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________________ ५६० जिनवर चैत्य जुहारीए, गुरुभक्ति विशाल । प्रायः अष्ट भवान्तरे, वरीए शिव-वरमाल ।। ४ ।। दर्पणथी निज रूपनो, जुए सुदृष्टि रूप । दर्पण अनुभव अर्पणो, ज्ञानरयण मुनि भूप ।। ५ ।। आत्मस्वरूप विलोकतां, प्रगटयो मित्र-स्वभाव । राय उदाई खामणां, पर्व पर्युषण दाव ॥ ६ ॥ नव वाखण पूजी सुणो, शुक्ल चतुर्थी सीमा। पञ्चमी दिन वांचे सुणे, होय विराधक नियमा ।। ७।। ए नहि पर्व पञ्चमी, सर्व समाणो चोथे ।। भवभीरु मुनि मानशे, भाख्युं अरिहा नाथे ॥ ८ ॥ श्रुतकेवली वयणां सुणीए, लही मानव अवतार । श्रीशुभवीरने शासने, सफल करो अवतार ।। ९ ।। [२४] (१) स्तवन श्रीआदिजिनका स्तवन प्रथम जिनेश्वर प्रणमीए, जास सुगन्धी रे ! काय । कल्पवृक्ष परे तास इन्द्राणी-नयन जे भृङ्ग परे लपटाय ।। प्रथम जिनेश्वर० ॥१॥ रोग-उरग तुज नवि नडे, अमृत जेह आस्वाद । तेहथी प्रतिहत तेहमांगें, कोई नवि करे, जममां तुम शुं रे वाद ।। प्रथम जिनेश्वर० ॥ २॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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