही आयोजित है । मैत्री आदि भावनासे वासित मन कठोरता, कृपणता, मिथ्याभिमान अथवा ममत्वको शीघ्र झेलता नहीं अर्थात् प्रारम्भ किया हुआ सामायिक छूट न जाय यही इष्ट है । ऐसा होने पर भी व्यावहारिक मर्यादाओं के कारण उसकी पूर्णाहुति करनी पड़ती है, जिसकी खास विधि है । तदर्थ प्रथम खमासमण प्रणिपातद्वारा गुरुवन्दन कर ईर्यापथप्रतिक्रमण किया जाता है अर्थात् 'इरिया वही' सूत्र 'तस्स उत्तरी' सूत्र और 'अन्नत्थ' सूत्रके पाठ बोलकर पचीस श्वासोच्छ् वास के कायोत्सर्ग में स्थिर होकर प्रकट 'लोगस्स' सूत्र बोला जाता है । फिर मुहपत्ती पडिलेहण किया जाता है । तदनन्तर पुनः खमासमण प्रणि पातद्वारा गुरुको वन्दन करके सामायिक पारनेकी - पूर्ण पारने की आज्ञा प्राप्त करनेके लिये कहा जाता है कि 'इच्छा० संदिसह भगवन् !
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५२२ सामायिक पारूं ?' इस समय गुरु कहते हैं कि-'पुणो वि कायव्वो' फिर भी करने योग्य है।' उस समय साधक 'यथाशक्ति' शब्दद्वारा अपनी मर्यादा सूचित करता है कि मेरी शक्ति अभी यहीं पूर्णाहुति करने जितनी है। इसके बाद फिर खमासमण प्रणिपात कर, गुरुके समक्ष प्रकट किया जाता है कि इच्छा० संदिसह भगवन् ! सामायिक पार्यु' अर्थात् हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आज्ञा दीजिये-मैंने सामायिक पूर्ण किया है ।' उस समय गुरु कहते हैं कि 'आयारो न मोत्तव्वो' -आचार नहीं छोड़ना,' अर्थात् सामायिक करना यह तुम्हारा आचार है, अतः उसमें प्रमाद नहीं करना । तात्पर्य यह कि यह साधना एकसे अधिक बार करने योग्य है । प्रतिदिन नियमित करने योग्य है और उसमें एक भी दिन रीता न जाय इसकी ओर लक्ष्य रखना।
इतनी विधिके बाद दाहिना हाथ चरवलेपर रख एक 'नमस्कार' का पाठ अन्त्य मङ्गलके रूपमें बोला जाता है। और 'सामाइय-पारण -गाहा' (सामाइय-वय-जुत्तो) के पाठद्वारा सामायिककी महत्ताका पुनः स्मरण कर, उसमें जो कोई दोष अथवा स्खलना हुई हो उसके लिये हार्दिक दुःख व्यक्त किया जाता है । फिर दाहिना हाथ स्थापनाके समक्ष उलटा रखकर नमस्कारका पाठ एक बार बोला जाता है। इससे 'स्थापनाचार्य' की 'उत्थापना' हुई मानी जात है। यहाँ 'सामायिक'की विधि पूर्ण होती है। जो एकसे अधिक सामायिक करने की इच्छा रखते हों वे उसकी पूर्णाहुतिकी विधि पूरीन कर फिरसे 'सामायिक' की प्रवेशविधि करते हैं। इस तरह एक साथ तीन
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सामायिककी क्रियाएँ हो सकता हैं और तीसरी बार पारनेकी विधि करना चाहिये ।
जो व्यक्ति 'सामायिक' का अनुसरण करता है, वह सुख, शान्ति और सामर्थ्यका लाभ प्राप्त कर सकता है ।
[ १३ ]
चैत्यवन्दन की विधि हेतु
कोई भी धर्मानुष्ठान गुरु अथवा देवको वन्दन करके उनकी आज्ञा पूर्वक करना चाहिये, इस हेतुसे प्रथम तीन खमासमण प्रणि० को क्रिया की जाती है और चैत्यवन्दन करनेका आदेश मांगा जाता है । और आदेश मिलने की स्वीकृति के रूप में चैत्यवन्दन प्रारम्भ किया जाता है। धर्मानुष्ठानका आरम्भ मङ्गलाचरण से होना चाहिये । अतः प्रथम उसमें तीर्थङ्कर भगवन्तोंकी स्तुति-वर्णनरूप ऐच्छिक चैत्यवन्दन बोला जाता है | इस ऐच्छिक चैत्यवन्दनद्वारा अनुष्ठाता अनेक भावोंसे चैत्यवन्दन कर सकता है । ऐसे किसी भी चैत्यवन्दनको पूर्णाहुति 'जं किंचि नाम तित्थं' इस सूत्रसे की जाती है । क्यों कि इससे तानों लोक में स्थित सकल तीर्थोंकी वन्दना होती है । अर्थात् समस्त विश्व में स्थित चैत्य और तीर्थ- संस्थाओंके प्रति पूर्ण श्रद्धा व्यक्त की जाती है । इसके बाद 'सक्कत्थय - सुत्त' अर्थात् ( 'नमो त्थु णं' सूत्र ) का पाठ योगमुद्रासे बोला जाता है, उसका कारण अर्हदेवों के उत्कृष्ट गुणोंकी आराधना है । अन्य शब्दों में कहा जाय तो इसमें
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'भावजिन' के प्रति भक्ति-भावनाका अर्घ्य है। इस सूत्रकी अन्तिम गाथाद्वारा तीर्थङ्कर पदको भूत, वर्तमान और भविष्यकालीन अवस्थाओंको भी वन्दन किया जाता है, जिससे आराध्यके रूप में इस पदकी महत्ता हृदयमें स्थिर होती है। 'योगमुद्रा' का हेतु जिनेश्वरोंके इन गुणोंमें तल्लीनताका अनुभव करना है। तत् पश्चात् 'सव्वचेइय-वंदण' सुत्तं ( 'जावंति चेइयाई' सूत्र )का पाठ सर्व चैत्योंकी पूज्यताको मनमें अङ्कित करता है तथा खमासमण प्रणिपातकी क्रिया और 'सव्वसाहुवंदण' सुत्तं ( 'जावंत के वि साहू' सूत्र ) का पाठ सम्पूर्ण विश्वमें चारित्रको सुगन्ध फैलाये हुए साधु-मुनिराजोंके प्रति पूज्यभावकी अभिव्यक्ति करता है। चैत्यवन्दन के अधिकारमें यह साधुवन्दन क्यों ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि भिन्न भिन्न भूमिकापर स्थित रहकर आत्मविकासकी साधना करनेवाले ये सन्त पुरुष चैत्यवन्दनरूपी 'श्रद्धायोग' या 'भक्तियोग'की भावनाको दृढ़ करने में निमित्तभूत हैं।
इतनी विधिके पश्चात् 'नमोऽर्हत्' सूत्रके मङ्गलाचरणपूर्वक स्तवन बोला जाता है। अनुष्ठाताको यहाँ हृदयके तार झनझनाने चाहिये, क्यों कि 'तोतेके राम' की तरह केवल मुखसे उच्चारण करनेका कोई अर्थ नहीं। भगवद्भजनकी इच्छा, प्रवृत्ति और तल्लीनता ये तीनों ही मङ्गलकारी हैं। चैत्यवन्दनका यह हृदय है, चैत्यवन्दनका यह प्राण है। इस समय भावनाके पूरमें उभार आना हो चाहिये । काव्यकलाके लिये यहाँ स्थान है, सङ्गातकलाके लिये यहाँ अवकाश है, अभिनयकलाको अवश्य ही उपयुक्त मार्ग मिलता है
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किन्तु एक शर्त यह है कि ये सब अर्हद-उपासनाकी तल्लीनतासे उद्भूत हुए होने चाहिये ।
( 'जय वीतराय' सूत्र ) के
इसके पश्चात् 'पणिहाण - सुत्त' पाठद्वारा हृदयकी शुभ भावनाओं को किया जाता है और अन्तमें 'चेइयवंदण - वृत्त' ( 'अरिहंत चेइयाणं' सूत्र ) द्वारा अर्हच्चैत्योंका आलम्बन स्वीकृत करके कायोत्सर्ग किया जाता है । चैत्यवन्दन की अन्तिम सिद्धि कायोत्सर्ग और ध्यानद्वारा ही होती है, यह बतलानेके लिये उसका क्रम अन्तिम रखा है । यह कायोत्सर्ग श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षा - पूर्वक करना चाहिये, इस बातका सूचन सूत्रके मूल पाठमें ही किया हुआ है ।
इस कायोत्सर्ग-ध्यानकी पूर्णाहुति नमुक्कार ( नमस्कार - मन्त्र ) के प्रथम पदके उच्चारणद्वारा को जाती है और चैत्यवन्दनकी पूर्णाहुति अन्त्य मङ्गलरूप अधिकृत जिनस्तुति अथवा 'कल्याणकंदं थुई ' की पञ्चजिनस्तुतिरूप प्रथम गाथा बोलकर, खमासमण प्रणिपात - की वन्दनापूर्वक की जाती है ।
श्रीजिनेश्वर के गणों का बारबार रटन करने से उनकी प्राप्ति के लिये उत्साह बढ़ता है, चित्त में प्रसन्नता प्रकट होती है और तदर्थं योग्य पुरुषार्थ के बलका अनुभव होता है ।
शास्त्रोंमें कहे अनुसार श्रावकको कम-से-कम प्रातः, मध्याह्न और सायं इस तरह तीन बार चैत्यवन्दन करना चाहिये ।
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[१४] दैवसिक प्रतिक्रमणकी विधिके हेतु १. विरतावस्थामें को हुई क्रिया पुष्टिकारक और फलदायिनी होती है, अतः प्रतिक्रमणके आदिमें सामायिक ग्रहण किया जाता है।
२. फिर पच्चक्खाण लेने के लिये गुरुके विनयार्थ मुहपत्ती पडिलेहकर द्वादशावत-वन्दन किया जाता है। पच्चक्खाण यह छठा आवश्यक है, परन्तु वहाँ तक पहुँचने में दिवस-चरिप-प्रत्याख्यानका समय बीत जाता है इसलिये सामायिकके बाद शीघ्र ही पच्चक्खाण किया जाता है।
३. सब धर्मानुष्ठान देव-गुरुके वन्दन-पूर्वक सफल होते हैं, अतः प्रथम यहाँ देववन्दन किया जाता है । चैत्यवन्दनभाष्यमें उसके उसके बारह अधिकार इस प्रकार हैं :"नमु जे अई अरिहं लोग सव्व पुक्ख तम सिद्ध जो देवा । उज्जित चत्ता वेआवच्चग अहिगार पढमपया ॥ ४२ ॥ पढमहिगारे बंदे, भावजिणे बीयए उ दव्वजिणे ॥ इगचेइअ-ठवण-जिणे, तइय-चउत्थंमि नामजिणे॥४३॥ तिहुअण-ठवण-जिणे, पुण पंचमए विहरमाणजिण छठे ।
सत्तमए सुयनाणं, अट्ठमे सव्व-सिद्ध-थुई ।। ४४ ॥ तित्थाहिव-वीर-थुई, नवमे दसमे य उज्जयं (ज्जि)त-थुई । अट्ठावयाइ इगद(गार) सि, सुदिद्विसुर-समरणा चरिमे ॥४५॥
देव-वन्दनके बारह अधिकारोंमें प्रथम पद इस प्रकार समझने
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(१) नमु० (२) जे अई० (३) अरिहं० (४) लोग० (५) सव्व० (६) पुक्ख० (७) तम० (८) सिद्ध० (९) जो देवा० (१०) उज्जित० (११) चत्ता० (१२) वेआवच्चग०।
प्रथम अधिकार 'नमो त्थु णं' से 'जिअभयाणं' तक गिना जाता है। उसमें भावजिनको वन्दन करता हूँ। दूसरा अधिकार 'जे अ अईआ सिद्धा' से 'वंदामि' तक गिना जाता है, उसमें द्रव्य जिनको वन्दन करता हूँ। तीसरा अधिकार 'अरिहंत चेइआणं' से गिना जाता है, उसमें एक चैत्यमें रहे हुए स्थापनाजिनको मैं वन्दन करता करता हूँ। चौथा अधिकार 'लोगस्स उज्जोअगरे' इन पदोंसे गिना जाता है, उसमें नामजिनको वन्दन करता हूँ।
पाँचवाँ अधिकार 'सव्वलोए अरिहंत चेइआणं' इन पदोंसे आरम्भ होता है, उसमें तीनों भुवनके स्थापना जिनोंको वन्दन करता हूँ। छठा अधिकार 'पुक्खरवरदीवड्ढे' से प्रारम्भ होता है, उसमें मैं विहरमान जिनोंको वन्दन करता हूँ। सातवाँ अधिकार इसी सूत्रके 'तम-तिमिर-पडल-विद्धंसणस्स' पदसे प्रारम्भ होता है, उसमें श्रुतज्ञानको वन्दन करता हूँ। आठवाँ अधिकार सिद्धाणं बुद्धाणं' पदोंसे चालू होता है। उसमें सर्व सिद्धोंकी स्तुति करता हूँ। ___ नौवाँ अधिकार इसी सूत्रके 'जो देवाण वि देवो' पदसे 'तारेइ नरं व नारिं वा' तकका गिना जाता है। उसमें वर्तमान तीर्थके अधिपति श्रीवीरभगवान्की स्तुति करता हूँ।
दसवाँ अधिकार इसी सूत्रके 'उज्जित-सेल-सिहरे' पदसे शुरू
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होता है, उसमें रैवताचलमण्डन श्रीअरिष्टनेमि भगवान्को वन्दन करता हूँ । ग्यारहवाँ अधिकार इसी सूत्रके 'चत्तारि अट्ठ दस दो अ' इस पदसे प्रारम्भ होता है, उसमें अष्टापद-पर्वतपर स्थित चौबीस जिन ( प्रतिमा ) को वन्दन करता हूँ और वारहवाँ अधिकार 'वेयावच्चगराणं' पदसे चाल होता है, उसमें सम्यग्दृष्टिदेवोंका स्मरण करता हूँ।
देव-वन्दन करनेवालेको ये बारह अधिकार अच्छी तरह समझकर इनके अनुसार वन्दन करनेका लक्ष्य रखना चाहिये।
पशगा।
इसके पश्चात् योगमुद्रासे बैठकर 'सक्कथय-सृत्त' अर्थात् 'नमो त्थु' णं सूत्रका पाठ बोला जाता है, वह देववन्दन-अधिकारमें श्रीतीर्थङ्कर भगवन्तको अन्तिम वन्दन समझना ।
फिर 'भगवदादिवन्दन' सूत्रद्वारा विद्यमान श्रीश्रमणसङ्घको तथा 'इच्छकारी समस्त श्रावकोंको वन्दन करूँ' इन शब्दोंसे श्रावकश्राविकाओंको हाथ जोड़कर प्रणाम किया जाता है।
४. इतनी पूर्वविधि करने के बाद प्रतिक्रमणमें मन, वचन और कायासे स्थिर होनेके लिये 'इच्छा० देवसिय पडिक्कमणे ठाउं ?' इन पदोंसे प्रतिक्रमणको स्थापना करनेका आदेश माँगा जाता है। दूसरे शब्दोंमें कहा जाय तो यहाँ प्रतिक्रमणके अनुष्ठानका प्रणिधान किया जाता है; यह आदेश मिलनेपर दाहिना हाथ तथा मस्तक चरवलेपर रखकर, प्रतिक्रमणका बीजरूप 'सव्वस्स वि देवसिअ' सूत्र अर्थात् 'पडिक्कमण-ठवणा सुत्त' बोला जाता है । यहाँ चरवलेपर दाँया हाथ रखते समय तथा मस्तक नीचे झुकाये समय गुरुके
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५२९ चरणस्पर्श करते हों ऐसी भावना रखी जाती है तथा पाप भारसे नीचा झुकता हूँ, ऐसा भी चिन्तन किया जाता है। इस सूत्रका अर्थ यह है कि 'दिनके अन्तर्गत मनको दुष्ट प्रवृत्तिसे, वाणीकी दुष्ट प्रवृत्तिसे तथा कायाकी दुष्ट प्रवृत्तिसे जिन अतिचारोंका सेवन हुआ हो, उन सबका मेरा पाप मिथ्या हो।' सारे प्रतिक्रमण का यही हेतु है। प्रतिक्रमण में ये सब वस्तुएँ विस्तारसे कही जाती हैं। अतः इसको बीजक माना जाता है। यह स्मरण रखना चाहिये कि भगवन्तके दर्शनमें बीजकके उपन्याससे सर्व अर्थकी सामान्य-विशेषरूपता प्राप्त होती है।
अब सारी क्रियाएं विरतावस्थामें आनेसे शुद्ध होती हैं इसलिये प्रतिक्रमणकी क्रिया करनेसे पूर्व आवश्यकके रूपमें यहाँ 'सामाइयसुत्त' अर्थात् 'करेमि भन्ते !' सूत्र बोला जाता है। ___ ५. फिर 'करेमि भन्ते !' सूत्र बोलकर आगे गुरुके समक्ष अतिचारोंका आलोचन ( निवेदन ) करनेका है, उसकी पहली तैयारीके रूपमें 'अइआरालोअण-सुत्त' 'तस्स-उत्तरो' सूत्र तथा 'अन्नत्थ' सूत्र बोलकर 'अइआर-वियारण' की गाथाओंका काउस्सग्ग किया जाता है।
प्रतिक्रमणका मुख्य हेतु पञ्चाचारको विशुद्धि है, अतः इस काउस्सग्गमें दिवस-सम्बन्धी पाँचों आचारों में लगे हुए अतिचारोंका सूक्ष्मतासे विचार कर मनमें धारणा की जाती है।'
१. साधु इस स्थानपर नीचेकी गाथाद्वारा अतिचारोंका चिन्तन करते हैं:
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प्रतिक्रमणकी क्रिया देव और गुरुकी विनयके साथ करनी चाहिये। इसलिये दूसरे आवश्यकके रूपमें देवकी विनयमें 'चउवीसत्थय-सुत्त' अर्थात् 'लोगस्स' सूत्र बोलकर चौबीस जिनेश्वरदेवोंको वन्दन किया जाता है।
६. इसके बाद गुरु-विनयरूप गुरुवन्दन करनेकी प्राथमिक तैयारीके रूपमें मुहपत्तीका पचास बोलपूर्वक पडिलेहण किया जाता है। हेयका परिमार्जन करने और उपादेयकी उपस्थापना करनेके लिये यह क्रिया अत्यन्त रहस्यमयी है, अतः इसकी उचित विधि गुरु अथवा पूज्य व्यक्तिके पाससे बराबर जान लेनी और तदनुसार क्रिया करने में सावधानी रखनी चाहिये ।
गुरु-वन्दनमें पचीस आवश्यकका ध्यान रखना और बत्तीस दोषोंका त्याग करने के लिये खास उपयोग रखना।
७. गुरुको द्वादशावर्त्तसे वन्दन कर लेनेके पश्चात् चौथे
"सयणासण-न्न-पाणे, चेइअ-जइ-सिज्ज-काय-उच्चारे। समिई भावण-गुत्ती-वितहायरणे अईआरा ॥"
---शयन, आसन, अन्न-पानी आदि अविधिपूर्वक ग्रहण करनेसे, चैत्यके बारेमें अविधिपूर्वक वन्दन करनेसे, मुनियोंका यथायोग्य विनय न करनेसे, वसति आदि अविधिपूर्वक प्रमार्जन करनेसे, स्त्री आदिसे युक्त स्थानपर रहनेसे, उच्चार-मल-मूत्रका सदोष स्थानमें वर्जन करनेसे, पाँच समिति, बारह भावना और तीन गुप्तिका अविधिपूर्वक सेवन करनेसे, अर्थात् शयन, आसनादि सम्बन्धी क्रियामें विपरीत आचरण होनेसे जो अतिचार लगे हों उनको सँभारना ।
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आवश्यक में प्रवेश किया जाता है । उसमें पहले ठीक तरहसे शरीर झुका कर पहले काउस्सग्ग में धारणा किये हुए अतिचारकी आलोचना करने के हेतुसे 'इच्छा० संदिसह भगवन् ! देवसियं आलोएमि' यह सूत्र बोलकर गुरुके समक्ष आलोचना की जाती है । फिर 'सात लाख' और 'अठारह पापस्थानक' के सूत्र बोले जाते हैं । इसका कारण दिवस - सम्बन्धी दोषोंकी आलोचना करना है । बादमें 'सव्वस्स वि' सूत्र बोला जाता है । उसमें 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !' ये शब्द गुरु के समक्ष प्रायश्चित्त - याचनाके रूपमें हैं और गुरु 'पडिक्क मेह' शब्द से 'प्रतिक्रमण' नामक प्रायश्चित्तका आदेश देते हैं तब 'तस्स मिच्छामि दुक्कडं' ये शब्द बोले जाते हैं और प्रतिक्रमण की विशेष आलोचना करनेके लिए नीचे बैठकर प्रथम माङ्गलिकके लिए नमस्कार गिना जाता है । फिर समताकी वृद्धिके लिये 'करेमि भंते' सूत्र बोला जाता है । वादमें अतिचारों की सामान्य आलोचनाके लिये 'अइयारालोयण - सुत्त' बोला जाता है और तदनन्तर वीरासन से बैठकर 'सावग - पडिक्कमण-सुत्त' बोला जाता है । इस सत्र के प्रत्येक पदका अर्थ बराबर समझकर उसका चिन्तन करना चाहिये और उसमें प्रदर्शित जिन अतिचारोंका सेवन हुआ हो उनके लिये पश्चात्ताप करना चाहिये । आन्तरिक पश्चात्ताप पवित्रताको प्राप्त करनेका सुविहित मार्ग है, अतः प्रत्येक मुमुक्षुको उसका पूर्ण सावधानीसे अनुसरण करना चाहिये ।
