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________________ ५६१ वगर धोई तुज निर्मली, काय। कञ्चन-वान । नहीं प्रस्वेद लगार, तारे तुं तेहने, जेह धरे ताहरु ध्यान ॥ प्रथम जिनेश्वर० ॥ ३ ॥ राग गयो तुज मन थकी, तेहमां चित्र न कोय । रुधिर आमिषथी राग गयो तुज जन्मथी, दूध-सहोदर होय ।। प्रथम जिनेश्वर० ॥४॥ श्वासोच्छ्वास कमल समो, तुज लोकोत्तर वात । देखे न आहार-निहार चरम-चक्षु-धणी, एहवा तुज अवदात ॥ प्रथम जिनेश्वर० ॥ ५॥ चार अतिशय मूलथी ओगणीश देवना कीध ! कर्म खप्याथी अग्यार चोत्रीश एम अतिशया, समवायांगे प्रसिद्ध । प्रथम जिनेश्वर० ॥६॥ जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अङ्ग। पद्मविजय कहे एह समय प्रभु पालजो, जेम थाऊं अक्षय अभङ्ग । प्रथम जिनेश्वर० ॥७॥ (२) श्रीआदिजिनका स्तवन माता मरुदेवीनां नन्द ! देखो ताहरी मूरति मारुं मन लोभापुंजी के मारुं चित्त-चोराणुं जी। करुणानां घर करुणा-सागर, काया-कञ्चन-वान । धोरी-लंछन पाउले कांई, धनुष पाँचसे मान....माता० ॥१॥ त्रिगडे बेसी धर्म कहता, सूणे पर्षदा बार । योजनगामिनी वाणी मीठी, वरसन्ती जलधार...माता० ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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