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________________ ३४० घोड़े, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ और छियानबे करोड़ गाँवों के अधिपति बने थे, तथा जो मूर्तिमान् उपशम जैसे, शान्ति • करनेवाले, सर्वभयोंसे अच्छी तरह तिरे हुए और रागादि शत्रुओंको जीतनेवाले थे, उन श्रीशान्तिनाथ भगवान्की मैं शान्तिके निमित्त स्तुति करता हूँ ।। ११-१२ ।। मूल ( मुक्तकद्वारा श्री अजितनाथ की स्तुति ) इक्खाग ! विदेह ! नरीसर ! नर-वसहा ! मुणि-वसहा !, नव - सारय-ससि - सकलाणण ! विगय-तमा ! विहुय - रया । अजि ! उत्तम - तेअ ! [गुणेहिं] महामुणि ! अमिय बला ! विउल-कुला !, पणमामि ते भव-भय-मूरण ! जग-सरणा ! मम सरणं ॥ १३ ॥ - चित्तलेहा ॥ शब्दार्थ इक्खाग ! - हे इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न होनेवाले ! विदेह ! - हे विशिष्ट देहवाले । नरीसर ! - हे नरेश्वर ! नर-वसहा- हे नर-श्रेष्ठ ! वसह श्रेष्ठ | मुणि-वसहा ! हे मुनि श्रेष्ठ ! Jain Education International ससि - सकलाणण ! - हे शरदऋतु के नवीन चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले । सारय- शरद् ऋतुका । ससि चन्द्र । सकल - पूर्ण, कलापूर्ण | आणण-मुख | विगय-तमा ! - हे अज्ञान - रहित ! नव-सारय - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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