१. दस प्रकारके प्रायश्चित्तमें प्रतिक्रमण - प्रायश्चित्त दूसरा है । विशेष जानकारी के लिए देखो प्रबोधटीका भाग १, सूत्र ६ ।
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फिर गुरुमहाराजके प्रति हुए अपने अपराधोंके क्षमापनके लिये द्वादशावर्त्त-वन्दना करना चाहिये । शास्त्रकारोंने साधुओं को - गुरुको आठ कारणोंसे ( प्रसङ्गों पर ) वन्दन करनेके लिये कहा है । इस
प्रकार:
--
" पडिक्कमणे सज्झाये, काउस्सग्ग- वराह - पाहुणए । आलोयण- संवरणे, उत्तमट्टे य वंदणयं ॥”
प्रतिक्रमण करते, सज्झाय ( स्वाध्याय) करते, कायोत्सर्ग करते, अपराधको क्षमा माँगते, अतिथि- साधु के आने पर, आलोयण लेते, प्रत्याख्यान करते और अनशन करते, ऐसे आठ प्रसङ्गोंपर द्वादशावर्त्त
-वन्दन करना ।
फिर. 'अभुट्टिओहं अमितर' के पाठसे गुरुमहाराजको खमाना।
८. प्रतिक्रमण करने पर भी जिन अतिचारोंकी शुद्धि नहीं हुई हो, उनको शुद्धि करनेके लिये पाँचवें आवश्यकमें प्रवेश किया जाता है । परन्तु यह क्रिया करनेसे पूर्व उपर्युक्त शास्त्र वचनानुसार प्रथम गुरुको वन्दन किया जाता है और फिर अवग्रहमेंसे पीछे हटकर 'आयरिय उवज्झाय-सूत्र' बोला जाता है वह यह बतलानेके लिये कि अपने से आचार्य, उपाध्याय, स्थविरादिके प्रति जो कषायका सेवन हुआ हो, उससे वापस लौट रहा हूँ । काउस्सग्गकी सिद्धिके लिये कषायकी ऐसी शान्ति उपयुक्त है ।
१. कुछ आचार्योंके मत से 'आयरियाइ - खामणासुत्त, तककी विधि 'प्रतिक्रमण आवश्यक' है ।
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फिर 'करेमि भंते' सूत्र ‘इच्छामि ठामि' सूत्र, 'तस्स उत्तरी' सूत्र तथा 'अन्नत्थ' सूत्र बोल कर दो लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है, उसका हेतु चारित्राचारकी विशुद्धि है। यहाँ काउस्सग्ग करनेसे पूर्व जो सूत्र बोले जाते हैं, उनका अर्थ विचारनेसे चारित्रका शुद्ध स्वरूप समझमें आता है तथा उनमें कौनसी वस्तुएँ अतिचाररूप हैं, उसका स्पष्ट ध्यान आ जाता है।
बादमें 'लोग्गस्स' तथा 'सव्वलोए अरिहंत-चेइआणं' सूत्र बोलकर एक लोगस्सका काउस्सग किया जाता है, उसका हेतु दर्शनाचारको विशुद्धि है। फिर 'पुक्खरवरदीवड्ढे' तथा 'सव्वलोए अरिहंत चेइआणं' सूत्र बोलकर एक लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है, उसका हेतु ज्ञानाचारकी विशुद्धि है।
फिर 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र बोलते हैं उसका हेतु सर्व आचारका निरतिचारावस्थापूर्वक पालन करनेसे उत्कृष्ट फल प्राप्त करनेवाले सर्व सिद्धोंको वन्दन करना है। ___इस तरह चारित्राचार दर्शनाचार और ज्ञानाचारको विशुद्धिके लिये कायोत्सर्ग करनेपर, तथा सिद्ध भगवन्तोंको वन्दन करनेके बाद श्रुतदेवता और क्षेत्रदेवताके आराधनके निमित्त एक-एक नमस्कारका काउस्सग्ग किया जाता है।
९. फिर नमस्कार गिनकर,मुहपत्तीका पडिलेहण कर,द्वादशावर्त्तवन्दन किया जाता है। उसमें नमस्कारकी गणना मङ्गलके लिये को जाती है और मुहपत्तीका पडिलेहण तथा द्वादशावत-वन्दन छट्ठा 'प्रत्याख्यान' आवश्यकके निमित्त किया जाता है। लोकमें भी ऐसी
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५३४ प्रथा है कि राजा अमुक कार्य बतलाये तब वह करनेके बाद प्रणाम करके निवेदित करना । फिर प्रतिक्रमण करनेवाला छहों आवश्यक करनेके स्मरणरूप छः आवश्यक कर लेने का निवेदन करता है और यहाँ षडावश्यकमय प्रतिक्रमणकी क्रिया पूर्ण होती है।
१०. फिर इच्छामो 'अणुसटुिं' ऐसे वचन बोले जाते हैं, उसका पारिभाषिक अर्थ यह है कि गुरुमहाराजके सब आदेश पूर्ण होनेके बाद अब हितशिक्षाके लिये नया आदेश हो तो हम चाहते हैं । सम्यक्त्व-सामायिकादिकी आरोपण-विधिमें तथा अङ्गादिकके उपदेशमें भी इस प्रकार 'इच्छामो अणुसटुिं' ऐसा वचन आता है।
फिर 'नमो खमासमणाणं' और 'नमोऽहत्' के मङ्गलाचरणपूर्वक वर्धमान स्वरसे वर्धमानअक्षरयुक्त श्रीवर्धनानस्वामीकी स्तुति बोली जाती है। उसमें समाचारी ऐसी है कि गुरुमहाराजके एक स्तुति ( गाथा) बोलनेके पश्चात् दूसरे वह और शेष स्तुति साथ बोलें। परन्तु पाक्षिक प्रतिक्रमणमें गुरुमहाराजका तथा पर्वका विशेष बहुमान करनेके लिये गुरुके तीनों स्तुति बोलनेके बाद सब साधु और श्रावक यह स्तुति पुनः समकालमें उच्चस्वरसे बोलें। यहाँ ऐसा सम्प्रदाय है कि--साध्वियों और श्रादिकाओंको 'संसारदावानल' की तीन स्तुतियाँ बोलनी चाहिये।
फिर 'नमो त्थु णं' सूत्र बोलकर आदेश याचनापूर्वक पूर्वाचार्यरचित स्तवन बोला जाता है तथा 'सप्तति-शत-जिनवन्दन' बोलकर भगवान् आदि चारको 'थोभ-वन्दन' किया जाता है तथा दाँया
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५३५ हाथ चरवलेपर अथवा भूमिपर रखकर 'अड्ढाइज्जेसु' सूत्र बोलते हैं । वह सब पूर्णाहुतिमें देव-गुरुकी वन्दना करनेके लिये समझना।
११. फिर प्रायश्चित्त-विशुद्धिके निमित्त काउस्सग्ग किया जाता है। अतः उसका हेतु स्पष्ट है। काउस्सग्गके बाद बोला जानेबाला लोगस्सका पाठ मङ्गलरूप है।
१२. बादमें सज्झायका आदेश माँगकर सज्झाय ( स्वाध्याय ) बोली जाती है। उसके सम्बन्ध में शास्त्रकारोंने कहा है कि- . "बारसविहंमि वि तवे, सभितर-बाहिरे कुसल-दिवे । नवि अस्थि नवि अ होही, सज्झाय-समं तवोकम्मं ॥"
सर्वज्ञ-कथित बारह प्रकारके 'बाह्य और अम्यन्तर तपोंके. विषयमें स्वाध्याय समान दूसरा तप-कर्म नहीं है । [ न था, ] और होगा भी नहीं।"
१३. सज्झायके बाद दुःख-क्षय तथा कर्मक्षयके निमित्त कायोत्सर्ग किया जाता है, अतः उसका हेतु स्पष्ट है। इस काउस्सग्गमें 'शान्ति-स्तव' का पाठ एक व्याक्त बोलता है और अन्य सुनते हैं, उसमें कितना गूढ रहस्य स्थित है, वह सूत्र-विवरणके प्रसङ्गपर हमने विस्तारसे बतलाया है।
१४. फिर ‘सामायिक पारनेकी विधि प्रारम्भ होती है, उसमें लोगस्सका पाठ बोलने के बाद 'चउक्कसाय' आदि सूत्र बोलकर चैत्यवन्दन किया जाता है। श्रावकको एक अहोरात्रमें सात चैत्यवन्दन
१. इसके बादकी बिधि 'प्रतिक्रमण-गर्भ-हेतु' में नहीं है।
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करने चाहिये, उनमेंसे अन्तिम चैत्यवदन रात्रिमें सोनेसे पूर्व करना चाहिये, वह यहाँ किया जाता है। बादको सब क्रियाएँ सामायिक पारनेकी विधिके अनुसार हैं जिनको पहले विस्तारसे बतला चुके हैं।
[१५] रात्रिक प्रतिक्रमणकी विधिके हेतु १. प्रथम सामायिक लिया जाता है, उसका हेतु दैवसिकप्रतिक्रमणके हेतुके अनुसार समझना।
२. फिर कुस्वप्न-दुःस्वप्न के निमित्तसे काउस्सग्ग किया जाता है, उसमें रागादिमय स्वप्नको कुस्वप्न समझना और द्वेषादिमय स्वप्नको दुःस्वप्न समझना । स्वप्न में स्त्रीको अनुरागद्वारा देखी हो, तो वह दष्टि-विपर्यास कहलाता है। तदर्थ १२० श्वासोच्छ्वासका काउस्सग्ग करना चाहिये, जो कि 'लोगस्स' सूत्रका 'चंदेसु निम्मलयरा' तकका पाठ चार बार विधिवत् स्मरण करनेसे होता है। और स्वप्नमें अब्रह्मका सेवन हुआ हो, तो उसके निमित्त १०८ श्वासोच्छ्वासका काउस्सग्ग करना चाहिये, जो 'लोगस्स' सूत्रका 'सागरवर-गंभोरा' तकका पाठ चार बार विधिपूर्वक स्मरण करनेसे होता है। फिर 'लोगस्स' सूत्रका पाठ प्रकटरूपमें बोला जाता है, वह मङ्गलरूप समझना। कुस्वप्नदुःस्वप्नका यह अधिकार मुख्यतया स्त्री-सङ्गसे रहित मुनिराजको लक्ष्य करके कहा गया है और उसके लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह पातकको शुद्धिके लिये प्रायश्चित्तरूप होनेसे आवश्यकसे अतिरिक्त हैं।
३. सर्व धर्मानुष्ठान देव-गुरुके वन्दन-पूर्वक करनेसे सफल होते
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हैं, अतः यहाँ प्रथम चैत्यवन्दन किया जाता है और उसमें 'जगचिंतामणि' सूत्रसे 'जय वीयराय' सूत्र तकके सूत्र बोले जाते हैं। फिर भगवान् आदि चारको वन्दन किया जाता है, अर्थात् देव तथा गुरु दोनोंका वन्दन होता है।
४. दैवसिक प्रतिक्रमणमें सज्झाय अन्तमें की जाती है, और यहाँ प्रारम्भमें की जाती है, उसका कारण यह है कि प्रातःकालीन प्रतिक्रमणके लिये यथोक्त समयकी राह देखना है। सज्झायमें भरतबाहुबलि आदि महापुरुष तथा सुलसा, चन्दनबाला आदि महासतियोंका प्रभातमें स्मरण किया जाता है, क्यों कि उन्होंने जैसा जीवन बिताया है वह अपने लिये अध्यात्मका ऊँचा आदर्श स्थापित करता है।
५. फिर गुरुको सुख-साता पूछकर रात्रिकप्रतिक्रमणको विधिपूर्वक स्थापना की जाती है और दाहिना हाथ चरवला अथवा कटासणा पर रखकर प्रतिक्रमणके बीजकरूप 'सव्वस्स वि राइअ दुच्चितिअ.' आदि पद बोले जाते हैं।
- ६. फिर 'नमो त्थु णं' सूत्र बोला जाता है। वह देव-वन्दन मङ्गलके लिये समझना।
७. फिर 'करेमि भंते' आदि सूत्र बोलकर एक लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है, वह चारित्राचारको शुद्धिके लिये समझना। बादमें एक 'लोगस्स' बोल कर एक लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है, वह दर्शनाचारकी शुद्धिके लिये समझना। फिर 'पुक्खरवरदीवड्ढे' आदि सूत्र बोलकर 'अइयार-वियारण-गाहा' का काउस्सग्ग
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किया जाता है, वह मुख्यतया ज्ञानाचारकी शुद्धिके लिये समझना। 'दैवसिक प्रतिक्रमणमें चारित्राचारकी शुद्धि के लिये दो लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है और यहाँ एक लोगस्सका काउस्सग्ग क्यों? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि 'दिनको अपेक्षा रात्रिमें थोड़ी प्रवृत्ति होनेसे दोष अल्प होना सम्भव है।' फिर 'पहले काउस्सग्गमें अतिचारोंका चिन्तन करनेको अपेक्षा तीसरे काउस्सग्गमें अतिचारका चिन्तन क्यों किया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि पहले काउस्सग्गमें निद्राका कुछ उदय सम्भवित है, अतः अतिचारोंका पूर्णतया चिन्तन नहीं हो सकता, इसलिये उसका तीसरे काउस्सग्गमें चिन्तन किया जाता है।'
८-९. फिर तीसरे और चौथे आवश्यककी जो क्रिया होती है उसके हेतु देवसिक प्रतिक्रमणकी विधिके अनुसार समझना।
१०. फिर तीन आचारोंके काउस्सग्गसे भी अशुद्ध रहे हुए अतिचारोंकी एकत्र शुद्धिके लिये तप-चिन्तनका कायोत्सर्ग करना चाहिये। वह नहीं आता हो तो सोलह नमस्कार गिननेकी प्रवृत्ति है, किन्तु वास्तवमें तो तपका चिन्तन करना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार समझनी :
'श्रीवीर भगवान्ने छ: मासका तप किया था। हे चेतन ! वह तप तूं कर सकेगा ? तब मनमें उत्तरका चिन्तन करना कि वैसी शक्ति नहीं है और परिणाम नहीं है। फिर अनुक्रमसे एक एक उपवास कम करके विचार करना। ऐसा करते हुए पाँच मासतक
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आना। फिर एक-एक मास कम करके विचार करना और एक मास तक आना । फिर एक दिन ऊण मासखमण, दो दिन ऊण' मासखमण इस प्रकार तेरह दिन बाकी रहें तबतक अर्थात् सत्रह उपवासका विचार करना। फिर 'हे चेतन! तू चौंतीस भक्त सोलह उपवास) कर, बत्तोस भक्त कर, तास भक्त कर' इस प्रकार दो-दो भक्त कम करते हुए चौथ भक्त ( एक उपवास ) तक विचार करना । और उतनी भी शक्ति न हा तो अनुक्रमसे आयंबिल, निब्बी, एगासण, बियासण, अवड्ढ, पुरिमड्ढ, साड्ढपोरिसा, पोरिसी, नवकारसी-पर्यन्त विचार करना। उसमें जहाँतक करनेको शक्ति हो अर्थात् वह तप पहले किया हो, वहाँसे ऐसा विचार करे कि 'शक्ति है, पर परिणाम नहीं।' बादमें वहाँसे घटाते-घटाते जो पच्चक्खाण करना हो वहाँ आकर रुके और ‘शक्ति भी है और परिणाम भी है' इस तरह विचार करके मनमें दृढ़ निश्चय करके काउस्सग्गको पूरा करना ।
११. फिर छठे आवश्यककी क्रिया प्रारम्भ होती है, अतः मुहपत्तीका पडिलेहण करके द्वादशवर्त्त-वन्दन किया जाता है और सर्व तीर्थों को वन्दन करनेके हेतु से 'सकल-तीर्थ-वन्दना' बाली जाती है। बादमें पूर्वचिन्ति पच्चक्खाण किया जाता है। उसमें गुरुके समीप प्रतिक्रमण होता हो तो गुरुके पास, अन्यथा स्वयं हो पच्चक्खाण कर लिया जाता है। और 'सामायिक पच्चक्खाण किया है जी !' ऐसा कहा जाता है । यदि पच्चक्खाण लेना नहीं आता हो तो पच्चक्खाणको धारणा की जाती है और 'पच्चक्खाण धार लिया है जी !' ऐसा कहा जाता है।
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५४० १२. फिर छहों आवश्यक पूर्ण होनेका हर्ष प्रकट करनेके लिए 'इच्छामो अणुसटिं' कह कर 'प्राभातिक-स्तुति 'अर्थात्, 'विशाललोचन-दलं' सूत्रकी तीन गाथा बोली जाती है, वे मन्द स्वरसे बोलनी, किन्तु उच्च स्वरसे नहीं बोलनी, क्यों कि उच्च स्वरसे बोलनेसे हिंसक जीव जाग उठे और हिंसामें प्रवृत्त हों, उसका निमित्त बननेका प्रसंग आये।
१३. बादमें चार थोय (स्तुति)से देव-वन्दन किया जाता है, तथा चार खमा० प्रणि• देकर भगवान् आदिको थोभ-वंदण किया जाता है, तथा श्रावक 'अड्ढाइज्जेसु' सूत्र बोलते हैं, वह सब मङ्गलके लिये समझना।
श्रावक पोषधमें हो तो यहाँ 'बहुवेल संदिसाहु' और 'बहुवेल -करूंगा' ऐसे आदेश माँगे। स्वतन्त्र श्रावकको ऐसा नहीं करना चाहिए । आदेश माँगनेका कारण यह है कि सब कार्य गुरुमहराजसे पूछकर करना चाहिये।
१४-१५. बादमें श्रीसीमन्धरस्वामी तथा श्रीसिद्धाचलजीके चैत्यवन्दन किये जाते हैं, वह सामाचारीके अनुसार तथा सामायिकका दो घड़ीका समय पूरा करनेके लिये समझना । इस प्रतिक्रमणमें एक तो 'जग-चितामणि' सुत्त से प्रारम्भ होनेवाला और दूसरा 'प्राभातिक स्तुति' इस प्रकार दो चैत्यवन्दनोंके करनेकी प्रवृत्ति है, वह विशेष माङ्गलिकके लिये समझनी।
१६. तदनन्तर सामायिक पूर्ण किया जाता है, उसका हेतु पहले बतला चुके हैं।
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[१६] पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी
विधिके हेतु दिन और रात्रिके अन्तमें प्रतिदिन प्रतिक्रमण करनेपर भी यदि किसी अतिचारका विस्मरण हुआ हो, अथवा याद करने पर भी भयादिके कारण गुरु-समक्ष उसका प्रतिक्रमण नहीं किया हो, अथवा मन्द परिणामके कारण उसका सम्यक् प्रकारसे प्रतिक्रमण न हुआ हो, ऐसे अतिचारोंका प्रतिक्रमण करनेके लिये तथा विशेष शुद्धिके लिये पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है। कहा है कि
"जह गहं पइ-दिवसं पि, सोहियं तह वि पव्व संधीसु । सोहिज्जइ सविसेसं, एवं इहयं पि नायव्वं ॥"
-जैसे घर प्रतिदिन साफ किया जाता है, तो भी पर्वके दिनोंमें उसकी विशेष प्रकारसे सफाई की जाती है, ऐसे यहाँ भी जानना चाहिये।
१. पाक्षिकादि-प्रतिक्रमणमें प्रारम्भकी 'सावग-पडिक्कमण-सुत्त' तककी विधि दैवसिक प्रतिक्रमणके अनुसार की जाती है, अतः उसके हेतु भी तदनुसार समझने चाहिए। इसके पश्चात् शीघ्र ही पक्खीप्रतिक्रमण प्रारम्भ करनेका हेतु यह है कि पक्खी-प्रतिक्रमण यह चौथा आवश्यक है, अतः उसका यहीं अनुसन्धान हो ।
२. फिर गुर्वादिकको खमानेसे ही सर्व अनुष्ठान सफल होते हैं, इसलिये 'अन्भुट्ठिओ हं संबुद्धा! खामणेणं', इत्यादि पाठद्वारा
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गुर्वादिक सम्बुद्धोंको खमाया जाता है, परन्तु गुर्वादिकके खमानेसे पूर्व द्वादशावर्त्त-वन्दन किया जाता है और वैसा वन्दन करनेसे पूर्व महपत्ती पडिलेहना की जाती है। इस प्रकार मुहपत्तीका पडिलेहण करनेवाला व्यक्ति प्रतिक्रमणकी मण्डलीमें गिना जाता है, अन्य नहीं गिने जाते। ( इसी उद्देशसे जिसने मुहपत्तीकी प्रतिलेखना नहीं की हो उस व्यक्तिको छींक आये तो उसका बाध नहीं गिनना । ऐसी प्रवृत्ति है।)
३. फिर संक्षेप और विस्तारसे पापकी आलोचना करनेके लिये 'आलोयणा-सुत्त' बोलनेके अनन्तर अतिचार बोले जाते हैं। उनमें किन अतिचारोंका सेवन हुआ है, यह जानकर आलोचना और प्रतिक्रमणके लिये एक व्यक्ति अतिचार बोलता है और अन्य एकाग्र चित्तसे सुनते हैं !
४-५. फिर 'सव्वस्स वि' सूत्र बोलकर सर्व अतिचारोंका प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है। उसके बाद पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक तपके रूपमें एक, दो और चार उपवास; अथवा दो, चार और छः आयंबिल; अथवा तीन, छ: और नौ निव्वी; अथवा चार, आठ और बारह एकाशन; अथवा दो, चार और छः हजार सज्झायके तपका निवेदन किया जाता है। यदि ऐसा तप किया हुआ हो तो 'पइटिओ' बोला जाता है, उसका अर्थ यह है कि 'मैं अभी वैसे तपमें स्थित हूँ', और यदि ऐसा तप शीघ्र ही करना हो तो 'तह त्ति' कहा जाता है। कुछ लोग इस समय
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कुछ नहीं बोलकर मौन रहते हैं और कुछ लोग 'यथाशक्ति' कहकर उस को अंशतः स्वीकार करते हैं । पापोंका प्रायश्चित करनेके लिये इस तपकी योजना है, अतः वह अवश्य करना चाहिये।
६. फिर प्रत्येक खामणासे सबको खमाया जाता है और उसके पूर्व और पश्चात् विनयके लिये गुरुको द्वादशावर्त्त-वन्दन किया जाता है।
७. से १० फिर 'पक्खीसुत्त' बोलकर श्रुताराधनके उल्लासपूर्वक 'सुयदेवया' थुई कही जाती है। और 'सावग-पडिक्कमण' सुत्त कहकर बाहर लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है, वह अतिचारोंकी विशेष शुद्धिके लिये जानना।
११. फिर 'इच्छा० अन्भुढिओ हं समत्त ( समाप्त )-खामणेणं अभितर-पक्खियं खामेउं ?' आदि शब्दोंसे खमाया जाता है, वह काउस्सग्ग करते समय शुभ एकाग्रभावसे कोई अपराध याद आये हो तो उनको खमानेके लिये जानना । अथवा यहाँ पाक्षिक प्रतिक्रमणको समाप्ति होती है, अतः पहले क्षमापनके बाद कुछ अप्रीतिकारी हुआ हो, अथवा अशुद्ध क्रिया हुई हो तो उसके क्षमापनके लिये जानना!
१२. फिर 'सावग-पडिक्कमण' सुत्तसे दूसरी विधि देवसिक प्रतिक्रमणकी विधिके अनुसार करनी है, अतः उसके हेतु तदनुसार समझने चाहिए।
यहाँ श्रुतदेवताके कायोत्सर्गके स्थानपर भुवनदेवताका कायोत्सर्ग किया जाता है, उसका हेतु यह है कि क्षेत्रदेवताकी निरन्तर
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स्मृतिमें भुवनकी क्षेत्रान्तर्गतता होनेसे तत्त्वसे तो भुवनदेवताकीस्मृति प्रतिदिन होती ही है, तो भी पर्वके दिन उनका बहुमान करना।
१३. स्तवनके स्थानपर 'अजिय-संति-थओ' और 'शान्तिस्तव'के स्थानपर 'बृहच्छान्ति' बोली जाती है, वह पर्वके दिन भावकी विशेष वृद्धिके लिये समझनी।
[१७]
मङ्गल-भावना मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमः प्रभुः । मङ्गलं स्थूलभद्राद्या, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।। १ ।। नमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः । वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ २॥ ॐकारं बिन्दुसंयुक्त, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ॐकाराय नमो नमः ॥ ३ ॥ अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः, आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः । श्रीसिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।। ४ ।। पाताले यानि बिम्बानि, यानि बिम्बानि भूतले। स्वर्गेऽपि यानि बिम्बानि, तानि वन्दे निरन्तरम् !! ५!। जिने भक्तिजिने भििजने भक्तिदिने दिने। सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥६॥
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५४५ दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम् ।। ७॥ अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम । तस्मात् कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ॥ ८ ॥ प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्न, वदनकमलमङ्कः कामिनीसङ्गशून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्रसम्बन्धवन्ध्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥९॥ सरसशान्तसुधारससागरं, शुचितरं गुणरत्नमहाकरम् । भविकपङ्कजबोधदिवाकर, प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरम्।।१०॥ अद्य मे सफलं जन्म, अद्य मे सफला क्रिया। शुभो दिनोदयोऽस्माकं, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ॥११॥ न हि त्राता नहि त्राता, नहि त्राता जगत्त्रये । वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥१२॥
[१८] प्रभुके सम्मुख बोलनेके दोहे प्रभु-दरिसण सुख-सम्पदा, प्रभु-दरिसण नवनिध । प्रभु-दरिसणथी पामिये, सकलपदारथ सिद्ध ॥१॥ भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान। भावे भावना भाविये, भावे केवलज्ञान ।। २ ।। जीवडा! जिनवर पूजिये, पूजानां फल होय । राम नमे परजा नमे, आण न लोपे कोय ॥ ३ ॥
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५४६ पाँच कोडीने फूलडे, पाम्या देश अढार। राजा कुमारपालनो, वो जयजयकार ॥ ४ ॥ प्रभु नामनी औषधि, खरा भावथी खाय । रोग शोक व्यापे नहीं, सबि सङ्कट दूर थाय ।। ५ ।।
[१९] शत्रुञ्जयको प्रणिपात करते समय बोलनेके दोहे
सिद्धाचल समरु सदा, सोरठ देश मझार । मनुष्य-जन्म पामो करी, बन्दूँ वार हजार ।। १ ।। एकेकु डगलुं भरे, शत्रुञ्जय समुं जेह। ऋषभ कहे भव क्रोडनां, कर्म खपावे तेह ॥२॥ सिद्धाचल सिद्धि वर्या, गृहि-मुनिलिङ्ग अनन्त । आगे अनन्ता सिद्धशे, पूछो भवि ! भगवन्त ।। ३॥ शत्रुञ्जय गिरि-मण्डणो, मरुदेवानो नन्द । युगलाधर्म निवारको, नमो युगादि जिणन्द ।। ४ ।। सोरठ देशमां संचर्यो, न चढयो गढ़ गिरनार । शेजी नदी नाशो नहीं, एले गयो अवतार ॥ ५ ॥
[२०]
नवाङ्गपूजाके दोहे जल भरी सम्पुट पत्रमां, युगलिक-नर पूजन्त। ऋषभ-चरण-अंगूठडो, दायक भवजल-अन्त ॥१॥ जानु बले काउस्सग्ग रह्या, विचर्या देश-विदेश । खड़ा खड़ा केवल लह्य पूजो जानु नरेश ।। २॥
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५४७ लोकान्तिक वचने करी, वरस्या वरसीदान । कर-कांडे प्रभु-पूजना, पूजो भवि बहुमान ॥ ३ ॥ मान गयुं दोय अंसथी, देखी वीर्य अनन्त । भुजाबले भवजल तर्या, पूजो स्कन्ध महन्त ।। ४॥ सिद्धशिला गुण ऊजली, लोकान्ते भगवन्त । वसिया तिणे कारण भवि, शिर शिखा-पूजन्त ॥५॥ तीर्थकर-पद-पुण्यथी, त्रिभुवनजन सेवन्त । त्रिभुवन-तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवन्त ॥ ६॥ सोल पहोर प्रभु देशना, कण्ठे विवर वर्तुल । मधुर ध्वनि सुरनर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल ॥७॥ हृदय-कमल-उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । हिम दहे वन-खण्डने, हृदय तिलक सन्तोष ॥ ८॥ रत्नत्रयो गुण ऊजली, सकल सुगुण वित्राम । नाभिकमलनी पूजना, करतां अविचल धाम ।।९॥ उपदेशक नव तत्त्वना, तिणे नव अङ्ग जिणन्द । 'पूजो वहुविध रागशुं, कहे शुभवीर मुणिन्द ॥१०॥
[२१] अष्टप्रकारी पूजाके दोहे
१ जल-पूजा जल-पूजा जुगते करों, मेल अनादि विनास । जल-पूजा फल मुझ हजो, मागो एम प्रभु पास ॥ १ ॥
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५४८
२ चन्दन-पूजा शीतल गुण जेहमां रह्यो, शीतल प्रभु-मुखरङ्ग । आत्म शीतल करवा भणी, पूजो अरिहा-अङ्ग ॥ २ ॥
३ पुष्प-पूजा सुरभि अखण्ड कुसुमे ग्रही, पूजो गत सन्ताप । सुन(न)जन्तु भव्य ज परे, करीए समकित छाप ।। ३ ।।
४ धूप-पूजा ध्यान-घटा प्रगटावीए, वामनयन जिन धूप । मिच्छत्त दुर्गन्ध दूरे टले, प्रगटे आत्मस्वरूप ॥ ४ ॥
५ दीपक-पूजा द्रव्य दीप सुविवेकथी, करतां दुःख होय फोक । भाव-प्रदीप प्रगट हुए, वासित लोकालोक ।। ५ ।।
६ अक्षत-पूजा शुद्ध अखण्ड अक्षत ग्रही, नन्दावर्त विशाल । पूरी प्रभु संमुख रहो, टाली सकल जंजाल ॥ ६॥
७ नैवेद्य-पूजा अणाहारी पद में कर्या, विग्रह गई अनन्त । दूर करी ते दीजिए, अणाहारी शिव सन्त ॥ ७ ॥
८ फल-पूजा इन्द्रादिक पूजा भणी, फल लावे धरी राग । पुरुषोत्तम पूजा करी, मागे शिवफल-त्याग ॥ ८॥
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५४९
[२२] प्रभु-स्तुति
(१)
छे प्रतिमा मनोहारिणी दुःखहरी, श्रीवीर जिणन्दनो, भक्तोने छे सर्वदा सुखकरी, जाणे खोली चान्दनी। आ प्रतिमाना गुण भाव धरीने, जे माणसो गाय छ, पामी सघळां सुख ते जगतनां, मुक्ति भणी जाय छे ॥१॥
(२) आव्यो शरणे तुमारा जिनवर ! करजो, आश पूरी हमारी, नाव्यो भवपार भारो तुम विण जगमां, सार ले कोण मारी ? गायो जिनराज आजे हरख अधिकथी, पर्म आनन्दकारी, पाये तुम दर्श नासे भव-भय-भ्रमणा, नाथ सर्वे अमारी ॥१॥
(३) त्हाराथी न समर्थ अन्य दीननो, उद्धारनारो प्रभु, म्हाराथी नहि अन्य पात्र जगमां, जोतां जडे हे विभु । मुक्ति मङ्गल-स्थान तो य मुजने, इच्छा न लक्ष्मी तणी, आपो सम्यगरत्न 'श्याम' जीवने, तो तृप्ति थाये घणी ॥१॥
१. प्रभु-स्तुति, चैत्यवन्दन, स्तवन आदिमें भाषाकी दृष्टि से यथाशक्य सुधार किया है, किन्तु छन्दको दृष्टिसे जो अशुद्धियाँ हैं, उन्हें सुधारने से मूल कलेवर (पाठ ) बदल जाता है इसलिये उसमें परिवर्तन नहीं किया।
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५५०
(४)
सकल - कर्मवारी, मोक्ष - मार्गाधिकारी, त्रिभुवन - उपकारी, केवलज्ञान-धारी । भविजन --नित सेवो, देव ए भक्ति-भावे,
एही ज जिन भजन्ता, सर्व सम्पत्ति पावे ॥ १ ॥ जिनवर - पद सेवा, सर्व सम्पत्तिदाई, निशादन सुखदाई, कल्पवल्ली सहाई । नाम - विना लही जे, सर्व - विद्या बडाई, ऋषभ जिनह सेवा, साधनां तेह पाई ॥ २ ॥
[ २३ ]
चैत्यवन्दन
( १ )
पद्मप्रभु ने वासुपूज्य, दोय राता कहीये । चन्द्रप्रभु ने सुविधिनाथ, दो उज्ज्वल लहीये ॥ १ ॥ मल्लिनाथ ने पार्श्वनाथ, दो नीला निरख्या ।
सरीखा ॥ २ ॥
मुनिसुव्रत ने नेमिनाथ, दो अंजन मोले जिन कञ्चन समा, एवा निज धोरविमल पण्डिततणो, ज्ञानविमल कहे शिष्य ॥ ३ ॥
चोवीस |
( २ )
भावे ।
बार गुण अरिहन्तदेव प्रणमोजे सिद्ध आठ गुण समरतां, दुःख - दोहग जावे ॥ १ ॥
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५५१ आचारज-गुण छत्रीश, पचवीश उवज्झाय । सत्तावीश साधुना, जपतां शिवसुख थाय ।। २॥ अष्टोत्तर-शत गुण मली, एम समरो नवकार । धीरविमल पण्डिततणो, नय प्रणमे नित सार ॥ ३॥
श्रीशान्तिनाथका चैत्यवन्दन
शान्ति जिनेश्वर सोलमा, अचिरा-सुत वन्दो। विश्वसेन-कुल-नभमणि, भविजन-सुख-कन्दो ॥१॥ मृगलंछन निज आउखु, लाख बरस प्रमाण । हत्थिणाउर-नयरी-धणो, प्रभुजी गुण-मणि-खाय।। २ ॥ चालीश धनुषनी देहडी, समचउरस संठाण । वदन-पद्म ज्युं चंदलो, दीठे परम कल्याण ।। ३ ।।
चौबीस जिनलाञ्छनका चैत्यवन्दन
(४)
ऋषभ-लंछन ऋषभदेव, अजित-लंछन हाथी । सम्भव-लंछन घोडलो, शिवपुरनो साथी ॥१॥ अभिनन्दन-लंछन कपि, क्रौंच-लंछन सुमति । पद्म-लंछन पद्मप्रभु, विश्वदेवा सुमति ॥ २ ॥ सुपार्श्व-लंछन साथीओ, चन्द्रप्रभु-लंछन चन्द्र । मगर-लंछन सुविधि प्रभु,श्रीवच्छ शीतल जिणन्द ॥ ३ ॥
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५५२
लंछन खड्गी श्रेयांसने, वासुपूज्यने महिष । सूवर-लंछन पाये विमलदेव, ललिया ते नामो शिष ॥ ४ ॥ सिंचाणो जिन अनन्तने, वज्र-लंछन श्रीधर्म । शान्ति-लंछन मरगलो, राखे धर्मनो मर्म ॥ ५॥ कुन्थुनाथ जिन बोकड़ो, अरजिन नन्दावर्त । मल्लि कुम्भ वखाणीए, सुव्रत कच्छप विख्यात ।। ६ ॥ नमि जिनने नीलो कमल, पामीए पङ्कजमांही। शङ्ख-लंछन प्रभु नेमजी, दीसे ऊंचे आंही ॥७॥ पार्श्वनाथने चरण सर्प नीलवरण शोभित । सिंह-लंछन कंचनतनु, वर्द्धमान विख्यात ॥ ८॥ एणी परे लंछन चिन्तवी, ओलखीए जिनराय । ज्ञानविमल प्रभु सेवतां, लक्ष्मीरतन सूरिराय ॥९॥ श्रीसिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन
(५) विमल केवलज्ञान-कमला-कलित, त्रिभुवन हितकरं । सुरराज-संस्तुत-चरणपङ्कज, नमो आदि जिनेश्वरं ॥१॥ विमल-गिरिवर-शृङ्गमण्डन, प्रवर-गुणगण-भूधरं । सुर-असुर-किन्नर-कोडि-सेवित, नमो आदि जिनेश्वरं ॥२॥ करत नाटक किन्नरी-गण, गाय जिन-गुण मनहरं । निर्जरावली नमे अहर्निश, नमो आदि जिनेश्वरं ॥३॥
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. ५५३ 'पुण्डरीक गणपति सिद्धि साधी, कोडी पण मुनि मनहरं । श्रीविमल गिरिवर-शृङ्ग सिद्धा, नमो आदि जिनेश्वरं ।। ४॥ निजसाध्य-साधक सुर-मुनिवर, कोडि'नन्त ए गिरिवरं । मुक्ति-रमणी वर्या रंगे, नमो आदि जिनेश्वरं ॥५॥ पाताल-नर-सुर-लोकमांही, विमल गिरिवरतो परं । नहि अधिक तीरथ तीर्थपति कहे, नमो आदि जिनेश्वरं ॥६॥ विमल गिरिवर-शिखर-मण्डण, दुःख-विहण्डण ध्याइये । निज शुद्ध-सत्ता-साधनाथ, परम ज्योति निपाइये ।। ७॥ जितमोह-कोह-विछोह निद्रा, परम-पद-स्थित जयकरं। ईगरिराज-सेवा-करण-तत्पर, पद्मविजय सुहितकरं ॥ ८॥
श्रीसिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन श्रीशजय सिद्ध-क्षेत्र, दीठे दुर्गति वारे । भाव धरीने जे चढे, तेने भवपार उतारे ॥१॥ अनन्त सिद्धनो एह ठाम, सकल तीर्थनो राय । पूर्व नवाणुं ऋषभदेव, ज्यां ठवीआ प्रभु पाय ।। २॥ सूरजकुण्ड सोहामणो, कवड जक्ष अभिराम । नाभिराया-कुलमण्डणो, जिनवर करूं प्रणाम ॥३॥
(७) श्रीऋषभदेवका चैत्यवन्दन आदिदेव अलवेसरू, विनीतानो राय ।
नाभिराया-कुलमण्डणो, मरुदेवा माय ॥१॥ प्र-३६
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५५४ पाँचसें धनुषनी देहडी, प्रभुजी परम दयाल ।
चोराशी लख पूर्व-, जस आयु विशाल ।। २ ॥ वृषभ-लंछन जिन वृष-धरु (ए), उत्तम गुण मणिखाण । तस पद-पद्म सेवन थकी, लहीए अविचल ठाण ॥३॥
(८) श्रीसीमन्धरस्वामीका चैत्यवन्दन श्रीसीमन्धर ! जगधणी, आ भरते आवो। करुणावन्त करुणा करी, अमने वन्दावो ॥ १॥ सयल भक्त तुमे धणी, जो होवे मुज नाथ । भवोभव हुं छु ताहरो, नहि मेलुं हवे साथ ॥ २॥ सयल सङ्ग छंडी करी, चारित्र लेइशुं । पाय तुमारा सेवीने, शिवरमणी वरीशुं ॥ ३ ॥ ए अलजो मुजने घणो, पूरो सीमन्धर देव । इहां थकी हुँ विनवू, अवधारो मुज सेव ॥ ४ ॥
.. श्रीसीमन्धरस्वामीका चैत्यवन्दन श्रीसीमन्धर वीतराग, त्रिभुवन तुमे उपकारी। श्रीश्रेयांस पिताकुले, बहु शोभा तुमारी ॥ १ ॥ धन्य धन्य माता सत्यकी, जेणे जायो जयकारी। वृषभ लंछन बिराजमान, वन्दे नर नारी ॥२॥ धनुष पाँचशे देहडीए, सोहे सोवन वान । कीर्तिविजय उवज्झायनो, विनय धरे तुम ध्यान ॥३॥
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५५५
(१०) श्रीसीमन्धरस्वामीका चैत्यवन्दन सीमन्धर परमातमा, शिव-सुखना दाता। पुक्खलवइ-विजये जयो, सर्व जीवना त्राता ।। १॥ पूर्व विदेहे पुण्डरीगिणी. नयरीए सोहे। श्रीश्रेयांस राजा तिहां, भवियणनां मन मोहे ॥२॥ चौद सुपन निर्मल लही, सत्यकी राणी मात । कुन्थु-अरजिन-अन्तरे, श्रीसीमन्धर जात ।।३॥ अनुक्रमे प्रभु जनमीआ, वळी यौवन पावे । मात-पिता हरखे करी, रुक्मिणी परणावे ॥४॥ भोगवी सुख संसारना, संजम मन लावे। मुनि-सुव्रत-नमि-अन्तरे, दीक्षा प्रभु पावे ॥५॥ घातीकर्मनो क्षय करी, पाम्या केवलज्ञान । वृषभ-लंछने शोभतां, सर्व भावना जाण ॥ ६ ॥ चोराशी जश गणधरा, मुनिवर एक सो कोड़। त्रण भुवनमां जोवतां, नहि कोई एनी जोड़ ॥ ७॥ दश लाख कह्यां केवली, प्रभुजीनो परिवार। एक समय त्रण कालना, जाणे सर्व विचार ॥ ८॥ उदय पेढाल-जिन-अन्तरे, थाशे जिनवर सिद्ध । जसविजय गुरु प्रणमतां, शुभ वांछित फल लीध ।। ९॥
(११)
नवपदजीका चैत्यवन्दन सकल-मङ्गल-परम-कमला-केलि-मंजुल-मन्दिरं । भव-कोटि-संचित-पाप-नाशन, नमो नवपद जयकरं ॥१॥
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५५६
अरिहन्त सिद्ध सूरीश वाचक, साधु दर्शन सुखकरं । वर ज्ञान पद चारित्र तप ए, नमो नवपद जयकरं ॥ २ ॥ श्रीपाल राजा शरीर साजा, सेवतां नवपद वरं । जगमांहि गाज्या कीर्तिभाजा, नमो नवपद जयकरं ॥ ३॥ श्रीसिद्धचक्र पसाय सङ्कट, आपदा नासे अरं । वली विस्तरे सुख मनोवांछित नमो नवपद जयकरं ॥ ४ ॥ आंबिल नव दिन देववन्दन, त्रण टंक निरन्तरं । बे वार पडिक्कमणां पलेवण, नमो नवपद जयकरं ॥ ५ ॥ भावे पूजिए, भवतारकं तीर्थङ्करं । तिम गुणणुं दोय हजार गणीए, नमो नवपद जयकरं ॥ ६ ॥ इम विधिसहित मन-वचन-काया, वश करी आराधीए । तप वर्ष साडाचार नवपद शुद्ध साधन साधीए ॥ ७ ॥ गद कष्ट चूरे शर्म पूरे, यक्ष विमलेश्वर वरं । श्रीसिद्धचक्र प्रताप जाणी, विजय विलसे सुखभरं ॥ ८ ॥
त्रण काल
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( १२ )
दूजका चैत्यवन्दन
दुविध धर्म जेणे उपदिश्यो, चोथा अभिनन्दन । बीजे जन्म्या ते प्रभु, भवदुःखनिकन्दन ॥ १ ॥ दुविध ध्यान तुमे परिहरो, आदरो दोय ध्यान । इम प्रकाश्यं सुमतिजिने, ते चविया बीजदिन ॥ २ ॥ दोय बन्धन राग-द्वेष, तेहने भवि! तजिये । मुज परे शीतल जिन कहे, बीज दिन शिव भजिये ॥ ३ ॥ जीवाजीव पदार्थनुं, पदार्थनुं, करो नाण सुजाण । बीज दिन वासुपूज्य परे, लहो केवलनाण ॥ ४ ॥
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५५७
निश्चय नय व्यवहार दोय, एकान्ते न ग्रहीए। अरजिन बीज दिने चव्या, एम आगळ कहोए ॥ ५ ॥ वर्तमान चोवीशी ए, एम जिन-कल्याण । बोज दिने केई पामिया, प्रभु नाण-निर्वाण ॥ ६ ॥ एम अनन्त चोवीशीए, हुआ बहु कल्याण ।। जिन उत्तम पद पद्मने, नमतां होय सुख-खाण ॥ ७॥
(१३) ज्ञानपञ्चमीका चैत्यवन्दन त्रिगड़े बेठा वीर जिन, भाखे भविजन आगे । त्रिकरण शुं त्रिहुं लोकजन, निसुणो मन रागे ॥१॥ आराधो भली भांतसे, पाँचम अजुआली । ज्ञान-आराधन कारणे, एहिज तिथि निहाली ॥२॥ ज्ञान विना पशु सारिखा, जणो इणे संसार । ज्ञान-आराधनथी ला, शिव-पद-सुख श्रीकार ।। ३ ।। ज्ञानरहित किरिया कही, कास-कुसुम उपमान । लोकालोक-प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान ॥ ४॥ ज्ञानी श्वासोच्छवासमां, करे कर्मनो छेह । पूर्व कोडो वरसां लगे, अज्ञाने करे जेह ॥ ५ ॥ देश-आराधक क्रिया कही, सर्व-आराधक ज्ञान । ज्ञानतणो महिमा घणो, अङ्ग पाँचमे भगवान ॥ ६ ॥ पञ्च मास लघुपञ्चमी, जाव जोव उत्कृष्टि । पञ्च वरस पञ्च मासनी, पञ्चमी करो शुभ दृष्टि।। ७ ।। एकावन हि पञ्चनो, काउस्सग्ग लोगस्स केरो। उजमणुं करो भावशुं टालो भव-फेरो॥८॥
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५५८
एणी पेरे पञ्चमी आराधोए, आणी भाव अपार । वरदत्त-गुणमञ्जरी परे, रङ्गविजय लहो सार ॥९॥
(१४) अष्टमीका चैत्यवन्दन
महा शुदि आठम दिने, विजया-सुत जायो। तेम फागण शुदि आठमे, सम्भव चवी आयो ॥१॥ चैत्र वदनी आठमे, जन्म्या ऋषभ जिणन्द । दीक्षा पण ए दिन लही, हुआ प्रथम मुनिचन्द ॥ २॥ माधव शुदि आठम दिने, आठ कर्म कर्यां दूर । अभिनन्दन चोथा प्रभु, पाम्यां सुख भरपूर ॥ ३ ॥ एहिज आठम ऊजली, जनम्या सुमति जिणन्द । आठ जाति कलशे करी, न्हवरावे सुर-इन्द ।। ४ ।। जन्म्या जेठ वदि आठमे, मुनिसुव्रत स्वामी। तेम अषाड शुदि आठमे, अष्टमी गति पामी ॥ ५ ॥ श्रावण वंदनी आठमे, नमि जन्म्या जगभाण । तेम श्रावण शुदि आठमे, पासजीनुं निरवाण ।। ६ ।। भादरवा वदि आठम दिने, चविया स्वामी सुपास । जिन उत्तम पद-पद्मने, सेव्याथी शिव-वास ॥७॥
(१५) मौनएकादशीका चैत्यवन्दन शासननायक वीरजी, प्रभु केवल पायो। संघ चतुर्विध स्थापवा, महासेन वन आयो ॥१॥
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५५९
माधव सित एकादशी, सोमल द्विज यज्ञ । इन्द्रभूति आदे मली, छे एकादश विज्ञ ॥ २॥ एकादशसें चउ गुणो, तेहनो परिवार । वेद अरथ अवलो करे, मन अभिमान अपार ॥ ३ ॥ जोवादिक संशय हरी, एकादश गणधार । बीरे स्थाप्या वन्दीए, जिनशासन जयकार ।।। ४ ॥ मल्लिजन्म अर-मल्लि-पास, वर-चरण-विलासी। ऋषभ अजित सुमति नमि, मल्लि घन-घाती विनाशी॥ ५ ॥ पद्मप्रभ शिववास पास, भवभवना तोड़ी। एकादशी दिन आपणी, ऋद्धि सघळी जोड़ी ॥६॥ दश क्षेत्रे तिहुं कालना, त्रणशें कल्याण । वर्ष अग्यार एकादशी, आराधो वरनाण ॥७॥ अगियार अङ्ग लखावीए, एकादश पाठा। पूंजणी ठवणी वीटणी, मसी कागळ ने काठा ॥ ८॥ अगियार अव्रत छांडवा ए, वहो पडिमा अगियार । खिमाविजय जिनशासने, सफल करो अवतार ॥९॥
(१६) श्रीपर्युषणा-पर्वका चैत्यवन्दन पर्व पर्युषण गुणनीलो, नवकल्पी विहार । चार मासान्तर स्थिर रहे, एही ज अर्थ उदार ॥ १॥ अषाड सुदी चउदश थकी, संवत्सरी पचास । मुनिवर दिन सित्तेरमें, पडिक्कमतां चौमास ॥२॥ श्रावक पण समता धरी, करे गुरुनां बहुमान । कल्पसूत्र सुविहित मुखे, सांभले थइ एक तान ॥ ३ ॥
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जिनवर चैत्य जुहारीए, गुरुभक्ति विशाल । प्रायः अष्ट भवान्तरे, वरीए शिव-वरमाल ।। ४ ।। दर्पणथी निज रूपनो, जुए सुदृष्टि रूप । दर्पण अनुभव अर्पणो, ज्ञानरयण मुनि भूप ।। ५ ।। आत्मस्वरूप विलोकतां, प्रगटयो मित्र-स्वभाव । राय उदाई खामणां, पर्व पर्युषण दाव ॥ ६ ॥ नव वाखण पूजी सुणो, शुक्ल चतुर्थी सीमा। पञ्चमी दिन वांचे सुणे, होय विराधक नियमा ।। ७।। ए नहि पर्व पञ्चमी, सर्व समाणो चोथे ।। भवभीरु मुनि मानशे, भाख्युं अरिहा नाथे ॥ ८ ॥ श्रुतकेवली वयणां सुणीए, लही मानव अवतार । श्रीशुभवीरने शासने, सफल करो अवतार ।। ९ ।।
[२४] (१)
स्तवन
श्रीआदिजिनका स्तवन प्रथम जिनेश्वर प्रणमीए, जास सुगन्धी रे ! काय । कल्पवृक्ष परे तास इन्द्राणी-नयन जे भृङ्ग परे लपटाय ।।
प्रथम जिनेश्वर० ॥१॥ रोग-उरग तुज नवि नडे, अमृत जेह आस्वाद । तेहथी प्रतिहत तेहमांगें, कोई नवि करे, जममां तुम शुं रे वाद ।।
प्रथम जिनेश्वर० ॥ २॥
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५६१
वगर धोई तुज निर्मली, काय। कञ्चन-वान । नहीं प्रस्वेद लगार, तारे तुं तेहने, जेह धरे ताहरु ध्यान ॥
प्रथम जिनेश्वर० ॥ ३ ॥ राग गयो तुज मन थकी, तेहमां चित्र न कोय । रुधिर आमिषथी राग गयो तुज जन्मथी, दूध-सहोदर होय ।।
प्रथम जिनेश्वर० ॥४॥ श्वासोच्छ्वास कमल समो, तुज लोकोत्तर वात । देखे न आहार-निहार चरम-चक्षु-धणी, एहवा तुज अवदात ॥
प्रथम जिनेश्वर० ॥ ५॥ चार अतिशय मूलथी ओगणीश देवना कीध ! कर्म खप्याथी अग्यार चोत्रीश एम अतिशया, समवायांगे प्रसिद्ध ।
प्रथम जिनेश्वर० ॥६॥ जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अङ्ग। पद्मविजय कहे एह समय प्रभु पालजो, जेम थाऊं अक्षय अभङ्ग ।
प्रथम जिनेश्वर० ॥७॥
(२)
श्रीआदिजिनका स्तवन माता मरुदेवीनां नन्द ! देखो ताहरी मूरति मारुं मन लोभापुंजी
के मारुं चित्त-चोराणुं जी। करुणानां घर करुणा-सागर, काया-कञ्चन-वान । धोरी-लंछन पाउले कांई, धनुष पाँचसे मान....माता० ॥१॥ त्रिगडे बेसी धर्म कहता, सूणे पर्षदा बार । योजनगामिनी वाणी मीठी, वरसन्ती जलधार...माता० ॥२॥
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५६२ उर्वशी रूडी अपसराने, रामा छे मनरङ्ग । पाये नेउर रणझणे कांई, करती नाटारम्न....माता० ॥३॥ तुंहि ब्रह्मा, तुंहि विधाता, तुं जगतारणहार । तुज सरीखो नहि देव जगतमां, अडवडिया आधार....माता० ॥ ४॥ तुहि भ्राता, तुं हि त्राता, तुंहि जगतनो देव । सुर-नर-किन्नर-वासुदेवा, करता तुज पद सेव....माता०॥ ५॥ श्रीसिद्धाचल तीरथ केरो, राजा ऋषभ जिणंद । कीर्ति करे माणेकमनि ताहरो, टालो भवभय फंद....माता० ॥६॥
(३) श्रीआदिजिनका स्तवन ( राग-मारु-करम परीक्षा करण कुंवर चल्यो-ए देशी ) ऋषभ जिनेश्वर प्रोतम माहरो रे, ओर न चाहं रे कन्त । रीझ्यो साहेब सङ्ग न परिहरे रे, भांगे सादि-अनन्त-ऋ॥१॥ प्रीतसगाई रे जगमां सह करे रे, प्रीतसगाई न कोय । प्रीतसगाई रे निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय-ऋ० ॥२॥ कोई कंथ कारण काष्ठभक्षण करे रे, मलशं कन्तने धाय । ए मेलो नवि कहीए संभवे रे, मेलो ठाम न ठाय-ऋ० ॥३॥ कोई पतिरञ्जन अति घणुं तप करे रे, पतिरञ्जन तन ताप । ए पतिरञ्जन में नवि चित धर्यु रे, रञ्जन धातु मिलाप-ऋ० ॥४|| कोइ कहे लीला रे अलख अलख तणीरे, लख पूरे मन आश। दोष-रहितने लीला नवि घटे रे, लोला दोष विलास-ऋ० ॥५॥ चित्तप्रसन्ने रे पूजन फल कहयुं रे, पूजा अखण्डित एह । कपटरहित थई आतम अरपणा रे, आनन्दघन-पद-रेह-ऋ० ॥६॥
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५६३
( ४ ) श्रीअजितनाथस्वामीका स्तवन
( राग-आशावरी-मारूं मन मोह्य रे श्रीविमलाचले रे-ए देशी )
पंथडों निहालुं रे बीजा जिन तणो रे, अजित अजित गुणधाम । जे तें जीत्या रे तेणे हुं जोतियो रे, पुरुष किश्युं मुज नाम-पंथ०॥१॥ चरम नयण करी मारग जोवतां रे, भूल्यो सयल संसार। जेणे नयणे कही मारग जोइए रे, नयण ते दिव्य विचार-पंथ०॥२।। पुरुष परंपर अनुभव जोवतां रे, अन्ध पलाय । वस्तु विचारे रे जो आगमे करी रे, चरण धरण नहि ढाय-पंथ०॥३॥ तर्क विचारे रे वादपरम्परा रे, पार न पहुँचे कोय । अभिमत वस्तु रे वस्तुगते कहे रे, ते विरला जग जोय पंथ० ॥४॥ वस्तु विचारे रे दिव्य नयणतणो रे, विरह पड़यो निरधार । तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार-पंथ० ।।५।। काललब्धि लही पंथ निहालशुं रे, ए आशा अवलम्ब । ए जन जीवे रे जिनजी! जाणजोरे,आनन्दधन-मत-अम्ब-पंथ०॥६॥ .
(५)
श्रीअजितनाथस्वामीका स्तवन प्रीतलड़ी बंधाणी रे अजित जिणंद शं, प्रभुपाखे क्षण एक मने न सुहाय जो। ध्याननी तालो रे लागी नेहशु, जलदघटा जेम शिवसुत वाहन दाय जो-प्रीतलडी० ॥१॥
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५६४
नेहघेलुं मन म्हारुं रे प्रभु अलजे रहे, तनमनधन ते कारणथी प्रभु मुज जो । म्हारे तो आधार रे साहेब रावरो, अन्तरगतनी प्रभु आगल कहुं
गुंज जो - प्रीतलडी० ॥ २ ॥
साहेब ते साचो रे जगमां सेवकनां जे सहेजे सुधारे एहवे रे आचरणे केम करी रहूं, बिरुद तमारुं तारण तरण - जहाज
जाणीए, काज जो ।
जो—- प्रीतलडी ० ॥ ३ ॥
तारकता तुज मांहे रे श्रवणे सांभली, ते भणी हुं आव्यो छु दीनदयाल जो । तुज करुणानी लहेरे रे मुज कारज सरे, शुं घणुं कहीए जाण आगल कृपाल जो - प्रीतलडी ० ।। ४ ।।
करुणाधिक कीधी रे सेवक ऊपरे, भवभय भावठ भांगी भक्ति प्रसंग जो । मनवांछित फलीया रे प्रभु आलम्बने, कर जोड़ोने मोहन कहे
मनरंग
जो - प्रीतलडी० ॥ ५ ॥
( ६ )
श्रीसम्भवनाथस्वामीका स्तवन
सम्भवदेव ते धुर सेवो सबेरे, लहो प्रभु सेवन भेद ।
सेवन कारण पहेलो भूमिका रे, अभय अद्वेष अखेद - सम्भव० ।। १ ।।
भय चञ्चलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष अरोचक भाव | खेदप्रवृत्ति हो करता थाकीये रे, दोष अबोध लखाव- सम्भव० ||२||
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चरमावर्त' हो चरम-करण तथा रे, भव-परिणति-परिपाक । दोष टले वळी दृष्टि खुले भली रे, प्राप्ति प्रवचन वाक्-सम्भव०॥३॥ परिचय पातक घातक' साधु शुं रे, अकुशल अपचय चेत। ग्रन्थ अध्यातम श्रवण मनन करी रे, परिशीलन नय-हेत-सम्भव०॥४॥ कारण जोगे हो कारज नीपजे रे, एमां कोई न वाद । पण कारण विण कारज साधियो रे, एनिज मत उनमाद-सम्भव०॥५॥ मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन अगम अनूप । देजो कदाचित् सेवक याचना रे, आनन्दघन-रस-रूप-सम्भव०॥६॥
(७) श्रीअभिनन्दनस्वामीका स्तवन
( राग-धनाश्री-सिंधुडा आज निहेजो रे दीसे नाहलो-यह देशी ) अभिनन्दन जिन ! दरिसण तरसीए, दरिसण दुर्लभ देव । मत मत भेदे रे जो जई पूछिए, सौ थापे अहमेव-अभि० ॥१॥ सामान्ये करी दरिसण दोहिलं, निर्णय सकल विशेष । मदमें घेर्यो रे अन्धो किम करे ? रवि-शशि-रूप विलेख-अभि० ॥२॥ हेतुविवादे हो चित्त धरी जोइए, अति दुरगम नयवाद । आगमवादे हो गुरुगम को नहीं, ए सबलो विषवाद-अभि० ॥ ३ ॥ घाति-डुंगर आडा अति घणा, तुझ दरिसण जगनाथ । धोठाई करी मारग संचरू, सेगुं कोइ न साथ -अभि० ।। ४ ।। दरिसण दरिसण रटतो जो फिरू, तो रण-रोझ समान । जेने पिपासा हो अमृतपाननी, किम भांजे विषपान-अभि० ॥ ५ ॥
१. अन्तिम पुद्गलपरावर्तन । २. अनिवृत्तिकरण ।
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५६६ तरस न आवे हो मरण-जीवनतणो, सीझे जो दरिसण काज ।। दरिसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, आनन्दघन महाराज-अभि०॥६॥
(८) श्रीविमलनाथस्वामीका स्तवन
( राग-मल्हार : ईडर आंबा आंबली रे, ईडर दाडिम द्राख-यह देशी ) दुःख दोहग दूर टल्या रे, सुख संपदशं भेट । धीग धणो माथे कियो रे, कुण गंजे नर खेटविमल जिन ! दीठा लोयण आज, म्हारां सिद्धयां वंछित
काज-विमल० ॥१॥ चरण-कमल कमला वसे रे, निर्मल थिर पद देख । समल अथिर पद परिहरे रे, पङ्कज पामर पेख-विमल० ॥२॥ मुज मन तुझ पद-पङ्कजे रे, लीनो गुण मकरन्द । रङ्क गणे मन्दरधरा रे, इन्द्र-चन्द्र-नागिन्द-विमल० ॥३। साहेब ! समरथ तू धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विशरामी वालहो रे, आतमचो आधार-विमल० ॥ ४॥ दरिसण दीठे जिनतणुं रे संशय न रहे वेध । दिनकर-कर-भर पसरतां रे, अन्धकार-प्रतिष-विमल० ॥५॥ अमियमरी मूरति नची रे, उपमा न घटे कोय । शान्तसुधारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय-विमल० ॥ ६ । एक अरज सेवक तणो रे, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुज दीजिए रे, आनन्दधन-पद-सेव-विमल० ॥७॥
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५६७
श्री अनन्तनाथस्वामीका स्तवन
( राग-रामगिरि : करखा प्रभाती) धार तरवारनी सोहिली दोहिलो, चौदमां जिनतणी चरण सेवा। धार पर नाचता देख बाजोगरा, मेंवना धार पर रहे न देवा
धार० ॥१॥ एक कहे सेविए विविध किरिया करी, फल अनेकान्त लोचन न देखे। फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा, रडवडे चार गतिमांहि लेखे
धार० ॥ २॥ गच्छना भेद बहु नयण निहालतां, तत्त्वनी बात करतां न लाजे । उदरभरणादि निज काज करतां थकां, मोह नडीया कलिकाल राजे
धार० ॥ ३॥ वचन निरपेक्ष व्यवहार जूठा कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार साचो। वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार फल, सांभली आदरी कांई राचो--
धार० ॥४॥ देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे ? किम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो। शुद्ध श्रद्धान विणु सर्व किरिया करी, छार पर लीपणुं तेह जाणो
धार० ॥ ५॥ पाप नहि कोई उत्सूत्र भाषण जिस्यो, धर्म नहि कोई जगसूत्र सरिखो। सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहनुं शुद्ध चारित्र परिखो
धार० ॥ ६ ॥ एह उपदेशनो सार संक्षेपथी, जे नरा चित्तमा नित्य ध्यावे । ते नरा दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत आनन्दघन राज्य पावे
धार० ॥ ७॥
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५६८
( १० )
श्री शान्तिनाथस्वामीका स्तवन
( राग - मल्हार : चतुर चोमासुं
पडिक्मी - यह देशी )
शान्ति जिन एक मुझ विनति, सुणो त्रिभुवन - राय रे ! शान्ति स्वरूप किम जाणीए, कहो मन किम परखाय रे - शान्ति० ।। १ ।।
धन्य तुं आतम जेहने, एहवो प्रश्न अवकाश रे ! धीरज मन धरी सांभलो, कहुँ शान्ति प्रतिभास रे - शान्ति० ॥ २ ॥
भाव अविशुद्ध सुविशुद्ध जे, कह्या जिनवर देव रे ! ते ते अवितथ सहे, प्रथम ए शान्तपद तेव रे - शान्ति० ।। ३ ।।
आगमधर गुरु समकिती, किरिया संवर सार रे ! सम्प्रदायो अवञ्च सदा, शुचि अनुभव आधार रे - शान्ति• ॥ ४ ॥
शुद्ध आलम्बन आदरे, तजी अवर जंजाल रे ! तामसी वृत्त सवि परिहरे, भजे सात्त्विक शाल रे - सन्ति० ।। ५ ।।
फल विसंवाद जेहमां नहीं, शब्द ते अर्थ सम्बन्धी रे ! सकल नयवाद व्यापी रह्यो, ते शिव साधन सन्धि रे - शान्ति ॥ ६॥
विधि प्रतिषेध करी आतमा, पदारथ अविरोध रे ! ग्रहण विधि महाराजने परिग्रह्यो, ईस्यो आगमे बोध रे - शान्ति ० ॥ ७ ॥
दुष्टजन संगति परिहरी, भजे सुगुबु सन्तान रे ! जोग सामर्थ्य चित्त भावजे, धरे मुगति निदान रे - शान्ति ॥ ८ ॥
मान अपमान चित्त सम गणे, सम गणे कनक पाषाण रे !
बन्दक निन्दक सम गणे,
ईस्यो होये तुं जाण रे - शान्ति० ॥ ९ ॥
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५६९
सर्व जगजन्तुने सम गणे, गणे तृण मणि-भाव रे ! मुक्ति संसार बेहु सम गणे, मुने भवजलनिधि नाव रे-शान्ति० ॥१०॥ आपणो आतमभाव जे, एक चेतनाधार रे! अवर सवि साथ संयोगथो, एह निज परिकर सार रे-शान्ति ॥११॥ प्रभु मुखथी एम सांभली, कहे आतमराम रे! ताहरे दरिसणो निस्तयों, मुज सिध्यां सवि काम रे-शान्ति० ॥१२॥ अहो अहो हुं मुंजने कहुं, नमो मुज नमो मुज रे ! अमित फल दान दातारनी, जेहनी भेट थई तुज रे-शान्ति० ॥१३॥ शान्ति सरूप संक्षेपथी, कह्यो निज पर-रूप रे! आगम मांहे विस्तर घणो, कह्यो शान्ति जिन-भूप रे-शान्ति० ॥१४॥ शांति सरूप एम भावशे, धरी शुद्ध प्रणिधान रे ! आनन्दघन पद पामशे, ते लहेशे बहुमान रे-शान्ति० ॥१५॥
(११)
श्रीशान्तिजिनका स्तवन शान्ति जिनेश्वर साचो साहिब, शान्ति करण अनुकूलमें
हो जिनजो ! शान्ति। तुं मेरा मनमें तुं मेरा दिलमें, ध्यान धरूँ पलपलमें
साहेबजी! शान्ति०॥१॥ भवमां भमतां में दरिसण पायो, आश पूरो एक पलमें
हो जिनजी! शान्ति० ॥२॥ निर्मल ज्योत वदन पर सोहे, निकस्यो ज्यूं चन्द बादलमें
साहेबजी ! शान्ति० ॥३॥
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५७०
मेरो मन ! तुम साथे लीनो, मीन बसे ज्यूं जलमें
हो जिनजी ! शान्ति ॥४॥ जिनरंग कहे प्रभु शान्ति जिनेश्वर, दीठो देव सकलमें
साहेबजी ! शान्ति० ॥ ५ ॥
(१२) श्रीकुन्थुनाथस्वामीका स्तवन ( राग-गूर्जरी रामकली, अम्बर दे दे मुरारि ! हमारो-यह देशी ) मनडुं किमहि न बाजे हो कुन्थुजिन ! मनडुं किमहि न बाजे । जिम जिम जतन करोने राखू, तिम तिम अलगुं भाजे हो
कुन्थुजिन० ॥ १॥ रजनी वासर वसती ऊजड़, गयण पायाले जाय । 'सांप खायने मुखड़े थोथु', एह उरवाणो न्याय हो
कुन्थुजिन० ॥ २॥ मुगतितणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान ध्यान अभ्यासे । वयरोडु कांई एहवं चिते, नाखे अवले पासे हो
कुन्थुजिन० ॥ ३ ॥ आगम आगमधरने हाथे, नावे किणविध आंकू । किहां कणे जो हठ करी हटकू (तो) व्यालतणी परे वांकु हो
कुन्थुजिन० ॥ ४॥ जो ठग कहुं तो ठगता न देखू, शाहुकार पण नाही । सर्वमांहे ने सहुथी अलगुं, ए अचरिज मनमांहि हो
कुन्थुजिन० ।। ५ ॥
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५७१
जे जे कहुं ते कान न धारे, आपमते रहे कार्यो । सुर नर पण्डितजन समझावे, समझे न माहरु सालुं हो
कुन्थुजिन ॥ ६ ॥ में जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले।। बोजो वाते समरथ छे नर, एहने कोई न झेले हो
कुन्थुजिन० ॥७॥ मन साध्यं तेणे सघल साध्यं, एह बात नहीं खोटी। एम कहे साध्यं ते नवि मार्नु, एक हो वात छे मोटो हो
. कुन्थुजिन० ॥ ८॥ मनडुं दुराराध्य तें वश आण्यु, ( ते ) आगमथी मति आणुं । आनन्दघन-प्रभु माहरुं आणो, तो साचुं करी जाणुं हो
कुन्थुजिन० ॥९॥ (१३) श्रीपार्श्वनाथजीका स्तवन
अन्तरजामी सुण अलवेसर, महिमा त्रिजग तुम्हारो; सांभलीने आव्या हुँ तीरे, जन्म-मरण-दुःख वारो। सेवक अरज करे छे राज, अमने शिव सुख आपो० ॥१॥ सहुकोना मन वांछित पूरो, चिन्ता सहुनी चूरो । एहवू बिरुद छे गज तमारं; केम राखो छो दूरो-सेवक० ॥२॥ सेवकने वलवलतो देखी, मनमा महेर न धरशो। करुणासागर किम कहेवाशो, जो उपकार न करशो-सेवक० ॥ ३ ॥ लटपटनुं हवे काम नहीं छे, प्रत्यक्ष दरिसण दीजे । धुंआडे धीजें नहि साहिब ! पेट-पड्या पतीजे-सेवक० ॥४॥
॥
४
॥
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५७२ श्रीशंखेश्वर-मण्डन साहिब ! विनतडी अवधारो। कहे जिनहर्ष मया करी मुझने, भवसागरथी तारो-सेवक० ॥५॥
(१४)
श्रीमहावीरस्वामीका स्तवन सिद्धारथना रे ! नन्दन विनवू, विनतडी अवधार । भवमण्डपमां रे ! नाटक नाचियो, हवे मुज दान देवार
हवे मुज पार उतार-सिद्धा० ॥ १ ॥ त्रण रतन मुज आपो तातजी ! जेम नावे रे ! सन्ताप । दान दियंता रे ! प्रभु कोसर कीसी ? आपो पदवी रे आप ॥
सिद्धा० ॥२॥ चरण-अँगूठे रे ! भेरु कंपावियो, मोड्या सुरनां रे! मान । अष्ट करमना रे ! झगडा जीतवा, दाधां वरसी रे ! दान ॥
सिद्धा०॥३॥ शासननायक शिवसुखदायक, त्रिशला कूखे रतन। सिद्धारथनो रे ! वंश दीपावियो, प्रभुजी तुमे धन्य ! धन्य !
सिद्धा० ॥४॥ वाचक-शेखर कीर्तिविजय गुरु, पामी तास पसाय । धर्मतणे रस जिन चोवीसमा, विनयविजय गुण गाय ।।
सिद्धा० ॥५॥ ( १५ )
श्रीसीमन्धरजिनका स्तवन सुणो चन्दाजी ! सीमन्धर परमातम पासे जाजो, मुज विनतड़ी प्रेम धरीने एणो पेरे तुमे संभलावजो।
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५७३
जे त्रण भुवननो नायक छ, जस चोसठ इन्द्र पायक छ, ज्ञान-दर्शन जेहने क्षायक छ, सुणो चन्दाजी !॥१॥ जेनी कंचन वरणी काया छे, जस धोरी-लंछन पाया छ । पुंडरीगिणी नगरोनो राया छे, सुणो चन्दाजी ! ॥२॥ बार पर्षदामांही विराजे छ, जस चोत्रीस अतिशय छाजे छ । गुण पांत्रीश वाणीए गाजे छ, सुणो चन्दाजी ! ॥३॥ भविजनने जे पडिबोहे छ, जस अधिक शीतल गुण सोहे छ । रूप देखी भविजन मोहे छे, सुणो चन्दाजी ! ॥ ४॥ तुम सेवा करवा रसियो छु, पण भरतमां दूर वसियो छु । महा-मोहराय-कर फसियो छु, सुणो चन्दाजी ! ॥५॥ पण साहिब चित्तमां धरियो छु, तुम आणा-खङ्ग कर ग्रहियो छु । तब कांइक मुजथी डरियो छु, सुणो चन्दाजी ! ॥ ६॥ जिन उत्तम पूंठ हवे पूरो, कहे पद्मविजय थाऊँ शूरो । तो वाधे मुज मन अति नूरो, सुणो चन्दाजी ! ॥७॥
( १६ )
श्रीसीमन्धरजिनका स्तवन पुक्खलवइ-विजये जयो रे ! नयरी पुंडरोगिणी सार । श्रीसीमन्धर साहिबा रे ! राय श्रेयांसकुमार
जिणन्दराय ! धरजो धर्मसनेह ॥१॥ मोटा-नाना-अन्तरो रे ! गिरुआ नवि दाखन्त । ससि-दरिसण सायर वधे रे ! कैरव-वन विकसन्त ।
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ॥२॥
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५७४
from
ठाम-कुठाम न लेखवे रे! जग वरसन्त जलधार । कर दोय कुसुमे वासिये रे ! छाया सवि आधार
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ॥ ३ ॥ राय ने रङ्क सरीखा गणे रे ! उद्द्योते ससि-सूर । गङ्गा जल ते बिहु तणा रे ! ताप करे सवि दूर
___ जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ।। ४ ।। सरिखा सहुने तारवा रे ! तिम तुमे छो महाराज ! मुज शुं अन्तर किम करो रे ! बाह्य ग्रह्यानी लाज
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ।। ५ ।। मुख देखी टोलु करे रे ! ते नवि होय प्रमाण । मुजरो माने सवि तणो रे ! साहिब ! तेह सुजाण
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ॥६॥ वृषभ-लंछन माता सत्यकी रे ! नन्दन रुक्मिणी कन्त । वाचक जस इम विनवे रे ! भय-भञ्जन भगवन्त
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ॥ ७॥
(१७)
श्रीसिद्धाचलजीका स्तवन विमलाचल नितु वन्दीए, कोजे एहनी सेवा। मानुं हाथ ए धर्मनो, शिव-तरु-फल लेवा-विमला० ॥ १ ॥ उज्ज्वल जिन-गृह-मण्डली, तिहां दीपे उत्तंगा। मानुं हिमगिरि विभ्रमे, आई अम्बर-गंगा--विमला० ।।२।। कोई अनेरुं जग नहीं, ए तीरथ तोले। इम श्रीमुख हरि आगले, श्रीसीमन्धर बोले-विमला० ॥३॥
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५७५
जे सघलां तीरथ कर्यां, जात्रा फल कहीए। तेहथी ए गिरि भेटतां, शतगणुं फल लहीए-विमला० ॥४॥ जनम सफल होय तेहनो, जेह ए गिरि वन्दे । सुजसविजय सम्पद लहे, ते नर चिर नन्दे-विमला० ॥ ५ ॥
(१८) द्वितीयाका स्तवन
( देशी-सुरती महिनानी) सरस वचन रस वरसती, सरस्वती कला भण्डार । नोजतणो महिमा कहूं, जिम कह्यो शास्त्र मोझार ॥१॥ जम्बूद्वीपना भरतमां, राजगृही उद्यान । वीर जिणन्द समोसर्या, वन्दन आव्या राजन
॥२॥ श्रेणिक नामे भूपति, बेठा बेसण-ठाय । पूछे श्रीजिनरायने, द्यो उपदेश महाराय
॥३॥ त्रिगडे बेठा त्रिभुवनपति, देशना दीये जिनराय । कमल-सुकोमल-पाँखडी, इम जिन-हृदय सोहाय शशि-प्रगटे जिम ते दिने, धन्य ते दिन सुविहाण । एक मने आराधतां, पामे पद निर्वाण
॥५॥ ढाल दूसरी
( अष्टापद अरिहन्ताजी-यह देशी ) कल्याणक जिनना कहूं, सुण प्राणीजी रे ! अभिनन्दन अरिहन्त ए भगवन्त, भविप्राणीजी रे! माघ शुदि बीजने दिने, सुण प्राणोजी रे ! जन्म्या प्रभु सुखकार, हरख अपार, भविप्राणीजी रे ! ॥१॥
॥
४
॥
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५७६
वासुपूज्य जिन बारमां, सुण प्राणीजी रे ! एहि ज तिथे थयु नाण, सकल विहाण, भविप्राणीजी रे ! अष्ट कर्म चूरण करी, सुण प्राणीजी रे ! अवगाहन एक वार, मुक्ति मोझार, भविप्राणीजी रे ! ॥२॥ अरनाथ जिनजो नमुं, सुण प्राणीजी रे ! अष्टादशमा अरिहंत, ए भगवन्त, भविप्राणीजी रे ! उज्ज्वल तिथि फागण भली, सुण प्राणीजी रे ! च्यवीआ जिनवर सार, सुन्दर नार, भविप्राणीजी रे ! ॥३॥ दशमा शीतल जिनेसरु, सुण प्राणीजी रे! परम पदनी ए वेल, गुणनी गेल, भविप्राणीजी रे ! वैशाख वदी बीजने दीने, सुण प्राणीजी रे! मूक्यो सर्वे साथ, सुर-नरनाथ, भविप्राणीजी रे! ॥४॥ श्रावण सुदनी बीज भली, सुण प्राणीजी रे ! सुमतिनाथ जिनदेव, च्यवीआ देव, भविप्राणीजी रे! एणी तिथिए जिनजी तणां, सुण प्राणीजी रे ! कल्याणक पञ्च सार, भवनो पार, भविप्राणीजी रे! ॥५॥
ढाल तीसरी जगपति जिन चोवीशमे रे लाल !
ए भाख्यो अधिकार । श्रेणिक आदे सहु मल्या रे लाल !
शक्ति तणे अनुसार ।। रे भविकजन भाव धरी ने सांभलो रे।
आराधो धरी हेत'। ... १. इस प्रकारको गणनामें विवक्षा ही प्रमाण है ।
॥१॥
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५७७
दोय वरस दोय मासनी रे लाल !
आराधो धरी खन्त, रे भविकजन! उजमणो विधिशं करो रे लाल !
___ बीज ते मुक्ति महन्त, रे भविकजन ! ॥२॥ मार्ग मिथ्या दूरे तजो रे लाल !
___ आराधो गुण थोक, रे भविकजन ! वीरनी वाणी सांभलो रे लाल !
उछरंग थयो बहु लोक, रे भविकजन ! ॥ ३ ॥ एणी बोजे केई तर्या रे लाल !
वली तरशे केई निःशङ्क, रे भविकजन ! शशि सिद्धि अनुमानथी रे लाल !
__ शैल नागधर अङ्क, रे भविकजन !॥४॥ अषाड सुदि दशमी दिने रे लाल !
ए गायो स्तवन रसाल, रे भविकजन ! नवलविजय सुपसायथी रे लाल !
चतुरने मङ्गल-माल, रे भविकजन ! ।। ५ ।।
कलश
एम वीर जिनवर सयल-सुखकर, गायो अति उलट भरे, अषाड उज्ज्वल दशमी दिवसे, संवत अढार अठोत्तरे। बीज-महिमा एम वर्णव्यो, रही सिद्धपुर चोमास ए ! जेह भाविक भावे सुणे गावे तस घरे लील-विलास ए॥१॥
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५७८
( १९)
ज्ञानपंचमीका स्तवन सुत सिद्धारथ भूपनो रे! सिद्धारथ भगवान । बार पर्षदा आगले रे! भाखे श्रीवर्धमान
रे भवियण चित्तधरो, मन-वचन-काय अमायो रे! ज्ञानभक्ति करो॥१॥ गुण अनन्त आतम तणा रे ! मुख्य पणे तिहां दोय । तेहमां पण ज्ञान ज वडुं रे! जिणथी दंसण होय
रे भवियण ॥ २॥ ज्ञाने चारित्र गुण वधे रे! ज्ञाने उद्योत-सहाय । ज्ञाने स्थविरपणुं लहे रे! आचारज उवज्झाय
रे भवियण ॥ ३॥ ज्ञानी श्वासोश्वासमां रे ! कठिन करम करे नाश । वह्नि जेम ईंधण दहे रे! क्षणमां ज्योति प्रकाश
रे भवियण ॥ ४ ॥ प्रथम ज्ञान पछी दया रे! संवर मोहविनाश । गुणस्थानक पगथालीए रे! जेम चढे मोक्ष आवास
रे भवियण ॥ ५॥ मइ-सुअ-ओहि-मणपज्जवा रे! पञ्चम केवलज्ञान । चउ मूंगा श्रुत एक छे रे! स्वपर-प्रकाश निदान
रे भवियण ॥ ६ ॥ तेहनां साधन जे कह्यां रे! पाटी पुस्तक आदि । लखे लखावे साचवे रे! धर्मी धरी अप्रमाद
रे भवियण ॥ ७॥
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५७९
त्रिविध आशातना जे करे रे ! भणतां करे रे अन्तराय | अन्धा बहेरा बोबडा रे ! गूंगा
भगतां गणतां न आवडे रे ! न मले गुणमञ्जरी - वरदत्त परे रे ! ज्ञान
प्रेमे पूछे पर्षदा रे ! गुणमञ्जरी - वरदत्तनो रे !
प्रणमी
करो
पांगुला थायरे भवियण ० ॥ ८॥
( २० )
अष्टमीका स्तवन
वल्लभ चीज । विराधन बीज
रे भवियण ० ॥ ९ ॥
जगगुरु -पाय | अधिकार- पसायरे भवियण० ।। १० ॥
श्रीराजगृही शुभ ठाम, अधिक दिवाजे रे, विचरंता वीर जिणन्द, अतिशय छाजे रे; चोत्रीश अने पांत्रीश, वाणीगुण लावे रे, पाउं धार्या वधामणो जाय, श्रेणिक आवे रे.
तिहां चोसठ सुरपति आवी, त्रिगडुं बनावे रे, तेमां बेसीने उपदेश, प्रभुजी सुणावे रे; सुर नर ने तियंच, निज निज भाषा रे, तिहां समजीने भवतीर, पामे
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सुख खासा रे ॥ २ ॥
तिहां इन्द्रभूति गणधार, श्रीगुरु वीरने रे, पूछे अष्टमोनो महिमाय, कहो प्रभु अमने रे; भाखे वीर जिणन्द, सुणो सहु प्राणी रे, आठमदिन जिन-कल्याण, धरो चित्त आणी रे ॥३॥
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५८० (२१)
ढाल दूसरी श्रीऋषभनु जन्म-कल्याण रे! वली चारित्र लाभले वाण रे ! त्रीजा सम्भव च्यवन कल्याण रे ! भवि तुमे ! अष्टमी तिथि सेवो रे ! ए छे शिववधू वरवानो मेवो रे-भवि तुमे ! अष्टमी० ॥१॥ श्रीअजित-सुमति जिन जन्म्यां रे! अभिनन्दन शिवपद पाम्यां रे ! च्यव्या सातमा जिनगुणग्राम-भवि तुमे ! अष्टमी० ॥२॥ वीशमां मुनिसुव्रत स्वामी रे! नमि नेमि जन्म्या गुण धामी रे ! वर्या मुक्तिवधु नेमस्वामी-भवि तुमे ! अष्टमी० ॥ ३ ॥ पार्श्वनाथजी मोह-महंता रे! इत्यादिक जिन गुणवन्ता रे ! कल्याणक मुख्य कहेतां-भवि तुमे ! अष्टमी० ॥ ४ ॥ श्रीवीर जिणन्दनी वाणी रे! निसुणी समज्या भवि प्राणी रे ! आठम दिन अति गुण खाणी-भवि तुमे ! अष्टमी० ॥ ५ ॥ अष्ट कर्म ते दूर पलाय रे ! एथी अडसिद्धि अडबुद्धि थाय रे ! ते कारण सेवो चित्त लाय-भवि तुमे ! अष्टमी० ।। ६ ।। श्री उदयसागर गुरुराया रे! जस शिष्य विवेक ध्याया रे! तस न्यायसागर गुण गाया, भवि तुमे ! अष्टमी० ॥ ७ ॥
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५८१
(२२)
दीवालीका स्तवन मारे दोवाली थई आज, प्रभुमुख जोवाने, सर्यां सर्यां रे सेवकना काज, भवदुःख खोवाने । महावीरस्वामी मुगते पहोंच्या, गौतम केवलज्ञान रे ! धन्य अमावास्या धन्य दीवाली, महावीर प्रभु निरवाण
जिनमुख जोवाने ॥१॥ चारित्र पाली निरमलु रे, टाल्यां विषम-कषाय रे ! । एवा मुनिने वन्दीए जे, उतारे भवपार-जिन ॥२॥ बाकुल वहोर्या वीरजिने, तारी चन्दनबाला रे !। केवल लई प्रभु मुगते पहोंच्या, पाम्या भवनो पार-जिन० ॥३॥ एवा मुनिने वन्दीए जे, पंचज्ञानने धरता रे!। समवसरण दई देशना प्रभु, तार्या नरने नार-जिन० ॥ ४ ॥ चोवीशमा जिनेश्वरूरे, मुक्तितमा दातार रे!। कर जोडी कवि एम भणे प्रभु! दुनिया फेरो टाल-जिन० ॥५॥
(१)
स्तुतियाँ
श्रीआदिजिनकी स्तुति आदि-जिनवर राया, जास सोवन्न-काया, मरुदेवी माया, धोरी-लंछन पाया। जगस्थिति निपाया, शुद्ध चारित्र पाया, केवलसिरि-राया, मोक्षनगरे सिधाया ॥१॥
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५८२
सवि जिन सुखकारी, मोह-मिथ्या निवारी, दुरगति दुःख भारी, शोक-सन्ताप वारी । श्रेणी क्षपक सुधारी, केवलानन्त धारो, नमीए नर-नारी, जेह विश्वोपकारी ॥२॥ समवसरण बेठा, लागे जे जिन मीठा, करे गणप' पइट्ठा, इन्द्र-चन्द्रादि दोठा । द्वादशाङ्गी वरिट्ठा, गूंथतां टाले रिट्ठा, भविजन होय हिट्ठा, देखी पुण्ये गरिट्ठा ।। ३ ।। सुर समकितवन्ता, जेह रिद्ध महन्ता, जेह सज्जन सन्ता, टाळोए मुज चिन्ता। जिनवर सेवन्ता, विघ्न वारे दूरन्ता, जिन उत्तम थुणन्ता, पद्मने सुख दिन्ता ॥ ४ ।।
(२) श्रीशान्तिनाथकी स्तुति वन्दो जिन शान्ति, जास सोवन्न-कान्ति, टाले भव-भ्रान्ति, मोह-मिथ्यात्व-शान्ति । द्रव्य-भाव-अरि-पान्ति, तास करतां निकान्ति, धरतां मन खान्ति, शोक-सन्ताप वान्ति ॥१॥ दोय जिनवर नीला, दोय रक्त रंगोला, दोय धोला सुशीला, काढता कर्म-कीला । न करे कोई हीला, दोय श्याम सलीला, सोल स्वामीजी पीला, आपजो मोक्ष-लीला ।। २ ।। जिनवरनी वाणी, मोह-वल्ली-कृपाणी, सूत्रे देवाणी, साधुने योग्य जाणी।
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५८३
अर्थे गुंथाणी, देव-मनुष्य-प्राणी। प्रणमो हित आणी, मोक्षनी ए निशाणी ॥ ३॥ वागेसरी देवी, हर्ष हियडे धरेवी, जिनवर-पय-सेवी, सार श्रद्धा वरेवो। जे नित्य समरेवी, दुःख तेहना हरेवी, पद्मविजय कहेवी, भव्य-सन्ताप खेवी ॥ ४ ॥
(३)
श्रीशङ्खश्वर-पार्श्वजिन स्तुति संखेश्वर पासजी पूजीए, नरभवनो लाहो लीजीए । मनवांछित पूरण सुरतरु, जय वामा सुत अलवेसरु ॥१॥ दोय राता जिनवर अतिभला, दोय धोला जिनवर गुण नीला। दोय लीला दोय शामल कह्या, सोले जिन कञ्चन वर्ण लह्या ॥२॥ आगम ते जिनवर भाखियो, गणधर ते हइडे राखियो। तेहनो रस जेणे चाखियो, ते हुओ शिवसुख साखियो ॥ ३ ॥ धरणीधर राय पद्मावती, प्रभु पार्वतणा गुण गावती। सहु सङ्घना सङ्कट चूरती, नयविमलना वांछित पूरती ।। ४ ।।
(४) श्रीमहावीर जिनकी स्तुति जय ! जय ! भवि हितकर वीर जिनेश्वर देव, सुरनरना नायक, जेहनी सारे सेव । करुणारस-कन्दो वन्दो, आनन्द, आणी, त्रिशला-सुत सुन्दर, गुणमणि केरो खाणी ॥१॥
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५८४ जस पञ्च कल्याणक, दिवस विशेष सुहावे, पण थावर नारक, तेहने पण सुख थावे । ते च्यवन-जन्म-व्रत, नाण अने निरवाण, सवि जिनवर केरां, ए पांचे अहिठाण ॥ २॥ जिहां पञ्च-समिति-युत, पञ्च-महाव्रत सार, जेहमां परकाश्या, वली पञ्च व्यवहार । परमेष्ठी-अरिहन्त, नाथ . सर्वज्ञने पार, एह पञ्च पदे लह्यो, आगम अर्थ उदार ।। ३ ॥ मातङ्ग सिद्धाई, देवो जिन-पद सेवी, दुःख-दुरित उपद्रव, जे टाले नित मेवी। शासन-सुखदायी, आई! सुणो अरदास, श्रीज्ञानविमल-गुण, पूरो वांछित आस ॥ ४ ॥
(५) श्रीसीमन्धर जिनकी स्तुति श्रीसीमन्धर जिनवर, सुखकर साहिब देव, अरिहन्त सकलनी, भाव धरी करुं सेव । सकलागम-पारग- गणधर-भाषित - वाणी, जयवन्ती आणा, ज्ञानविमल गुण खाणी ॥ १ ॥
(६) श्रीसीमन्धर स्वामीकी स्तुति महाविदेह क्षेत्रमा सीमन्धर स्वामी, सोनानु सिंहासनजी, रूपानां त्यां छत्र बिराजे, रत्न मणिना दीवा दोपेजी। कुमकुम वरणी त्यां गहुंली बिराजे, मोतीना अक्षत सारजी, त्यां बेठा सीमन्धर स्वामी, बोले मधुरी वाणीजी॥
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केसर चन्दन भर्या कचोलां, कस्तूरी बरासोजी, पहेली पूजा अमारी होजो, ऊगमते प्रभातेजी ॥१॥
(७)
श्रीसिद्धचक्रकी स्तुति जिन शासन-वांछित-पुरण देव रसाल, भावे भवी भणीए, सिद्धचक्र गुणमाल । त्रिहुं काले एहनी, पूजा करे ऊजमाल, ते अजर-अमर-पद, सुख पामे सुविशाल ॥१॥ अरिहन्त, सिद्ध धन्दो, आचारज उवज्झाय, मुनि दरिसण नाण, चरण तप ए समुदाय । ए नवपद समुदित, सिद्धचक्र सुखदाय, ए ध्याने भविनां, भवकोटि दुःख जाय ॥२॥ आसो चैतरमां, शुदि सातमथी सार, पूनम लगी कीजे, नव आंबिल निरधार । दोय सहस गणj, पद सम साडा चार, एकाशी आयम्बिल, तप आगम अनुसार ।। ३ ।। श्रीसिद्धचक्रनो सेवक, श्रीविमलेश्वर देव । श्रीपालतणी परे, सुखपूरे स्वयमेव । दुःख दोहग्ग नावे, जे करे एहनी सेव, श्रीसुमति सुगुरुनो, राम कहे नित्यमेव ॥ ४ ॥
(८) श्रीसिद्धाचलकी स्तुति पुण्डरीकगिरि महिमा, आगममां प्रसिद्ध,
विमलाचल भेटी, लहीए अविचल रिद्ध । प्र-३८
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५८६
पञ्चम गति पहोंच्या, मुनिवर कोडा कोड, एणे तीरथ आवी, कर्म विघातक छोड ॥ १ ॥
( ९ )
श्रीशत्रुञ्जयकी स्तुति
श्रीशत्रुञ्जय तीरथ सार, गिरिवरमां जेम मेरु उदार, ठाकुर राम अपार;
मन्त्रमाही नवकार ज जाणु, तारामां जेम चन्द्र वखाणुं, जलधर जलमां जाणुं ।
पंखीमांहे जिम उत्तम हंस, कुलमांहे जिम ऋषभनो वंस, नाभि तणो ए अंस;
क्षमावन्तमां श्रीअरिहन्त, तपशूरा मुनिवर महन्त, शत्रुञ्जयगिरि गुणवन्त ॥ १ ॥
ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दा, सुमतिनाथ मुख पूनम चन्दा, पद्मप्रभु सुखकन्दा;
श्रीसुपार्श्व चन्द्रप्रभु सुविधि, शीतल श्रेयांस सेवो बहु बुद्धि, वासुपूज्य मति शुद्धि |
विमल अनन्त धर्म जिन शान्ति, कुंथु अर मल्लि नमुं एकांति, मुनिसुव्रत शिव पांति;
नमि नेमि पास वीर जगदीश, नेम विना ए जिन वीश, सिद्धगिरि आव्या ईश ।। २ ।।
भरतराय जिन साथे बोले, कहो स्वामी ! कुण शत्रुंजय तोले ? जिननुं वचन अमोले;
ऋषभ कहे सुणो भरतजी राय, 'छ' - री' पालतां जे नर जाय, पातक भूको थाय ।
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५८७
पशु पंखी जे इण गिरि आवे, भय त्रीजे ते सिद्ध ज थावे, अजरामर पद पावे; जिन मतमा शेजुजे वखाण्यो, ते में आगम दिलमांहि आण्यो, सुणतां सुख उर ठायो ॥ ३ ॥ सघपति भरतेसर आवे, सोवन तणा प्रासाद करावे, मणिमय मूरत ठावे; नाभिराया मरुदेवी माता, ब्राह्मी-सुन्दरी व्हेन विख्याता, मूर्ति नवाणुं भ्राता। गोमुख यक्ष चक्रेश्वरी देवी, शत्रुजय सार करे नित मेवी, तपगच्छ ऊपर हेवी; श्रीविजयसेन सूरीश्वर राया, श्रीविजयदेवसूरि प्रणमी पाया, ऋषभदास गुण गाया ॥४॥
(१०)
बीजकी स्तुति दिन सकल मनोहर, बीज दिवस सुविशेष, रायराणा प्रणमे, चंद्रतणी जिहां रेख । तिहां चन्द्र विमाने, शाश्वता जिनवर जेह, हुँ बीजतणे दिन, प्रणमुं आणी नेह ॥१॥ अभिनन्दन चन्दन, शीतल शीतलनाथ, अरनाथ सुमति जिन, वासुपूज्य शिवसाथ । इत्यादिक जिनवर, जन्मज्ञान-निरवाण, हूं बीजतणे दिन, प्रणमुं ते सुविहाण ॥२॥ प्रकाश्यो बीजे, दुविध धर्म भगवन्त, जेम विमल कमल होय, विपुल नयन विकसन्त ।
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५८८
आगम अति अनुपम, जिहां निश्चय - व्यवहार, बीजे सवि कीजे, पातकनो परिहार ॥ ३ ॥ गजगामिनी कामिनी, कमल - सुकोमल चीर, चक्रेश्वरी केसर, सरस सुगन्ध शरीर । करजोड़ी बीजे, हुं प्रणमुं तस पाय, एम लब्धिविजय कहे, पूरो मनोरथ माय ॥ ४ ॥
( ११ ) पञ्चमीकी स्तुति
श्रावण शुदि दिन पञ्चमीए, जन्म्या नेम जिणन्द तो, श्याम वरण तनु शोभतुं ए, मुख शारद को चन्द तो । सहस वरस प्रभु आउखु ए, ब्रह्मचारी भगवन्त तो, अष्ट करम हेला हणी ए, पहोता मुक्ति महन्त तो ॥ १ ॥ अष्टापद पर आदि जिन ए, पहोंता मुक्ति मोझार तो, वासुपूज्य चम्पापुरी ए, नेम मुक्ति गिरनार तो । पावापुरी नगरीमां वली ए, श्रीवीरतणुं निर्वाण तो, सम्मेत शिखर वीश सिद्ध हुआ ए, शिर बहुं तेहनी आण तो ॥ २ ॥ नेमनाथ ज्ञानी हुआ ए, जीवदया गुण- वेलडी ए, मृषा न बोलो मानवी ए, चोरी चित्त अनन्त तीर्थङ्कर एम कहे ए, परिहरीए परनार तो ॥ ३ ॥ गोमेध नामे यक्ष भलो ए, देवी श्रीअम्बिका नाम तो, शासन सान्निध्य जे करे ए, करे वली धर्मनां काम तो । तपगच्छ-नायक गुणनीलो ए, श्रीविजयसेनसूरिराय तो, ऋषभदास पाय सेवंता ए, सफल कर्यो अवतार तो ॥ ४ ॥
भाखे सार कोजे तास
वचन तो, जतन तो । निवार तो,
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(१२)
अष्टमीकी स्तुति मङ्गल आठ करी जस आगल, भावधरी सुरराजजी, आठ जातिना कलश करीने, न्हवरावे जिनराजजो। वीर जिनेश्वर जन्ममहोत्सव, करतां शिवसुख साधेजी, आठमनुं तप करतां अम घर, मङ्गल-कमला वाधेजी ॥१॥ अष्टकर्म-वयरी-गज-गंजन, अष्टापद परे बलियाजी, आठमें आठ स्वरूप विचारे, मद आठे तस गलियाजी। अष्टमी गति पहोंतां जे जिनवर, फरस आठ नहि अंगजी, आठमनुं तप करतां अम घर, नित्य नित्य वाधे रंगजी ॥२॥ प्रतिहारज आठ बिराजे, समवसरण जिनराजेजी, आठमे आठमो आगम भाखो भविजन संशय भांजेजी। आठ जे प्रवचननी माता, पाले निरतिचारोजी, आठमने दिन अष्ट प्रकारे, जीवदया चित धारोजी ॥३॥ अष्ट प्रकारी पूजा करीने, मानवभव-फल लीजेजी, सिद्धाईदेवी जिनवर सेवी, अष्ट महासिद्धि दीजेजी। आठमनुं तप करतां लीजे, निर्मल केवल नाणजी, धीरविमल कवि सेवक नय कहे, तपथी कोडि कल्याणजी ॥४॥
(१३) - एकादशीकी स्तुति एकादशी अति रूअडी, गोविन्द पूछे नेम, किण कारण ए पर्व मोटुं, कहोने मुझशुं तेम । जिनवर-कल्याणक अति घणां, एकसोने पचास, तेणे कारण ए पर्व मोटुं, करो मौन उपवास ॥१॥
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५९०
अगियार श्रावक तणी पडिमा, कही ते जिनवर देव, एकादशी एम अधिक सेवो, वनगजा जिम रेव । चोवीश जिनवर सयल-सुखकर, जेसा सुरतरु चंग, जेम गंग निर्मल नीर जेहवो, करो जिनशं रंग ॥ २॥ अगियार अंग लखावीए, अगियार पाठां सार, अगियार कवली वाटणां, ठवणी पूंजणी सार । चाबखी चंगी विविध रंगी, शास्त्रतणे अनुसार, एकादशी एम ऊजवो, जेम पामीए भवपार ॥ ३ ॥ वर-कमल-नयणी कमल-वयणी, कमल सुकोमल काय, भुजदण्ड चण्ड अखण्ड जेहने, समरतां सुख थाय । एकादशी एम मन वशी, गणी हर्ष पण्डित शिष्य शासनदेवी विघन निवारे, संघ तणां निशदिन ॥ ४ ॥
पर्युषणकी स्तुति
- ( १४ ) बरस दिवसमां अषाढ-चोमासुं, तेहमां वली भादरवो मास,
आठ दिवस अतिखास; पर्व पजूसण करो उल्लास, अट्ठाइधरनो करवो उपवास,
पोसह लीजे गुरु पास । वड़ा कल्पनो छ? करीजे, तेह तणो वखाण सुणीजे,
. चौद सुपन वांचीजे; पडवेने दिवले जन्म वंचाय, ओच्छव महोच्छव मङ्गल गवाय,
वीर जिणेसर राय ॥१॥ बीजे दिने दीक्षा अधिकार, सांझ-समय निरवाण विचार,
वीर तणो परिवार;
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५९१
त्रोजे दिने श्रीपार्श्व विख्यात, वली नेमिसरनो अवदात,
बली नवभवनी बात । चोवीशे जिन अन्तर तेवीश, आदि जिनेश्वर श्रीजगदीश,
तास वखाण सुणीश; धवल मङ्गल गीत गहुँली करीए, वली प्रभावना नित अनुसरीए,
____ अट्ठम तप जय वरीए ॥२॥ आठ दिवस लगे अमर पलावो, तेह तणो पडहो वजडाओ
ध्यान धरम मन भावो; संवत्सरी-दिन-सार कहेवाय, संघ चतुर्विध भेलो थाय,
बारसा-सूत्र सुणाय । थिरावली ने सामाचारी, पट्टावली प्रमाद निवारी,
सांभलजो नरनारी; आगम सूत्रने प्रणमीश, कल्पसूत्रशुं प्रेम धरोश,
शास्त्र सर्व सुणीश ॥ ३ ॥ सत्तरभेदी जिनपूजा रचावो, नाटक केरा खेल मचावो,
विधिशुं स्नात्र भणावो; आडम्बरशुं दहेरे जईए, संवत्सरी पडिक्कमणुं करीए,
संघ सर्वने खमीए। पारणे साहम्मिवच्छल कीजे, यथाशक्तिए दान ज दोजे,
पुण्य भण्डार भरीजे; श्रीविजयक्षेमसूरि गणधार, जसवन्तसागर गुरु उदार,
जिणंदसागर जयकार ॥४॥
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५९२
[१५]
पर्युषणकी स्तुति
पुण्यनुं पोषण पापनुं शोषण, पर्व पजूसण पामीजी, कल्प घरे पधरावो स्वामी, नारी कहे शिष नामोजी । कुंवर गयवर खन्ध चढावी, ढोल निशान वगडावोजी, सद्गुरुसंगे चढते रंगे, वीर - चरित्र सुणावोजी ॥ १ ॥ प्रथम वखाण धर्म सारथि पद, बीजे सुपनां चारजी, त्रीज सुपन पाठक बली चौथे, वीर जनम अधिकारजी । पांचमें दीक्षा छट्टे शिवपद, सातमें जिन वीशजी, आठमे पिरावली संभलावे, पिउडा पूरो जगीशजी ॥ २ ॥ छठ्ठ अठ्ठम अठ्ठाई कीजे, जिनवर चैत्य नमोजेजी, वरसी पडिक्कमणुं मुनिवन्दन संघ सकल खामीजेजी । आठ दिवस लगे अमर प्रभावनां, दान सुपात्रे दीजेजी, भद्रबाहु - गुरु वचण सुणीने ज्ञान सुधारस पीजेजी ॥ ३ ॥ तोरथमां विमलाचल गिरिमां, मेरु महीधर नेमजी, मुनिवर मांही जिनवर म्होटा, परव पजूसण तेमजी । अवसर पामी साहम्मिवच्छल, बहु पकवान वडाईजी, खीमाविजय जिनदेवी सिद्धाई, दिन दिन अधिक वधाईजी ॥ ४ ॥
( २६ )
,
सज्झाय
( १ )
क्रोधके विषय में
कडवां फल छे क्रोधनां
ज्ञानी एम बोले ।
सतणो रस जाणीए, हलाहल तोले-कडवां० ॥ १ ॥
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५९३
क्रोधे क्रोड पूरवतj, संजम फल जाय । क्रोध सहित तप जे करे, ते तो लेखे न थाय ॥२॥ साधु घणो तपीओ हतो, धरतो मन वैराग । शिष्यना क्रोध थको थयो, चण्डकोसियो नाग ॥ ३ ॥ आग उठे जे घरथको, ते पहेलं घर बाळे । जलनो जोग जो नवि मले, तो पासेनुं परजाळे ॥ ४ ॥ क्रोध तणो गति एहवी, कहे केवलनाणी। हाणि करे जे हेतनी, जाळवजो एम जाणी ॥ ५ ॥ उदयरतन कहे क्रोधने, काढजों गले साही । काया करजो निर्मली, उपशम रसे नाही ॥ ६ ॥
(२)
मानके विषयमें रे जीव ! मान न कीजिए, माने विनय न आवे रे ! विनय विना विद्या नहि, तो किम समकित पावे रे ? ॥ १ ॥
लकित विण चारित्र नहि, चारित्र विण नहि मुक्ति रे। मुक्तिनां सुख छे शाश्वतां, तो किम लहीए जुक्ति रे॥२॥ विनय बड़ो संसारमां, गुणमा अधिकारी रे। माने गुण जाये गली, प्राणी जो जो विचारी रे ॥ ३ ॥ मान कयुं जो रावणे, तो ते रामे मार्यो रे। दुर्योधन गर्वे करी, अन्ते सवि हार्यो रे ॥ ४ ॥ सूकां लाकडां सारीखो, दुःखदायी ए खोटो रे। उदयरत्न कहे . मानने, देजो देशवटो रे।।५।।
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५९४
( ३ )
मायाके विषय में समकितनुं मूल जाणीएजी, सत्य वचन साक्षात् । साचामां समकित वसेजी, मायामां मिथ्यात्व - रे प्राणी ! म करीश माया लगार ॥ १ ॥ मुख मीठो जूठो मने जी रे ! कूड-कपटनो रे कोट । जीभे तो जी-जी करे जी रे ! चित्तमां ताके चोटरे प्राणी ! म करीश माया लगार ॥ २ ॥ आप गरजे आघो पडेजी रे ! पण न धरे रे ! विश्वास । मनशुं राखे आंतरोजी रे ! ए मायानो पासरे प्राणी ! म करोश माया लगार || ३ ॥ जेहशुं बांधे प्रीतडीजी रे ! तेहशुं रहे प्रतिकूल । मेल न छंडे मनतणोजी रे ! ए मायानुं मूलरे प्राणी ! म करीश माया लगार ॥ ४ ॥ तप कीधो माया करोजी रे ! मित्रशुं राख्यो भेद । मल्लि जिनेश्वर जाणजोजो रे ! तो पाम्या स्त्रीवेदरे प्राणी ! म करीश माया लगार ।। ५ ॥ उदयरत्न कहे सांभलोजी रे ! मेलो मायानी बुद्ध । मुक्तिपुरी जावा तणो जो रे ! ए मारग छे शुद्धरे प्राणी ! म करीश माया लगार ॥ ६ ॥ ( ४ )
लोभके विषय में
तुमे लक्षण जो जो लोभनां रे ! लोभे मुनिजन पामे क्षोभना रे ! लोभे डाह्या - मन डोल्या करे रे, लोभे दुर्घट पंथे संचरे रे !
तुमे लक्षण० ॥ १ ॥
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५९५
तजे लोभ तेनां लऊ भामणां रे! वली पाय नमी करूं खामणां रे ! लोभे मर्यादा न रहे केहनी रे ! तुमे संगत मेलो तेहनी रे!
तुमे लक्षण० ॥२॥ लोभे घर मेली रणमां मरे रे ! लोभे उच्च ते नीचं आदरे रे ! लोभे पाप भणी पगलां भरे रे ! लोभे अकारज करतांन ओसरे रे !
तुमे लक्षण ॥ ३॥ लोभे मनडुं न रहे निर्मलं रे ! लोभे सगपण नासे वेगलं रे ! लोभे न रहे प्रीति ने पावर्छ रे ! लोभे धन मेले बहु एकळु रे !
तुमे लक्षण ॥४॥ लोभे पुत्र पोते पिता हणे रे ! लोभे हत्या-पातक नवि गणे रे ! ते तो दामतणा लोभे करी रे ! ऊपर मणिधर थाए मरी रे!
तुमे लक्षण ॥ ५॥ जोतां लोभनो थोभ दीसे नहि रे ! एवं सूत्र-सिद्धान्ते का सही रे ! लोभे चक्री सुभूम नामे जुओ रे ! ते तो समुद्रमां डूबी मुओ रे !
तुमे लक्षण० ॥६॥ एम जाणीने लोभने छंडजो रे ! एक धर्मशुं ममता मंडजो रे ! कवि उदयरत्न भाखे मुदा रे ! वंदु लोभ तजे तेहने सदा रे !
तुमे लक्षण ॥७॥ (९) आठ मदकी सज्झाय
मद आठ महामुनि वारिये, जे दुर्गतिना दातारो रे ! श्रीवीर जिणंद उपदिश्यो, भाखे सोहम् गणधारो रे !
मद आठ० ॥१॥
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हांजी जातिनो मद पहेलो कह्यो, पूर्वे हरिकेशीए कीधो रे ! चण्डाल तणे कुल उपन्यो, तपथी सवि कारज सीधो रे !
मद आठ० ॥२॥ हांजी कुलमद बीजे दाखीए, मरिची भवे कोधो प्राणी रे ! कोडाकोडी-सागर-भवमां भम्यो, मद म करो इम जाणी रे!
मद आठ० ॥३॥ हांजी बलमदथी दुःख पामोआ, श्रेणिक-वसुभूति-जीवो रे ! जई भोगव्या दुःख नरकतणां, बमू पाडतां नित रीवो रे !
• मद आठ० ॥ ४॥ हांजी सनतकुमार नरेसरु, सुर आगल रूप वखाण्युं रे ! रोम-रोम काया बगड़ी गई, मद चोथा- ए टाणुं रे !
मद आठ० ॥ ५ ॥ हांजी मुनिवर संयम पालतां, तपनो मद मनमां आयो रे! थया कूरगडु ऋषिराजिया, पाम्या तपनो अन्तरायो रे !
मद आठ० ॥ ६ ॥ हांजी देश दशारणनो धणी (राय), दशार्णभद्र अभिमानी रे ! इन्द्रनी रिद्धि देखी बूझिओ, संसार तजी थयो ज्ञानी रे !
मद आठ०॥ ७ ॥ हांजी स्थूलभद्र विद्यानो कर्यो, मद सातमो जे दुःखदायो रे ! श्रुत पूरण-अर्थ न पामीओ, जुओ मानतणी अधिकाई रे !
मद आठ• ॥ ८ ॥ राय सुभूम षट्खण्डनो धणी, लाभनो मद कोधो अपार रे !
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५९७
हय-गय- रथ सब सागर गल्युं, गयो सातमी नरक मोझार रे !
मद आठ० ॥ ९ ॥
इम तन-धन - जोबन राज्यनो, न करो मनमां अहंकारो रे ! ए अथिर असत्य सवि कारमुं विणसे बहु वारो रे !
मद आठ० || १० ॥
मद आठ निवारो व्रतधारी, पालो संयम सुखकारी रे ! कहे मानविजय ते पामशे, अविचल पदवी नरनारी रे !
मद आठ० ॥। ११ ॥
( २७ )
छन्द तथा पद
( १ )
कलश
( छप्पय )
नित जपिये नवकार, सार सम्पति सुखदायक, सिद्ध मन्त्र ए शाश्वतो, एम जल्पे श्रीजगनायक । श्रीअरिहन्त सुसिद्ध, शुद्ध आचार्य भणीजे, श्रोउवज्झाय सुसाधु, पञ्च परमेष्ठी थुणीजे ।
कुसललाभ वाचक कहे,
नवकार सार संसार छे, एक चित्ते आराधतां, विविध ऋद्धि वंछित लहे, ॥ १ ॥ ( २ ) श्रीनमस्कार - माहात्म्य
समरो मन्त्र भलो नवकार, ए छे चौद पूरवनो सार । एना महिमानो नहि पार, एनो अर्थ अनन्त उदार ॥
समरो मन्त्र ।। १ ॥
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५९८
सुखमां समरो दुःखमां समरो, जीवतां समरो मरतां समरो,
जोगी समरे भोगो समरे, देवो समरे दानव समरे,
अड़सठ अक्षर एना जाणो, आठ सम्पदाथी परमाणो,
नवपद एनां नव निधि आपे, वीरवचनथी हृदये व्यापे,
समरो दिन ने रात । समरो सौ संघात ||
समरो मन्त्र ।। २॥
समरे
राजा - रंक |
समरे सौ निःशंक ||
समरो मन्त्र ।। ३ ॥
तीरथ सार ।
1
अड़सठ अडसिद्धि दातार ।।
समरो मन्त्र ।। ४॥ भवभवनां दुःख कापे । परमातम - पद आपे ॥ समरो मन्त्र ।। ५ ॥
( ३ )
श्री गौतमस्वामीका छन्द
वीर जिणेसर केरो शिष्य, गौतम नाम जपो निशदिस । जो कीजे गौतमनुं ध्यान, तो घर विलसे नवे निधान ॥१॥ गौतम नामे गयवर चडे, मनवांछित हेला सांपडे ।
गौतम नामे नावे रोग, गौतम नामे सर्व संयोग ॥२॥ जो वैरी विरुआ वंकड़ा, तस नामे नावे दूकडा ।
भूत-प्रेत नवि खंडे प्राण, ते गौतमना करू" वखाण ||३|| गौतम नामे निर्मल काय, गौतम नामे वाधे आय ।
गौतम जिनशासन शणगार, गौतम नामे जय जयकार ॥४॥ शाल-दाल-सुरसा-घृत - गोल, मनवांछित कापड - तंबोल । घर सुघरणी निर्मल चित्त, गौतम नामे पुत्र विनीत ||५||
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५९९
गौतम उदयो अविचल भाण, गौतम नाम जपो जगजाण ।
म्होटां मन्दिर मेरु समान, गौतम नामे सफल विहाण ॥६॥ घर मयगल-घोडानी जोड, वारु पहोंचे वंछित कोड ।
महीयल माने म्होटा राय, जो पूजे गौतमनां पाय ॥७॥ गौतम प्रणम्या पातक टले, उत्तम नरनी संगत मले।
गौतम नामे निर्मल ज्ञान, गोतम नामे वाधे वान ॥८॥ पुण्यवन्त अवधारो सहु, गुरु गौतमना गुण छे बहु ।
कहे लावण्य-समय कर जोड, गौतम तूठेसम्पत्ति क्रोड ।।९।।
- सोलह सतियोंका छन्द आदिनाथ आदे जिनवर वन्दी, सफल मनोरथ कीजिए। प्रभाते उठी मंगलिक कामे, सोले सतीनां नाम लीजिए।
आदि०॥१॥ बालकुमारी जगहितकारी, ब्राह्मी भरतनी बहेनडो ए। घट घट व्यापक अक्षर रूपे, सोले सतीमां जे वडी ए॥
आदि० ॥२॥ बाहुबल-भगिनी सतीय शिरोमणि, सुन्दर नामे ऋषभसुता ए। अंकस्वरूपी त्रिभुवन माहे, जेह अनुपम गुणजुता ए॥
आदि० ॥३॥ चन्दनबाला बालपणाथी, शियलवती शुद्ध श्राविका ए। अडदना बाकुले वीर प्रतिलाभ्या, केवल-लही व्रत-भाविका ए॥
आदि० ॥ ४॥ उग्रसेन-धुआ-धारिणी-नंदिनी, राजिमति नेम-वल्लभा ए। जोबन-वेशे कामने जीत्यो, संयम लइ देवदुल्लभा ए॥
आदि०॥५॥
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६००
पञ्च भरतारो पांडव - नारी, द्रुपद - तनया वखाणी ए । एकसो आठे चोर पुराणा, शियल-महिमा तस जाणीए ए ॥ आदि० ॥ ६ ॥
दशरथ नृपनी नारी निरुपम, कोशल्या शियल - सलूणी राम-जनेता, पुण्यतणो
कौशांबिक ठामे शतनिक नामे, तस घर घरणी मृगावती सती,
कुलचन्द्रिका ए । परनालिका ए ॥ आदि० ॥ ७ ॥
राज्य करे रंग राजीओ ए । सुरभुवने जस गाजीओ ए ॥ आदि० ॥ ९ ॥
सुलसा साची शियले न काची, राची नहि विषयारसे ए । मुखडुं जोतां पाप पलाये, नाम लेतां मन उल्लसे ए ॥ आदि० ॥ ९ ॥
राम रघुवंशी तेहनी कामिनी, जनकसुता सीता सती ए । जग सहु जाणे धोज करंता, अनल शीतल थयो शियलथी ए ॥ आदि० ॥ १० ॥
काचे तांतणे चालणी बांधी, कूवा थकी जल कलङ्क उतारवा सती सुभद्राएं, चम्पा - बार
हस्तिनागपुरे पाण्डुरायनो, कुन्ता पाण्डवमाता दशे दशार्हनी, व्हेन
सुर-नर- वन्दित शियल अखण्डित, शिवा शिवपद जेहने नामे निर्मल थईए, बलिहारी तस
नामनी
पतिव्रता
-गामिनी ए ।
नामनी ए । आदि०
काढियुं ए । उघाडियं ए ॥
आदि० ।। ११ ।।
६० ॥ १२ ॥
कामिनी ए ।
पद्मिनी ए ॥ आदि०
० ॥ १३ ॥
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६०१
-शीलवती नामे शीलव्रतधारिणो, त्रिविधे तेहने वंदीए ए। नाम जपन्ता पातक जाए, दरिसण दुरित निकंदीए ए॥
आदि० ॥ १४॥ निषधा नगरी नलह नरिंदनी, दमयन्ती तस गेहनी ए। सङ्कट पडतां शियल ज राख्यु, त्रिभुवन कीर्ति जेहनी ए॥
आदि० ॥ १५॥ अनङ्ग-अजिता जग-जन-पूजिता, पुष्पचूला ने प्रभावती ए। विश्व-विख्याता कामित-दाता, सोलमी सती पद्मावती ए।।
आदि० ॥ १६ ॥ वीरे भाखी शास्त्रे साखी, उदयरत्न भाखे मुद्दाए । वहाणुं वातां जे नर भणशे, ते लहेशे सुखसम्पदा ए॥
आदि० ॥ १७॥ (५) चिदानन्दजी कृत पद
( राग-हितशिक्षाका ) पूरव पुण्य-उदय करी चेतन ! नोका नरभव पाया रे । पूरव ए टेक । दीनानाथ दयाल दयानिधि, दुर्लभ अधिक बताया रे। दश दृष्टान्ते दोहिलो नरभव, उत्तराध्ययने गाया रे ॥ पूरव० ॥१॥ अवसर पाया विषय रस राचत, ते तो मूढ कहाया रे। काग उड़ावण काज विप्र जिम, डार मणि पछताया रे । पूरव० ॥२॥ नदी-घोल-पाषाण न्याय कर, अर्धवाट तो आया रे।। अर्ध सुगम आगल रह तिनकुं, जिनने कछु घटाया रे । पूरव० ॥३॥ चेतन चार गतिमें निश्चे, मोक्षद्वार ए काया रे। करत कामना सुरपण याको, जिनकुंअनर्गल माया रे । पूरव०॥४॥
प्र-३६
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६०२ रोहणगिरि जिम रत्नखाण तिम, गुण सहु यामें समाया रे । महिमा मुखसें वरणत जाकी, सुरपति मन शंकाया रे॥ पूरव०॥५॥ कल्पवृक्ष सम संयमकेरी, अतिशीतल जिहाँ छाया रे । चरण करण गुण-धरण महामुनि, मधुकर मन लोभाया रे।पूरव०॥६॥ या तन विण तिहु काल कहो किन, साचा सुख निपजाया रे । अवसर पाय न चूक चिदानंद, सद्गुरु यूं दरसाया रे ॥ पूरव० ॥७॥
श्रीआनन्दघनजी कृत पद
( राग-आशावरी ) आशा औरनकी क्या कीजे, ज्ञान-सुधारस पीजे । आशा० ॥ टेक ॥ भटके द्वार द्वार लोकनके, कूकर आशाधारी। आतम-अनुभव-रसके रसिया, उतरे न कबहु खुमारी आशा० ॥१॥ आशादासी करे जे जाये, ते जन जगके दासा। आशादासी करे जे नायक, लायक अनुभव-प्यासा ॥ आशा० ॥२॥ मनसा प्याला प्रेम-मसाला, ब्रह्म-अग्नि परजाली। तन भाठी अवटाई पोये कस, जागे अनुभव लाली ।। आशा० ॥३॥ अगम पियाला पियो मतवाला, चिन्हे अध्यातम वासा ॥ आनन्दघन चेतन व्हे खेले, देखे लोक तमासा ।। आशा० ॥४॥
( २८ ) आरतियाँ
जय ! जय ! आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवीको नंदा......"जय ! जय ! !।
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६०३ पहेली आरती पूजा कीजे, नरभव पामीने ल्हावो लीजे.."जय ! जय ! ! ॥ १ ॥ दूसरी आरती दोन-दयाला, धूलेवमण्डन प्रभु जग-उजियाला""जय ! जय !!। तीसरी आरती त्रिभुवन देवा, सुर-नर-इन्द्र करे तोरी सेवा जय ! जय ! ! ॥ २ ॥ चौथी आरती चउगति चरे, मनवांछित फल शिवसुख पूरे "जय ! जय !!। पंचमो आरती पुण्य-उपाया, सूलचन्द रिखव-गुण गाया 'जय ! जय !! ॥ ३ ॥
(२) अपसरा करती आरती जिन आगे, हां रे जिन आगे रे जिन आगे। हां रे ए तो अविचल सुखडां मागे, हां रे नाभिनन्दन पास""अ"॥ १ ॥ ता थेइ नाटक नाचती पाय ठमके, हां रे दोय चरणमां झांझर झमके । हां रे सोवन घुघरडी घमके, हां रे लेती फुदडो बाल"अ"॥ २ ॥ ताल मृदंग ने वांसली डफ वीणा, हां रे रूडा गावंती स्वर झीणा। हां रे मधुर सुरासुर नयणां, हां रे जोती मुखडं निहाल अ॥ ३ ॥ . धन्य मरुदेवा माताने पुत्र जाया,
हां रे तोरी कंचन वरणो काया ।
-
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६०४
हां रे में तो पूरब पुण्ये पाया, हां रे देख्यो तेरो देदार प्राणजीवन परमेश्वर प्रभु प्यारो, हां रे प्रभु सेवक हूं छं तारो । हां रे भवोभवनां दुखडां हां रे तुमे दीनदयाल
वारो,
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अ॥ ४ ॥
सेवक जाणी आपनो चित्त धरजो, हां रे मारी आपदा सघळी हरजो । हां रे मुनिमाणेक सुखियो करजो, हां रे जाणी पोतानो बाल''''अ''''।। ६ ।
( २९ )
मङ्गल - दीपक
( १ )
दीवो रे ! दीवो मंगलिक दीवो । आरती उतारण बहु चिरं जीवो; दीवो रे ! ॥ १॥ सोहामणुं घर पर्व - दीवाली | अम्बर खेले
अमराबाली, दीवो रे ! ॥ २ ॥
देपाल भणे एणे कुल अजुआली ।
भावे भगते विघ्न निवारी; दीवो रे ! ॥ ३ ॥
देपाल भणे इणे ए कलिकाले । आरती उतारी राजा कुमारपाले; दीवो रे ! ॥ ४ ॥ अम घर मंगलिक तुम घर मंगलिक । मंगलिक चतुर्विध संघने होजो, दीवो रे ! ॥ ५॥
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६०५
( २ )
चारो मंगल चार आज, चारो मंगल चार । देख्यो दरस सरस जिनजोको, शोभा सुन्दर सार || आज० ।। १ ।। छिनुछिनुछिनुं मनमोहन चरचो, घसी केसर घनसार । आज० ॥ २ ॥ विविध जाति के पुष्प मंगावो, मोगर लाल गुलाल | आज० ॥ ३ ॥ धूप उखेवो ने करो आरती, मुख बोलो जयकार । आज० ॥ ४ ॥ हर्ष धरी आदीश्वर पूजो, चौमुख प्रतिमा चार । आज० ।। ५ ।। हैये धरी भाव भावना भावो, जिम पामो भवपार । आज० ।। ६ ।। सेवक जिनजीको, आनंदघन उपकार | आज० ॥ ७ ॥ सकलचन्द
( ३० )
छूटे बोल मार्गानुसारीके ३५ बोल.
१ न्यायसम्पन्न - विभव - - न्याय से धन प्राप्त करना | स्वामि-द्रोह करके, मित्रद्रोह करके, विश्वास दिलाकर ठगनेसे, चोरी करके, धरोहर आदिमें बदलकर आदि निन्द्य काम करके धन प्राप्त नहीं करना ।
२ शिष्टाचार - प्रशंसा - उत्तम पुरुषोंके आचरणकी प्रशंसा करनी । ३ समान कुलाचारवाले किन्तु अन्य गोत्री के साथ विवाह - सम्बन्ध
करना ।
४ पाप-कार्य से डरना ।
५ प्रसिद्ध देशाचार के अनुसार वर्तन करना ।
६ किसीका अवर्णवाद बोलना नहीं किसीकी निन्दा नहीं करनी ।
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६०६
७ जिस घर में प्रवेश और निर्गमन निकलने के मार्ग अनेक न हों
तथा जो घर अति गुप्त और अति प्रकट न हो और पड़ोसी अच्छे न हों ऐसे घर में नहीं रहना ।
-
८ अच्छे आचरणवाले पुरुषोंकी संगति करनी ।
९ माता तथा पिताकी सेवा करनी-उनका सर्व प्रकारसे विनय करना और उनको प्रसन्न रखना ।
१० उपद्रववाले स्थानका त्याग करना - लड़ाई दुष्काल आदि आपत्तिजनक स्थान छोड़ देना ।
११ निन्दित कार्य में प्रवृत्त नहीं होना - निन्दाके योग्य कार्य नहीं करने ।
१२ आवक के अनुसार खर्च रखना । आमदानी के अनुसार खर्च
करना ।
१३ धनके अनुसार वेश रखना । आमदानी के अनुसार वेशभूषा रखनी ।
१४ आठ प्रकार बुद्धिके गुणों का सेवन करना । गुणों के नाम:
१ शास्त्र सुनने की इच्छा । २ शास्त्र सुनना । ३ उनका अर्थ समझना । ४ उनको याद रखना । ५ उनमें तर्क करना । ६ उनमें विशेष तर्क करना । ७ सन्देह नहीं रखना । ८ यह वस्तु ऐसी ही है, ऐसा निश्चय करना ।
१५ नित्य धर्मको सुनना । ( जिससे बुद्धि निर्मल रहे । ) १६ पहले किया हुआ भोजन पच जाय, तब नया भोजन करना । १७ जब सच्ची ( वास्तविक ) भूख लगे तब खाना, किन्तु एकबार खा लेनेके बाद शीघ्र ही मिठाई आदि आयी हुई देख कर लालच से खानी नहीं, क्यों कि अजीर्ण हो जाता है ।
उन आठ
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.६०७ १८ धर्म, अर्थ और काम इन तीनों वर्गों को साधना। १९ अतिथि और गरीब आदिको अन्नपानादि देना। २० निरन्तर अभिनिवेश रहित रहना। किसीको पराभव करने
की इच्छा करके अनीतिके कार्यका आरम्भ नहीं करना । २१ गुणी पुरुषोंका पक्षपात करना-उनका बहुमान करना। २२ निषिद्ध देश कालका त्याग करना। राजा तथा लोकद्वारा
निषेध किये हुए देश कालमें जाना नहीं। २३ अपनी शक्तिके अनुसार कार्यका आरम्भ करना । २४ पोषण करने योग्य जैसे कि माता-पिता-स्त्री-पुत्रादिका
भरण-पोषण करना। २५ व्रतसे युक्त और ज्ञानमें बड़े ऐसे पुरुषोंका पूजन करना-सन्मान
करना। २६ दीर्घदर्शी बनना-कोई भी कार्य करने से पूर्व दीर्घदृष्टि डालना, . उसके शुभाशुभ परिणामका विचार करना। २७ विशेषज्ञ होना। प्रत्येक वस्तुको वास्तविकता समझकर अपने
आत्माके गुणदोषोंकी खोज करना। २८ कृतज्ञ होना-किये हुए उपकार और अपकारका समझनेवाला - होना। २९ लोकप्रिय बनना-विनयादि गुणोंसे लोकप्रिय बनना। ३० लज्जालु होना-लाज और मर्यादामें रहना। ३१ दयालु बनना-दयाभाव रखना । ३२ सुन्दर आकृतिवान् बनना-कर आकृतिका त्याग करके सुन्दर
आकृति रखनी।
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६०८ ३३ परोपकारी बनना-दूसरोंका उपकार करना। ३४ अन्तरङ्गारिजित् बनना-काम, क्रोध, लोभ, मान, मद तथा
ईर्षा इन छः अन्तरङ्ग शत्रुओंको जीतना। ३५ वशीकृतेन्द्रियग्राम होना-इन्द्रिय समह को वश करना-सर्व इन्द्रियोंको वश करनेका अभ्यास करना।
__ श्रावकके २१ गुण १ अक्षुद्र, २ रूपवान, ३ शान्त प्रकृतिवान्, ४ लोकप्रिय, ५ अक्रूर, ६ पापभीरु, ७ अशठ, ८ दाक्षिण्यवान्, ९ लज्जालु, १० दयालु, ११ मध्यस्थ-सौम्यदृष्टि, १२ गुणरागी, १३ सत्कथाख्य, १४ सुपक्षयुक्त, १५ दीर्घदर्शी, १६ विशेषज्ञ, १७ वृद्धानुगामी, १८ विनयी, १९ कृतज्ञ, २० परहितार्थकारी, २१ लब्धक्षय ।
भावश्रावकके ६ लिङ्ग १ व्रत और कर्म करनेवाला हो, २ शीलवान् हो, ३ गुणवान् हो, ४ ऋजु व्यवहारवाला हो, ५ गुरु-शुश्रूषावाला हो और ६ प्रवचन कुशल हो।
भावश्रावकके १७ लक्षण नीचे लिखी नौ वस्तुओंका सच्चा स्वरूप समझ कर उसके अनर्थसे दूर रहे :
(१) स्त्री, (२) इन्द्रियाँ, (३) अर्थ (पैसा), (४) संसार, (५) विषय, (६) तीव्र आरंभ, (७) घर, (८) दर्शन, (९) गड्डलिका प्रवाह ( देखादेखी )।
(१०) आगम पुरस्सर प्रवृत्ति करे।
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६०९ (११) यथाशक्ति दानादि प्रवृत्ति करे। (१२) विधिका जानकार बने । (१३) अरक्तद्विष्ट-राग-द्वेष न करे । (१४) मध्यस्थ-कदाग्रह-हठ न रखे । (१५) असम्बद्ध-धन, स्वजन आदिमें भावप्रतिबन्ध-रहित रहे।
(१६) परार्थकामोपभोगी-दूसरेके आग्रहसे शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शका उपभोग करे। (१७) निरासक्त भावसे गृहवास पालनेवाला बने ।
( ३१ ) श्रावकके प्रतिदिन धारने योग्य
१४ नियम "सचित्त-दव्व-विगई-वाणह-तंबोल-वत्थ-कुसुमेसु । वाहण-सयण-विलेवण-बंभ-दिसि-ण्हाण-भत्तेसु ॥"
१ सचित्त-नियम-श्रावक को मुख्य वृत्तिसे सचित्तका त्यागी होना चाहिये, तथापि वैसा न बन सके तो वहाँ सचित्तका परिणाम निश्चित करना कि इतने संचित्त द्रव्यों से अधिक मुझे त्याग है। अचित्त वस्तु वापरनेसे चार प्रकारके लाभ होते हैं--(१) सर्व सचित्तका त्याग होता है, (२) रसनेन्द्रिय वशमें हो जाती हैं, (३) कामचेष्टाकी शान्ति होती है और (४) जीवोंकी हिंसासे बच सकते हैं।
२ द्रव्य-नियम-(दव्व)-आजके दिन मैं इतने 'द्रव्योंसे' अधिक उपयोगमें न लूँगा, ऐसा नियम लेनेको 'द्रव्य नियम' कहते हैं। यहाँ 'द्रव्य' शब्दसे परिणामके अन्तरवाली वस्तु ग्रहण
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करनी चाहिये । जैसे कि-खीचड़ी, लड्डू, बड़े और पापड़ । किन्हींके मतसे नामान्तर, स्वादान्तर, रूपान्तर और परिणामान्तर द्वारा द्रव्यकी भिन्नता निश्चित होती है।
३ विकृति-नियम-विकृतियाँ दस हैं:-( १ ) मधु, (२) मांस, (३) मक्खन, (४) मदिरा, (५) दूध, (६) दही, (७) घृत, (८) तेल, (९) गुड़, और (१०) बड़े (तली हुई वस्तुएँ)। इनमेंसे प्रथम चारका सम्पूर्ण त्याग और अन्यका शक्तिशः त्याग करना विकृति-नियम है। विकृति त्यागके साथ उन प्रत्येकका नीवियाता..." का भी त्याग होता है। और वैसा करनेकी इच्छा नहीं हो तो नियम लेते समय ही धार लिया जाता है कि 'मुझे विकृतिका त्याग है पर उसमें नीवियाताको यतना है।
४ उपानह-नियम-आजके दिन इतने जूतोंसे अधिक जूते नहीं पहनूं, ऐसा जो नियम वह 'उपानह-नियम'। इसमें उपानह शब्दसे चप्पल, बूंट, पावडो, मोजे आदि सब साधन समझने चाहिये।
५ तंबोल-नियम-चार प्रकारके आहारमेंसे स्वादिम आहार-अर्थात् तंबोल । उसमें पान, सुपारी, तज, लवङ्ग, इलायची आदिका समावेश होता है । इसका दिवस-सम्बन्धीपरिमाण करना वह 'तंबोल-नियम'।
६ वस्त्र-नियम-पहननेके तथा ओढ़नेके वस्त्रोंका दिवससम्बन्धी परिमाण निश्चित करना वह-'वस्त्र-नियम' ।
७ पुष्पभोग-नियम-मस्तकपर रखने योग्य, गले में पहननेके योग्य, हाथमें लेकर सूंघने योग्य आदि फूलों तथा उनसे निर्मित वस्तु जैसे कि-फूलको शय्या, फूलके तकिये, फूलके पंखे,
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फूलकी जाली, फूलके गजरे, फूलको कलगी, फूलके हार-तुरे, तेल, इत्र आदिका परिमाण निश्चित करना वह 'पुष्पभोग-नियम'।
८ वाहन-नियम- रथ, हाथी, घोड़ा, ऊँट, खच्चर, पालकी गाड़ा-गाड़ी, टमटम-तांगा, सायकल, मोटर, रेल्वे, आगबोट, ट्राम, बस, विमान आदि एक दिनमें इतने से अधिक नहीं वापरना, निश्चय करना वह 'वाहन-नियम' ।
९ शयन-नियम-खाट, खटिया, कुर्सी, कोच, गादी, तकिया, गदला, गोदड़ा, तथा पाट प्रमुखका दिवस-सम्बन्धी नियम करना, वह 'शयन-नियम' ।
१० विलेपन-नियम-विलेपन तथा उबटनके योग्य द्रव्यजैसे कि चन्दन, केशर, कस्तूरी, अबीर, अरगजा तथा पीठी आदि द्रव्योंके परिमाणका दिवस-सम्बन्धी नियम करना, वह 'विलेपननियम'।
११ ब्रह्मचर्य-नियम-दिनमें अब्रह्मका सेवन नहीं करना। वह श्रावकके लिये वर्ण्य है। तथा रात्रिकी यतना करनी आवश्यक है, उसके परिमाणका नियम करना, वह 'ब्रह्मचर्य-नियम' ।
१२ दिग-नियम-भावना और प्रयोजनके अनुसार दसों दिशाओंमें जाने-आनेका परिमाण वह 'दिग्-नियम' ।
१३ स्नान-नियम-दिनमें इतनी बारसे अधिक नहीं नहाना तत्सम्बधी नियम-'स्नान-नियम' । यहाँ श्रीजिनेश्वरादिकी भक्ति आदिके निमित्तसे स्नान करना पड़े तो उसमें नियमका बाध नहीं होता।
१४ भक्त-नियम-दिवस-सम्बन्धी आहारका परिमाण निश्चित
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करना वह भक्त-नियम । इस व्रतका पालन स्व-अपेक्षासे करना चाहिये। कुटुम्ब या ज्ञाति आदिके निमित्तसे घरपर आहारादि बनाने पड़े तो, उसकी इसमें छूट है। __ तदुपरान्त निम्नलिखित नियम भी अधिक धारण किये जाते हैं :
१ पृथ्वीकाय-मिट्टी कितनी वापरनी। .
२ अपकाय-पीने, नहाने, धोने आदिमें कुछ कितना पानी वापरना।
३ तेउकाय-चूला, दीपक, भट्ठी, सिगड़ी आदि कितने उपयोगमें लेना।
४ वायुकाय-पंखे आदिका कितना उपयोग करना।
५ वनस्पतिकाय-वनस्पतिकी कितनी वस्तुओंका उपयोग करना।
१ असि-तलवार, छुरी, चाकू आदि कितने हथियार वापरने ।
२ मषी-दावात, कलम, कूची, होल्डर, बरू, पेन्सिल आदि कितने वापरने ।
३ कृषि-हल, हँसिया, आदि खेती के औजार कितने वापरने।
इन प्रत्येक वस्तुका प्रात: नियम धारण किया हो, उसका सायङ्कालको विचार करना। उनमेंसे यदि नियमके अतिरिक्त उपयोग हुआ हो तो गुरु महाराजके पास आलोचना कर आज्ञानुसार प्रायश्चित्त करना । नियमानुसार उपयोग हुआ हो, तो वह विचार लेना और थोड़ी वस्तु वपरायो हो, तो शेष नहीं वपरायी हुई
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साक्षात् उपयोगसे लगनेवाले कर्मदोषसे बच गयो है, अतः उतना लाभ हुआ मानना । इस प्रकार नियम विचारनेको 'नियम संक्षेप किये' कहते हैं ।
( ३२ ) सत्रह प्रमार्जना
खमासमण तथा वन्दन करते समय सत्रह स्थानकी प्रमार्जना करनी आवश्यक है । वह इस प्रकार : - दाहिने पैर से कमर के नीचे - के पाँव - पर्यन्त पोछेका सारा भाग, पीछेका कमर के नीचेका मध्यभाग, दाँये पाँवके नीचेका पिछले पाँवतकका पर्व भाग इन तीनोंका चरवलेसे प्रमार्जन करना । उसी प्रकार दाँया पाँव, मध्यभाग और बाँया पाँव इन तीनों के आगेके भागका भी पाँवतक प्रमार्जन करना, इस तरह छ: । नीचे बैठते समय तीन बार भूमि पूँजनी, ऐसे नौ । फिर दाहिने हाथमें मुहपत्ती लेकर उससे ललाटकी दाँयी ओरसे प्रमार्जन करते हुए सारा ललाट, सारा बाँया हाथ, और नीचे कोनी तक, इसके पश्चात् इसी प्रकार बाँये हाथमें मुहपत्ती लेकर बाँयी ओरसे पूँजते हुए सारा ललाट, सारा दाहिना हाथ और नीचे कोनो तक, वहाँसे चरवलेको डण्डीको मुहपत्ती से पूँजना । ऐसे ग्यारह फिर तीनबार चरवलेके गुच्छपर पूँजना और उठते समय तीनबार अवग्रहसे बाहर निकलते समय कटासणपर पूँजना, ऐसे सत्रह प्रमाजैन कहे गये हैं ।
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शुद्धिपत्रक
पृष्ठ १४ ,, २० २२ २७
पंक्ति
४ ११
७ १२ १०
अशुद्ध इच्छाकार इच्छाकार कम्माण अरिहंताण कित्तिइस्स कमको वाचक जयतु विहुं जगननाह करो ऐरावत ऐरावत सारहीण मुत्ताण सिद्ध सिद्धगति रहते हुए रहते हुए रहते हओंका ऐरावत ऐरावत
शुद्ध इच्छकार इच्छकार कम्माणं अरिहंताणं कित्तइस्सं कर्मको वाचिक जयंतु बिहुँ जगहनाह करोड़ ऐरवत ऐरवत सारहोणं मुत्ताणं सिद्धि सिद्धिगति रहता हुआ रहता हुआ मैं रहे हुओंको ऐरवत
४६
AVM 9102.
2m 27m
१२
५९
५
ऐरवत
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.. पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध ६३ ६ विही
वि-भी , ७ संथुआ
संथुओ , १७ तुह-आपका
तुह-आपके
भी अपनी बोधि-अपना सम्यक्त्व बोधि-सम्यक्त्व निरवसग्ग
निरुवसग्ग १०५ १२ सभिंतरे
सभिंतर तं किंचि
जं किंचि कारण हुई।
कारण हुई।
आसायणारु-आशातनासे ११५ १५ खामेसि
खामेमि ११६ २३ तेजकाय
तेउकाय ११७ १ वायुकाय
वाउकाय , १९ लेनेके
देनेके ११९ २१ लेनेके
देनेके १२० १८ तहे
तह अम्यन्तर
अभ्यन्तर १२२ ६ कारणे
करणे ० मिदिएहि
• मिदिएहिं १२५ १७ सामयिक
सामायिक आयरिय
आयरियं १३२ १५ अणुव्वये
अणुव्वए अणुव्वेय
अणुव्वए १४३ २२ सच्चित्त
सच्चित्ते , २३ चउत्थ
चउत्थे
३
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पृष्ठ पंक्ति १४६ १८
१४७ . १ १४८ १८ १४८ २० १५० १३ १५२ १३ १५४ २
शुद्ध काइअस्स माणसिअस्स काइअस्स माणसिअस्स सम्मट्ठिी जइ वि मूलके संभरिआ
जितने
१५७ १५८
१८ १ ५
अशुद्ध काइअस्सा माणसिअस्सा काइअस्सा माणसिअस्सा समद्दिट्ठी जइ वि हु मूलमें सभरिआ जिनके ऐरावत बोलंतु तनह दुगंछिउं सम्म त्रस्त अदृष्टवस्तु बहोरनेका राइ रखना चित्ता श्रीवर्धमानके लिये अपूर्वचन्द्रकी कनिष्ठ उपासकोंका कनिष्ठ उपासकोंका च कुरु फटा पापसे
ऐरवत वोलंतु तरह दुगंछिउं त्रस अदत्तवस्तु बहोरानेका राइअं
,
१८
रखा
१६९ २ १७२ ५ १७३ १६ १७९ १७ १८३ ९
चित्तो श्रीवर्धमानको अपूर्वचन्द्रको उपासक प्राणियोंका उपासक प्राणियोंका कुरु
. १९७
२
१९९ २ २०१७
पाससे
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पृष्ठ पंक्ति २०१ १२ २११ ७ २१२ १४
अशुद्ध करता है। दितु सुह मनककुमार
२१५ २३३
८ ४
शुद्ध करे। दितु सुहं मनककुमार, कालिकसूरि, शाम्बकुमार, प्रद्युम्नकुमार बुद्धि हो' संमतिसे को थी यह भी बताया। तवो भासा परोवयारो प्रकारके
W
२४२ ,
वृद्धि हो' आज्ञासे की थी तओ भाषा परोवयरो प्रचारके बत्तीश नमूं तीजे सौ बहोत्तर एकसौ
७ ११
बत्रीस
नमुं
बीजे
१४
बहोंतेर
एकसो
सो
सातसे सवि एकसो साठ
सातस सब एकसो आठ बत्तीस त्रणसै साठ
" २४७ __,
२४८
बत्रीसें
२० १ २ २
त्रणसे आठ
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६१८
पृष्ठ पंक्ति २४९ १४
भशुद्ध अन्तरिक्षपार्श्वनाथ
२५०
३ करानेवाले हैं,
१८
शुद्ध अन्तरिक्षपार्श्वनाथ वरकाणा पार्श्वनाथ करानेवाले हैं, तथा जो बाह्य एवं अभ्यतंर तप में उद्यत हैं, विहरमाण भंते करेमि श्रमण महामुणोणं सागारी दूसरेके मूल जिण-पन्नत्तं पच्चक्खाण । उक्खित्तविवेगेणं ससित्थेण अनाभोग प्रत्ययाकार पारिष्ठापनिकाकार महत्तराकार जिस प्रत्याख्यान में
गणैस्तेषां विस्मयाहृत देनेवाली
२८८
विरहमाण
१८ मंते २५१
करोमि २५६ ३ श्रवण २५७ १८. महामुणिणं २६०
सागरी २६४
दूसरेको २६६ १२ मल २६७ ११ जिन-पन्नत्तं २७४३ डॅपच्चक्खाण।
२३ अक्खित्तविवेगेणं २८० १९
ससित्वेण २३ अनभोग २८२ १४ प्रत्याकार
पारिष्टापनिकार
महत्ताकार २८९ १६ प्रत्याख्यानमै २९२ ४ गणस्तेषां
२२ निस्मयाहृत २९९ ५ देनेवाला
m
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पृष्ठ
३०१ १२
३०३ ५
३०४ २
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"1
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पंक्ति
21
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S
2 m ov
31
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३६५
३८५
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३८७ ५
Ww
३९४ १९
३९६ १४
३९७ ९
३९८ १९
४७९ ४
११
11
४७९ १.६
१९
अशुद्ध
साधुको
धमापदेश
तनोत्वमितानि
वाक्-ज्योत्स्ना
महामोद
धतं
सोम,
तिअस- वह
स्तुति
वंदिय
परओ
दियस्सा
पिंड आह
जिटा
सुलक्षणा
नंदि
श्रीसघ
श्री पार्श्वनाथाय
'हीँ नमः '
गरुढो
६१९
दूरिआरि
जिणचन्दो
मंदरे
जिन-जुअलं
मम व
पडइ
शुद्ध
साधुकी
धर्मोपदेश
तनोत्वाभिमतानि
वाग - ज्योत्स्ना
महामोह
धंत
सोमं,
तिअस- वइ
स्तुत
वंदियं
पचओ
वंदिया
पिडियआहि
जिट्ठा
सुलंछणा
सुहनंदि
श्रीसंघ
श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा
'साँ ह्रीँ नमः '
गरूडो
दुरिआरि
जिणचंदो
मंदर
जिण-जुअलं
मम य
पढइ
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६२०
पृष्ठ ४१२ ४१४
पंक्ति
५ १
४१७
१
ms ..."
४१८ २० ४१९ ४ , ११
अशुद्ध कदाचिदपयासि विवृद्धशोभ, पर्यल्लसन्नख प्रभूज्जनेंद्र त्वामुद्वहति वरमात्म चेतनोऽपि तनुध्रुव निपस्य भृद्भय-द्वक्त्र भुवताधिप द्विधुतान्य त्वद्विब पंचहि अट्ठाविहो मन्या वुद्धि कीधा क्रोधी ओळवो
शुद्ध कदाचिदुपयासि विवृद्धशोभं, पर्युल्लसन्नख °रभूज्जिनेंद्र त्वामुद्वहन्ति परमात्म सचेतनोऽपि तनुर्बुव नीपस्य भृद्भयदवक्त्र भुवनाधिप 'द्विधूतान्य त्वदिब पंचहिं अट्टविहो मान्या बुद्धि
४२०
२
४२१ ४२५
७ २
४२५
४२७ ३ ४२८ १५
कीधो
४२९
९
चोदश
__, २०
, २० ४३४ १०
कीधी ओळवी चौदश पर्वतिथिना नियम बाहेरथी
४३५ १९
पर्वतिथिना वाहेरथी गुणवत कामभागा भाग्यं
गुणवंत कामभोगा
,
२२
भाग्यु
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पृष्ठ
४४५
४५०
४५१
४५३
34
४५४ १२
१६
11
४५५ ६
४६०
१६
४७०
११
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पंक्ति
१४
१८
१५
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४७२
४७३ २
२०
"}
४७६ २०
४८२ १
४८८ १३
१७
"
21
४९०
८
४९४ १४
४९५
२
३
??
४९६ १६
४९८
२
४९८
13
४
अशुद्ध
माह
दिवस से
तातले
आजानते
कुड
वितिगिच्छा:
दुक्कड
आडी-कम्मे
करने
अध्यवसाओकी
दोनोंको
पक कर
कुर
बतयाया
नवोऽर्हत्
दुःस्वप्न
कुसुममिण
राइयो
भगवान्
खामेडं
६२१
क्षुद्रापद्रव
सगर
शुद्ध
मोह
दिवस में
तोतले
अजानते
कुंड
वितिगिच्छा:--
दुक्कडं
भाडी कम्मे
करनेकी
अध्यवसायोंकी
दोनों को
पकडकर
कुगुरु
बतलाया
नमोऽर्हत्
दुःस्वप्न के
कुसुमिण
राइओ
भगवन्
खामेउं
एक (अंतो) पक्खस्स मिल मिल
पारसे
पारने
पढनी
पढानी
पढनी
पढानी
क्षुद्रोपद्रव
सागर
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________________
पृष्ठ ४९९
पंक्ति १
अशुद्ध दहिना चडविहार पडिलेहादेमि
स्त्रबके
rand' « and not
५०७ ९ ५०९ ४ ५२० २० ५२१ ६ ५२५ ३ ५२८ २१ ५३४ ११ ५४३ ९ ५४५ २२
हास-सुत्त परठनकर उपाधि-महपत्ती परिवर्तना दो पड़ी वीतराय
शुद्ध दाहिना चउविहार पडिलेहावेमि सबके हाण-सुत्त परठवकर उपधिमुहपत्ती परावर्तना दो घड़ी वोयराय झुकाते श्रीवर्धमानस्वामीकी बारह राज पूजो
m
झुकाये
,
१६
श्रीवर्धनानस्वामीको बाहर राम पूछो एले सुन (न) खोली साधना मोले
.
एळे
५४८
५४९ ५५०
Ko . . . . xnn
निज निज
५५१ ९ ५५१ १० ५५२ २
सुम खीली साधतां सोले जन जिन खाण मलिया जाणो । कोडी
खाय ललिया जणो कोडो :
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पृष्ठ ५६०
पंक्ति ७
अशुद्ध वाखण समाणो मरुदेवीनां
शुद्ध वखाण समाणी मरुदेवीना अन्धो अन्ध ठाय
५६१. १८
५६३
अन्ध
ढाय
दूरे
vr r 222
,
५६८ १० " १४
धीग प्रतिषे अमियमरी नचीरे मेवना जूठा तेव रे वृत्त सन्ति महाराजने सुगुबु उरवाणो दाधां धरियो छु ग्रहियो छु डरीयो छु विवेक सघपति वचण नेमजी
धींग प्रतिषेध अमियभरी रचीरे सेवना जूठो सेव रे वृत्ति शान्ति महाजने सुगुरु उखाणो दीधां धरियो छे ग्रहियो छे डरियो छे विवेके संघपति वयण
,
१९
५७०
५७२ १२ ५७३ ११
५७३ १२ ५८० २४ ५८७, ५ ५९२ १४ . , १५
जेमजी
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≈ 19 4943
पृष्ठ
४९
11
५०
37
५० ५०
५०
५२
५२
५२
५.
५)
ގ
5 g g
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५९६ .
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४
८
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अशुद्ध
थको
बमू
जाण
सुन्दर
शतनिक
मुद्दाए
चिन्हे.
परिणाम
संचित्त
हैं,
६२४
शुद्ध
थको
बूम
जाणो
सुन्दरी
शतानिक
मुदाए
चीन्हे
परिमाण
सचित्त
है,
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